चंपा पहाड़न
2
कितने-कितने भटकाव ! यह तो तब की बात है जब वह कुछ बड़ी होने लगी थी लेकिन चंपा तो उसकी शिशु-अवस्था से ही उसके जीवन का अंश बन चुकी थी |वर्तमान की चादर में स्थित भूत के आगोश में लिपटी बच्ची पहाड़न माँ जी का हाथ पकड़े न जाने कितनी लंबाई पार करती जा रही थी | बालकनी में खड़ी प्रौढ़ा ने बच्ची में तब्दील होकर अपने आपको धूप-छांह सी आकृति के सुपुर्द कर दिया |बादलों के उस रूई जैसे बने घर, स्वर्ग या नर्क जो कुछ भी था उसके द्वार से कभी उसे वह आकृति झाँकती दिखाई देती तो कभी न जाने कहाँ लोप हो जाती | कई बार उसके चेहरे पर पसीना चुहचुहा आया जिसे उसने काँपते हाथों से पोंछने
का प्रयास किया, आखिर वह स्वयं ही तो छोटी बच्ची के रूप में बादलों के द्वार में लुक-छिप रही थी | अब फिर से बादलों के रुई वाले घर में से चेहरा झाँका, मुस्कुराते हुए चेहरे ने स्मोकिंग की गुलाबी फ्रॉक पहने छोटी बच्ची को उसके सामने कर दिया | उसे बेहद तसल्ली हो आई, वह छोटी बच्ची उसके सामने थी जिसके चेहरे पर सलोनी धूप सी मुस्कराहट खिली जा रही थी| अब बार-बार लुक-छिप जाने वाली उस आकृति के हाथ से रक्त नहीं निकल रहा था |
वे उसकी पहाड़न माँ जी थीं ! नाम था उनका चंपा ! खूबसूरती की एक बेमिसाल शख्सियत ! श्वेत धवल लिबास में वे ऎसी तरंगित होतीं जैसे कोई सफ़ेद फूल यकायक खिल गया हो लेकिन उनका भाग्य ! जैसे विधाता ने अपने आप खड़े रहकर रत्ती-रत्ती भर जगह पर सुईंयां बिछा रखी हों, कोई स्थान सूईं रहित रह तो नहीं गया ? तराशी गई मूरत सी चंपा कभी–कभी एक ऐसे पुराने बुत में बदलने लगती जैसे किसी ने पुरानी बेजान मिट्टी को तोड़-मरोड़कर उसके चेहरे पर पोतकर उसे ऊबड़-खाबड़ करने का प्रयास किया हो |जो कुछ भी हो वे उसे देखते ही वे ताज़ा फूल सी खिल उठतीं और उनके चेहरे पर नूर पसर जाता | पहले वे उसे उसके घर के नाम से गुड्डी पुकारती थीं जैसे और सब लोग कहते थे बाद में वेउसे ‘बाबू जी’ पुकारने लगीं थीं, अपने ‘वकील बाबू’के अवसान के पश्चात |
माँ बताती थीं चंपा को लाने वाले उनके घर के पास ही रहने वाले शहर के एक उच्च कोटि के नामी-गिरामी वकील साहब थे जिनकी पास ही में एक बड़ी सी कोठी थी | लगभग हज़ार गज़ में फैली हुई कोठी जितनी बाहर से खूबसूरत थी, उतनी ही अन्दर से शानदार ! लोग वकील साहब की कोठी में बाहर के लोहे वाले बड़े से मजबूत दरवाज़े की झिर्रियों में से झाँक-झाँककर जाया करते | छोटे से शहर में ऎसी बड़ी कोठियाँ उंगली पर गिन सको उतनी ही थीं, पाँच-सात ---बस !
***
क्रमश....