एबॉन्डेण्ड - 8 Pradeep Shrivastava द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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एबॉन्डेण्ड - 8

एबॉन्डेण्ड

- प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 8

युवती फिर बहुत भावुक हो रही है। युवक गम्भीर होकर कह रहा है।

‘तुम बार-बार केवल अपने को ही क्यों कहती हो। अब हम दोनों की ज़िंदगी एक-दूसरे के सहारे ही चलेगी। अब अकेले कोई भी नहीं रहेगा।’

उसकी बात सुनते ही युवती उससे लिपटकर फिर प्यार उड़ेलने लगी तो वह उसे संभालते हुए कह रहा है।

‘ओफ्फ हो! सारा प्यार यहीं कर डालोगी क्या? मना करती हो फिर करने लगती हो। दिल्ली के लिए कुछ बचाकर नहीं रखोगी?’

‘सब बचाकर रखे हुए हूं। तुम्हारे लिए मुझमें कितना प्यार भरा है, यह तुम अभी सोच ही नहीं पाओगे। आओ अब तुम भी लेट जाओ। कब तक बैठे रहोगे। लेटे-लेटे ही जागते रहेंगे?’

‘नहीं। यह लापरवाही अच्छी नहीं। जरा सी लापरवाही, जरा सा आराम हमें कहीं का नहीं छोड़ेगी।’

‘ठीक है। सोएंगे नहीं लेकिन कम से कम लेटे तो रहो, थोड़ा आराम कर लो। अभी आगे बहुत ज़्यादा चलना है। पता नहीं कब सोने, बैठने, लेटने को मिले।’

‘तुमसे बार-बार कह रहा हूं, जिद मत करो। मैं लेट जाऊंगा तो मुझे नींद आ सकती है। तुम्हें भी आ सकती है। कहीं दोनों सो गए और ट्रेन निकल गई तो जीते जी ही मर जाएंगे। दिन भर यहां से बाहर नहीं निकल पाएंगे। बिना खाना-पानी के कैसे रहेंगे। बाथरूम जाने तक का तो कोई ठिकाना नहीं है। कितनी गंदगी, कितना झाड़-झंखाड़, कूड़ा-करकट पड़ा हुआ है। पानी तक नहीं है।’

युवक एक पल का भी रिस्क लेने को तैयार नहीं है। युवती को अपने से ज़्यादा उसकी चिंता है। इसलिए कह रही है, ‘तुम यकीन करो, जितनी ज़्यादा तुम्हें चिंता है, उतनी ही मुझे भी है। हम बिल्कुल भी नहीं सोएंगे, बैठकर बात करने के कारण थोड़ी ज़्यादा आवाज़ हो जा रही है। लेटे रहेंगे तो एकदम करीब रहेंगे।

धीरे-धीरे बातें करते रहेंगे। इतनी धीरे कि हमारे अलावा और कोई भी सुन नहीं पाएगा। फिर इतने झींगुरों, कीड़े-मकोड़ों की आवाज़ बाहर हो रही है। यहां अंदर भी कितने झींगुरों की आवाज़ सुनाई दे रही है। यहां तो तुमने इतना ज़्यादा साफ कर दिया है कि पता नहीं चल रहा है। वरना बैठना भी मुश्किल हो जाता। अच्छा, जरा उधर देखो, कोई लाइट इधर की तरफ बढ़ती हुई लग रही है।’

‘हां... कोई टार्च लिए आ रहा है। ऐसा है तुम एकदम सीट के नीचे चली जाओ। और यह चटाई ऊपर ही डाल लो ऐसे जैसे कि कोई सामान रखा हुआ है।’

‘और तुम कहां जा रहे हो?’

‘मैं खिड़की के पास जा रहा हूं, देखूंगा कौन है, किधर जा रहा है।’

‘संभालकर जाना। एकदम छिपे रहना। कोई देखने ना पाए।’ अब तक युवती थोड़ी निडर हो चुकी है। इस बार युवक को जाने दिया। चिपकी नहीं रही उसके साथ।

युवक बड़ी सावधानी से बंद खिड़की की झिरी से बाहर आंख गड़ाए देख रहा है। बाहर ना जाने क्या उसे दिख रहा है कि उसकी सांसें फूलने लगी हैं। वह बड़ी देर बाद युवती के पास लौटा तो वह भी घबराई हुई पूछ रही है, ‘इतना हांफ क्यों रहे हो?’

‘मुझे अभी लगा कि जैसे हम बस अब मारे ही जाएंगे। दूर से ऐसा लग रहा था जैसे हाथ में लाठी लिए लोग चले आ रहे हैं। करीब आए तब दिखा कि वह सब रेलवे के ही कर्मचारी हैं। अपने औजार लेकर आगे जा रहे हैं। उन्हीं में से दो के हाथों में टॉर्च थी, उसी को जलाते चले आ रहे थे। जिसकी लाइट तुमने देखी थी, सोचो अगर सच में ऐसा होता कि हमारे घर वाले ही आ रहे होते, तब क्या होता।‘

‘कुछ नहीं होता।’

‘क्या पागलों जैसी बात करती हो।‘

‘पागलों जैसी नहीं। सही कर रही हूं। कुछ नहीं होता। मैं तुम्हें और तुम मुझे कसकर पकड़ लेते। फिर किसी हालत में ना छोड़ते। चाहे वह लोग हमारे-तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े कर डालते। और हम दोनों यहां नहीं तो मर कर ऊपर जाकर एक साथ ही रहते। ऐसे दुनिया वालों से छुटकारा मिल जाता जो हम जैसे लोगों को एक साथ रहने नहीं देते।’

‘मर जाना कहीं की भी समझदारी नहीं है, मूर्खता है मेरी नजर में।’

‘तो क्या उन लोगों के सामने लाठी-डंडा, गाली, अपमान के लिए खुद को छोड़ दिया जाएगा।’

‘नहीं, जब तक जिंदा हैं, जीवन है तब तक संघर्ष करते रहना चाहिए। हार नहीं माननी चाहिए। तुम हमेशा के लिए अपने मन में यह बात बैठा लो कि हमें हार नहीं माननी है। यहां से बचकर निकल गए तो हमेशा के लिए अच्छा ही अच्छा होगा। अगर ना निकले तो भी सामना करेंगे।’

दोनों में फिर बहस शुरू हो गई है। युवती कह रही है, ‘हम दोनों मिलकर अपने दोनों परिवारों के लोगों का क्या सामना कर लेंगे। उनके साथ पुलिस होगी। ढेर सारे लोग होंगे। सब हम पर टूट पड़ेंगे। मुझे सबसे ज़्यादा तुम्हारी चिंता है। वो तुम्हें सबसे पहले मेरे किडनैप के आरोप में पीटेंगे। हम लाख चिल्लाएंगे कि हम तुम्हारे साथ जीवन बिताने अपने मन से आए हैं। लाख सर्टिफ़िकेट दिखाएंगे कि हम बालिग हैं। लेकिन वो पिटाई के बाद ही कुछ सुनेंगे। क्योंकि हमारे घर वालों का उन पर दबाव होगा। उनकी जेबें वो गर्म कर चुके होंगे। लेकिन मैं यह सोचना भी नहीं चाहती। मैं सिर्फ़ इतना जानती हूं, मुझे पूरा यकीन है ऊपर वाले पर कि हमारे साथ ऐसा कुछ नहीं होगा। हम दोनों यहां से अच्छी तरह से दिल्ली पहुंच जाएंगे। ट्रेन टाइम से जरूर आएगी।’

‘जब इतना यकीन है तो बार-बार डर क्यों रही हो।’

‘हम भी इंसान हैं। इंसान डरता भी है और डराता भी है। वह लोग सब कुछ करेंगे ही ना, हमें अलग करने के लिए। आसानी से हमें एक नहीं होने देंगे। जी जान लगा देंगे हमें अलग करने के लिए। तो हमें भी जी जान से एक बने रहना है।’

‘तुम्हें कॉलेज में कौन टीचर समझाती है, पढ़ाती है। तुम्हारे भेजे में कुछ है भी या नहीं।’

‘टीचर पढ़ाती क्या है वह खुद ही पढ़ती रहती है।’

‘मेरे कॉलेज में तो मास्टर साहब पढ़ाते हैं। काम ना करो तो आफ़त कर देते हैं।’

‘मेरे यहां तो टीचर को ही कुछ पता नहीं है। मोबाइल पर न जाने किससे हमेशा चैटिंग करती रहती है। बीच में कुछ पूछ लो तो चिल्ला पड़ती है। गुस्सा होकर ऐसा काम देती है कि करते रहो, करते रहो लेकिन वो पूरा होने वाला नहीं। फिर चैटिंग से फुर्सत पाते ही तमाम बातें सुनाती है। अच्छा जरा एक बार फिर से तो टाइम देख लो।’

इस बार युवक ने बिना गुस्सा दिखाए कहा, ‘अभी तो बारह भी नहीं बजे, दस मिनट बाकी हैं।’

‘तो जरा मेरे साथ उधर तक एक बार फिर चलोगे क्या?‘

‘फिर से जाना है?‘

‘हां, इसीलिए तो पानी नहीं पी रही थी।‘

‘चलो, लेकिन बैठे-बैठे चलना। खड़ी नहीं होना। कई खिड़कियां खुली हुई हैं, टूटी हैं, बंद भी नहीं हो रही हैं। कई बार बंद करने कोशिश की थी, मगर सब एकदम जाम हैं। इसलिए बैठे-बैठे ही चलना जिससे बाहर कोई भी देख ना सके।’

‘बैठे-बैठे कैसे चलेंगे?’

‘जैसे बैठे-बैठे अपने घर के आंगन की सफाई करती हो, वैसे ही।’

‘अरे तुमने कब देख लिया आंगन में सफाई करते हुए।’

‘जब एक बार छोटी वाली चाची को डेंगू हो गया था तो वैद्य जी ने बताया कि बकरी का दूध बहुत फायदा करेगा। मैं सवेरे-सवेरे वही लेने तुम्हारे यहां आता था। तभी तुम्हें कई बार देखा था बैठे-बैठे आंगन की सफाई करते हुए। जैसे बूढ़ी औरतें करती हैं और धीरे-धीरे आगे की ओर बढ़ती जाती हैं। वैसे ही इस समय भी नीचे-नीचे चलो, मैं भी ऐसे ही चलूंगा।’

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