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दरमियाना - 17

दरमियाना

भाग - १७

खाना तार्इ अम्मा ने ही परोसा था। लगा कि वह सुलतान को खिलाने का आदेश देकर खुद गरम-गरम बनाने चली गर्इ थीं। एक माँ जैसी आत्मीयता या कहें कि वात्सल्य भी था... और शायद यही वह कारण था कि उनके बनाये खाने का स्वाद ही कुछ और था। मेरी माँ कहा करती थीं, ‘पाँच मसाले तो सभी डालते हैं खाने में, मगर जो दिल का छटा मसाला डाल दे -- तो उसके खाने में स्वाद अपने आप आ जाता है।’ यह छटा मसाला मैं कभी समझ नहीं पाया था। धीरे-धीरे जाना कि दिल से खिलाने की इच्छा को ही माँ ‘छटा मसाला’ कहती थीं। वही तो आज तार्इ अम्मा के खाने में भी था।... मगर इतना स्वाद उस दिन उनके खाने में क्यों था, यह मैं तब नहीं जान पाया था। बाद में मुझे यह समझ आने लगा कि उस दिन मुझे खाना खिलाते समय तार्इ अम्मा ने यह ‘छटा मसाला’ क्यों डाला था।

सीधे-सीधे तो मैं नहीं कह सकता, मगर अनुमान लगा सकता हूँ कि सुनंदा के साथ या उससे मिलने वाले भी कुछ ‘अलग तरह’ के लोग ही आते रहते होंगे। लेकिन इस बार मैं कुछ और ही तरह का था शायद।... या शायद तार्इ अम्मा ने इसे अचम्भे की तरह देखा हो।

ऐसा मैं इसलिए भी कह सकता हूँ कि उसके बाद मुझे अनेक बार सुनंदा के घर जाने का मौका मिला।... और ऐसा भी कर्इ बार हुआ कि जब सुनंदा घर पर नहीं रही होती। तार्इ अम्मा मुझे दालान के दायीं तरफ के नीचे वाले कमरे में ही बैठातीं, जिसे एक बैठक के रूप में बनाया गया था। वही औपचारिक व्यवहार में बैठने-उठने के काम आया करता था। मगर एक दिन शायद वे खुद को रोक नहीं पार्इ, "आशु, एक बात कहूँ बेटा!..."

"जी, तार्इ अम्मा!" मैं भी उन्हें इसी सम्बोधन से पुकारने लगा था।

"मुझे बहुत अच्छा लगता है बेटा, जब-जब तुम आते हो। जानते हो, ‘नंदा’ को भी अच्छा लगता है?" तार्इ अम्मा के चेहरे पर कुछ इस तरह के भाव आये थे, जैसे किसी विकलांग बच्चे को, आपने उसकी माँ की गोद से अपनी गोद में ले लिया हो। मैं केवल मुस्कुरा दिया था।... मगर मैंने महसूस किया कि धीरे-धीरे मैं और तार्इ अम्मा भी एक-दूसरे को बेहतर तरीके से समझने लगे थे। सुलतान भी मेरे साथ काफी सहज हो गया था। मैं अक्सर उससे उसकी पढ़ार्इ या हॉबी के बारे में ही बात किया करता।

ऐसा भी नहीं कि उस दिन के बाद मुझे सुनंदा के साथ पीने का मौका न मिला हो। मैं जान गया था कि वह रोज लेती है। उस समय यदि मैं वहाँ होता, तो वह मुझसे भी आग्रह करती। मैंने भी कभी उसे टाला नहीं, मगर मैं लगातार यह भी महसूस करता रहा कि वह मुझे अपने भीतर ज्यादा दूर तक जाने की इजाजत नहीं देती थी। वह जब भी असहज होने लगती, अपने मन के खिड़की-दरवाजे बंद कर लेती। ऐसे में, मैं हमेशा बाहर ही खड़ा रह जाता। फिर उसके भीतर उतरने के लिए उसकी बेहद खूबसूरत कजरारी आँखें ही रह जातीं... मगर वहाँ उतरने पर, रास्ता बताने वाला कोर्इ नहीं मिलता। वह स्वयं भी नहीं। इसी डर से मैं प्रायः बाहर ही खड़ा रह जाता।

धीरे-धीरे मैंने महसूस किया कि तार्इ अम्मा मेरी उंगली थाम कर, मुझे उस तक पहुँचा सकती हैं। सुलतान बच्चा था। उससे कुछ पूछना नहीं बनता था। हालांकि कभी-कभी यह विचार भी मेरे मन में आता था कि सुनंदा ने क्यों मेरे सानिध्य को इतनी सहजता से स्वीकार कर लिया। यह अलग बात है कि जब-जब मैंने उसके अतीत को समझने या कुरेदने का प्रयास किया था, उसने गली ही बदल दी थी। मगर मैंने सुनंदा या तार्इ अम्मा से कुछ नहीं छिपाया था। तारा से लेकर रेशमा तक... या फिर मधुर और बच्चों के बारे में। संध्या के संदर्भों को मैंने चतुरार्इ से मोड़ दिया था। एक तो इसलिए कि मैं इतना कुछ जानता हूँ, यह उन पर जाहिर नहीं करना चाहता था... और उसके कुछ प्रसंगों को मैंने यूँ ही बदल दिया था... शायद उसका सामिप्य पाने के लिए। किन्तु मेरी कोर्इ अनन्य रूची सुनंदा में नहीं थी –- केवल एक जिज्ञासा, कुतुहल या उसके प्रति एक आत्मीय स्नेह के।

***

सुनंदा का एक गिरिया भी था। यह बात मुझे शायद पता न भी चलती, यदि उस दिन मेरा और उसका आमना-सामना नहीं हुआ होता। मैं सुनंदा के कमरे में ही था। ऊपर शाम, बस ढलने को ही थी। यानी अभी ‘पीने’ का समय नहीं हुआ था। सुनंदा ने खुद मुझे ऑफिस में फोन करके बुलाया था। वजह भी खास थी –- माहे रमजान शुरू होने को था। तार्इ अम्मा चाहती थीं कि अब से सुलतान भी रोजे रखे। यह प्रस्ताव भी सुनंदा ने ही रखा था, जिसे पूरी खुशी के साथ तार्इ अम्मा और खुद सुलतान ने भी मान लिया था। तार्इ अम्मा तो पहले से चाह रही थीं, मगर सुलतान ही अपना मन नहीं बना पा रहा था। अब, सुनंदा के आग्रह को (या कहें कि आदेश को) टालना किसी के लिए भी सरल नहीं था।

पहले रोजे का महत्व किसी नमाजी से पूछ देखिए।... और वह भी पाँचों वख्त की नमाजी तार्इ अम्मा! सुनंदा ने इस पहले रोजे को सुलतान के लिए यादगार बनाने का बीड़ा उठाया था। वह चाहती थी कि इस सादगी और गरिमामयी अवसर को भी एक उत्सव की तरह मनाया जाए। तार्इ अम्मा की इजाजत के बाद ही, सुनंदा ने सारी तैयारी खुद ही करने का निर्णय किया था। इस अवसर का न्योता देने के लिए उसने मुझे भी बुला लिया था।... शायद रोजे शुरू होने से पहले ‘साथ बैठने’ का मन भी रहा हो।

मैं ऊपर ही था। सुनंदा के कमरे में तभी कोर्इ बेसाख्ता, अचानक उस कमरे में घुस आया। एक बलिष्ठ-सा प्रौढ़ व्यक्ति। मैंने पहले कभी उसे वहाँ नहीं देखा था और न ही इस प्रकार के किसी व्यक्ति के बारे में पहले कभी सुना था। उसने आते ही अपनी गहरी-काली भवों के बीच, बड़ी-सी आँखें मुझे पर टिका दीं।

"ये आशु हैं!..." सुनंदा मेरे बारे में बता रही थी, "पत्रकार हैं... हम पर कुछ काम कर रहे हैं..."

वह कुछ क्षण चुप रहा फिर बोला, "चल, ‘पतवार्इदास’ कर (भगा दे) इसे।... नहीं तो ‘बीलीकूट’ (अपमानित कर) दूँगा !" इस बार उसने सुनंदा को घूर कर देखा था।

"अच्छा, तू अभी नीचे बैठ!" सुनंदा खुद को शर्मिंदा महसूस कर रही थी। इतना तो मैं भी समझ गया था कि ‘यह’ इसके लिए कुछ खास है। समझता कैसे नहीं? मैं तो यह भी समझ गया था कि उसने सुनंदा से कहा क्या था!... औऱ यह भी कि इसका सुनंदा से क्या संबंध है। फिर वह बोली, "मैं अभी इनसे कुछ बात करके तुझे बुलाती हूँ !"

"नहीं-नहीं, आप बैठिये। मैं चलता हूँ सुनंदा। फिर कभी आ जाऊँगा!" मैंने कहा और बिना उसके उत्तर की प्रतीक्षा किये कमरे से बाहर हो गया। हालांकि सुनंदा ने मुझे रोक कर, उसे थोड़ा इंतजार करने के लिए फिर कहा था। मगर मैं नहीं रुका।

इतना अंदाजा तो सुनंदा ने भी लगा लिया था कि इस ‘आगंतुक’ के व्यवहार का मुझ पर अच्छा असर नहीं पड़ा। किन्तु वह भी उसके लिए ‘कुछ खास’ था, मैं तो यह समझ ही गया था। मैं तो वह भी समझ गया था, जब उसने कहा था –- इसे ‘पतवार्इदास कर’... इसका मतलब था कि -- ‘इसे चलता कर, भगा’... ‘नहीं तो बीलीकूट दूंगा’ का मतलब था –- बेइज्जती करके भगा दूँगा!

सुनंदा को शायद यह अंदाजा रहा हो कि मैंने इस आदमी की बात समझ ली है। इसलिए फिर उसने मुझे जाने दिया। मैं भी सहज नहीं रह गया था। सीढ़ियों से नीचे उतरा, तो तार्इ अम्मा ने टोक दिया, "रुको बेटा! कहाँ जा रहे हो?... खाना खाकर जाना।... अगले सोमवार से रोजे लग जाएँगे। तब तो इफ्तार ही होगा।... अभी तुम नीचे बैठो -– बैठक में। मैं सुलतान को भेजती हूँ। उसे कुछ ज्ञान-ध्यान की बातें समझाना। फिर खाना खाकर ही जाना।"

"नहीं तार्इ अम्मा! अभी चलता हूँ कुछ जरूरी काम है। नंदा ने कह दिया है -– मैं सुलतान के पहले रोजे पर जरूर आउँगा।... फिर इफ्तार करके ही जाऊँगा। मैंने उन्हें प्रणाम किया और बाहर आकर एक लम्बी-सी गहरी साँस ली!

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