एबॉन्डेण्ड
- प्रदीप श्रीवास्तव
भाग 1
इसे आप कहानी के रूप में पढ़ रहे हैं, लेकिन यह एक ऐसी घटना है जिसका मैं स्वयं प्रत्यक्षदर्शी रहा हूं। चाहें तो आप इसे एक रोचक रिपोर्ट भी कह सकते हैं। इस दिलचस्प घटना के लिए पूरे विश्वास के साथ यह भी कहता हूं कि यह अपने प्रकार की अकेली घटना होगी। मेरा प्रयास है कि आप इसे घटते हुए देखने का अहसास करें। यह जिस गांव में घटी उसे मैं गांव कहना गलत समझता हूं, क्योंकि तब तक वह अच्छा-खासा बड़ा कस्बा बन चुका था। मैं भी उसी गांव या फिर कस्बे का हूं।
गांव में मुख्यतः दो समुदाय हैं, एक समुदाय कुछ बरस पहले तक बहुत छोटी संख्या में था। इसके बस कुछ ही परिवार रहा करते थे। यह छोटा समुदाय गांव में बड़े समुदाय के साथ बहुत ही मेल-मिलाप के साथ रहा करता था। पूरे गांव में बड़ी शांति रहती थी। त्योहारों में सिवईंयां खिलाना, प्रसाद खाना एक बहुत ही सामान्य सी बात हुआ करती थी। मगर बीते कुछ बरसों में बदलाव की एक ऐसी बयार चल पड़ी कि पूरा परिदृश्य ही बदल गया। सिवईंयां खिलाना, प्रसाद खाना करीब-करीब खत्म हो गया है। अब एक समुदाय इस बात से सशंकित और आतंकित रहता है कि देखते-देखते कुछ परिवारों का छोटा समूह बढ़ते-बढ़ते बराबरी पर आ पहुंचा है।
यह बात तब एक जटिल समस्या के रूप में उभरने लगी, जब दूसरे समुदाय ने यह महसूस करना शुरू कर दिया कि सिवईंयां खिलाने, खाने वाला समुदाय उनके कामकाज, त्योहारों पर ऐतराज करने का दुस्साहस करने लगा है, इस तुर्रे के साथ कि यह उनके लिए वर्जित है। इन बातों के चलते मेल-मिलाप, मिलना-जुलना बीते जमाने की बातें हो गईं। अब दोनों एक-दूसरे को संदेह की नजरों से ही देखते हैं।
संदेह की दीवारें इतनी मोटी, इतनी ऊंची हो गई हैं कि कस्बे में अनजान लोगों की पल-पल बढ़ती आमद से प्रसाद खाने-खिलाने वाला समुदाय क्रोध में है। उनका गुस्सा इस बात को लेकर है कि यह जानबूझ कर बाहर से लोगों को बुला-बुला कर उन्हें कमज़ोर करने की घृणित साजिश है। क्रोध, ईर्ष्या, कुटिलता की इबारतें दोनों ही तरफ चेहरों पर साफ-साफ दिखती हैं। ऐसे तनावपूर्ण माहौल के बीच ही एक ऐसी घटना ने कस्बे में देखते-देखते चक्रवाती तूफ़ान का रूप ले लिया जो कि समाज में आए दिन ही घटती रहती है।
मैं आपको कस्बे के उस क्षेत्र में ले चलता हूं जहां चक्रवाती तूफ़ान का बीज पड़ा। यहां एक प्राथमिक विद्यालय है। उससे कुछ दूर आगे जाकर दो-तीन फीट गहरा एक बरसाती नाला दूर तक चला गया है। जो बारिश के अलावा बाकी मौसम में सूखा ही रहता है। जिसमें बड़ी-बड़ी घास रहती है। उसके ऊपर दोनों तरफ जमीन पर झाड़-झंखाड़ हैं। यदि इस नाले में कोई उतरकर बैठ जाए, तो दूसरी तरफ बाहर से उसे कोई देख नहीं सकता, जब तक कि उसकी मुंडेर पर ही खड़े होकर नीचे की ओर ना देखे।
उस दिन वह दोनों भी इसी नाले में नीचे बैठे हुए बातें कर रहे थे। अब मैं आपको पीछे उसी समय में ले चलता हूं जब वह दोनों बातें कर रहे थे।
आइए, आप भी सुनिए उस युवक-युवती की बातें। ध्यान से। और समझने की कोशिश करिए कि ऐसा क्या है जो हम लोग अपनी आगामी पीढ़ी के बारे में नहीं सोचते, उन्हें समझने का प्रयास नहीं करते, जिसका परिणाम इस तरह की घटनाएं होती हैं।
युवक युवती को समझाते हुए कह रहा है, ‘देखो रात को साढ़े तीन बजे यहां से एक ट्रेन जाती है। उसी से हम लोग यहां से निकल लेंगे। दिन में किसी बस या ट्रेन से जाना खतरे से खाली नहीं है।’
युवक युवती के हाथों को अपने हाथों में लिए हुए है। सांवली-सलोनी सी युवती का चेहरा एकदम उसके चेहरे के करीब है। वह धीमी आवाज़ में कह रही है, ‘लेकिन इतनी रात को हम लोग स्टेशन के लिए निकलेंगे कैसे? यहां तो दिन में ही निकलना मुश्किल होता है।’
‘जानता हूं। इसलिए रात को नहीं, हम लोग स्टेशन के लिए शाम को ही चल देंगे।’
‘अरे! इतनी जल्दी घर से आकर स्टेशन पर बैठे रहेंगे तो घर वाले ढूंढ़ते-ढूंढ़ते वहीं पहुंच जाएंगे। छोटा सा तो गांव है। ज़्यादा देर नहीं लगेगी उन लोगों को वहां तक पहुंचने में। ढूंढ़ते हुए सब पहले बस स्टेशन, रेलवे स्टेशन ही पहुंचेंगे । हम लोगों को वहां पा जाएंगे तो ज़िंदा नहीं छोड़ेंगे, वहीं मारकर फेंक देंगे।’
युवती की इस बात से भी युवक के चेहरे पर कोई शिकन नहीं, बल्कि दृढ़ता भरी मुस्कान ही उभरी है। वह दृढ़तापूर्वक कह रहा है, ‘जानता हूं, लेकिन खतरा तो मोल लेना ही पड़ेगा ना।’
‘ऐसा खतरा मोल लेने से क्या फायदा जिसमें मौत निश्चित हो। यह तो सीधे-सीधे खुद ही मौत के मुंह में जाने जैसा है। इससे तो अच्छा है कि और इंतजार किया जाए, कुछ और तरीका ढूंढ़ा जाए, जिससे यहां से सुरक्षित निकलकर अपनी मंजिल पर पहुंच सकें।’
‘ऐसा एक ही तरीका हो सकता है और वह मैंने ढूंढ़ लिया है। उसके लिए जो जरूरी तैयारियां करनी थीं, वह सब भी कर ली हैं। पिछले तीन-चार दिन से यही कर रहा हूं।’
युवक की इस बात से युवती के चेहरे पर हल्की नाराज़गी उभर आई है। जिसे जाहिर करते हुए वह कह रही है, ‘अच्छा, तो अभी तक बताया क्यों नहीं? इतने दिनों से सब छिपा कर क्यों कर रहे हो?’
‘पहले मैं खुद ही नहीं समझ पा रहा था कि जो कर रहा हूं वह सही है कि नहीं। कहीं ऐसा ना हो कि बचने के चक्कर में खुद ही अपने को फंसा दूं और साथ ही तुम्हारी जान भी खतरे में डाल दूं।’
‘इसीलिए कहती हूं कि बात कर लिया करो, मिलकर काम करेंगे तो आसान हो जाएगा। ऐसे अकेले तो खुद भी नुकसान उठाओगे और हमारी जान भी ले लोगे।’
‘नहीं, तुम्हारी जान मेरे रहते जा ही नहीं सकती। तुम्हारी जान चली जाएगी तो मैं क्या करूंगा। मेरी जान तो तेरे से भी पहले चली जाएगी। इसलिए मैं कुछ भी करूंगा, लेकिन सबसे पहले तुम्हारी सुरक्षा की सोचुंगा, उसका इंतजाम करूंगा, भले ही हमारी जान चली जाए।’
‘तुम भी कैसी बात करते हो, मेरी तो जान ही तुम्हारे में ही बसती है। तुम्हारे साथ ही चली जाएगी, बार-बार तुम जान जाने की बात क्यों कर रहे हो। हम ज़िंदगी जीना चाहते हैं। इस दुनिया में आए हैं तो हम भी लोगों की तरह सुख उठाना चाहते हैं। ना तो किसी को हमें मारने का हक़ है और ना ही हम मरना चाहते हैं, सोचना भी नहीं चाहते, समझे। तुम भी अपने दिमाग से यह शब्द ही निकाल दो। इसी में हमारा भला है।’
‘तुम सही कह रही हो। एकदम तुम्हारी ही तरह जीना तो हम भी चाहते हैं। कौन मरना चाहता है, लेकिन जब हमारे मां-बाप ही, दुनिया ही हमारे पीछे पड़ी हो तो जान का खतरा तो है ही, और हमें कुछ ना कुछ खतरा तो उठाना ही पड़ेगा ना। इसका सामना तो करना ही पड़ेगा।’
‘यह दुनिया नहीं। इसके पास तो किसी के लिए समय ही नहीं है। सिर्फ़ हमारे मां-बाप ही हमारे पीछे पड़े रहते हैं। वही पड़ेंगे। वही इज़्ज़त के नाम पर हमें ज़िंदा नहीं छोड़ेंगे, अगर पकड़ लिया तो हमें बड़ी बुरी मौत मारेंगे।’
‘नहीं, नहीं, ऐसा नहीं है। दरअसल दुनिया में एक हालात तो वह है जिसमें परिवार में ही किसी के पास किसी के लिए समय नहीं है। सबका सारा समय अपने लिए है। अपने मोबाइल के लिए है। लेकिन जब हम दोनों जैसा मामला आता है तो इनके पास समय ही समय होता है। ये अपना सब कुछ छोड़-छाड़ कर एकदम फट पड़ते हैं। जात-पात, धर्म, इज़्ज़त के नाम पर इनका पूरा जीवन न्योछावर होता है। अभी हमारे बारे में पता चल जाए तो देखो क्षण भर में सब गोली, बंदूक लेकर इकट्ठा हो जाएंगे कि यह हिन्दू-मुसलमान का मामला है। ये एक साथ रह ही नहीं सकते। यह रिश्ता हो ही नहीं सकता। ये हमें तो मारेंगे ही, साथ ही लड़कर अन्य बहुतों को भी मार डालेंगे।’
‘ये तो तुम सही कह रहे हो। तब तो इन लोगों के पास समय ही समय होगा। लेकिन पहले तुम यह बताओ जल्दी से कि इंतजाम क्या किया है? हम भी तो जाने तुमने ऐसा कौन सा इंतजाम किया जिसको करने में चार-पांच दिन लग गए।’
‘चार-पांच नहीं, हमने तीन-चार दिन कहा है।’
‘हां, हां, वही जल्दी बताओ अंधेरा होने वाला है।’
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