दरमियाना - 24 Subhash Akhil द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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दरमियाना - 24

दरमियाना

भाग - २४

वस्तुतः उस पहले दिन रेखा से इस इलाके का यह वर्णन जान कर, उसे विस्तार से बताने की जरूरत मुझे क्यों पड़ी, यह बात भी दो-चार बार वहाँ जाने के बाद ही पता चली। उस मुलाकात के बाद मेरा जब भी मंडी हाउस जाना हुआ और समय भी मिल पाया, तो रेखा के यहाँ जरूर गया। वह मिली तो थोड़ी-बहुत गपशप हो गयी, अन्यथा उसकी अनुपस्थिति में उसके घर नहीं बैठा, बल्कि उस कॉलोनी की बेतरतीब गंदी गलियों से होता हुआ लौट आया। वहाँ से गुजरने के दौरान मैंने हमेशा आसपास के लोगों महिलाओं, युवाओं, बच्चों, अधेड़ों -- सभी को बहुत गहरार्इ से महसूस किया।

कुछ अपने अनुभवों से तथा कुछ रेखा के बयानों से मैं समझने लगा था कि यहाँ हर तरह के जरायमपेशा लोग रहते हैं। यहाँ नशे और अपराध की दुनिया से ताल्लुक रखने वाली हर चीज मिल सकती है। चरस, अफीम, गाँजा, स्मैक, हथियार, शराब, लड़कियाँ... और लड़के भी! कभी भी, किसी भी काम के लिए। जुआ तो आम, कहीं भी छोटे-छोटे समूहों में देखा जा सकता था। यह भी पता चला कि यहाँ के कुछ लड़के, निगम की ओर से, किसी दूसरी कॉलोनी में सुबह चार बजे के आसपास झाड़ू लगा आते हैं। फिर दिन-भर नशे में, जींस-चश्मा चढ़ाये यहाँ से वहाँ 'किसी की फिराक' में।

जिन्हें झाड़ू लगाना पसंद नहीं था, उनमें से कुछ शादी-बारात में वेटर आदि का काम कर आते... और खाने-कमाने के साथ ही, कुछ हाथ लग गया, तो वारे-न्यारे! कुछ इंडिया गेट, मंडी हाउस पर आइसक्रीम, गुब्बारे बेचने जैसा या ऐसा ही कुछ र्इमानदारी और मेहनत का काम भी कर लिया करते।... मगर सभी लोग ऐसे नहीं थे। मैंने अनेक लड़कों-लड़कियों को पढ़ार्इ करते और जीवन में आगे बढ़ते-देखा भी था और रेखा से सुना भी था।

***

फिर, एक बार किसी तरह संपादक जी को यह जानकारी हो गर्इ कि मैं वर्षों से 'इनके' संपर्क में' हूँ। इस बार उन्होंने मुझसे ‘इन पर’ एक फीचर कर डालने का आग्रह भी किया था, ताकि इनके जीवन को और बेहतर बनाने के लिए कुछ प्रयास किये जा सकें।

हालांकि मैं तो सन् 1979 के लगभग ही उस समय इनके लिए सक्रिय हो गया था, जब दिल्ली में, राजा गार्डन के निकट एक स्कूटर मैकेनिक श्री खैराती लाल भोला ने इन पर काम शुरू किया था। भोला जी ने एक संस्था बनार्इ थी -- 'पतिता उध्दार सभा' ...और सब बैनर तले वे तृतीय लिंगी (तब यह नाम नहीं था। इन्हें हिजड़ा ही कहा जाता था) एवं जी.बी.रोड के वेश्याओं और उनके बच्चों के लिए कार्य करना शुरू किया था।

हमने तभी इनके लिए राशन कार्ड एवं स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के लिए चलते-फिरते चिकित्सालय का प्रबंध भी कर लिया था। तब ज्यादातर से केवल औपचारिक परिचय ही था। भोला जी अपनी दुकान पर ही इनसे मिला करते। मैं भी इनके फॉर्म आदि भरने में सहायता किया करता।

इस बार जब संपादक जी ने इन पर फीचर करने की जिम्मेदारी मुझ पर सौंपी, तो एक बारगी पिछले सभी चेहरे और उनसे जुड़ी घटनाएँ आँखों के आगे तैर गर्इं। तारा से लेकर रेशमा... और संध्या से होते हुए सुनंदा तक! कुछ तो उन सबसे जुड़ी घटनाएँ... और अनुभव तो मेरे पास थे ही -- किन्तु अभी भी रेखा के रूप में एक संगी-साथी अवश्य था। सो, मैंने यह दायित्व उठाने के लिए हामी भर दी।

अपने छायाकार मित्र मुकेश के साथ मैं एक दिन फिर रेखा के घर 'सांगली मैस' जा पहुँचा। अभी हम बाहर ही थे कि अंदर से कुछ गाने-बजाने की आवाजें आ रही थीं। मुझे लगा, यह और भी अच्छा समय हो सकता है शायद। मेरे खटखटाने पर इस बार दरवाजा गुलाबो ने ही खोला था। दरवाजा खुलते ही देखा -- सामने आँगन में नीचे एक दरी बिछी है, जिस पर दो साजिंदे, एक हारमोनियम और दूसरा ढोलक के साथ बैठे थे। रेखा की दो अन्य चेलियाँ भी आज मौजूद थीं, जिनमें से एक के हाथों में टल्लियाँ थीं। दूसरी गुलाबो के साथ घुँघरू बाँधे आंगन में थिरक रही थीं शायद। रेखा खुद खटिया पर विराजमान थी।

"आइये सर जी," हमें देखते ही वह बोली। फिर गुलाबो से कहा, "चल री, कुर्सी ला!"

"लगता है, हम गलत समय पर आ गये!" मैंने कुर्सी पर बैठते हुए कहा।

"नहीं, बस यूँ ही इन्हे थोड़ा रियाज करा रही थी।" रेखा ने कहा, तो साजिंदे व अन्य उठने लगे।

"नहीं-नहीं, आप जारी रहिए -- हम फिर आ जाएंगे!" मैंने कहा।

"क्या बात करते हो सर जी, इस बार इतने दिनों में तो आये हो।... आप बैठो, मैं चाय बनवाती हूँ!" उसका इशारा पा कर एक अन्य चेली चाय बनाने चली गर्इ, जिसका नाम पहले चंदा बताया गया था।

मैंने इसी अवसर का लाभ उठाने की नीयत से कहा, "क्या हमारे सामने आप सबका रियाज जारी रह सकता है?... और उस दिन तुमने कहा भी था कि इनसे तुम भी फोटो खिंचवाओगी ! आज इसी लिए मैं इन्हें साथ लाया हूँ। फिर, रियाज़ के साथ तो फोटो और भी अच्छी आएँगी।"

"हाँ-हाँ, क्यों नहीं। आप बैठो, चाय पियो तब तक मैं इन्हें रियाज़ कराती हूँ..." हमसे कहा, फिर गुलाबो से बोली, "चल री शूरू हो जाओ!"

मास्टर जी ने मर्दाना आवाज़ में गीत का मुखड़ा उठाया थाः--

मेरी अंगिया जालीदार --

पसीना नस-नस में!

पसीना नस-नस में!

मेरा बाला जोबन तैयार --

आज नहीं बस में,

आज नहीं बस में!

फिर कोरस में सभी ने अपना स्वर मिलाया था। इसी के साथ गुलाबो व एक अन्य मोहिनी और चंदा ने थिरकना शुरू कर दिया था। चंदा की भाव-भंगिमा रेखा को कुछ जमी नहीं तो उसने टोक दिया "देख री -- 'अंगिया जालीदार' पे अपने कंधों को हिला -- ऐसे... और 'जोबन' पे हाथों को यहाँ ले आ!... चल फिर कर!" कहते हुए वह 'जोबन' पर अपने हाथों को स्तनों के पास ले आर्इ थी... और अपनी भवों को उसने आरोह-अवरोह की मुद्रा में ऊपर-नीचे किया था। मैंने भी प्रयास किया, मगर कर नहीं पाया।

मुखड़ा एक बार फिर उठाया गया था। बाकी लोग रेखा की ओर देखकर, उसके हाव-भाव और मुद्राओं को समझने का प्रयास कर रहे थे। साजिंदों सहित इन सबका समवेत स्वर कर्कश होने के बावजूद मन को मोह रहा था!... और अदाएँ -- वे तो बस पूछिए मत!

गीत फिर शुरू हो गया थाः--

मेरी अंगिया जालीदार --

पसीना नस-नस में,

पसीना नस-नस में!

मेरा बाला जोबन तैयार --

आज नहीं बस में,

आज नहीं बस में!

-कोरस-

मेरे घुंघरू की झंकार --

आज सारे जग में,

आज सारे जग में!

मेरे ठुमके की ललकार --

आज हर दिल में,

आज हर दिल में!

-कोरस-

मेरे होठों की ये प्यास --

बुझा दे पिया पल में,

बुझा दे पिया पल में!

मुझे बाहों में भर, आग --

लगा दे पिया तन में,

लगा दे पिया तन में!

-कोरस-

मेरी अंगिया जालीदार --

पसीना नस-नस में,

पसीना नस-नस में!

मेरा बाला जोबन तैयार --

आज नहीं बस में,

आज नहीं बस में!

*****