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गलतफहमी

!! गलतफहमी !!
कल्याण दास एक धनी व्यक्ति थे । उनका व्यवसाय बहुत ही अच्छा चलता था । उनके पास किसी चीज की कोई कमी नहीं थी , कमी थी तो सिर्फ औलाद की । अनेक प्रकार से इलाज किया और तमाम तरीके के पूजा-पाठ व धार्मिक अनुष्ठान किए ।
वो जब भी बातचीत करते तो उनका विषय एक ही होता -" काश , भगवान मुझे एक बेटी ही दे देता जिस पर मैं अपना वात्सल उड़ेल पाती । मेरे न रहने बाद इस परिवार को देखती और मेरे व्यवसाय व नाम को आगे बढ़ाती । "
उन्होंने बड़े धूमधाम से अपनी शादी की 21 वी सालगिरह मनाई । उसके कुछ ही समय के बाद उन्हें पता चला कि उनकी पत्नी गर्भ से है । नवें महीने में पत्नी ने एक पुत्र को जन्म लिया । पुत्र का लालन-पालन बड़े ही लाड व प्यार ,दुलार से हुआ । शनै -शनै पुत्र बडा हुआ , इकलौता और अधिक प्यार दुलार की वजह से वह जिद्दी और हठधर्मी हो गया । जो उसकी मर्जी होती वह वहीं करता । पढ़ाई लिखाई पर भी ध्यान नहीं देता था । सब कुछ अपनी मनमर्जी के मुताबिक ही करता था , धीरे-धीरे उसकी संगत गलत लोगों से हो गई ।
पिता के पैसे का रसूख और उसका अहंकार सर चढ़कर बोलता था । वह अनाप-शनाप चीजों पर पैसे खर्च करता , गलत व्यसनों में पडने लगा क्योंकि पैसे की कमी नहीं थी ।जब पिता पैसे ना देते तो जबरदस्ती धमकाकर उनसे पैसे ले जाता । घनश्याम दास जी ने उसको कई बार समझाने की कोशिश की लेकिन वह उनकी किसी बात का पालन न करता और अपनी शैतान मित्र मंडली के साथ ही गुलछर्रे उड़ाता रहता ।
सेठ जी का अच्छा खासा साम्राज्य था , बेटे की हरकतों ने उन्हें अंदर तक विचलित कर सोचने को मजबूर कर दिया । बहुत सोच विचार कर उन्होंने अपने पैसों से धर्मशाला , स्कूल चिकित्सालय ,गेस्ट हाउस और गरीबों के लिए घर बनवा दिए और अपने पैसे को सामाजिक कार्यों और सेवा में खर्च करने लगे । फिर भी पुत्र तो पुत्र ही होता है ,उन्हें इस बात की चिंता सदैव सताती रहती कि रुपेश अपनी जिम्मेदारियों को अच्छे से समझ जाए वरना अपूर्ण ज्ञान के अभाव में रूपेश इस संपत्ति को कौड़ियों के भाव बेच देगा या तितर-बितर कर देगा । बेटे की चिंता में घुलते हुए सेठानी जी भगवान को प्यारी हो गई ।
पत्नी की मृत्यु से और सेठ जी और भी चिंतित रहने लगे । वह सदैव इसी उलझन में रहते मेरे ना होने पर इस व्यवसाय व प्रॉपर्टी का क्या होगा ? रूपेश का खर्चा कैसे चलेगा क्योंकि वह अपनी जिम्मेदारियों को उठाने में नाकामयाब है ?
सेठ जी को लोगों ने सलाह दी कि इसका विवाह कर दो तो यह सुधर जाएगा । सेठ कल्याण दास जी को यह सुझाव अच्छा लगा और उन्होंने रुपेश की शादी सुंदर सुशील लड़की से कर दी कर दी । शादी के बाद भी उसकी आदतों में कोई खास सुधार नहीं आया । बहू भी बेटे की हरकतों को सुधार ना सकी ।
एक बार सेठ जी बहुत बीमार हो गए और उन्होंने पुत्र रूपेश को बुलाकर कहा -" बेटा लगता है मेरा अंत समय आ गया है तो अब तुम अपनी जिम्मेदारियों को समझो और अपना ध्यान रखो । कल को मेरे ना होने पर तुम्हें ही तो सब देखना है । सदा की तरह आज भी बेटे ने उनकी बात अन सुनी कर दी । यह देखकर कल्याण दास जी को बहुत ही दुख हुआ ।
लड़की वालों ने भी कल्याण दास जी की संपत्ति देखकर अपनी बेटी की शादी कर दी थी यह सोचते हुए किइतनी संपत्ति है उसके सहारे हमारी बेटी की जिंदगी आराम से कटेगी । कल्याण दास जी ने मन ही मन एक निश्चय कर अपने वकील को बुलाकर अपनी एक वसीयत करवाई और उसको उन्होंने अपनी तिजोरी में बंद करके रख दिया ।
उन्होंने बहुत से कहा-" बेटी ! मेरे ना रहने पर तिजोरी को खोलना । " कुछ समय बाद कल्याण दास जी की मृत्यु हो गई । रुपेश मन ही मन ही मन खुश था कि अब तो पिता के ना रहने पर उसको कोई टोकने वाला नहीं होगा । वह दोनों हाथों दौलत से खेलेगा । जो चाहे वह करेगा क्योंकि उसको अब कोई भी रोकने वाला । अब वह अपने बचे हुए अरमान पूरे करेगा ।
जैसे -तैसे पिता की तेरहवीं बीती और बेटे ने झट पत्नी से चाबी लेकर तिजोरी को खोला ,अंदर एक फाइल रखी हुई थी । रूपेश ने झटपट उस फाइल को खोल कर पढ़ना शुरू किया । पढ़ने के बाद फाइल उसके हाथ से छूटकर जमीन पर गिर पड़ी । पत्नी ने उठाकर उन कागजों को पढ़ा । जिस बात का रूपेश को अंहकार था कि यह सब कुछ तो मेरा ही है और मुझसे कोई नहीं ले सकता , वही धन ,संपत्ति अब उसकी नहीं थी ।
कल्याण दास जी ने अपनी संपत्ति को रूपेश की नादानी की वजह से ट्रस्ट बना दिया और उस संपत्ति को उन्होंने उस ट्रस्ट के हवाले कर दिया था । जिससे एक निश्चित रकम उन्हें हर महीने मिलती रहेगी ताकि वह अपना व अपने परिवार का भरण पोषण कर सके ................अपना जीवन यापन कर सके और शेष रकम को उन्होंनेे धर्मशाला ,धर्मार्थ चिकित्सालय में लगा दिया जैसे कि गरीबों को रहने की रहने का इंतजाम हो और उनको मुफ्त चिकित्सा सुविधाएं मिलती रहे । इस वसीयत को पढ़कर रूपेश के तोते उड़ने लगे और वह औंधे मुंह जमीन पर आ गिरा । रूपेश को अपनी वसीयत से बेदखल करते हुए अपने पोते को उसके वयस्क होने के बाद उस संपत्ति का हिस्सेदार बनाया । उस सम्पति की संरक्षिका उसकी बहू रहेगी । बहू की आंखों में कृतज्ञता के आंसू भर आए । मन ही मन बोली पिता जी आपने बहुत सही फैसला किया और रुपेश काश ! आप किसी गलतफहमी में ना जीते तो आज पिताजी ने ऐसा न किया होता ।
स्वरचित मौलिक रचना
नमिता गुप्ता (उत्तर प्रदेश )

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