चंपा पहाड़न - 4 Pranava Bharti द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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चंपा पहाड़न - 4

चंपा पहाड़न

4

गुड्डी की माँ एक अध्यापिका थीं, अन्य लोगों से कुछ अधिक समझदार और संवेदनशील ! उनके कमरे से एक लंबा, संकरा छज्जा चंपा पहाड़न की रसोई तक जाता, वह एक भाग से दूसरे भाग में ऐसे जुड़ा हुआ था जैसे एक ही घर के दो भाग हों | छुट्टी के दिन माँ की दृष्टि भी अपने पीछे के दरवाज़े से चंपा की कोठरी पर चिपकी रहती | आते-जाते वे चंपा पर ऐसे दृष्टि रखतीं मानो कोतवाल हों और उन्हें यह ‘ड्यूटी’ सौंपी गई हो कि उस खूबसूरत कातिल पर दृष्टि रखी जाए | उसे तो क्या मालूम ? वह तो बिलकुल नन्ही सी थी, इत्ती सी !माँ के साथ ही कभी कभी नानी भी आ मिलतीं जो कुछ ही दूरी पर नये खुले अंग्रेज़ी स्कूल के सामने रहती थीं |दोनों का ध्यान चंपा के क्रिया-कलापों पर ही होता|सुकुमारी सी चंपा नवयौवन के भार से अपनी लज्जायुक्त दृष्टि झुकाए कभी कोने में बने चूल्हे पर अपने लिए रोटी बनाती दिखाई देती तो कभी झाडू लगाती या फिर बर्तन मांजती | पानी के लिए उसे उस संकरे से छज्जे से होकर गुड्डी की माँ के कमरे के सामने से गुज़रना होता था तब कहीं उसे हाथ के नल से खींचकर एक बालटी पानी मिलता | वह संतुष्ट थी, सहज भी होने लगी थी|वह समझने लगी थी कि उसकी वही नियति है, अपनी स्थिति से परिचित थी और वकील बाबू के द्वारा किए गए अहसान के बदले वह वकील बाबू की कृतज्ञ थी और उन्हें किसी भी प्रकार के पशोपेश में नहीं डालना चाहती थी |

अठारह-उन्नीस वर्ष की चंपा शहर के किसी सलीके से परिचित नहीं थी | यद्धपि हमारे देशभक्तों की कुर्बानियों से देश आज़ाद होने के पूरे आसार थे किन्तु यह तो तथ्य था ही कि अंग्रेजों का प्रभुत्व लोगों पर बुरी प्रकार हावी था | ये अंग्रेज़ अपनी अंग्रेजियत को भुनाने के प्रयास में रत रहते थे | अपने भोग-विलास के दुष्कृत्यों से पहाड़ों पर निवास करने वाली भोली-भाली घास काटने जाती खूबसूरत नवयौवनाओं को किसी न किसी प्रकार अपने लपेटे में ले ही लेते थे |ज़माना उनके प्रभुत्व से बरी होने की फ़िराक में था किन्तु बरी नहीं हुआ था! अधिकांश सीधे-सादे लोग उनकी गोरी चमड़ी व रौब-दाब के सामने अपने आपको हीन समझते, उनसे घबराते व उनके घोड़ों के टापों की आवाज़ से अपनी मासूम बेटियों को छिपाने की कोशिश करते किन्तु अक्सर उनकी बेटियाँ उनसे छिन ही जातीं, ऎसी ही एक पहाड़न ग्रामीण बाला चंपा भी थी |अंग्रेज़ शासन ने गरीब, मासूम लोगों को एक दहशत से भर रखा था |

जहाँ एक ओर देशभक्तों व अंग्रेजों में रस्साकशी चल रही थी, वहीँ दूसरी ओर संभ्रांत कहा जाने वाला एक वर्ग उनकी मित्रता में गर्व महसूस करता था |अंग्रेज़ मित्रों के साथ घूमना-फिरना, शराब व नृत्य की महफ़िलों में गुलछर्रे उड़ाना, भोग-विलास ---आदि-आदि इस वर्ग के लिए प्रतिष्ठा की बात थी |बहुधा ये तथाकथित भारतीय अंग्रेज़ अपने मज़े के लिए अंग्रेज़ मित्रों के साथ शिकार पर निकल जाते| साथ ही हिन्दुस्तानी सेवकों की भारी संख्या होती जो इनके घोड़ों की देखभाल करने से लेकर रात्रि में सोने की गर्माहट तक का प्रबंध बहुत कुशलता से करते और इनके बचे-खुचे टुकड़ों के साथ ही लात-घूँसों से भी अपना पेट भरते |चंपा के देवता वकील साहब के भी कई अंग्रेज़ मित्र थे | शहर के नामी वकील तो थे ही, अंग्रेजों की कृपा से इन्हें कई गाँव भी ‘शाबासी’ में मिले थे, जैसे वे उनके बाप के हों और वकील साहब बहुत प्रसन्न !अंग्रेजों से मित्रता ! यानि शहर भर में इनके नाम का डंका ! उनका परिवार भी कुछ कम खुश न था | वकील साहब के अंग्रेज़ मित्र उनके घर में आते और आसपास रहने वाले लोग उनको ऐसे ताकते जैसे देवलोक से देवताओं का काफ़िला सीधा धरा पर उतर आया हो |

वकील साहब के परिवार की सारी परेशानी व पीड़ा चंपा के आने पर शुरू हुई| इस बार अपने अंग्रेज़ मित्रों के साथ वकील साहब टिहरी गढवाल की ओर गए थे | सदा की भांति शिकार के बाद थके-टूटे तथाकथित साहबों के लिए शराब, शबाब का इंतजाम था | हर बार की भांति कई खूबसूरत नवयौवनाओं को छीन-झपटकर, उड़ाकर, उठाकर अथवा खरीदकर जबरदस्ती ले आया गया था जिन्हें उपभोग करने के बाद टूटी हुई वस्तु की भांति उनका मोल देकर छोड़ दिया जाता, कभी कोई अधिक मन भाने पर साथ भी चलने के लिए बाध्य की जाती जिसको और कई साहबों को खुश करना पड़ता फिर पैसे-धेले से झोली भरकर वह वापिस वहीँ फेंक दी जाती जहाँ से ले जाई गई थी |‘रखैल’ का दर्ज़ा तो किसी किसी को ही नसीब हो पाता था |

क्रमश..

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