बाली का बेटा (2) राज बोहरे द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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बाली का बेटा (2)

2 बाल उपन्यास

बाली का बेटा

राजनारायण बोहरे

लक्ष्मण ने आँखें मूँदी और अपने निचले होंठ को ऊपर के दांत से दबाने लगे। अंगद ने महसूस किया कि वे अपना गुस्सा रोकने का प्रयत्न कर रहे हैं।

आगे-आगे अंगद बीच में लक्ष्मण और पीछे महारानी तारा ने महल में प्रवेश किया तो मुख्य द्वार के पास ही महाराज सुग्रीव रोनी सी सूरत बनाये खड़े हुए मिले । वे लक्ष्मण के पैरों में झुक गये। लक्ष्मण उन्हे एक तरफ सरका कर आगे बढ़ गये। आगे जामवंत खड़े थे, फिर हनुमान थे। उनसे आगे दूसरे मंत्री गण खड़े थे। लक्ष्मण ने उन सबका प्रणाम स्वीकारा।

महल के मुख्य कक्ष में लक्ष्मण को ले जाकर अंगद ने सामने रखे सिंहासन पर बैठने का इशारा किया । लक्ष्मण सकुचाते हुए बैठे तो जामवंत ने अपनी खरखराती आवाज में कहा ‘‘ हम सब मंत्री लोग आज इसीलिए यहां इकट्ठे हुऐ हैं लक्ष्मणजी कि हमारे राज्य की तरफ से पहले से जहां- जहां जासूस बैठे हैं उन्हें इस बात की खबर की जाय कि वे अपने-अपने राज्य में सीता माता का पता लगा कर तुरंत हमें बतायें।

लक्ष्मण चुप रहे तो हनुमान की हिम्मत बढ़ी, वे बोले , ‘‘ महाराज सुग्रीव को तो आप जानते हैं लक्ष्मण जी। इनका तो एक तरह से बचपना अभी गया नहीं। हमेशा से बड़े भाई बाली के पीछे घूमते रहे, उनके हुकुम से सब काम करते रहे। अब राजा बन भी गये हैं तो धीरे-धीरे सारे काम सीख पायेंगे। इसलिए आप इन पर दया करें, बेचारे तभी से डर के मारे कांप रहे हैं जब से आपको गुस्से में भरे हुये पम्पापुर आने की खबर सुनी है।’’

अब लक्ष्मण की निगाहें सुग्रीव की ओर घूमी । उपयुक्त मौका जानकर सुग्रीव लक्ष्मण के चरणों के पास जा बैठे। अब लक्ष्मण की आँखों से प्रकट हो रहा गुस्सा कुछ कम हुआ । उन्हे शांत होता देख एक-एक करके सब बोलने लगे। सेवक लोग फल लेकर आये लेकिन लक्ष्मण ने कुछ भी स्वीकार नहीं किया। बस एक ही बात उन्होंने बार-बार दोहराई कि सुग्रीव को तुरंत ही श्रीराम के सामने जाकर अपनी सफाई देनी चाहिए कि पूरी बरसात बीत जाने के बाद भी भाभी सीता की खोज में कोई नया काम क्यों नहीं हो पाया।

लक्ष्मण ने कोई भी स्वागत-सत्कार स्वीकार नहीं किया। बल्कि उन्होंने तुरंत ही लौटने की बात कही । तो सारे लोग सुग्रीव को आगे करके प्रबरशन पर्वत पर रह रहे श्रीराम के पास पहुँचने के लिए पैदल ही चल पड़े। नगर के लोगों ने देखा कि तपस्वी लक्ष्मण के चेहरे पर अब वैसा गुस्सा नहीं है तो नगर के व्यापारी और दूसरे नागरिकों का डर कुछ कम हुआ। पम्पापुर नगर में दुबारा शांति दिखी और लोग निश्चिंत हो कर अपनी दुकानों पर बैठने लगे। बाजारों और गलियों की चहल-पहल सामान्य होने लगी।

पहाड़ों के राजा सुग्रीव के सखा जामवंत से रास्ते में अंगद ने पूछा कि यह लक्ष्मण कौन है और इनके बड़े भाई राम कौन है जिनके पास हम सब लोग भयभीत होकर चल रहे है तो जामवंत ने संक्षेप में बाली के बेटे अंगद को राम और लक्ष्मण का किस्सा सुनाया।

अयोध्या के महाराज दसरथ के तीन पत्नीयां थी- कौशल्या, कैकेयी एवं सुमित्रा। रानियों में कैकेयी सबकी प्यारी थीं और वे पूरे परिवार को बहुत प्यार भी करती थीं। उन्हे अपने बेटे भरत भी उतने ही लाड़ले थे जितने राम , लक्ष्मण और शत्रुहन। कौशल्या के बेटे थे राम, जो सबसे बड़े भाई थे। सुमित्रा के जुड़वां बेटों का नाम था लक्ष्मण और शत्रुहन। कैकेयी के बेटे भरत थे। मजेदार बात यह थी कि राम के साथ लक्ष्मण खेलते थे तो भरत के साथ शत्रुहन। भाइयों की दोनों जोड़ी देखने-भालने और बातचीत में बिलकुल एक सी लगतीं। एक दिन राजा दसरथ ने बड़े बेटे राम को अगले दिन राजतिलक का निर्णय कर तैयारी शुरू की।

सबको प्यार करने वालीं और सबकी प्यारी कैकेयी एकाएक बदल गई। अपनी नौकरानी मंथरा के सिखाने पर उन्ही रानी कैकेयी ने अपने पति से दो वरदान मांगे उन्होंने, और अनूठे वरदान मांगे रानी कैकेयी ने। भरत की मां कैकेयी ने राजकुमार श्रीराम जिनको कि अगले दिन सुबह राजतिलक होना था, उन्हे महाराज दसरथ से चौदह बरस के लिए अयोध्या नगर वं अवध साम्राज्य से बाहर जाकर जंगलों में जाकर रहने की आज्ञा दिलाई और अपने बेटा भरत को राजगददी पर बैठाने के लिए ऐसा राजनैतिक चक्र रच डाला कि परिवार का सारा माहौल ही खराब हो गया । राम पिता और माता के आज्ञाकारी बेटे थे वे चुपचाप जंगल में जाने की तैयारी करने लगे।

वन को जा रहे श्रीराम ने अपनी सौतेली माँ कैकेयी के भवन में बैठे निराश और परेशान होकर बैठे अपने पिता को सिर झुकाया और बाहर निकल पड़े थे। श्रीराम के पीछे उनकी पत्नी सीता और सैातेले छोटे भाई लक्ष्मण भी साथ साथ चले आ रहे थे।

श्रीराम ने दोनों से मना किया कि वनवास सिर्फ उन्हे मिला है इसलिए वे ही अकेले जंगल में जायेंगे। लेकिन बचपन से राम के साथ रहे लक्ष्मण भला कहां छोड़ने वाले थे । सो वे नहीं माने और सीता को राम के बिना दुनिया में कहीं भी कहां से अच्छा लगता, सो वे भी जिद करके उनके साथ जंगल के लिए चल पड़ीं। अयोध्या नगर की सीमा पर मंत्री सुमन्त एक रथ के साथ खड़े थे जिसमें बैठ कर राम को जंगल की ओर जाना था। पिता की आज्ञा सुन कर राम,लक्ष्मण और सीता रथ में बैठे और जंगल की ओर चल पड़े थे।

मंत्री सुमन्त खुद रथ चलाते हुए श्रीराम के पास आये और उन्हे रथ में बैठा कर अयोध्या से बाहर की ओर ले चले। वे चाहते थे कि चौदर बरस के बजाय केवल चौदह दिन तक जंगल में घूम कर राम वापस अयोध्या पहुंचें। लेकिन श्रीराम कहां मानने वाले थे? वे निशादराज के गाँव में पहुंच कर रथ से उतर गये और सुमंत जी से वापस जाने की प्रार्थना की।

ग्ंगा नदी के किनारे से सुमन्त को जबर्दस्ती विदा करके श्रीराम जंगल की ओर आगे बढ़े और चित्रकूट के पर्वत पर अपने लिए एक कुटी बना कर रहने लगे। यहीं चित्रकूट के पर्वत पर एक दिन श्रीराम के सबसे प्यारे भाई भरत रोते कलपते हुए आये और उन्होंने बताया कि आपके जंगल में आने के बाद पिता का स्वर्गवास हो गया और अब राम को ही वापस चलकर राज सिंहासन पर बैठना चाहिए। तो श्रीराम विचलित हो उठे। वे पिता की आज्ञा का पूरा पालन करना चाहते थे और पूरे चौदह साल जंगल में बिताना चाहते थे। उधर भरत किसी तरह वापस होने को तैयार न थे। दोनों एक दूसरे को राजसिंहासन पर बैठाना चाहते थे। अयोध्या जैसे बड़े खजाने वाले राज्य के सिंहासन पर दो भाइयों का इस तरह एक दूसरे को त्याग करना उनके गुरू बशिष्ठ को बहुत अच्छा लगा सो उन्होंने दोनों को बीच का एक रास्ता सुझाया- राम चौदह साल तक वन में रहें और भरत उतने दिनों तक राम का काम समझ कर राजकाज संभालें।

सबको यह बहुत अच्छा लगा । भरत अयोध्या को लौटे । श्रीराम ने चित्रकूट छोड़ा और घने जंगलों की ओर चल पड़े। आखिरकार वे पंचवटी पहुंचे। वहां उन्होने एक नयी कुटिया बनाई और आसपास के आदिवासियों के सुख दुख में उनके दोस्त बन कर रहने लगे।

यहाँ रहते हुए एक खास घटना घटी । लंका के राजा रावण की मनचली बहन शूर्पणखा को राम और लक्ष्मण भा गये । उसने एक रात पंचवटी आकर कुटिया के बाहर जाग रहे लक्ष्मण को अपने साथ ब्याह करने को मनाना शुरू किया तो शर्मीले लक्ष्मण पानी पानी हो उठे। उन्होंने बताया कि पहले से विवाहित हैं और उनकी पत्नी अयोध्या मे रहती है। शूर्पणखा नही मानी और लक्ष्मण को कई तरह से मनाती रही इसी प्रसंग से पूरी रात बीत गई और कुटिया के दरवाजे खोल कर सुबह जब सीता जागीं तो लक्ष्मण और शूर्पणखा को देख कर बहुत चकित रह गईं। श्रीराम ने जब लक्ष्मण से सारा प्रसंग पूछा तो लक्ष्मण ने उन्हें समझाया कि यह महिला रात भर से उन्हे परेशान कर रही है।

उधर शूर्पणखा ने राम को देखा तो वह उनके पीछे लग गई कि वे उसके साथ ब्याह कर लें। फिर शूर्पणखा को लगा कि सीता नाम की यह सुंदरी उसकी शादी में बाधा है तो शूर्पणखा ने सीता को ही मार देने का विचार कर सीता पर हमला कर दिया। लक्ष्मण ने गुस्से में आकर शूर्पणखा की नाक और कान काट दिये और उसे अपने आश्रम से बाहर खदेड़ दिया।

अपमानित और घायल शूर्पणखा जब लंका के राजा रावण की सैनिकचौकी पर पहुंची तो सेनानायक खर और दूषण ने अपने अनेक साथियों के साथ राम लक्ष्मण पर हमला बोल दिया।

राम और लक्ष्मण ने अपने तीखे बाण और मजबूत धनुषों दे निकले वाण के सहारे खर-दूषण को मार गिराया और यह देख कर शूर्पणखा सीधे लंका जा पहुंची।रावण ने उसे इस हालत में देखा तो वह आगबबूला हो उठा। उसने एक योजना बनाई और नकली सोने के हिरन को कुटिया के पास से दूर भागता देख उसे पकड़ने की सीता की जिद की वजह दे राम व लक्ष्मण को कुटिया से दूर भिजवा कर सीता को उठा कर लंका ले आया।

राम और लक्ष्मण लौटे तो सीता वहां नही थी। दुखी राम और लक्ष्मण सीता को ढूढ़ते हुए ऋष्यमूक पर्वत पर पहुंचे जहां रहने वाले सुग्रीव ने हनुमान के द्वारा उनकी सचाई जानी और उन्हे अपना मित्र बना लिया । जल्दी ही सीता को ढूढ़ लाने का आश्वासन देकर बदले में अपने दुश्मन भाई बाली को सबक सिखाने का वायदा लिया। राम ने सुग्रीव की समस्या दूर की और अपने काम की याद दिला ही नही पाये थे कि बरसात का मौसम आ गया। श्रीराम और लक्ष्मण को प्रबरसन नाम के पर्वत पर ठहरा कर सुग्रीव अपनी राजधानी पम्पापुर मे जाकर रहने लगे।

लेकिन बरसात बीत जाने के बाद भी सुग्रीव अपना वायदा भूल गये और फिर एक दिन गुस्सा हो कर लक्ष्मण पम्पापुर पहुंच गये।

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