दरमियाना - 16 Subhash Akhil द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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दरमियाना - 16

दरमियाना

भाग - १६

मुझे भी उस तक पहुँचने में सहायता मिल सकती थी, इसलिए मैंने भी मुस्कुराकर हामी भर दी। प्रेस वार्ताओं में भी शायद निकटता लाने के लिए इसी प्रकार के निमंत्रण हुआ करते हैं कि ‘चलिए, कुछ बातें बेतकल्लुफी के साथ हो जाएँ।’

सुनंदा के इस खूबसूरत आग्रह को मैं यूँ भी नकारना नहीं चाहता था। हालांकि मैं इस मामले में भी सतर्क रहता कि किसी अजनबी के साथ, इतनी जल्दी इन ‘लहरों’ पर सवार नहीं होना चाहिए।... पर, पता नहीं सुनंदा के मामले में यह सतर्कता कहाँ चली गर्इ।

वह उठी और एक कबर्ड से रम की बोतल निकाल कर सामने रख दी, "चलेगी?" उसने पूछा था। यहाँ किसी ब्रांड की च्वाइस का तो सवाल ही नहीं था -– और फिर मेजबान जैसा चाहे! इन दिनों यूँ भी हल्की सर्दियाँ शुरू हो गर्इ थीं। ऐसे मौसम में यही मुनासिब भी था।

उसने सुल्तान को पुकारा तो वह दौड़ा चला आया। मैंने महसूस किया कि उसे कुछ बताने या समझाने की जरूरत सुनंदा को नहीं पड़ी। सामने रखे पानी के ग्लास और बिस्कुट वगैरा उसने समेट कर एक तरफ रख दिये और अलमारी से निकालकर दो गिलास सामने लगा दिये। इससे पहले कि सुलतान लौटता, सुनंदा ने फिर पूछा, "नॉन वेज ले लेते हैं?" मैंने मना किया, मगर इतना जरूर समझ लिया कि ऐसा पूछकर वह सुलतान को कुछ संदेश भी दे रही थी... और शायद सुलतान यह संदेश समझ भी गया था, क्योंकि उसे फिर कुछ और हिदायत नहीं देनी पड़ी थी। वह पिछला सत्कार समेट कर चला गया था।

***

सुलतान इस बार आया तो उसके हाथ में एक ट्रे थी, जिसमें करीने से कुछ नमकीन, एक प्लेट में चिकन और दूसरी में पनीर के पकौड़े लगा दिये गये थे। दोनों की पसंद के हिसाब से लाया गया सामान... पानी का जग भी सुलतान ने लगा दिया था।... कुछ क्षण रुककर उसने सुनंदा के अगले किसी आदेश की प्रतीक्षा की। अपने लिए कोर्इ आदेश न पाकर वह लौट गया था।

मेरे आग्रह पर पैग सुनंदा ने ही बनाये थे। ‘चियर’ करने के बाद दोनों ने गिलास टकराये थे। ऐसा प्रायः करते हैं, यह तो मुझे और उसे भी पता था, मगर क्यों करते हैं, यह पता नहीं था।... मैंने भी बात का सिलसिला आगे बढ़ाने की गरज से पूछा, "एक बात पूछूँ?... यह ‘चियर’ करते समय गिलास क्यूँ टकराते हैं?"

वह कुछ सोच में पड़ गर्इ। उसने सिप तो किया, मगर इस सवाल का कोर्इ तर्कसंगत जवाब वह शायद सोच रही थी। कोर्इ वजह समझ में न आते देख, उसने अपने दबे हुए होठों में से, ऊपर वाले को कुछ और दबाकर, नीचे वाले को आगे बिचका दिया था। मुझे सुनंदा की ‘नासमझी’ जाहिर करने का यह अंदाज पसंद आया था। बात तो आगे बढ़ानी ही थी।

आखिर मैंने ही, अपने दिमाग पर जोर डालकर, इस टकराने के अर्थ की कुछ व्याख्या करने का प्रयास किया, हालांकि मैं नहीं जानता था कि वह कितना समझ पाएगी। फिर कहा, "देखो, हमारी पाँच इंद्रियाँ हैं -– यानी, हम किसी चीज को छू सकते हैं, देख सकते हैं, सूँघ सकते हैं, सुन सकते हैं और चख सकते हैं..." सुनंदा की बड़ी-बड़ी आँखें जैसे किसी जिज्ञासा को समझने का प्रयास कर रही थीं। मैंने कहना जारी रखा, "अब, इसे हम ‘छू’ सकते हैं... ‘देख’ भी सकते ही हैं... ‘सूँघ’ तो दूसरे भी लेते हैं... मगर वे ‘चख’ नहीं पाते। चख तो पीने वाला ही सकता है... और हाँ, ‘सुन’ तो कोर्इ सकता ही नहीं।... न ही हम और न ही कोर्इ और... किन्तु जब हम ‘चियर’ करते हुए गिलास टकराते हैं, तब हम इसे सुन भी सकते हैं।... और मेरा ऐसा मानना है कि जो भी काम करो –- पूरे इन्वाल्मेंट के साथ करो, यानी पाँचों इंद्रियों की एकाग्रता के साथ!" मैंने उसे प्रभावित करने का प्रयास किया।

लगा कि सुनंदा के लिए ‘चियर’ की यह व्याख्या नर्इ थी। वह कुछ क्षण सोचती-सी रही फिर अचानक बोली, "वाह! क्या बात है!"

धीरे-धीरे मैंने महसूस किया कि वह भी अपनी ‘पाँचों इंद्रियों के साथ’ गिलास में उतर रही थी। इसकी एक वजह भी थी -– जो उसने बाद में बतार्इ थी -– कि उसे इतनी गहरार्इ से समझने वाला आज तक कोर्इ नहीं मिला था। मगर तभी उसके चेहरे पर एक मुस्कुराहट तैर गर्इ, "इंद्रियाँ तो सात होती हैं, पत्रकार साहब!... सुना नहीं क्या, कि छठी इंद्री तो हर औरत के पास होती है, जो किसी मर्द के पास नहीं होती। आप के पास भी नहीं है। और..." उसने तारा माँ की तरह वाली एक धीमी-सी ताली मारी, "सातवीं इन्द्री केवल हमारे पास होती है... जिनके पास वास्तव में ‘इन्द्री’ ही नहीं होती..."

मेरा सारा वजूद जैसे भरभरा कर बिखर गया। तभी मैंने कहा था कि सुनंदा के भीतर की सीड़ियाँ उतरना और उतर कर बाहर आ जाना आसान नहीं था। यूँ तो मैं यह भी जानता था कि ‘इनमें से किसी का भी’ हाथ थाम कर इतनी सहजता से इनके भीतर की गलियों से नहीं गुजर सकते।

मगर फिर भी जो एक चीज मुझे और सुनंदा को निकट ला रही थी -– शायद वह संबंधों की दो तरफा परिपक्वता थी। मेरी भाषा पर मत जाइए... यह एक ऐसा रुहानी रिश्ता बन रहा था, जिसे कोर्इ भी नाम देना उस समय संभव नहीं था। न वह मेरे संसार की थी, न मैं उसके संसार का... मगर फिर भी हम दोनों का संसार एक स्तर पर आकर समान हो रहा था -– अपने-अपने लिंग भेद और अपने-अपने, अलग-अलग आकर्षणों के बावजूद।

सातवीं ‘इंद्री’ की इतनी रहस्यमयी व्याख्या के विषय में तो मैं सोच भी नहीं सकता था।... आज मैं उसके साथ नहीं हूँ, मगर उन क्षणों में मैंने जो उसके व्यक्तित्व की गंभीरता को अनुभव किया, वह मेरे लिए सदा वंदनीय है! मैं नहीं जानता कि इसे किस तरह से व्यख्यायित किया जा सकता है।

बस यही वह पहला दिन था, जो मित्रता के स्तर पर हमें करीब ले आया था। मुझे नहीं पता कि क्यों –- पर शायद दोनों तरफ एक समझ जरूर थी -– संबंधों में निकटता की... और उससे भी आगे बढ़कर -– एक आत्मीय अनुभूति की, एक दैहिक र्इमानदारी की!... वह भी तब, जब हम दोनों ही दैहिक धरातल पर एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न थे।... किन्तु मैं नहीं जानता कि धीरे-धीरे बढ़ रहे सुरूर के साथ, धीरे-धीरे बढ़ रही उस निकटता को मैं क्या नाम दूँ?... किन्तु इतना अवश्य सत्य है कि सुनंदा और मैंने -- दोनों ने ही, एक-दूसरे को अन्य अर्थों में नहीं लिया था।

तभी तार्इ अम्मा खाना ले आर्इ थीं। उन्होंने बिखरा हुआ सभी सामान और बरतन समेट कर, खाना लगाना शुरू किया।... यहाँ भी, यह देख कर मुझे अच्छा लगा कि सुनंदा ने किसी प्रकार का विरोध नहीं किया था। मैंने भी खाने की प्लेटें लगाने में उनकी मदद करनी चाही, मगर तार्इ अम्मा ने मुझे रोक दिया, "नहीं बेटा, आप पहली बार हमारे घर आए हैं, ऐसा नहीं कीजिए, हम परोसते हैं।"

मैं नहीं जानता कि तार्इ अम्मा और सुलतान ने मुझे किस रूप में लिया था। हाँ, इतना अनुमान मैं जरूर लगा पा रहा था कि मेरे अचानक चले आने के बावजूद, उनके चेहरों पर किसी प्रकार की अप्रसन्नता नहीं थी। वे शायद मुझे सुनंदा का कोर्इ अंतरंग ही समझ रहे थे। मैं नहीं जानता कि सुनंदा ऊपर आने से पहले, मेरा परिचय इन्हें किस रूप में दे कर आयी थी!

*****