चंपा पहाड़न - 8 - अंतिम भाग Pranava Bharti द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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चंपा पहाड़न - 8 - अंतिम भाग

चंपा पहाड़न

8.

चंपा अब लगभग पैंतालीस वर्ष की होने को आई थी, उसका यज्ञादि का नित्य कर्म वैसे ही चलता लेकिन गुड्डी के विवाह के पश्चात वह फिर से बंद कोठरी के एकाकीपन से जूझने लगी थी| हाँ ! माया का साथ हर प्रकार से उसके लिए बहुत महत्वपूर्ण था | उन दिनों फ़ोन आदि की अधिक सुविधा न होने के कारण चिट्ठियाँ लिखी जातीं |

माँ के ममतापूर्ण स्नेहमय शब्दों में चंपा माँ की लोरियों की गूँज सुनाई देती, चंपा हर चिट्ठी में उसे अपना प्यार-दुलार अवश्य प्रेषित करती |

गुड्डी के पति एक बड़े सरकारी संस्थान में कार्यरत थे |कुछ वर्षों के पश्चात उनका दिल्ली से बंबई तबादला हो गया और स्थानीय दूरियाँ और बढ़ गईं | उनको बंबई में निवास के साथ फोन, गाड़ी आदि की सुविधा भी प्राप्त होने लगी | माँ हर दूसरे–चौथे दिन पास के डाकघर में जाकर अपनी बेटी व नाती-नातिन से बात करतीं व अपने कॉलेज तथा शहर की दास्तान सुनातीं | माँ जी भी बहुधा उनके साथ ही होतीं और बेशक एक क्षण के लिए ही सही उन्हें अपने ‘बाबूजी’ की आवाज़ सुनने की लालसा अवश्य होती|

इस बार कई दिनों से अम्मा और उसकी माँ जी उसकी खबर लेने नहीं आईं, गुड्डी बेचैन हो उठी |उसने पति से कहलवाकर अम्मा को तार भिजवाया, स्वाभाविक था अम्मा गुड्डी व बच्चों के हालचाल पूछने डाकखाने गईं |उस दिन गुड्डी को चंपा की आवाज़ सुनाई न देने पर, उसकी अनुपस्थिति से वह बेचैन हो उठी | अम्मा से वार्तालाप में भी उसका कोई ज़िक्र न सुनने पर गुड्डी का असहज होना स्वाभाविक ही था |

“ अम्मा ! क्या बात है ---माँ जी ठीक तो हैं ---?” गुड्डी के मन में स्वाभाविक रूप से बेचैन उत्सुकता ने पैर फैला दिए थे | कुछ न कुछ तो ग़लत था, उसके मन में कंपकंपी सी होने लगी |

फोन पर अम्मा फूट फूटकर रो पड़ीं |गुड्डी परेशान हो उठी ;

“क्या हुआ अम्मा, कुछ तो बोलो, मेरा मन घबरा रहा है--”

फिर अम्मा ने जो बताया उससे गुड्डी के होश उड़ गए | वह अम्मा से बात करने की स्थिति में नहीं रह गई |अम्मा ने बताया कुछ दिनों पूर्व ही जब पूरे आस-पड़ौस में कोई नहीं था, चंपा के घर में कुछ लोगों ने घुसकर उसे ‘रेप’ कर लिया था |अपनी स्थिति से वह पगला गई थी और उसने अपने आपको कमरे में बंद कर लिया था |कई दिनों तक चंपा ने बिना खाए-पीए अपने आपको कमरे में कैद करके रखा था | बड़ी मुश्किल से दरवाज़ा तुडवाया गया, चंपा ने अपने हाथ को दंराती से काटकर लहूलुहान कर लिया था | उसने कई घाव अपने पूरे शरीर पर भी कर लिए थे |

अम्मा ने बड़ी मुश्किल से चंपा को कुछ खिलाया लेकिन उसके मस्तिष्क पर दुर्घटना ने हथौड़ों की चोट की थी | वह कुछ सोचने-समझने की स्थिति में ही नहीं थी |कई दिन यूँ ही निकल गए | माया उसे कुछ खाने के लिए देती तो वह कहती ;

“इसमें ज़हर मिलाया है न?तुम सब चाहते हो मैं मर जाऊं, मेरे बाबूजी को बुलाओ|”

उसकी हालत बहुत खराब हो गई थी | अम्मा ने डॉक्टर को घर पर ही बुला लिया था परन्तु वह सब पट्टियाँ खोलकर शेरनी की भांति डॉक्टर पर चिघाड़ने लगती| कई दिनों तक ऐसा ही चलता रहा, उसके शरीर से रक्त निकलना बंद ही नहीं हो रहा था |वह बेहद कमजोर हो चली थी और किसी का भी कहना न मानने की मानो उसने कसम खा ली थी |

“ बेटा ! दो दिन पहले अचानक रात में न जाने वह कहाँ चली गई ?सारा शहर खूँद मारा, पुलिस थक-हारकर बैठ गई लेकिन न जाने वह कहाँ मर-खप गई होगी |”

रोते-रोते अम्मा के हाथ से फोन छूटकर गिर पड़ा और दोनों ओर नीरवता ने कब्जा कर लिया | तब से न जाने कब, कैसे गुड्डी की स्मृतियों की पोटली बंद होती रहती है, खुलती रहती है | वे उसका साथ ही नहीं छोड़तीं, कभी धरती पर, कभी आकाश में, कभी समुद्र की सतहों पर, कभी किसी अजनबी के उदास चेहरे पर, कभी दिलोदिमाग़ में बस घुसपैठ करती रहती हैं | बरसों से उसके मन में हर पल प्रश्नों की एक भयानक फ़सल उगती रहती है जो कभी भी नहीं पकती, वह बस इस कच्ची ज़िंदगी का अर्थ खोजती रह जाती है |

लेखिका ; डॉ.प्रणव भारती