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दरमियाना - 20

दरमियाना

भाग - २०

नंदा ने छोटी के सिर पर हाथ रख कर शायद पहली दुआ दी थी 'छोटी, मेरी एक बात याद रखना! मुझसे अब कभी नहीं मिलना, पर हां -– तुझे बहुत प्यारा बन्ना मिलेगा और तू बहुत खुश रहेगी।' मटकी तो इसने भी फोड़ दी थी, सबके नाम की। बस, एक ही बात का मलाल इसे हमेशा रहता -– बेटियाँ तो सभी की बिदा होती हैं, पर क्या कोर्इ अपनी 'बेटी' को इस तरह बिदा करता है?

बेटी या बेटा? एक बेहूदी जिज्ञासा। प्रायः सोचा जाता कि सृजन की प्रक्रिया से जो भी मिले, वह प्रकृति से प्राप्य है।... किन्तु इतना सहज-सरल तो यह सवाल कभी रहा ही नहीं। हमेशा अंशदान महत्वपूर्ण होता रहा, सृजन की प्रक्रिया नहीं।... जबकि अंशदान तो केवल निवृति है -– और सृजन? प्रसव वेदना? यानी निर्माण जो पलटकर लौटाता है? यह भी तो दोनों ही स्तरों पर होता है। किसी भी एक स्थिति में तो नहीं हो सकता।... सृजनात्मक मन –- और उर्वरा शरीर! दोनों का सामंजस्य। किन्तु यदि दैवीय कारणों से यह संतुलन बिगड़ जाए तो?... और ऐसा तो दोनों ही स्तरों पर हो सकता है -– मन के स्तर पर भी... और देह के स्तर पर भी।

पहले तो मन ही अथाह समुद्र है। लगता है, इसका कोर्इ ओर-छोर नहीं। कोर्इ भी दिशा नहीं -– दिग्भ्रमित। दसों दिशाओं में भी मन की तलाश संभव नहीं है।... फिर देह -- स्त्री की हो या पुरुष की! दोनों ही शारीरिक संरचनाओं को समझना भी इतना सरल नहीं है। यदि चिकित्सकीय आधार छोड़ दें तो!... तिस पर, कोर्इ तीसरी ही देह हो तो? पर इस तीसरे को 'तीसरा' भी कैसे कह सकते हैं? आखिर यह है तो इन दोनों के दरमियान ही -- दरमियाना!... यानी थर्ड तो हम हुए, स्त्री या पुरुष, वह तो दोनों के दरमियान है। यानी बीच का।

नंदा भी तो वही थी।

तार्इ अम्मा ने इसे इसी रूप में स्वीकार भी कर लिया था। इसके फेमिनियन स्वभाव को देखते हुए... या इससे कुछ ज्यादा ही नजदीकी के कारण -– सबसे पहले तार्इ अम्मा ने ही नंदा को बताया था कि वह पेट से हैं!

यह पगली तो झूम उठी थी -- 'क्या बात है, तार्इ अम्मा!... मुझे तो भार्इ ही चाहिए!'

बस उसी दिन से वह तार्इ अम्मा की खास देखभाल में लग गर्इ थी। पता नहीं र्इश्वर ने या अल्ला ने -– उसमें इतनी समझ बख्शी थी कि वह हर लिहाज से तार्इ अम्मा का ध्यान रखती। उन्हें क्या खाना है, कब खाना है, क्या करना है, क्या नहीं करना है -– यह सब हिदायतें नंदा खुद तार्इ अम्मा के सामने रख देती। तार्इ अम्मा मुस्कुरा भर देतीं। मन तो बलीहारी जाता ऐसी 'बेटी' पर। तार्इ अम्मा ने भी उसे अपना राजदार बना लिया था।

जच्चार्इ के सारे गुर तार्इ अम्मा ने ही उसे सिखा दिये थे। वह कब नंदू से नंदा, नंदा से बेटी, बेटी से सखी, सखी से खुद तार्इ अम्मा की माँ बनती चली गर्इ –- न तो तार्इ अम्मा को पता चला और न ही खुद उसे।... और अब तो वह बधार्इ गाने भी जाने लगी थी।

***

सुलतान को, तार्इ अम्मा ने नंदा के हाथों ही जना था।

यूँ समझो कि खुद की बंजर भूमि में, कभी भी कोर्इ कोंपल न फूट सकने की निश्चित सूचना के बाद उसने ही सबसे पहले नन्हें सुलतान को गोद में लिया था। पहले चुम्बन के साथ ही उसे सुलतान नाम इसी 'मरजानी' ने दिया था, जिसे न तार्इ अम्मा टाल सकीं और न ही फजल मियाँ ने कोर्इ आपत्ति उठार्इ थी।... बस यहीं से कुछ ऐसा हो गया था कि यह भी इसी घर का हिस्सा हो गर्इ थी। हो तो बहुत पहले ही गर्इ थी, मगर सुलतान के आगमन ने इस रिश्ते के रंगों को और अधिक चटख बना दिया था।... अब कोर्इ भी, किसी के भी हक में साधिकार खड़ा हो जाता था। इस जुगलबंदी से अच्छे-अच्छों की बोलती बंद हो जाती -– नंदा के मामले में भी और तार्इ अम्मा के संदर्भ में भी।

यूँ भी नंदा अब तक अपने पूरे शबाब पर आ चुकी थी। उसकी तालियों की टंकार इतनी मजबूत हो चुकी थी कि सामने वाले में दहशत पैदा कर दे!... साथियों की संगत तो सोने पे सुहागा! मोहल्ला इसे नाजायज दबंगर्इ के तौर पर देखता, मगर किसी की भी हिम्मत इनमें से किसी के भी खिलाफ कुछ कहने की न हो पाती। इसमें दबंगर्इ तो नंदा की ही थी -– शायद सामाजिक विद्रोह के कारण -– मगर रुखसाना बी के रुतबे को नकारना भी आसान नहीं था।

यह बात जितना इन सबके पक्ष में जाती थी, उतना ही खिलाफ भी जाती थी। जो डरते थे, वो जलते भी थे। जो स्वीकार भी करते, वे भी प्रायः तटस्थ ही बने रहना पसंद करते।... हालाँकि यह निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता कि उस हिन्दू-मुस्लिम फसाद के पीछे ये ही लोग थे -- मगर एक रात यह कुनबा न चाहते हुए भी उस सियासी फसाद की जद में आ गया था। कोर्इ नहीं जानता कि उस बलवे की असली वजह क्या थी! कोर्इ जान भी पाता, तो भला कैसे? सियासी जाँच सभी किसी मुकाम तक नहीं पहुँचती। कम से कम र्इमानदारी से तो नहीं ही।

इसके बाद तार्इ अम्मा ने जो कुछ भी बताया था, उसका लब्बोलुआब यही था कि उस रात शहर में दंगे फैल गये थे। कटघर गाड़ी खाना और पीपल महादेव मोहल्ले के बीच जमकर मारकाट मची थी। लोग इसे हिन्दू-मुस्लिम फसाद कह रहे थे। दोनों तरफ से एक-दूसरे के खिलाफ अफवाहें फैल रही थीं। नंदा अपनी एक साथी नगमा के साथ तार्इ अम्मा, सुलतान और रुखसार की हिफाजत में ही उनके पास रुकी थी। फजल मियां कारखाने से लौटे नहीं थे। फतह भी उन्हीं के साथ था। मकान के बड़े दरवाजे में कुंडी के साथ ही बल्ली फंसा कर मजबूत ओट बना दी गर्इ थी। नंदा और नगमा किसी भी हद से गुजर जाने के लिए तैयार थीं।

रात-भर चीखने-चिल्लाने -- 'काट डालों', 'मारो-मारो', 'जाने मत दो' और दहशतगर्दी की आवाजें आती रहीं थीं। कभी भगदड़-सी मच जाती, तो कभी पल भर में मरघटी सन्नाटा-सा तैर जाता। ये सभी अल्लाह से फजल मियाँ और फतह की सलामती के लिए दुआ माँग रहे थे। वे अनुमान लगा रहे थे कि शायद दोनों बाप-बेटा फैक्ट्री में ही रुक गये होंगे। एक-दूसरे को किसी भी तरह सूचना पहुँचाना नामुमकिन था। तार्इ अम्मा और रुखसार की आँखें रह-रह डबडबा जातीं। नंदा उनके कंधों पर हाथ रख कर भगवान का भरोसा दिलाती। पुलिस-प्रशासन को तो साँप ही सुँघ गया था।

जैसे-तैसे रात कटी, तो सुबह पीएसी ने मोर्चा सम्भाल लिया था। शहर भर में कर्फ्यू लगा दिया गया था। किसी को भी देखते ही गोली मारने के आदेश की मुनादी लगातार की जा रही थी। घर के झरोखे से तार्इ अम्मा ने किसी सिपाही से कुछ पूछना चाहा, तो उसने डपट दिया। पिछली शाम से ही 12-14 घंटे भयानक कहर टूटा था।

तीसरे दिन कर्फ्यू में दो घंटे की छूट मिली, तभी पता चल पाया कि फजल मियाँ और फतह को उनके कारखाने के पास ही कत्ल कर दिया गया था। दोनों ओर से अनेक लोग मारे गये थे।... तार्इ अम्मा का तो सब कुछ उजड़ गया था। दूसरा भला कौन था, जिसके भरोसे पहाड़-सी जवान लड़की और मासूस सुलतान को सम्भाला जा सकता था।

इस हादसे के बाद तो नंदा और बड़ी हो गर्इ थी। उसने जैसे-तैसे तार्इ अम्मा के साथ मिल कर रुखसार के निकाह का बंदोबस्त किया... फिर उन्हें और सुलतान को साथ लेकर, नंदा और नगमा भी दिल्ली चले आये। यहाँ एक परिचित के जरिये मकान का बंदोबस्त किया और तभी से लगभग 11 साल से, ये यहीं के होकर रह गये। इसके बाद तो मुनीरका का वही -- बंद गली का आखिरी मकान! सीलन की वजह से जिसकी दीवारें पपड़ी छोड़ रही थीं।... जहाँ से सूरज भी बिना नजर डाले, मुँह फेर कर चला जाता -– यही ठिकाना बना था उन सबके लिए। नगमा की किसी रिश्तेदार की मदद से यह मकान किराये पर मिल सका था। तभी से यह इन सबका बसेरा था।

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