दरमियाना - 25 Subhash Akhil द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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दरमियाना - 25

दरमियाना

भाग - २५

कुछ री-टेक के साथ उनके गीत और नृत्य का रियाज़ चलता रहा। मुकेश ने विभिन्न कोणों से लगभग सभी के बहुत-से चित्र खींच लिये थे। किन्तु घर में ही रियाज़ होने के कारण वे सभी पूरी साज-सज्जा के साथ नहीं थे। घर में सामान्य रूप से पहने जाने वाले सलवार-कुर्ते आदि में ही थे। साजिंदे यकीनन 'इनमें से' नहीं थे। इस दौरान रेखा की माँ अंदर कमरे में ही रहीं। छोटी बहन शायद घर पर नहीं थी।

उस दिन, फिर कोर्इ अन्य अंतरंग बात रेखा से नहीं हो पार्इ थी। मुकेश को कुछ दुर्लभ चित्रों के साथ इस मनोरंजन का आनंद भी आया था। हालाँकि पहली बार वह मेरे साथ यहाँ आने में थोड़ा झिझक रहा था।... बाहर आकर वह देर तक मुझसे 'इन्हीं' के बारे में बातें कर रहा था। फिर हम ऑफिस लौट आये थे। आते हुए मैं रेखा को अपने ऑफिस का नंबर दे आया था और आग्रह किया था कि जब भी कभी उसे समय मिले या वह खाली हो, तो मुझे फोन कर दे।

***

तभी एक दिन जब मैं ऑफिस पहुँचा, तो एक साथी ने बड़े रहस्यमयी ढंग से पूछा था, "अबे, ये रेखा कौन है?"

"रेखा?... क्यों, क्या हुआ?" मैं समझ तो गया था, मगर ज्यादा कुछ बोला नहीं।

"फोन आया था तेरे लिए। कल बुलाया है ग्यारह बजे!... क्या मामला है यार?" साथी ने मुझे सूचना दी।

"तू नहीं समझेगा, जाने दे।... एनी वे, थैंक्स!" मैं बात को टाल गया था।

अगले दिन जब रेखा के यहाँ पहुँचा, तो उसकी माता जी बाहर खटिया पर लेटी धूप सेंक रही थीं। मुझे आया देखा, तो उठ बैठीं। मैंने उन्हें प्रणाम किया, बोली, "अदर है, चले जाओ!"

एक बात का अनुमान मैंने लगाया था कि वे किसी से ज्यादा बात नहीं करतीं। न रेखा से, न उसकी चेलियों से... और न ही मुझसे भी। हाँ, निशा से प्रायः मैंने सहज होकर बात करते देखा था। इसका कारण शायद यह रहा हो कि वे इनकी बातों में ज्यादा दखल नहीं देना चाहती हों।... या फिर यह कि स्वयं वे और निशा भी रेखा पर ही निर्भर थे।

अंदर पहुँचा, तो पाया कि रेखा अभी नहा कर ही निकली थी और अपने बालों को झटक कर सुखा रही थी। चंदा घर पर ही थी, मगर गुलाबो और मोहिनी मुझे कहीं दिखार्इ नहीं दे रही थीं। उम्र का अनुमान लागाऊँ, तो गुलाबो और चंदा लगभग हम उम्र थीं, जबकि मोहनी इनसे कुछ 'सीनियर' नज़र आती थी।

चंदा ने दो कुर्सियाँ वहाँ आँगन में लगी दीं। आँगन ऊपर से खुला था और उसके एक तरफ कोने में छोटी-सी क्यारी बना कर उसमें गुलाब और तुलसी के पौधे उगा रखे थे। खुला होने से धूप आँगन में भी आ रही थी। हम वहीं बैठ गये। चंदा पानी ले आयी, तो मैंने पीकर गिलास उसे लौटाया। वह रसोर्इ में चली गर्इ थी।

बातों का सिलसिला मैंने उसके दादा जी से शुरू करना चाहा था। उसने भी वहीं से अपने इतिहास के सूत्र पकड़े थे। इसके बाद उसने जो बताया, वह कुछ इस प्रकार थाः-

दादा घनश्याम दास अंग्रेजों के 'सर्इस' थे। वे यहीं रह कर उनके घोड़ों की देखभाल किया करते थे। घोड़ों के बारे में उन्हें अच्छी जानकारी थी, क्योंकि इससे पहले वे तांगा चलाया करते थे। अपने इसी अनुभव के कारण उन्हें अंग्रेजों के 'सर्इस' होने का मौका मिला, तो परिवार का रुतबा भी बढ़ गया। उनके दो बेटे और एक बेटी हुर्इ थी। बड़े बेटे मनोहर लाल की मौत किसी हादसे में हो गर्इ थी। छोटे बेटे मोहन लाल रेखा के पिता थे। वे ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे, इसलिए इंडिया गेट के पास फलों की रेहड़ी लगाया करते थे। रेखा से बड़ी एक बहन और थी, जो किसी बीमारी की वजह से चल बसी। उसके बाद रेखा... और फिर निशा!

बड़ी बेटी के बाद मोहन लाल चाहते थे कि उनके एक बेटा हो, मगर रेखा के पैदा होने पर तो जैसे उनके भाग ही फूट गये। वे समझ गए थे कि यह तो कहीं की भी न हुर्इ! शुरू से ही उन्होंने इसे लड़कों वाले कपड़े पहनाये थे, मगर दस-बारह साल का होते-होते इसे उन कपड़ों में कोफ्त होने लगी थी। बाल भी लड़कों जैसे ही कटे थे, पर उससे कोर्इ फर्क नहीं पड़ता था।

सांगली मैस के लड़कों को इसके हाव-भाव से कुछ संदेह जरूर होने लगा था। एक रोज कुछ लड़के बहला-फुसला कर इसे झाड़ियों के पीछे ले गये। वहाँ उनकी योजना हस्तमैथुन की बनी। सो, पहले उन्होंने अपने नैकर उतारे और फिर इसे भी वैसा ही करने के लिए मजबूर किया। इसके बहुत मना करने पर वे जबरदस्ती करने लगे -- अगर तू नहीं करेगा, तो जाकर हमारी शिकायत लगा देगा... इसलिए तू भी कर!

इसने भागने की कोशिश की, मगर उन्होंने पकड़ कर इसके कपड़े भी उतार दिये।

अब तो उनके होश फाख्ता हो गये! यह तो उन लड़कों से अलग था। वे जिस काम के लिए आये थे, वह भूल कर भाग खड़े हुए। इसे वहीं, उसी हालत में छोड़ गये थे। रोते हुए यह किसी तरह घर पहुँचा था। माँ को इसने सब कुछ बता दिया था। उन्हीं से पिता जी को भी पता चल गया था।... धीरे-धीरे सांगली मैस और प्रिंसिस पार्क तक भी यह खबर पहुँच गर्इ थी।

तब तक इसका नाम भी रेखा नहीं रजिन्दर था। पिता ने इसी डर से स्कूल भी नहीं भेजा था रजिन्दर को। दूसरे बच्चों से पूछ कर कुछ कॉपी-किताब इसे घर पर ही ला दी गर्इं थीं। कुछ समझ न आने पर यह पड़ौस के किन्हीं बच्चों से पूछ लेता था। इसी तरह अक्षर और अंकों का ज्ञान होने लगा था। इसके बाद पैदा हुर्इ लड़की ने भी मोहन लाल की परेशानी बढ़ा दी थी।

मगर जो परेशानी इसके लिए बढ़ गर्इ थी, उसे समझना तो और भी कठिन था। आते-जाते तरह-तरह की फब्तियों और भद्दे उपहास का सामना इसे करना पड़ता। धीरे-धीरे इसकी छातियों में भी थोड़ा उभार आना शूरू हो गया था, जो लड़कों वाले कपड़ों में और उभर आता था। इसी सबसे परेशान इसने घर से निकलना लगभग बंद ही कर दिया। इन्हीं कारणों से पिता भी बीमार रहने लगे थे। उन्हें यह चिंता भी सताती कि बड़े भार्इ रहे नहीं... और उनके भी कोर्इ बेटा नहीं हुआ। इस तरह तो उनका वंश ही समाप्त हो जाएगा। बीमारी के कारण कर्इ बार वे फलों की रेहड़ी भी नहीं लगा पाते, जिससे घर की माली हालत भी बिगड़ने लगी थी। रजिन्दर को वे भी बाहर नहीं भेजना चाहते थे।

*****