दरमियाना - 18 Subhash Akhil द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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दरमियाना - 18

दरमियाना

भाग - १८

कुछ दिन उधर जाना नहीं हुआ, तो यह बात भी आर्इ-गर्इ-सी हो गयी। न मैंने कभी सुनंदा से इस बात का जिक्र किया... और न ही उसने कोर्इ सफार्इ देना जरूरी समझा। यूँ भी अब उस घर में केवल सुनंदा से ही मेरी घनिष्टता नहीं रह गर्इ थी। इस घटना से पहले भी मैं अनेक बार वहाँ गया था। कर्इ बार ऐसा भी होता कि सुनंदा वहाँ नहीं होती। किसी बधार्इ पर या अपनी किसी चेली के साथ... और या फिर किसी और काम से कहीं गर्इ होती। तब या तो मैं सुलतान को पढ़ाने लगता या फिर तार्इ अम्मा से ही उन्हें और सुनंदा को समझने का प्रयास करता।

एक दिन मुझे वह अवसर भी मिल ही गया था, जब सुनंदा की परतें मेरे सामने अनायास खुलती चली गर्इं। उस दिन जब मैं सुनंदा के घर पहुँचा तो दरवाजा सुलतान ने खोला था। वह मुझे बैठक की तरफ संकेत कर पानी लेने चला गया था। पानी लेकर आया, तो बोला, "आप बैठिए, अम्मी अभी नमाज पढ़ रही हैं। ...बी घर पर नहीं हैं।"

सुलतान मेरे पास नहीं बैठा था। मैं कुछ देर अकेला ही सूत्र और बिंदुओं को जोड़ने-समझने का प्रयास कर रहा था। खुदा से मिलकर तार्इ अम्मा, मुझसे मिलने चली आर्इ थीं। तब तक मैंने भी जैसे अपना मन बना लिया था। उन्होंने सुलतान को चाय के लिए आवाज दी और बैठक में फैला हुआ सामान सम्भालने लगीं। मैंने गौर से उनके चेहरे की तरफ देखा था -– वहाँ एक सौम्य-सी शांति थी।

"एक बात बताएँगी तार्इ अम्मा," मैं जैसे अचानक ही पूछ बैठा, "रिश्ते क्या केवल जन्म से होते हैं ?"

वे कुछ क्षण स्तब्ध-सी अपलक देखती रह गर्इं। पता नहीं मेरा सवाल समझने का प्रयास कर रहीं थी... या अपना कुछ उभर आया था! नहीं पता कि मेरे सवाल में, मुझे तलाश रही थीं या खुद को... और या फिर सुनंदा को शायद, क्योंकि अचानक पूछा गया मेरा सवाल बहुत-से संदर्भो को साथ लेकर सामने खड़ा हो गया था। फिर भी उन्होंने मेरा सवाल ‘कवर ड्राइव’ पर खेल दिया था, "क्यों, मियां-बीबी का रिश्ता क्या जनम से होता है?... मगर फिर भी जनम-जनम का होता है!"

"आप जानबूझ कर मेरा सवाल टाल रही हैं।" मैं झुँझला-सा गया था, "आप जानती हैं कि मैं आपके और सुनंदा के बारे में जानना चाहता हूँ। मैं जानता हूँ कि यह रिश्ता जन्म से तो नहीं है।"

वे एकदम शांत हो गर्इं। मगर विचलित नहीं दिखार्इ दे रही थीं। यही शायद उम्र की परिपक्वता होती है। मेरे सवालों की उत्कंठा को समझते हुए भी उन्होंने अपना धैर्य बनाये रखा। फिर शांत मन से ही कहने लगीं, "यहाँ तो किसी ने भी, तुमसे कुछ छिपाने की कोशिश नहीं की... जो था, वह सामने भी था।... जो तुम नहीं समझ पाये, वह तुमने किसी से पूछा ही नहीं।... और जो पूछा नहीं गया, वह बताया भी नहीं गया। शायद जरूरत ही नहीं थी।... तुमसे भी तो कुछ पूछा नहीं गया था।... जितना भी तुमने बताया, उतना ही समझा भी गया।... जो हम खुद समझ सकते थे, उतना तुम्हें सभी ने समझा भी है। फिर, शिकायत कैसी?"

सही कह रही थीं वे। क्या कुछ संबंधों को, बिना किसी सवाल के, बरसों तक नहीं जिया जा सकता? यह क्यों जरूरी है कि हर बात को पूछा ही जाए? जो समझ नहीं भी आ रहा, उसे अनावृत करना जरूरी है क्या? क्या उतना काफी नहीं था, जितना मैं समझ पा रहा था?... मुझे सवालों में उलझा देख, वे उठकर मेरे पास आर्इं और मेरे उलझे हुए बालों में उंगलियाँ फिरा दीं, "तुम हमारे क्या लगते हो?" उन्होंने बिना लाग-लपेट के पूछा था।

मैं बेसाखता बोल उठा, "तार्इ अम्मा कहता हूँ मैं आपको!"

"और सुनंदा को...?" उन्होंने बामुश्किल मेरी बात को पूरा होने दिया था।

अब मैं अचकचा गया था। समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या कहूँ! उनकी अनुभवी निगाहें मुझ पर सवाल की तरह टिकी थीं। मैंने मन ही मन कुछ संबोधन तलाशने का प्रयास भी किया -- गिरिया?... दोस्त?... या केवल वह अच्छी लगती है, बस! उससे मिलना, बात करना –- अच्छा लगता है। पर इसे नाम क्या दूँ? ऐसा भी नहीं कि रूह से महसूस करूँ... हम न देह से समान थे, न दिमाग से। दिल भी देह के अनुकूल ही परस्पर विपरीत थे और एक-दूसरे के विपरीत होने का आकर्षण भी नहीं था। न काम-धंधे की समानता, न कोर्इ रिश्तेदारी! मैं समझ नहीं पा रहा था कि क्या जवाब दूँ? एक बारगी लगा कि जब मैं कहीं से भी सुनंदा का कुछ नहीं लगता... या फिर यह कि जब हम दोनों ही एक-दूसरे से बेमेल हैं -– तो फिर मैं यहाँ क्यूँ आता हूँ?

मैं जिस मनःस्थिति से गुजर रहा था, उसे तार्इ अम्मा बहुत बेहतर ढंग से समझ रही थीं शायद। इसीलिए मुझे ऐसे सवाल में उलझा कर वे मंद-मंद मुस्करा रही थीं। फिर न जाने क्या सोच कर बोलीं, "एक बात बताइए बेटा!... वो, जिसे तुम तारा माँ कहते थे। रेशमा या संध्या -– इनमें से किसी से भी तुम्हारा कोर्इ सीधा संबंध था?"

तार्इ अम्मा के इस सवाल ने मुझे पहले वाले सवाल से राहत दी थी। मैं इतना भी समझ रहा था कि तारा-रेशमा-संध्या जैसे पात्रों से मेरा सानिध्य महज संयोग भी नहीं था। शायद इनके प्रति सोचने का मेरा नजरिया तार्इ अम्मा को समझ आ रहा था।... और मैंने तो अनेक मर्तबा यह सवाल खुद से पूछा ही है कि ये मेरे लगते क्या हैं?... या इनके प्रति यह मेरा स्वाभाविक लगाव है?... जिज्ञासा या कुतुहल?... या फिर अंतर्मन में दबी-छिपी-बैठी कोर्इ समलैंगीकता की कुंठा।... यह सवाल फिर मेरे ही सामने आकर क्यों खड़ा हो गया था? जबकि पूछा तो मैंने तार्इ अम्मा से था!... और वहाँ भी न तो कोर्इ लैंगिक समानता थी और न ही कोर्इ विपरीतार्थक संदर्भ।

तार्इ अम्मा ने मुझे शशोपंज में देखा, तो उठ कर मेरे पास आर्इं और मेरे सिर पर हाथ फेर कर मेरे बालों को बिखरा दिया, "अच्छा बेटा, मैं बताती हूँ - " उन्होंने कहा और मेरे नजदीक खटिया पर बैठ गर्इं।

सुलतान चाय ले आया था।

उन्होंने एक चाय मेरी तरफ बढ़ार्इ और दूसरी चाय की चुस्कियों के साथ उन्होंने कहना शुरू कर दिया था।

तार्इ अम्मा ने जो कुछ कहा, उसे यहाँ यथासंवाद रखने की स्थिति में मैं नहीं हूँ। कारण कि उन्होंने जो कुछ भी कहा, उसमें पीड़ा की आर्दता बहुत अधिक थी। सो, थोड़ा समेटकर मैं उनकी बात कहता हूँ --

बरेली में काश्तकारी छोड़ कर जनाब फजल अहमद परिवार के साथ मुरादाबाद चले आये थे। यहाँ के मोहल्ला कटघर गाड़ी खाना में एक मकान किराये पर ले लिया था। बीवी रुखसाना के पास एक बेटी रुखसार थी और बेटा फतह अभी गोद में था। चार फर्लांग पर एक बर्तन बनाने वाली फैक्ट्री में काम मिल गया था। मियां फलज तो पाँचों वक्त के नमाजी थे ही और बीवी रुखसाना भी थीं तो, मगर घर में मंगौड़ी-पापड़ बनाकर बेचने की जुगत में, या बच्चों की परवरिश में कभी-कभार नमाज टाल जातीं।... मगर रसूल और र्इमान की इत्ती पक्की थीं कि क्या कोर्इ हाजी भी होगा। बंदे-बंदे में खुदा देखतीं और किसी नामालूम शायर का एक शेर गुनगुना देतीं-

जिन्हें हो शक, वो करें और खुदाओं की तलाश

हम तो इंसान को दुनिया का खुदा कहते हैं!

बस, दुनियादारी की इसी खुदायी में उलझी रहतीं बीबी रुखसाना। सुलतान तब तक पैदा नहीं हुआ था। मोहल्ले-पड़ौस में शायद ही कोर्इ हो जो बीबी को बिना दुआ-सलाम किये निकल जाए। इसकी एक और बड़ी वजह भी थी। रुखसाना बी अक्सर कहा भी करतीं कि उन्हें अपनी सास से कुछ भी अच्छा नहीं मिला। सिवाय इसके कि उनकी सास मरजीना ने उन्हें बच्चे जनना सिखा दिया था। यूँ, बीबी ने जब अपनी संतानें जनीं, तब सास ही साथ थीं। किन्तु बरेली से मुरादाबाद चले आने के बाद बीबी रुकसाना ने बहुत-से बच्चों को यह दुनिया दिखाने में उनकी माँओं की बहुत मदद की। मरजीना की सिखार्इ हर बात, उन्हें हर आयत की तरह याद थी।

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