एबॉन्डेण्ड - 9 Pradeep Shrivastava द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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एबॉन्डेण्ड - 9

एबॉन्डेण्ड

- प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 9

बड़ा अजीब दृश्य है। दोनों उकंड़़ू बैठे-बैठे आगे बढ़ रहे हैं। असल में अंधेरा बोगी के कुछ हिस्सों में थोड़ा कम है। बाहर दूर-दूर तक रेलवे ने जो लाइट लगा रखी हैं उनका थोड़ा असर दूर खड़ी इस बोगी के दरवाजे, टूटी-फूटी खिड़कियों से अन्दर तक होता है। दोनों बाथरूम की ओर आगे बढ़ रहे हैं। बोलते भी जा रहे हैं, ‘इस तरह वहां तक पहुंचने में तो पता नहीं कितना टाइम लग जाएगा।’

‘कुछ टाइम नहीं लगेगा, लो पहुंच गए।’

‘कहां पहुंच गए, बाथरूम किधर है। मुझे कुछ दिख नहीं रहा। मोबाइल ऑन करो ना।’

‘तुम भी आफ़त कर देती हो। लो कर दिया अब तो दिखाई दिया।’

‘हां दिखाई दिया। अभी कितनी तो दूर है और कह रहे थे कि पहुंच गए।’

‘ठीक है अब उठ जाओ इधर की खिड़कियां बंद हैं।’

बाथरूम से वापस पहुँच कर दोनों फिर अपनी जगह बैठ गए हैं। लेकिन पहले की अपेक्षा अब शांत हैं। थकान और नींद का असर अब दोनों पर दिख रहा है। ये ना हावी हो यह सोचकर युवती कह रही है।

‘बैठे-बैठे इतना टाइम हो गया, पता नहीं कब साढ़े तीन बजेगा। अभी भी दो घंटा बाकी हैं। सुनो कुछ खाने के लिए निकालो ना।’

इस समय मोबाइल युवती के हाथ में है। युवक का तंज सुनिए।

‘तुम लड़कियों के दो काम कभी नहीं छूटते।’

‘कौन-कौन से।’

‘एक तो कभी चुप नहीं रह सकतीं। दूसरे उनको हमेशा कुछ ना कुछ खाने को मिलता रहना चाहिए। जिससे उनका मुंह चपर-चपर चलता रहे।’

‘अच्छा, जैसे तुम लड़कों का दिनभर नहीं चलता। जब देखो तब मंुह में मसाला भरे चपर-चपर करते रहते हो। पिच्च-पिच्च थूक कर घर-बाहर, हर जगह गंदा किये रहते हो।’

‘मैं मसाला-वसाला कुछ नहीं खाता, समझी। इसलिए मुझे नहीं कह सकती।’

‘मैं तुम्हें कुछ नहीं कह रही हूं। तुमने लड़कियों की बात की तो मैंने लड़कों के बारे में बताया। मुंह चलाते रहने के अलावा जैसे उनके पास कोई काम ही नहीं है।’

‘अच्छा ठीक है, ये लो नमकीन और बिस्कुट, खाओ। लेकिन कुछ बोलो नहीं।’

‘तुम भी खाओ ना, अकेले नहीं खा पाऊंगी।’

‘हे भगवान। बार-बार वही बकवास करती रहती है। मैं तो खा ही रहा हूं।’

‘अरे, खाने ही को तो कहा है। काहे गुस्सा हो रहे हो।’

युवती ने लगभग आधी मुट्ठी नमकीन मुंह में डालकर खाना शुरू किया है। नमकीन काफी कुरकुरी लग रही है क्योंकि उसके मुंह से कुर्र-कुर्र की आवाज़ सुनकर युवक कह रहा है।

‘तू नमकीन खा रही है कि पत्थर चबा रही है, कितनी तेज़ आवाज़ कर रही है।’

‘कमाल की बात करते हो। कड़ी चीज़ होगी तो आवाज़ तो होगी ही ना। क्या सब ऐसे ही निगल जाऊं।’

‘नहीं, जितनी तेज़ कुर्र-कुर्र कुरा सकती हो कुर्र कुराओ।

‘ठीक है, मैं अब केवल बिस्कुट ही खाऊंगी, इससे कोई आवाज़ नहीं होगी।’

‘अरे मैं मजाक कर रहा था। ले और खा और ये पानी पकड़।’

‘नहीं, पानी तो बिल्कुल नहीं पियूंगी।‘

‘क्यों?‘

‘फिर जाना पड़ेगा और तुम बोलोगे कि बैठे-बैठे चलो। और मैं कहूंगी कि तुम भी कर लो तो कहोगे क्या जबरदस्ती कर लूं। अच्छा सुनो, मैं थोड़ी देर लेटना चाहती हूं, बहुत थक गई हूं।’

‘ठीक है लेट जाओ।‘

‘चाहो तो तुम भी थोड़ी देर लेट लो ना। बहुत टाइम हो गया है। पूरे दिन से लगातार कुछ न कुछ कर रहे हो। लगातार बैठे हो या चल रहे हो।’ इस बार युवक पर थकान ज़्यादा हावी हो गई है। वह कह रहा है।

‘ठीक है, चलो थोड़ा उधर खिसको, तभी तो लेटूंगा। अरे मुझे इतना क्यों पकड़ रही हो, गुदगुदी लग रही है।’

‘तुम चटाई पर ही आओ ना, उधर जमीन पर क्यों जा रहे हो।’

‘आ तो गया हूं लेकिन तुम इतना कसकर पकड़ रही हो कि मुझे गुदगुदी लग रही है।’

‘पकड़ नहीं रही हूं, केवल साथ में ले रही हूं।’

‘ठीक है। चलो उधर खिसको, आ रहा हूं।’

दोनों चटाई पर एक-दूसरे में समाए हुए लेटे हैं। मुश्किल से दस मिनट ही हुआ है कि यह क्या युवती एकदम से हड़बड़ाकर उठ बैठी है। उसके मुंह से घुटी-घुटी सी ई-ई-ई की आवाज़ निकल गई है। युवक भी उसी के साथ उठ बैठा है। काफी घबराया हुआ है और युवती से पूछ रहा है, ‘क्या हुआ?’ युवती अपनी सलवार ऊपर खींचती हुई कह रही है।

‘लगता है कपड़े में कोई कीड़ा घुस गया है।’ युवक ने जल्दी से मोबाइल टॉर्च ऑन करके देखा तो घुटने से थोड़ा नीचे करीब दो इंच का एक कनखजूरा चिपका हुआ था। युवक ने पल भर देरी किये बिना उसे खींचकर अलग किया और जूते से मार दिया। बिल्कुल कुचल दिया। युवती थर-थर कांप रही है। युवक ने बड़ी बारीकी से उस जगह को चेक किया, जहां कनखजूरा चिपका था। बड़ी देर में दोनों निश्चिंत हो पाए कि उसने काटा नहीं है। दोनों के चेहरे पर पसीने की बूंदें साफ दिख रही हैं। युवक ने एक बार फिर से पूरी जगह को बारीकी से साफ किया और फिर से दोनों लेट गए हैं।

अब आप इस युवा कपल को क्या कहेंगे। दिन भर के थके थे। ना सोने की तय किये थे। इसलिए बार-बार बात नहीं करेंगे कहते लेकिन बात करते ही रहे। लेकिन तय समय के करीब आकर नींद से हार कर सो गए। अब यह सोना इनकी खुशकिस्मती है या बदकिस्मती। आइए देखते हैं। बड़ी देर बाद युवती घबराकर उठ बैठी है। अफनाई हुई कह रही है।

‘सुनो-सुनो, जल्दी उठो, देखो ट्रेन जा रही है क्या?’

युवक बड़ी फुर्ती से हड़बड़ा खिड़की से बाहर देख रहा है। जाती हुई ट्रेन की पहचान कर माथा पीटते हुए कह रहा है, ‘हे भगवान, यह तो वही ट्रेन है। अब क्या होगा। मैं बार-बार कह रहा था सो मत, लेकिन तू तो पता नहीं कितनी थकी हुई थी। बार-बार लेट जाओ, आओ लेट जाओ, लो लेट गए, लेट हो गए और ट्रेन चली गई। बताओ अब क्या करूं। यहीं पड़े रहे अगले चौबीस घंटे तक तो घर वाले ढूंढ़ ही लेंगे। निकाल ले जाएंगे यहां से। कल अंधेरा होने की वजह से नहीं आ पाए।

दो घंटे बाद जहां सवेरा हुआ तो पूरा दिन है उनके पास। चप्पा-चप्पा छान मारेंगे वह। हमें निश्चित ही ढूंढ़ लेंगे और तब ना ही मैं जिंदा बचूंगा और ना ही तुम। बुरी मौत मारे जाएंगे। पहले सब पंचायत करेंगे, पूरा गांव चारों तरफ से इकट्ठा होगा। हमें अपमानित किया जाएगा। मारा-पीटा जाएगा और फिर बोटी-बोटी काटकर फेंक दिया जाएगा वहीं।’

‘नहीं ऐसा मत बोलो।’

‘तो क्या बोलूं, जो सामने दिख रहा है वही तो बोलूंगा ना। अब ऐसे रोने-धोने से काम नहीं चलेगा। जो है उसे देखो और सामना करो।’

‘तुम भी तो इतनी गहरी नींद सो गए। मेरे नींद लग गई थी तो कम से कम तुम तो जागते रहते।’

‘बड़ी बेवकूफ हो, तुम्हीं पीछे पड़ गई थी कि आ जाओ, सो जाओ, तब मैं लेटा था। मैं भी थका हुआ था कि नहीं।’

‘तो मैं क्या करती। अच्छा सुनो अभी खाली यह बताओ कि किया क्या जाए?’

‘सिवाए इंतजार के और कुछ नहीं। कल रात को जब ट्रेन आएगी तभी चल पाएंगे। दिन में तो यहां से निकलना भी सीधे-सीधे मौत के मुंह में जाना है।’

‘लेकिन तुम तो कह रहे हो कि दिन होगा तो वह लोग यहां तक भी ढूंढ़ते-ढूंढ़ते पहुंच ही जाएंगे।’

‘सही तो कह रहा हूं। पूरा दिन होगा उनके पास ढूंढ़ने के लिए। एक-एक कोना, चप्पा-चप्पा छान मारेंगे। तू यह समझ ले कि मरना निश्चित हो गया है।’

‘मरना ही है तो सबके सामने बेइज़्ज़त होकर, मार खा-खा कर मरने से अच्छा है कि हम लोग यहीं अभी फांसी लगा लें। जीते जी एक साथ नहीं रह पाए तो कोई बात नहीं। कम से कम एक साथ मर तो लेंगे।’

‘चुप! मरने, मरने, बार-बार मरने की बात कर रही है। मैं इतनी जल्दी मरने के लिए तैयार नहीं हूं और अपने जीते जी तुझे भी मरने नहीं दूंगा।’

‘तो अब क्या करोगे?’

‘अभी उजाला होने में कम से कम डेढ़ घंटा है। यहां से बस स्टेशन करीब-करीब सात-आठ किलोमीटर दूर है। पैदल भी चलेंगे तो एक घंटे में पहुंच जाएंगे। वहां से कोई ना कोई बस सवेरे-सवेरे निकल ही रही होगी। वह आगे जहां तक जा रही होगी उसी से आगे चल देंगे। यहां से जितनी जल्दी, जितना ज़्यादा दूर निकल सकें पहली कोशिश यही करनी है।’

‘ठीक है चलो, फिर जल्दी निकलो यहां से।’

*****