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दरमियाना - 29

दरमियाना

भाग - २९

दयारानी का राजनीति में रूची, सामाजिक कार्यों में आगे बढ़कर योगदान करने... और किन्नर समाज के हितों की लड़ार्इ लड़ने के उनके साहस ने मुझे भी उनसे जोड़े रखा। मैं यदाकदा उन्हें फोन कर, उनके घर चला जाता रहा। धीरे-धीरे मुझे उनके बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी भी होने लगी। पता लगा कि वे पुराने गाजियाबाद शहर के मोहल्ला कांजीमल की रहने वाली थीं। पिता जी जूते बनाने का काम किया करते थे, लिहाजा घर की माली हालत भी बहुत अच्छी नहीं थी। एक भार्इ था 'बाबू', वह भी जैसे-तैसे अपना गुजारा किया करता था। किन्तु पिता जी के बाद पिछले दिनों भार्इ बाबू का भी निधन हो गया।

17-18 वर्ष की आयु तक दया कड़े ताल में (पुरुषों के कपड़ों में) ही रहा करतीं। पढ़ार्इ-लिखार्इ में ज्यादा मन नहीं लगा। कभी सिहानी गेट के बाहर, कोयले की टाल पर जा बैठता युवक दया (तब भी इनका नाम दया ही था) कभी चौपला या डासना गेट के मोहल्लों में मटरगश्ती। परिवार ने तो पहले से कन्नी काटना शुरू कर दिया था। फिर जैसे-जैसे शरीर में परिवर्तन उभरने लगे, तो इन्होंने पूरी तरह यह जीवन जीने का निर्णय ले लिया। घर-बार सब त्याग कर ये अपनी गुरु हाजी किन्नर के पास ही चली आर्इ थीं और गाना-बजाना, बधार्इ माँगना-खाना शुरू कर दिया था।

भले ही किताबी ज्ञान उन्हें बहुत ज्यादा न भी रहा हो, मगर जमीनी हकीकत और व्यवहारिक समझ के कारण ये अपनी गुरु के निरंतर करीब होती चली गर्इं। पहले वाली मुफलिसी अब खत्म हो चुकी थी, लिहाजा अच्छा कमाना, खाना, पहनना शुरू हो गया था। जवानी भी माशाअल्लाह अपने पूरे शबाब पर आने लगी थी। बदन भरने लगा था। सोने-चाँदी और श्रृंगार की कोर्इ कमी न थी। गुरु की चहेती होने के कारण भी इन्हें कोर्इ रोकने-टोकने वाला नहीं था। गहनों और गाड़ियों का शौक भी पूरा हो रहा था।... कभी-कभी अपनी यही रंगत दिखाने के लिए वे गाजियाबाद के पुराने बाजार भी चली आतीं। मगर मोहल्ला कांजीमल जाना काफी कम हो गया था।

तभी एक दिन, लगभग 27-28 साल पहले किसी पुरानी रंजिश में इनके गुरु हाजी किन्नर की हत्या, यहाँ श्याम पार्क एक्सटेंशन में हो गर्इ। गुरु की मौत पर मातमपुर्सी की सभी रस्म दयारानी ने ही निभार्इं।... और गुरु की मौत के बाद, दयारानी को ही गुरु की पदवी और इलाके समेत सारी सम्पत्ति भी मिल गर्इ।... यह बड़ी जिम्मेदारी थी, जिसे बहुत ही सूझबूझ, साहस और अपने समाज की प्रतिष्ठा के लिए निभाना था। पैसे-धेले की कोर्इ कमी नहीं थी, जिहाजा इन्होंने गरीब-अनाथ बच्चों की सहायता करना, भंडारे लगाना, गऊशालाओं को दान देना जैसे कार्य आरंभ कर दिये थे।

धीरे-धीरे राजनीतिक महत्वाकांक्षा भी मन में जगह बनाने लगी थी। कुछ साथियों तथा चेलियों के अलावा अन्य छिटपुट नेताओं ने भी साथ देने का वादा किया, तो सबसे पहला चुनाव इन्होंने 1996 में -- गाजियाबाद के मेयर पद के लिए लड़ा था। दयारानी शहर के लोगों को काफी हद तक यह भी समझाने में कामयाब रहीं -- 'अपने आगे न पीछे, न कोर्इ ऊपर-नीचे, रोने वाला -- न कोर्इ रोने वाली... जनाबेआली!' मगर राजनीतिक हथकंडों के चलते बात बनी नहीं।

किन्तु इस चुनाव का एक लाभ यह जरूर हुआ कि इनमें राजनीतिक जागरुकता की परिपक्वता जरूर आने लगी। इसके बाद तो दयारानी ने अपने समाज की अनेक समस्याओं के लिए लड़ने की ठान ली। ये देश-भर में, अपने समाज के लोगों के बीच जाने लगीं और सरकार पर 'किन्नरों के लिए थर्ड या ट्रांसजेंडर' के रूप में अधिकार माँगने लगीं। दयारानी ने राज्यों और जिला स्तरों पर दरमियानों को जागरुक किया और छोटी-छोटी कमेटियाँ बना कर, इन मुद्दों पर अधिक से अधिक लोगों को जोड़ने का प्रयास भी किया। देश-भर से जिलाधीशों को ज्ञापन भी दिलवाये गये। कुछ वकीलों की मदद से 'तीसरे लिंग' के रूप में, अलग पहचान दिये जाने की माँग के प्रस्ताव केन्द्रीय सरकारों तक भी पहुँचाये गये।

गुरु हाजी किन्नर की मौत के बाद से ही दयारानी ने गुरु को दिये वचन को पूरा करने के लिए दमखम लगा दिया था। उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर ट्रांसजेंडर अधिकार आंदोलन कमिटी बनार्इ और इस लड़ार्इ को मान्य सर्वोच्च न्यायालय तक ले गर्इं। अनेक शहरों में धरने-प्रदर्शन भी करवाये और सभा-सेमिनार भी।

***

इसी बीच इनके भार्इ 'बाबू' का निधन हो गया, तो घर की माली हालत को देखते हुए अपनी भतीजी गीता उर्फ बबीता की परवरिश के लिए ये उसे अपने पास ले आर्इं। समय-समय पर भाभी तथा अन्य बच्चों की मदद भी ये कर दिया करतीं। इससे इनके अपने जीवन में भी 'एक बच्चे की कमी' पूरी हो गर्इ। गीता की परवरिश में इन्होंने कोर्इ कसर बाकी नहीं छोड़ी। यहाँ चले आने पर उसकी हर सुख-सुविधा का ध्यान रखा गया था। दरअसल यह भी उनकी ममतामयी सूरत का ही एक रूप था।

एक बार परिचय हो जाने और परस्पर आत्मीयता आ जाने के बाद, उनसे बात करना, उन्हें सुनना अच्छा लगता था। ऐसे ही एक दिन जब समय मिलने पर उनके घर जा पहुँचा, तो पाया कि वे अभी कहीं बाहर से आयी थीं। मैंने लौटना चाहा, तो उन्होंने बड़े इजहार से मुझे रोक लिया। बातचीत का सिलसिला पिछले दिनों गाजियाबाद में एक बच्ची के साथ हुए बलात्कार पर आकर टिक गया। मैंने पाया कि उनके चौड़े माथे की भवें कुछ कस गयी थीं।

अचानक ही वे कहने लगीं, "पता नहीं बाबू, लोग गधे को 'गधा' और उल्लू को 'उल्लू' क्यों मानते हैं?..."

"क्योंकि वे तो, वे हैं ही! इसमें बुरा क्या है?" मैंने विषय को हल्का करना चाहा।

"है न बाबू -- गधे जैसा सीधा-सादा, मेहनती और र्इमानदार जानवर दूसरा नहीं है!... और उल्लू को भी उसकी नजर, रात में देखने की ताकत और माँ लक्ष्मी का वाहन होने के कारण कम नहीं आँका जा सकता!... फिर भी दोनों अपने पशु और पक्षी होने पर शर्मिंदा हैं, क्यों कि दोनों के नामों को ही गाली से जोड़ कर देखा जाता है।... ठीक हमारी तरह बाबू, क्योंकि हम भी तो इंसान होने के नाम पर 'गाली' ही समझे जाते हैं!"

थोड़ा रुककर, वे फिर बोली, "समाज के गिद्दों और भेड़ियों को कोर्इ गाली नहीं मानता, जो मासूम बच्चियों तक को नहीं बख्शते।... हम तो कहते हैं कि उन्हें हिजड़ा बना दिया जाए, ताकि हमारी भी थोड़ी बिरादरी बढ़े!... भगवान ने चाहा और मैं कभी संसद पहुँच गर्इ न बाबू... अपनों के लिए तो जरूर बहुत कुछ माँगूगी, मगर इन राक्षसों के लिए एक ही सजा माँगूगी कि इन्हें हमारे हवाले कर दिया जाए -- फिर नाचना-गाना तो हम सिखा ही देंगे।... बाकी काम भी हम पर ही छोड़ दिया जाए!"

संसद में रखे जाने वाले उनके संभावित 'बिल' की रूपरेखा सुनकर मैं मुस्करा दिया था। तभी वे फिर बोलीं, "न, न -- हम इन्हें मारेंगे नहीं। न ही फाँसी या उम्र कैद की जरूरत है।... बस ऐसी एक सजा, जो बिना किसी गुनाह के हमको मिली है!... कसम ले लो बाबू, इस सजा के बाद हम इन्हें खुला छोड़ देंगे!... मगर आप देखना कि समाज में, बच्चियों के साथ होने वाली यह राक्षसी क्रूरता हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी!"

फिर अचानक किसी पर प्यार से चिल्लार्इ, "अरी ओ, शमां की बच्ची, कहाँ मर गयी?" शमां चली आर्इ, तो मैं उन्हें पहचान गया कि इन्हें पहले भी यहाँ अक्सर देखा था। वे फिर बोलीं, "अरी, कुछ नाश्ता-पानी करा दे। मैं भी थकी आर्इ हूँ और ये बाबू भी आये हैं।" मेरी ओर इशारा किया, "पत्रकार हैं ये!"

"जी, जानती हूँ।... आपके पिछले चुनाव में इन्होंने बहुत बढ़िया लिखा था।" शमां ने मुझे नमस्कार किया, तो मैंने भी हाथ जोड़ दिये।

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