दरमियाना - 30 Subhash Akhil द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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दरमियाना - 30

दरमियाना

भाग - ३०

फिर मुझसे मुखातिब हुर्इं, "बाबू देखो, हमारी सीता मैया रावण के घर में इतने बरस रहीं, मगर मजाल कि रावण जैसे राक्षस ने भी कोर्इ हरकत की हो! यहाँ तो अपने घर में ही बच्चियाँ सुरक्षित नहीं हैं!... अब सुना है कि भाजपा से कोर्इ नरेन्द्र मोदी जी आ रहे हैं। यह भी सुना है कि गुजरात में उन्होंने बहुत अच्छा काम किया है। कांग्रेस राज में तो अब भट्टा ही बैठ गया। पर वे भी हम जैसों को कहाँ पूछेंगे? उनके पास तो संघ वाले और अपने चेले-चपाटे ही बहुत हैं!... पर मैं भी इस बार लोकसभा के लिए फिर से लड़ूँगी!... आपको भी मेरी पूरी मदद करनी पड़ेगी।"

"जी हाँ, जरूर। क्यों नहीं?" मैंने उन्हें यकीन दिलाया था।

कुछ क्षण शांत रहने के बाद वे जरा दार्शनिक अंदाज में बोलीं, "अपना जीना भी कोर्इ जीना है बाबू! बस, इतना ही समझती हूँ कि यह जो जिंदगी मिली है, वह समाज और अपनी बिरादरी के काम आ जाए, तो मेरा किन्नर होना भी सफल मान लूँगी!"

कुछ इसी तरह की बातचीत के दौरान चाय-नाश्ता निपटा कर मैंने उन्हें प्रणाम किया और चला आया था। आ तो गया था, मगर अभी भी कुछ अधूरा-अधूरा-सा ही लग रहा था। लग रहा था कि अभी भी उनके बारे में जानना बहुत कुछ शेष है।

***

एक दिन फिर इसी तरह फोन किया, तो उन्होंने शाम को चले आने के लिए कह दिया। मैं इस बार उनके निजी जीवन में झाँकना चाहता था। इसलिए मिलने पर मैंने बात को वहीं से शुरू किया था, "कुछ अपने बारे में बताइये!... मेरा मतलब है, अपने परिवार के बारे में, अपने भार्इ बाबू के बारे में, माता-पिता और कांजीमल मोहल्ले के बारे में कुछ बताइये!"

मगर मेरे आग्रह को उन्होंने बड़ी खूबसूरती से टाल दिया। कहने लगीं, "अब क्या बताऊँ बाबू?... क्यों किसी को खामहखाँ दोष देना?... दोष तो अपने ही नसीब का था। अब, ऊपर वाले ने हमें जैसा भी बनाया, इसमें किसी और का क्या दोष हो सकता!... फिर जैसे आप होते हैं, उसी के हिसाब से आपको इज्जत भी मिलती है।"

फिर कुछ सोच कर बोली, "हाँ, इतना जरूर है कि जैसे-जैसे मैं जवान होती गर्इ -- मुझे अपने बारे में पता भी चलने लगा।... पहले तो मैं लड़का बन कर रहती थी। किसी से ज्यादा बात करने का मन नहीं होता था, बस ज्यादातर समय तो मेरा सिहानी गेट के बाहर, कब्रिस्तान के पास चल रही कोयले की एक दूकान पर, मुसलमान के लड़के के पास ही बैठ कर कट जाता था। तब शहर में ज्यादा भीड़भाड़ नहीं होती थी। लगभग सभी एक-दूसरे को जानते थे।... मैं भी सिहानी गेट से डासना गेट, डासना गेट से दिल्ली गेट और या फिर घंटाघर तक यूँ ही मारी-मारी फिरती थी।... इस देह के भीतर की औरत मुझे चैन से नहीं जीने देती थी।"

वे कुछ क्षण रुकीं और फिर कहने लगीं, "जवान होते-होते जब मुझे लगा कि मैं 'हिजड़ा' हूँ, तब एक बार को मरने का मन भी हुआ था बाबू!... पर देह जैसी भी मिली, मन और रूह भी -- इस मरी हुर्इ-सी देह से ही सही, मगर चिपक गये थे। कर्इ बार रेल की पटरी तक गयी -- गाजियाबाद स्टेशन के पास... और कर्इ बार हिंडन नदी तक भी गर्इ। पुल पर बैठी, नीचे बहते पानी में, अपने सपनों को बार-बार बहता देखती रही -- मगर दोनों जगह ही कूदने की हिम्मत न कर सकी! हर बार मौत से डर लगा!... फिर लगा कि चलो, इसी अधूरी देह के साथ आगे की जिंदगी लड़ी जाए। आप नहीं जानते बाबू -- इस अधूरी देह में, पूरी आत्मा को जीना क्या होता है?... बस, फिर लाज-शरम, घर-परिवार -- सब कुछ छोड़छाड़ कर चली आर्इ थी, अपने हाजी गुरु के पास।"

शमां चाय ले आर्इ थीं, तो बात का सिलसिला भी टूट गया। चाय रखते हुए उसने कहा था, "वो आश्रम वाले आये हैं गुरु!"

"अच्छा, मेरा पर्स ला!" दया बोलीं। तभी शमां उनका पर्स लेकर चली आर्इ थी। दया ने पाँच हजार रुपये निकाल कर उसे दिये, "रसीद ले लेना, समझी!"

फिर मुझसे मुखातिब होते हुए बोलीं, "अपना क्या है बाबू!... मैं क्या छाती पर रखकर ले जाऊँगी सब कुछ!"

मुझे चाय पीने का इशारा कर, उन्होंने खुद भी चाय का कप उठाया था। मैंने पाया कि वे उस कप में किसी शून्य को तलाशने लगी थीं। मेरी निगाहें बड़ी सतर्कता से उन्हें, उनकी सीढ़ियाँ उतरते देख रही थीं। मैं बीच में व्यवधान बनना नहीं चाहता था, इसलिए चुप बना रहा। मैं चाहता था कि वे अपनी भावनाओं की उड़ान को, अपनी गति और दिशा की ओर सहज रूप से बनाये रखें।

तभी वे फिर बोलीं, "ये राजनीति मैं अपने लिए नहीं करती बाबू!... हाँ, आपने जो पिछली रिपोर्ट लिखी थी, वो बहुत सही लिखी थी!... सच ही लिखा था आपने कि मैं अपने समाज के लिए कुछ करना चाहती हूँ।... बाकी समाज को तो इन नेताओं ने बाँट ही रखा है। पहले हिन्दू-मुसलमान में बाँटा। फिर हिन्दुओं को हिन्दुओं में... और मुसलमानों को मुसलमानों में बाँटा!... दलितों, पिछड़ों, अति पिछड़ों -- और न जाने किस किस में बाँट दिया -- युवाओं, किसानों, मजदूरों, बेरोजगारों वगैरा-वगैरा में!... मैं भी छोटी जात की हूँ बाबू -- मगर जैसे साधुओं की जात नहीं होती, वैसे ही हम हिजड़े भी जात-वात नहीं मानते।... मेरी गुरु मुसलमान थी, अब मेरी एक चेली भी मुसलमान है। हमारी तो अपनी ही देवी है, सब उसे ही मानते हैं।"

मैंने अब तक चाय के साथ दो-तीन बिस्कुट और कुछ नमकीन भी खींच लिया था, मगर वे उसी तरह चाय की प्याली में उबल रही थीं, "अब क्या बताऊँ बाबू आपको!... बहुत बुरी हालत में जीते हैं हमारे जैसे लोग। कुछ के भाग अच्छे हैं, जो हमारे जैसे कुनबे बना लेते हैं।... वरना इतना बुरा हाल है कुछ का कि बस पूछो मत!"

फिर मेरी तरफ सधी हुर्इ निगाहों से देखा और बोलीं, "ये अपनी रिपोर्ट में मत छापना बाबू!... मैं ऐसी कइयों को जानती हूँ, जो पैसों और मजे के लिए 'sss चूसने', 'sss मरवाने', लूट-खसोट करने, उठार्इ-गीरी करने, चोरी-चकारी -- और न जाने क्या-क्या कर रही हैं!... कुछ 'अकुआ' (लिंग सहित) हैं, वे भी, और कुछ 'छिबरी' (लिंग रहित) हैं वे भी!... तमाम हरामखोर और कमीने लोग भी हमारे जैसों के बीच घुस आये है।... जो हम जैसी हैं, गुरु-चेली परम्परा में रहती हैं, वे फिर भी सुखी हैं, मगर जो छुट्टी (खुली, बिना गुरु या मंडली के) घूम रही हैं, उनका तो भगवान ही मालिक है।"

फिर बोलीं, मैं जानती हूँ बाबू! लोग हमसे कैसे-कैसे काम करवाते हैं!... कोर्इ 'वसूली' के लिए, कमीशन पर हमें बुलाता है। कोर्इ किसी की 'बीलीकूटने' (अपमानित कराने) के लिए। कोर्इ काम देने, नौकरी देने, धंधा-पानी करने के लिए कोर्इ नहीं कहता! मजाक बनाते हैं सब! हमें तो बस मनोरंजन की चीज बना कर रख दिया गया है।"

एक सिप बची हुर्इ चाय को उन्होंने एक ही बार में खींचा और कप रखते हुए कहने लगीं, "मैं हमेशा से सोचती थी कि क्या हम इंसान नहीं हैं?... कम से कम हमें भी तो इंसानों की तरह जीने का हक मिले।... इसी हक के लिए मैंने बहुत भाग-दौड़ की है बाबू। कितने ही नेताओं और वकीलों से मिली हूँ। कमेटियाँ बना कर सबको इकट्ठा किया है।... आखिर जब हमारा संविधान, सभी लोगों को, बिना किसी भेदभाव के, समान रूप से जीने का अधिकार देता है -- तो हमें क्यों नहीं? यही लड़ार्इ हम सबसे बड़ी अदालत में लड़ रही हैं!... अच्छा एक बात बताओ बाबू!... जना तो आपको भी माँ-बाप ने ही है और हमें भी। इसमें हमारा दोष क्या है? हम कहीं ऊपर से तो टपके नहीं, यहीं से उपजे हैं -- आपकी ही तरह!... फिर हमारे जीने के लिए कोर्इ सम्मानजनक रास्ता क्यों नहीं होना चाहिए?... मुझे न सही, मगर मेरे बाद आने वाले, मेरे जैसों को तो यह हक मिले! आप तो पत्रकार हैं, आप भी इस लड़ार्इ में हमारा साथ दो!"

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