हम तुमसे ना कुछ कह पाये महेश रौतेला द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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हम तुमसे ना कुछ कह पाये

हम तुमसे ना कुछ कह पाये

"हम तुमसे ना कुछ कह पाये
तुम हमसे ना कुछ कह पाये--- फिल्म-जिद्दी।"
एक लड़का ये गीत गा रहा था। मैं समाचार पत्र में एक समाचार पढ़ रहा था जिसमें लिखा था कि महाराष्ट्र के एक महाविद्यालय में लड़कों और लड़कियों को शपथ दिलायी गयी है कि वे प्यार नहीं करेंगे। बाद में शपथ दिलाने वाले प्रधानाचार्य और प्रोफेसर को निलम्बित कर दिया गया है। समाचार पढ़ने के बाद मैं भी गुनगुनाने लगा-
"हम तुमसे ना कुछ कह पाये
तुम हमसे ना कुछ कह पाये।"

कार में बैठते हुए मेरे मुँह से निकला," ऊँ नम: शिवाय।" ड्राइवर ने पूछा," साहब, ऊँ नम: शिवाय।" का क्या अर्थ होता है? मैं थोड़ी देर चुप रहा, फिर बोला अलग-अलग के लिये अलग-अलग अर्थ है इसका।कुछ के लिये कुछ नहीं है,सब बोलते हैं अतः वे भी बोलते हैं।कुछ कल्याणकारी शिव को नमन करते हैं सृष्टि के नाद के साथ।कुछ हमारे अन्दर के शिव या पवित्र शक्ति को नमन करते हैं।कुछ उनकी तीसरी नेत्र के डर से उनके कल्याणकारी रूप को याद करते हैं।आदि-आदि।तभी मूसलाधार बारिश शुरु हो गयी। कार चलाना कठिन हो रहा था। कार एक जगह पर खड़ी कर दी।एक घंटे में बारिश बंद हो गयी।लग रहा था जैसे सब कुछ धुल चुका था।प्रकृति नहायी परी सी लग रही थी जो मन को सुहाना सफर दे रही थी।मुझे पुराना दिन याद आ गया था जब बरसात में सड़क एक रोले पर बुरी तरह टूट गयी थी और बस वहाँ से आगे नहीं जा पायी थी। बस को नैनीताल जाना था। सभी यात्रियों को पैदल मार्ग से जाना पड़ा था। अच्छी खासी चढ़ाई थी।पाँच-छ किलो सामना था।वर्षों बाद उस याद का यौवन सामने खड़ा हो गया।पतली सी पगडण्डी वर्षा से धुली।थकान लगती नहीं थी।किसी का हाथ पकड़ने पर ऐसा लगता था जैसे रास्ता तय हो गया।हँसते-मुस्कराते रास्ता तय हो गया था। नया अनुभव, नयी अनुभूतियां ऐसे ही जन्म लेती हैं।कार मोड़ों को पीछे छोड़ती जा रही थी। ज्योलीकोट आते ही कार को रोका और सड़क के किनारे काफल बिक रहे थे।कुछ देर तक काफल की टोकरी को देखता रहा।उसका फोटो लिया।काफल जो व्यक्ति बेच रहा था वह बहुत गरीब लग रहा था।लगा उससे मोल-भाव नहीं करना चाहिए।एक टीले पर बैठ सोचने लगा हम अपने बहुत से दवी- देवताओं को मानते हैं। बहुत से अवतारों को जानते-पहिचानते हैं।पता नहीं किस रूप में किनसे भेंट हो जाय।बहुत से पूजा स्थलों में उन्हें खोजते हैं।पता नहीं कितना पहिचान पाते हैं उन्हें? जीवन है तो एक खोज।मन कर रहा था-
"थोड़ी देर अनपढ़ बन जाऊँ
इन अखबारों, इन भाषणों,
इन टी.वी. चैनलों,
इन आरोप-प्रत्यारोपों,
इन चुनावी सभाओं,
इन गदली जुबानों के लिए।
थोड़ी देर अनपढ़ बन जाऊँ।"
और
"अन्दर कुछ टकराता है
सत्य से असत्य
सच से झूठ
प्यार से प्रलोभन
मेरे ईश्वर से तेरा ईश्वर
आस्तिक से नास्तिक
उजाले से अंधेरा।"
गाँव की ओर बढ़ता हूँ। जहाँ से हर बार एक नयी कहानी अंकुरित होती है या जहाँ की छूटी बातें याद आती हैं।
गाँव जो लगभग साढ़े पाँच हजार फीट की ऊँचाई पर है।जंगल का सान्निध्य जिसे प्राप्त है।जाड़ों में बर्फ भी गिरती थी। वनों में चीड़ था, बाँज था, बुरुस था, काफल था, पता नहीं कितने प्रकार के पेड़ थे।कुछ जानता था, कुछ को नहीं जानता था।मैंने पहली कविता वहीं लिखी जो मर चुकी है या परिवर्तित हो गयी है।चीड़ के वनों के ठेके होते थे। पेड़ों को चीर कर बड़ी-बड़ी बल्लियां निकाली जाती थीं।उन्हें नदी में बहा कर निश्चित स्थान तक ले जाया जाता था, वहाँ से ट्रकों से रेल स्टेशन तक।तब पर्यावरण या चिपको आन्दोलन की चर्चा नहीं होती थी।चार नदियां जो बरसात में जवान हो जाती थीं और जाड़ों में बूढ़ी।घरों में ताले नहीं लगते थे। बस, लोग दरवाजों को ढक देते थे। बहुत से बहुत सांगल लगा देते थे।जिससे पता लग जाता था कि घर में कोई नहीं है। तब तक किसी के मन में चोर नहीं घुसा होगा।अनाज पीसने के लिये घराट होते थे।चिड़ियाओं की खट-खट-खट का सुर अनाज के संतुलित बहाव से जुड़ी रहती थीं। घराट तीन-चार परिवार मिल कर लगाते थे। बारी-बारी से उनका मालिकाना दिन आता था।घराट के मालिक का घराट पर होना आवश्यक नहीं होता था।लोग अनाज मुख्यत: गेहूँ या मडुआ पीसते थे और अपने अनुमान से भाग(पिसाई के बदले आटा) रख जाते थे, घराट के मालिक के लिये।पूर्ण इमानदारी और एक-दूसरे पर भरोसा रहता था।कहा जाता है कि प्राचीन भारत में भिखारी नहीं होते थे ,सच लगता है।फिर समय आया गांव भागने लगे,शहर की तरफ।कुछ पाने के लिये कुछ खोना पड़ता है। जैसे हमने पर्यावरण खोया,जंगल खोये और भी बहुत कुछ खोया और चौंधियाती चीजें और सुविधाएं प्राप्त कीं।
इसलिये कहीं से आवाज आती है-
"कितनी बार तोड़ा है मुझे
पत्थर समझकर,
कितनी बार उखाड़ा गया है
वृक्ष समझकर,
कितनी बार खोदा गया है
मिट्टी मानकर,
कितनी बार काटा गया है
प्यार देखकर,
कितनी बार लौटाया गया है
अशुद्ध पता मानकर,
कितनी बार उड़ाया गया है
किरकिरा धुआं कहकर,
कितनी बार फेंका गया है
रद्दी कागज सोचकर,
मेरी दास्तान में लिखा है
समय -समय और समय।"

**महेश रौतेला