कौन दिलों की जाने!
बत्तीस
रविवार को सुबह रमेश बाथरूम से स्नान करके निकला ही था कि विनय का फोन आया। विनय पूछ रहा था — ‘जीजा जी, कब तक आ रहे हो?'
‘मेरा तो आने का कोई प्रोग्राम नहीं है।'
‘दीदी तो कह रही थीं कि आप आज आओगे।'
‘रानी ने मुझे आने के लिये कहा जरूर था, लेकिन मैंने कहा था कि पक्का नहीं कह सकता। देखूँगा। माँ कैसी हैं?'
‘माँ अब काफी ठीक हैं, बल्कि कह सकते हैं कि दीदी के आने से माँ को बहुत बड़ा सहारा मिल गया है। आप कहें तो दीदी हफ्ता—दस दिन और रुक जायें।'
‘हाँ—हाँ, क्यों नहीं। उसका मन है तो जरूर रुक जाये।'
‘आप भी आ जाते तो माँ को और भी अच्छा लगता। वे अक्सर आपको याद करती रहती हैं।'
‘मैं भी आऊँगा, जल्दी ही प्रोग्राम बनाता हूँ।'
बुधवार को रमेश अभी सोया हुआ था कि उसके मोबाइल की घंटी बजी। नींद में उसने मोबाइल उठाकर देखा, विनय का फोन था। विनय ने भरे गले से बताया कि माँ चल बसी। ‘ओह!' रमेश इतना ही बोल पाया। विनय ने आगे बताया कि ‘संस्कार' ग्यारह बजे करेंगे। इतना सुनते ही वह शीघ्रता से उठा। ड्राईवर को फोन करके कहा कि जल्द—से—जल्द बठिण्डा चलना है, क्योंकि मैडम की माँ का देहान्त हो गया है। फोन रखकर स्वयं बाथरूम में चला गया। स्नानादि से निवृत होकर उसने अंजनि व संजना को भी फोन करके बता दिया कि उनकी नानी का देहान्त हो गया है और कि मैं थोड़ी देर में ही निकलने वाला हूँ, क्योंकि संस्कार ग्यारह बजे होगा।
जब रमेश पहुँचा तो अर्थी उठाने की तैयारी हो रही थी। कार से उतर कर वह सीधा विनय से मिला। रूआंसी आवाज़़ में विनय बोला — ‘जीजा जी, अगर कहीं इतवार को आ जाते तो माँ की आपसे मिलने की इच्छा अधूरी न रहती!'
विनय की पीठ पर हाथ फेरते हुए रमेश ने कहा — ‘प्रभु को शायद यह मंजूर नहीं था। तुमने ही तो कहा था कि माँ अब काफी ठीक हैं। थोड़ा—सा भी अंदेशा होता कि माँ इतनी जल्दी साथ छोड़ जायेंगी तो मैं तुरन्त आ जाता!'
लोगों ने उन्हें अलग किया और अर्थी को श्मशान—वाहन में रखा तथा सभी आये मित्र—सम्बन्धी तथा घर के लोग वाहनों में बैठकर ‘राम—बाग' की ओर चल दिये। मृत शरीर को अग्नि देने के बाद सगे—सम्बन्धी घर आये। रानी स्त्रियों से घिरी हुई थी। खाना खाने के बाद भीड़ कम हुई तो रमेश रानी से मिला। सन्तान के लिये माँ का सदा—सदा के लिये बिछुड़ना बहुत दुःखदायी होता है, विशेषकर बेटी के लिये। शोकग्रस्त रानी जैसे ही रमेश के गले लगी कि उसके रुके हुए आँसू अविरल बहने लगे। सिसकियों के बीच बोली — ‘इतवार को माँ आपको बहुत याद करती रही।'
रमेश ने उसके कंधे थपथपाते हुए ढाढ़स बँधया तथा कुछ क्षणों पश्चात् अपने से अलग किया। मन में वह सोचने लगा, चाहे मेरे द्वारा तलाक के फैसले को रानी ने स्वीकार कर लिया है, फिर भी जिस तरह वह मुझसे गले लगकर मिली है, उससे तो लगता है जैसे उसने मुझसे पूरी तरह सम्बन्ध—विच्छेद नहीं किया है। अपने भीतर कहीं उसे यह अच्छा भी लगा।
शाम को रानी जब अकेली थी तो उसने माँ के देहान्त का समाचार आलोक को एस.एम.एस. किया। थोड़ी देर बाद ही उधर से अफसोस व्यक्त करते हुए तथा ‘भोग' की तारीख जानने के लिये एस.एम.एस. आ गया। रानी ने ‘भोग' की तारीख एस.एम.एस. द्वारा ही सूचित कर दी तथा साथ ही लिख दिया कि बस से ही आ जाना, भोग के अगले दिन कार में इकट्ठे वापस हो लेंगे।
‘भोग' वाले दिन आलोक जब भोग—स्थल पर पहुँचा तो विनय को नमस्ते कर उसके पास बैठ गया। ‘इकट्ठ' में विनय को पहचानना मुश्किल न था। बैठते ही आलोक बोला — ‘विनय भाई, रानी से आंटी जी के देहान्त का पता लगा, बड़ा अफसोस हुआ। कई बार मन किया था कि आंटी जी के दर्शन करूँ, किन्तु आ ही नहीं पाया। बचपन में बड़ा लाड़—प्यार पाया था उनसे।'
जब आलोक ने नमस्ते की थी तो विनय उसकी पहचान को लेकर असमंजस में था, किन्तु जैसे ही उसने रानी का नाम लिया तो उसे एकदम स्मरण हो आया कि सामने वाला व्यक्ति कौन है। रमेश से प्राप्त रानी और आलोक के सम्बन्धों की गहराई की जानकारी को तरज़ीह न देते हुए विनय बोला — ‘आलोक भइया, माँ की याददाश्त बहुत अच्छी थी। जब कभी हमारे बचपन की बातें होने लगतीं तो खासतौर पर तुम्हें बहुत याद किया करती थी। रानी के यहाँ आने के बाद काफी अच्छी हो गई थी। देहान्त से एक दिन पहले तक लगता ही नहीं था कि यह उनकी सांसारिक यात्रा की अन्तिम रात होगी!'
‘जीवन की क्षणभंगुरता इसे ही तो कहते हैं। कोई नहीं जानता, अगला साँस आयेगा भी या नहीं। आंटी जी भाग्यवान् थीं कि अपने पीछे भरा—पूरा खुशहाल परिवार छोड़कर गई हैं। बिछुड़े प्राणी के सद्गुणों के लिये ही हम उसे याद करते हैं।'
आलोक और विनय बातें कर रहे थे कि रमेश भी वहाँ आ गया। आलोक को देखकर हल्के—से कटाक्ष के साथ कहा — ‘ओह, तो आप भी आ गये। जरूर रानी ने बताया होगा।'
आलोक समझ तो गया कि रमेश किस अन्दाज़ में बात कर रहा है, फिर भी संयत तथा गम्भीर स्वर में उत्तर दिया — ‘जी, रानी से ही आंटी जी के देहान्त का पता चला। बचपन में बहुत स्नेह तथा प्यार पाया था उनसे, इसलिये श्रद्धांजलि देने आया हूँ।'
‘भोग' की रस्म पूरी होने के बाद भोजन के दौरान आलोक रानी से मिल पाया, क्योंकि उससे पहले तो स्त्रियों व पुरुषों के बैठने की अलग—अलग व्यवस्था होने के कारण मिलना सम्भव नहीं था। आलोक ने अफसोस व्यक्त किया और कहा कि आंटी जी भाग्यवान् थीं। इस उम्र में बिना किसी शारीरिक कष्ट के अपनी जीवन—यात्रा पूरी करके गई हैं। प्रभु से यही प्रार्थना है कि उन्हें अपने श्रीचरणों में स्थान दें तथा उनकी आत्मा को शान्ति प्रदान करें! यह भी अच्छा हुआ कि अन्तिम समय में तुम उनके पास थी। तुम्हारे दुःख को मैं भली—भाँति समझता हूँ। माँ—बेटी का रिश्ता इतनी महीनता से रचा—बुना और इतनी आत्मीयता से परिपूर्ण होता है कि दुनिया में और कोई रिश्ता इसकी बराबरी नहीं कर सकता।'
रानी ने आहिस्ता से कहा — ‘तुम आये, मुझे अच्छा लगा।'
‘आता कैसे नहीं? आंटी जी तुम्हारी माँ थीं, तो मुझे भी उनसे माँ जैसा ही प्यार मिला था। अफसोस ही रहेगा कि यहाँ आकर भी उनके दर्शन नहीं कर पाया।'
रानी ने आलोक की बात की अन्तिम कड़ी पर ध्यान दिये बिना कहा — ‘रमेश जी तो थोड़ी देर में ही चले जायेंगे। तुम होटल में रुक जाओ। कल सुबह मैं तुम्हें होटल से ले लूँगी।'
खाना खाने के बाद आलोक ने विनय से इज़ाजत ली और होटल में आकर लेट गया। बस के सफर की थकावट व खाना खाया हुआ होने के कारण उसे शीघ्र ही नींद ने आ घेरा, क्योंकि अनाज़ का नशा सब नशों से अधिक कारगर होता है।
बाहर से आये रिश्तेदार जा चुके थे। घर वाले भी सुबह से लगे हुए थे और फुर्सत होने पर आराम कर रहे थे। माँ वाले कमरे में कोई नहीं था। वहीं दरवाज़ा बन्द कर रानी ने आलोक को फोन मिलाया। मोबाइल की घंटी बजी तो आलोक ने टाईम देखा, छः बजने वाले थे। उधर से रानी बोल रही थी — ‘आलोक, सोये हुए थे क्या?'
‘हाँ, बड़ी गहरी नींद आई। बताओ, कल का क्या प्रोग्राम है?'
‘रमेश जी तो तीन बजे चले गये थे। विनय तो कह रहा है कि मैं एक—दो दिन और रुकूँ, किन्तु मैंने कह दिया है कि एक बार तो मैं कल जाऊँगी, फिर आ जाऊँगी। इसलिये मेरा सुबह दस—ग्यारह के बीच निकलने का प्रोग्राम है। तैयार रहना।'
दूसरे दिन रानी जब होटल पहुँची तो कमरे में दाखिल होते ही आलोक की छाती से लगकर सिसक पड़ी। आलोक मौन रहकर उसकी पीठ सहलाता रहा। ऐसे ऐकांतिक क्षणों का मौन केवल अच्छा ही नहीं लगता, वरन् सब कुछ कह भी जाता है, क्योंकि शब्दों की तब आवश्यकता पड़ती है, जब किसी अपरिचित से कुछ कहना हो। जहाँ मनों के तार जुड़ चुके हों, वहाँ तो स्पर्श सम्प्रेषण का सबसे कारगर माध्यम होता है। रानी को बड़ा सुकून मिला। कुछ देर बाद उसे अपने से अलग कर बिठाते हुए आलोक ने कहा — ‘रानी, हौसला रखो। जो आया है, उसे जाना ही है। यह प्रकृति का नियम है। जाने वाले की यादें हमारा सहारा बनती हैं। उनका आशीर्वाद उनके जाने के बाद भी हमारे साथ रहता है।'
इसी तरह की बातें कुछ देर करने के बाद आलोक ने पूछा — ‘चलने से पहले चाय तो ले लोगी?'
रानी ने प्रतिप्रश्न किया — ‘तुमने नाश्ता कर लिया है या नहीं?'
‘नाश्ता तो मैं कर चुका हूँ। चाय नहीं पी।'
‘ठीक है, चाय पीकर चलते हैं।'
चाय पीने के बाद उन्होंने होटल छोड़ा और रवाना हो लिये।
नॉन—स्टाप चलते हुए अढ़ाई बजे के करीब पटियाला पहुँच गये। घर पहुँच कर आलोक ‘तन्दूर' की तरफ जाने लगा तो रानी बोली — ‘भाभी ने तीन पराँठे तथा पुदीने की चटनी पैक कर दी थी। एक दाल या सब्जी और दो चपातियाँ ले आओ, इससे अधिक मत लाना।'
बिना कुछ कहे आलोक ‘तन्दूर' पर चला गया तथा थोड़ी देर में कढ़ी, आलू—टमाटर की सब्जी व तीन चपातियाँ लेकर आ गया। दोनों ने मिलकर खाना खाया। खाना खाने के बाद रानी जाने के लिये उठने लगी तो आलोक ने कहा — ‘थोड़ा आराम कर लो। अभी बहुत गर्मी है। पाँचेक बजे चलोगी तो भी अँधेरा होने से पहले पहुँच जाओगी।'
रानी ने कुछ नहीं कहा और बेड पर लेट गयी। आलोक भी उसके पास लेट गया। बातें करते—करते रानी ने बताया कि रमेश ने मेरे लिये अलग फ्लैट किराये पर ले लिया है, कब उसमें शिफ्ट होऊँगी, घर जाने पर पता चलेगा। फिर उसने व्हॉट्सएप्प पर उस फ्लैट की फोटो आलोक को दिखाई। फ्लैट की फोटो दिखाते हुए रानी के मुख पर उभरी उदासी की रेखाएँ आलोक से छिपी न रहीं। आलोक ने उसे लक्ष्य करते हुए कहा — ‘यही सोचकर उदास हो न कि फ्लैट में अकेली कैसे रहोगी? देखो, जब तक कोर्ट में एप्लीकेशन नहीं लगती और उसपर फैसला नहीं हो जाता, तब तक बेहतर होगा कि हम एक—दूसरे से मिलने की कोई छूट न लें, क्योंकि कोर्ट का फैसला आने से पूर्व रमेश जी किसी समय भी अपनी सहमति वापस ले सकते हैं। यह मत सोचना कि मैं ऐसा किसी पूर्वाग्रह के कारण कह रहा हूँ अथवा रमेश जी की नीयत पर शक कर रहा हूँ। मानव—स्वभाव ही ऐसा है। यह ठीक है कि रमेश जी ने आपसी सहमति से तलाक की एप्लीकेशन लगाने से पूर्व तुम्हारी सुख—सुविधा का पूरा ख्याल रखने की सोची है, किन्तु यदि कहीं रमेश जी को शक हो गया कि अलग रहते हुए तुम बिना किसी प्रकार की बाधा के पूर्णतः स्वतन्त्र जीवन व्यतीत कर रही हो तो हमारे लिये मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं।'
‘क्या मैं समझूँ कि कोर्ट का फैसला आने तक अब हमारा मिलना—जुलना ही नहीं हो पायेगा?'
‘नहीं, ऐसा नहीं। मिलते—जुलते तो हम रहेंगे, किन्तु तुम्हारे पास रात को न रुका जाये, ऐसी मेरी कोशिश रहेगी। दिन में मिलना एक बात होती है, रात को मिलना या इकट्ठे रहना बिल्कुल भिन्न होता है। हाँ, महीने में एक—आध बार तुम पटियाला आकर रुक सकती हो या हम एक—दो दिनों के लिये कहीं घूमने जा सकते हैं।'
रानी ने घड़ी देखी, पाँच बजने वाले थे। बोली — ‘अब मुझे चलना चाहिये।'
‘मैं चाय बनाता हूँ, फिर तुम चली जाना।'
‘आलोक, आज मुझे चाय बनाने दो, अपने हाथ की बनाई तो रोज़ ही पीते हो।'
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