एबॉन्डेण्ड - 10 Pradeep Shrivastava द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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एबॉन्डेण्ड - 10

एबॉन्डेण्ड

- प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 10

चलने से पहले युवक के कहने पर युवती पेपर्स वाली पॉलिथीन, चटाई पर से उठाकर फिर से सलवार में खोंसने लगी तो युवक ने ना जाने क्या सोचकर उसे लेकर अपनी शर्ट में आगे रखकर बटन लगा ली। और पूछा, ‘तू इतनी दूर तक पैदल चल लेगी?’

‘जब मौत सिर पर आती है तो सात-आठ किलोमीटर क्या आदमी सत्तर-अस्सी किलोमीटर भी चला जाता है और तुझे पाने के लिए तो मैं पूरी पृथ्वी ही नाप लूंगी।’

‘तो चल निकल। नापते हैं सारी पृथ्वी। मेरा हाथ पकड़े रहना। छोड़ना मत। जल्दी-जल्दी चलो।’

दोनों बड़े हिम्मती हैं। बोगी से निकल कर करीब-करीब भागते हुए आगे बढ़ रहे हैं। मगर थोड़ा सा आगे निकलते ही युवक कह रहा है, रुको-रुको , एक मिनट रुको ।’

‘क्या हुआ?’

‘वहां प्लेटफॉर्म के आखिर में जहां पर फायर के लिए बाल्टियां टंगी हुई हैं। वहीं पर रेलवे के कर्मचारी अपनी साइकिलें खड़ी करते हैं। तू एक मिनट इधर रुक शेड के किनारे। देखता हूं अगर किसी साईकिल का लॉक खुला हुआ मिल गया तो उसे ले आता हूं। उससे बहुत आसानी से जल्दी निकल चलेंगे।’

‘यह तो साइकिल की चोरी है।’

‘इसके बारे में बाद में बात कर लेंगे। तुम अपने बालों में से एक चिमटी निकालकर मुझे दे दो।’

चिमटी लेकर गया युवक फुर्ती से एक साइकिल उतार लाया है। जिसे देखकर युवती कह रही है।

‘मुझे तो बड़ा डर लग रहा है। क्या-क्या करना पड़ रहा है।’

‘इतना आसान थोड़ी ना है घर वालों के खिलाफ चलना, घर से भागना। आओ बैठ जाओ। लो तुम्हारी चिमटी की जरूरत ही नहीं पड़ी। पता नहीं कोई जल्दी में था या फिर शराब के नशे में, ताला तो लगाया लेकिन उसमें से चाबी निकालना भूल गया। झोले में रखा हुआ एक टिफिन भी पीछे कैरियर पर लगा हुआ था। मैंने उसे निकालकर वहीं रख दिया।’

‘तुम्हें साइकिल उठाते डर नहीं लगा। ’

‘तू बिल्कुल बोल नहीं। मुझे जल्दी-जल्दी साइकिल चलाने दे।’

युवती को आगे बैठाकर युवक पूरी ताकत से साइकिल चला रहा है। लेकिन पहली बार साइकिल पर बैठने के कारण युवती ठीक से बैठ नहीं पा रही है। उसके हिलने-डुलने पर युवक कह रहा है।

‘ठीक से बैठ ना। इतना हिल-डुल क्यों रही है।’

‘मेरे पैर सुन्न होने लगे हैं।‘

‘तुम ज़्यादातर लड़कियां इतनी नाजुक क्यों होती हैं?‘

‘पता नहीं यह तो ऊपर वाला ही जाने।‘

‘क्या ऊपर वाला जाने? तमाम लड़कियां तो पहलवान बनकर पहलवानी कर रही हैं। सेना में जाकर गोलियां, फाइटर ज़ेट, बस, कार, ट्रक चला रही हैं।’

‘तो, ऐसे तो अपने गांव में ट्रैक्टर भी चला रही हैं। तो क्या सबकी सब पहलवान हैं। काम करना आना चाहिए। जरूरत होगी तो पहलवानी भी सीख लेंगे।’

‘चुप। बिलकुल चुप कर। चुपचाप बैठी रह। बिल्कुल बोलना नहीं। नहीं तो मैं तेरा मुंह फोड़ दूंगा। जब फूट जाएगा तभी चुप रहोगी क्या?’

‘मेरा मुंह मत फोड़ो। नहीं तो फिर मुंह कहां लगाओगे?’

‘तेरी ऐसी बातों के कारण ही रात में नींद आ गई और ट्रेन छूटी। अब ये साइकिल ट्रेन चलानी पड़ रही है।’

‘ठीक है। चुप हूं। और कितनी देर तक चलना पड़ेगा?’

‘अभी तो पन्द्रह मिनट भी नहीं हुए हैं। घंटा भर तो लगेगा ही।’

‘वहां कोई बस मिल जाएगी क्या?’

‘चुप, बिल्कुल चुप रह।’

युवक बिना रुके पूरी ताकत से साइकिल चलाए जा रहा है। गजब की ताकत, हिम्मत दिखा रहा है। पसीना उसकी नाक, ठुड्डी से होता हुआ टपक रहा है। युवती के पैर सुन्न हो रहे हैं। जिसे वह बार-बार इधर-उधर कर रही है। युवक का पसीना उसके सिर पर ही टपक रहा है। वह परेशान है और पूछ रही है, ‘अभी और कितना टाइम लगेगा?’

‘बस आने वाला ही है स्टेशन।’ जल्दी ही स्टेशन दिखने लगा है तो उतावली युवती कह रही है।

‘स्टेशन दिख रहा है, लग रहा है सूरज भी निकलने वाला है। जल्दी करो और तेज़ चलाओ ना।’

‘और कितनी तेज़ चलूँ ।’

‘तुम्हें पसीना हो रहा है क्या?’

‘तुम्हें इतनी देर बाद मालूम हुआ।’

‘गर्दन पर कुछ गीला-गीला बार-बार टपक रहा है तो मुझे लगा शायद तुम्हारा पसीना ही है।’

‘पसीने से पूरा भीग गया हूं। घंटा भर हो गया साइकिल चलाते-चलाते और कोई दिन होता तो इतना ना चला पाता। मगर तेरे लिए मैं इतना क्या, यहां से दिल्ली तक चला सकता हूं।’

‘और मैं भी कभी साइकिल पर इतनी देर बैठी नहीं। पैर बार-बार सुन्न हो रहे हैं। कभी इधर कर रही हूं, कभी उधर कर रही हूं। लेकिन अगर तू दिल्ली तक चलाए तो भी ऐसे ही बैठी रह सकती हूं।’

‘अच्छा चल उतर, इतनी लम्बी फेंक दी कि अब चला नहीं पा रहा हूं।’ स्टेशन पर पहुँच कर युवक ने झटके से साइकिल रोक कर युवती को उतरने के लिए कहा और स्टेशन की बाऊंड्री से सटाकर साइकिल खड़ी कर दी यह कहते हुए, ‘साइकिल गेट पर ही छोड़ देता हूं। जिसकी है भगवान उसको रास्ता दिखाना कि उसे उसकी साइकिल मिल जाए।’

सामने कुछ दूरी पर तैयार खड़ी एक बस को देखकर उत्साहित युवती कह रही है। ‘देखो बस तैयार खड़ी है, लगता है जल्दी ही निकलने वाली है।’

युवती युवक से भी ज़्यादा जल्दी में दिख रही है। सामने खड़ी बसों पर उसकी नज़र युवक से आगे-आगे चल रही है। युवक उसका हाथ पकड़े-पकड़े बस की तरफ बढ़ते हुए कह रहा है।

‘हां और अंदर ज़्यादा लोग भी नहीं हैं। दस-पन्द्रह लोग ही दिख रहे हैं।’ दोनों जल्दी-जल्दी चढ़ गए और बीच की सीट पर बैठ गए हैं। जिससे कि आगे पीछे सब पता चलता रहे। कंडक्टर अन्दर आया तो उसे देखकर युवती कह रही है, ‘टिकट ले लो। लेकिन यह बस जा कहां रही है?’

‘रायबरेली जा रही है। सामने प्लेट पर लिखा है। वहीं तक का टिकट ले लेते हैं।’

कंडक्टर टिकट देकर आगे चल गया तो युवती पूछ रही है। ‘यह कंडक्टर हम लोगों को ऐसे घूर कर क्यों देख रहा था।’

‘चुप रहो ना। उस तक आवाज़ पहुंच सकती है। रायबरेली पहुंचकर वहां देखेंगे, कोई ट्रेन मिल ही जाएगी दिल्ली के लिए। बस लगातार चलती रहे तो अच्छा है, वरना पकड़े जाने का डर है।’

‘रायबरेली कब तक पहुंचेगी?’

‘करीब दस बजे तक।’

इसी समय युवती चिहुंकती हुई कह रही है। ‘लगता है मेरा मोबाइल छूट गया है।’

‘क्या कह रही हो?’

‘हां, जल्दी-जल्दी में ध्यान नहीं रहा।’

‘रखा कहां था?’

‘मुझे एकदम ध्यान नहीं आ रहा है, अब क्या होगा?’

‘कुछ नहीं होगा। लोगों को जल्दी मिलेगा ही नहीं। साइलेंट मोड पर है। रिंग करके देखता हूं किसी के हाथ लग गया है या वहीं पड़ा है। अरे, रिंग तो जा रही है।’

इसी बीच युवती फिर चिहुंकती हुई बोली। ‘रुको, रुको। मोबाइल तो मेरे ही पास है।’

‘कमाल है सीने में छुपा के रखा हुआ है। और बता रही हो छूट गया। तुम्हें इतना भी होश नहीं रहता है।’

‘गुस्सा नहीं हो, जल्दबाजी और हड़बड़ाहट के मारे कुछ समझ में नहीं आ रहा था।’

‘अच्छा हुआ तुम हड़बड़ाई, बौखलाई। इससे एक बड़ा काम हो गया। नहीं तो चाहे जहां पहुंच जाते पकड़े निश्चित जाते। लाओ जल्दी निकालो मोबाइल। यह संभावना भी खत्म करता हूं।’

‘क्या?’

‘मोबाइल, मोबाइल निकालो जल्दी।’

युवती युवक की जल्दबाजी से सकपका गई है। उसे मोबाइल दे रही है।

‘यह लो।’

*****