कौन दिलों की जाने! - 2 Lajpat Rai Garg द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कौन दिलों की जाने! - 2

कौन दिलों की जाने!

दो

रविवार को नित—प्रतिदिन की अपेक्षा रानी कुछ जल्दी उठी। आसमान साफ था। मौसम बड़ा सुहावना तथा खुशनुमा था। गुलाबी ठंड तन—मन को स्निग्धता तथा स्फूर्ति प्रदान कर रही थी। आलोक से मिलने की उत्कंठा उसकी चालढाल तथा भाव—भंगिमाओं में स्पष्ट झलक रही थी। उस समय यदि कोई व्यक्ति आसपास होता तो रानी के मन की यह प्रफुल्लता उससे छिपी न रहती। विवाह—समारोह में तो आलोक से कुछ विशेष बातचीत हो न पायी थी, लेकिन आज उसे आलोक के साथ निर्बाध समय व्यतीत करने का अवसर मिलने वाला था।

अपने नित्यकर्म निपटाकर उसने लच्छमी के आने से पूर्व ही रसोई में दो—तीन डिशेज़ तैयार कर ली थीं, जिनकी महक रसोई ही नहीं, घर—भर में व्याप्त थी। लच्छमी को पता था कि रानी को मेहमान—नवाज़ी का बड़ा शौक है। जब भी किसी मेहमान ने आना होता है, रानी सुबह—सुबह ही रसोई तैयार कर लेती है। इसलिये उसने आते ही कहा — ‘मैडम जी, आज सारा घर खुशबू से भरा पड़ा है, कोई मेहमान आने वाला है क्या?'

रानी अपने मन की प्रफुल्लता किसी के साथ साँझा करने को बेताब थी। उसने यह भी नहीं सोचा कि प्रश्न उसकी नौकरानी ने किया है। अपनी रौ में उसने उत्तर दिया — ‘हाँ, आज मेरे बचपन के दोस्त आने वाले हैं। सोमवार वाली शादी में उनसे मुलाकात हुई थी।'

‘मैडम जी, मतलब आप अपने दोस्त से बचपन के बाद पहली बार मिलीं?'

‘हाँ, लगभग चालीस—पैंतालीस साल बाद हम लोग मिलेे।'

‘इतने लम्बे समे के बाद एक—दूसरे को पहचाना कैसे, मैडम जी?'

‘मैं तो अपनी सहेलियों के संग गपशप कर रही थी कि उन्होंने ही मुझे पहचान लिया। लगता है, मेरी बीस—बाईस साल की बनावट और आज की शक्लो—सूरत में बहुत अन्तर नहीं आया है!'

अपनी इस बात पर मन—ही—मन खिल उठी रानी।

बेडरूम की ओर जाते हुए लच्छमी ने कहा — ‘मैडम जी, एकबार अन्दर आना।'

‘क्यों, क्या बात है?'

‘मैडम जी, एकबार आओ तो सही।'

काफी समय से रानी के पास काम करती हुई होने के कारण लच्छमी कभी—कभी अनौपचारिक ढंग से भी व्यवहार कर लेती थी। इसलिये रानी ने इच्छा न होते हुए भी उसकी बात का बुरा नहीं माना और बेडरूम में आ गई। इतने में लच्छमी ने शो—केस से उनके विवाह का फोटो—फ्रेम निकाला और रानी को ड्रेसग टेबल के सामने करके दूसरे हाथ से फोटो—फ्रेम उसके आगे करते हुए कहा — ‘देखो मैडम जी, फोटो में दुल्हन बनी आप और मेरे सामने खड़ी आप में बहुत फर्क नज़र नहीं आता।'

बनावटी रोष के साथ रानी बोली — ‘चल हट। बहुत बातें बनाने लग गई है तू। चल, काम पर लग जा। जल्दी—जल्दी सफाई कर। और हाँ, तीनों कमरों की चादरें भी झाड़कर अच्छी तरह बिछा देना।'

‘मैडम जी, आप फिक्र न करें। मैं हर काम अच्छे से और जल्दी निपटा दूँगी। शाम को कितने बजे आऊँ?'

‘शाम को मत आना। हो सकता है, हम कहीं घूमने—फिरने चले जायें!'

‘ठीक है,' कहकर लच्छमी अपने काम में जुट गई।

लच्छमी के जाने के बाद रानी ने फ्रैश होकर सिल्क की क्रीम कलर की लाल बॉर्डर वाली साड़ी पहनी तथा हल्का—सा मेकअप किया। साढ़े दस बज चुके थे। आलोक के आने में लगभग एक घंटा था। कुछ देर लॉन में बैठकर अखबार पढ़ने लगी, लेकिन कुछ देर बाद ही उठ खड़ी हुई। चाहे दिसम्बर की शुरुआत हो चुकी थी, फिर भी सुबह—शाम की ठंड तो थी, किन्तु दिन में धूप सुहाती नहीं थी। रानी ने सोचा, थोड़ी देर टी.वी. देख लेती हूँ, लेकिन मन तो बाहर बैठकर आलोक की प्रतीक्षा करने के पक्ष में था। इसलिये उसने कुर्सी बरामदे में खींच ली और अखबार पढ़ते हुए प्रतीक्षा करने लगी।

ठीक साढ़े ग्यारह बजे आलोक की कार घर के गेट के बाहर आकर रुकी। गेट खोलने के लिये रानी फुर्ती से कुर्सी से उठी और मेन गेट की तरफ लपकी। सामने आलोक था। हाथों में गुलाब के ताजे फूलों का बुके। रानी को नख से शिख तक निहार कर बुके देते हुए आलोक बोलाः

‘ना कजरे की धार, ना मोतियों के हार

ना कोई किया सगार, फिर भी कितनी सुन्दर हो!'

सामान्यतया देखा गया है कि सुन्दर काया भी बढ़ती आयु के साथ मलिन होने लगती है। जैसे प्रकृति के प्रत्येक नियम का अपवाद होता है, उसी प्रकार उम्र के इस पड़ाव पर भी रानी के चेहरे की लुनाई कम न हुई थी। यह पहली बार था रानी के जीवन में कि किसी पुरुष ने उसके व्यक्तित्व की इस तरह प्रशंसा की थी। अपनी प्रशंसा सुनकर रानी का अन्तर्मन खिल उठा। मन की प्रसन्नता उसकी मुखाकृति पर भी झलक आई। बुके लेते हुए वह इतना ही कह पाई — ‘उम्र के इस पड़ाव पर कैसी सुन्दरता?'

‘जीवन के हर पड़ाव पर सुन्दरता हो सकती है। इस उम्र में शालीन परिधान ही व्यक्तित्व को गरिमा प्रदान कर सुन्दर बना देता है। तुम तो वैसे भी सुन्दर हो।'

‘थैंक्यू कहकर आपकी प्रशंसा को बेमानी नहीं करूँगी। आप भी खादी—सिल्क के कुर्ते—पाज़ामे में बहुत अच्छे लग रहे हैं।'

‘ये कपड़े मुझे अधिक आरामदायक लगते हैं, इसीलिये जहाँ फॉर्मेलिटी न हो, मैं यही ड्रैस ‘प्रीफर' करता हूँ।'

और दोनों ने घर के अन्दर प्रवेश किया। रानी ने आलोक को ड्रार्इंगरूम में बिठाया। बुके सेन्ट्रल टेबल पर सजाया और स्वयं पानी लाने के लिये रसोई की ओर मुड़ गई। ड्रार्इंगरूम के पूर्व की ओर खुलने वाले दरवाज़े तथा ग्लास—वडो पर लगे पर्दे सामने की दीवार पर किये गये टैक्सचर पेंट तथा फॉल्स सीलग पर बनाये गये डिजाईन से मैच करते थे। रंग आँखों में चुभने की बजाय सुखद माहौल बना रहे थे। जब रानी पीने के लिये पानी लेकर लौटी तो आलोक ड्रार्इंगरूम की साज—सज्जा व दक्षिण—दिशा वाली दीवार पर लगी पेंटग्स की तारीफ किये बिना न रह सका — ‘घर की करीने—से की गई सजावट तुम्हारे व्यक्तित्व को बड़े सुन्दर ढंग से परिभाषित कर रही है।'

इस बार रानी चुप रही, कुछ बोली नहीं।

आलोक पानी पी रहा था तो रानी ने औपचारिक ढंग से बातचीत प्रारम्भ करते हुए कहा — ‘आलोक, शादी के दूसरे दिन कॉल तो इसलिये की थी कि बीती रात रमेश जी के बेरुखी वाले व्यवहार के लिये आपसे माफी माँगना चाहती थी, किन्तु बात का रुख ऐसा मुड़ा कि माफी वाली बात बीच में ही रह गई।'

चाहे आलोक को रमेश का व्यवहार अटपटा लगा था, किन्तु शिष्टाचार निभाते तथा रानी को आश्वस्त करते हुए उसने कहा — ‘माफी वाली कोई बात नहीं, रानी। रमेश जी के लिये मैं नितान्त अपरिचित था, इसलिये उनके व्यवहार में औपचारिकता होना स्वाभाविक था। बेरुखी वाली भी कोई बात नहीं थी। हर व्यक्ति का अपना—अपना स्वभाव होता है। आप लाख कोशिश करें, बदल नहीं सकते। खैर, छोड़ो इन बातों को। चाय—वाय पिलाओ।'

‘सॉरी, बातों का सिलसिला शुरू होते ही मुझे याद ही नहीं रहा कि आप बाहर से आये हैं और मौसम के लिहाज़ से भी चाय के लिये तो मुझे पहले ही पूछना चाहिये था। अच्छा बताओ, चाय लोगे या कॉफी?'

‘कुछ भी....।'

‘कुछ भी नहीं, जो आपको अच्छा लगता हो।'

‘कॉफी बना लो।'

दसेक मिनट में रानी कॉफी के साथ इडली सांभर जो उसने सुबह ही बना ली थी, लेकर आई। सांभर ‘माइक्रो' में गर्म करने के कारण और कॉफी ताजा बनी होने के कारण दोनों में से भाप उठ रही थी। आलोक ने लम्बी साँस ली जैसे कॉफी और सांभर के ‘फ्लेवर' को नासिका के माध्यम से अन्दर तक आत्मसात्‌ कर लेना चाहता हो। जैसे ही रानी ने ट्रे टेबल पर रखी, आलोक ने उठकर प्लेटों में एक—एक इडली रखी और बाउल्स में सांभर डालने लगा।

आलोक को ऐसा करते देखकर रानी बोली — ‘जरा रुको, मैं सर्व करती हूँ।'

‘क्यों, मैं नहीं सर्व कर सकता? अरे भाई, मिलजुल कर काम करना अच्छा लगता है। तुम यह सब बना लायी, मैं सर्व कर दूँ, इससेे खाना और अधिक स्वाद लगेगा।'

‘ठीक है, आप ही सर्व कर लीजिए।'

‘रानी, एक बात कहूँ?'

‘कहो।'

‘तुम पहले वाली रानी नहीं रही।'

‘वो कैसे?'

‘जब से आया हूँ, ‘आप, आप' लगा रखी है। देख रहा हूँ, तुम अभी भी औपचारिकता में उलझी हुई हो। दोस्ती औपचारिक होकर नहीं निभती। ठीक है, सालों में नापें तो बहुत दूरी तय कर ली है हमने, और हम वो बचपन वाले रानी और आलोक भी नहीं रहे; फिर भी जैसे बचपन में एक—दूसरे को बुलाया करते थे, वैसे ही अब भी बुला सकते हैं। अच्छा भी लगेगा और लगेगा कि बीच का समय चाहे हमें बाईपास कर गया, फिर भी हम वही—के—वही हैं।'

‘ओ.के. बाबा।'

‘यह हुई न बात।'

फिर दोनों ने इत्मीनान से इडली—सांभर और कॉफी का आनन्द लिया।

रानी— ‘आलोक, शादी में तुमसे रश्मि के देहान्त का पता लगा था। उन्हें कोई खास तकलीफ थी?'

जब कभी रश्मि का प्रसंग आता है तो आलोक सहज नहीं रह पाता। रानी द्वारा रश्मि की मृत्यु का प्रसंग उठाने पर उसकी मनोदशा में हलचल हुई, फिर भी यथासम्भव सहजता के साथ उसने बताया — ‘रश्मि को कैंसर हो गया था। जब पता चला, बहुत देर हो चुकी थी। बहुत इलाज़ करवाया, किन्तु कुछ वश न चला। दो महीने में ही कंचन—सी काया स्वाह हो गई।'

बात पूरी होते—होते रानी को आलोक की असहजता का आभास हुआ। इसलिये थोड़ा रुककर पूछा — ‘बेटे और बेटी के विवाह तो रश्मि के रहते ही हो गये होंगे?'

‘हाँ, बेटी के विवाह के तीन महीने बाद ही रश्मि साथ छोड़ गई।'

‘दादा—नाना तो बन गये होंगे?'

‘हाँ, दादा भी बन गया हूँ और नाना भी। एक पोती है और दो महीने पहले ही बेटी के पुत्र हुआ है। पन्द्रह दिन पहले ही आस्ट्रेलिया से आया हूँ। दोहता बड़ा ही ‘क्यूट' है।'

‘और पोती.....'

‘वह तो छः वर्ष की हो गई है। बहुत समझदार है, बल्कि कहना होगा कि जरूरत से अधिक समझदार है। दरअसल, आजकल के बच्चे अपनी उम्र से कहीं अधिक सयाने होने लगे हैं। अगर आज के बच्चों से हम अपने बचपन की तुलना करें तो कई बार ऐसा लगता है कि हम तो अपने बचपन में निरे बुद्धू ही हुआ करते थे।'

‘आज बच्चों को जो ‘एक्सपोजर' मिल रहा है, वह हमारे समय में कहाँ था, उस समय उसकी कल्पना भी सम्भव न थी।'

‘तुम्हारे बच्चे....'

‘दो बेटियाँ हैं। दोनों के परिवार बिज़नेस में हैं। दोनों अपने—अपने घर—परिवार में सुखी व खुश हैं। बड़ी वाली के पास दस साल का बेटा और चार साल की बेटी है और छोटी की बेटी मार्च में एक साल की हो जायेगी। तुम अभी कुछ दिन पहले बच्चों के साथ रहकर आस्ट्रेलिया से आये हो, ऐसे में कुछ अधिक अकेलापन महसूस नहीं होता?'

‘रानी, कहूँ कि नहीं होता तो गलत—बयानी होगी। लेकिन, धीरे—धीरे जीवनचर्या सामान्य हो रही है। फिर भी जीवन की सच्चाई है कि बच्चों का साथ भी आदमी के लिये उतना ही आवश्यक है, जितना जीने के लिये प्रतिदिन का आहार। इस बार लगभग तीन महीने आस्ट्रेलिया रहा। समय बीतते पता ही नहीं चला। पहली बार जब आस्ट्रेलिया गया था तो रश्मि भी साथ थी। एक बात जरूर कहूँगा कि घूमने—फिरनेे के लिये तो दूसरे देश बहुत अच्छे हैं, किन्तु रहने के लिये तो अपना देश ही अच्छा है। वहाँ का जीवन यन्त्रचालित—सा है। फुर्सत का समय बिताने के लिये आप किसी मित्र—दोस्त अथवा रिश्तेदार के पास जाना चाहो तो पूर्व—नियोजित कार्यक्रम के बिना वहाँ ऐसा सम्भव नहीं।'

‘अभी तो खैर ठीक है। आखिरकार तो बच्चों के पास ही रहना पड़ेगा।'

‘रानी, मन तो यही करता है कि जब तक साँसें चलती हैं, अपनी जड़ों से न उखडूँ। व्यक्ति अपने परिवेश से कट कर शून्य हो जाता है। वह जिस स्थान पर रहता है, वहाँ का हवा—पानी, वहाँ के रीति—रिवाज़, रहन—सहन तथा खान—पान के तौर—तरीके, प्रकृति के उतार—चढ़ाव, यहाँ तक कि वहाँ की ऐतिहासिक पृश्ठभूमि तक जाने—अनजाने उसके जीवन के अभिन्न अंग बन जाते हैं। इनसे अलग होकर जीवन की कल्पना उसे असम्भव—सी लगती है। इसीलिये हमारी उम्र तथा हमारे से बड़ी उम्र के लोग अपने मूल स्थान से उखड़ना नहीं चाहते, फिर चाहे उन्हें उनके विदेश में बसे बच्चे कितनी भी भौतिक सुख—सुविधाएँ देने को तैयार क्यों न हों। मूल से जुड़े रहने का अपना ही आनन्द होता है। कहावत भी है — जो सुख छज्जु दे चुबारे, ना बल्ख ना बुखारे।'

‘घर पर नौकर तो होगा?'

‘रानी, मुझे किसी पर पूरी तरह निर्भर होना पसन्द नहीं। मैं अपने सब काम न केवल खुद कर सकता हूँ, बल्कि अक्सर करता भी हूँ। इसलिये फुलटाईम नौकर की बजाय मेड रखी हुई है। सुबह आकर झाडू—पोंछा कर देती है और खाना बना देती है। हफ्ते में एक बार कपड़े भी धो देती है। शाम के खाने का प्रबन्ध घर के साथ वाले खाली प्लॉट में कई सालों से चल रहे ‘तन्दूर' से हो जाता है। ‘तन्दूर' वाला एक—दो सब्जियाँ, दाल और कढ़ी बनाता है, जब चाहो, गर्मागर्म चपातियाँ उतार देता है। सप्ताह में एकाध बार किसी—न—किसी यार—दोस्त के साथ शाम का खाना हो जाता है। कभी—कभार हल्का—फुल्का घर पर खुद ही बना लेता हूँ। मुझे खाना बनाने का शौक है, यदि कभी पटियाला आओगी तो अपने हाथ का बना खाना खिलाऊँगा।'

‘फिर तो बड़ा मज़ा आयेगा। मैं जल्दी ही आने की कोशिश करूँगी।'

वाल—क्लॉक पर रानी की नज़र पड़ी। दो बज रहे थे। बोली — ‘बातों—बातों में पता ही नहीं चला और दो बज भी गये। खाने का वक्त हो गया है। तैयार हो या अभी रुकना है?'

‘खा लेते हैं। भोजन वक्त पर ही करना चाहिये। भोजन के समय में थोड़ा—बहुत अन्तर तो ठीक है, किन्तु बहुत ज्यादा अन्तर डालने से अच्छा भोजन भी सेहत के लिये नुक्सानदेह हो सकता हैे।'

‘पाँच—सात मिनट बैठो, केवल चपातियाँ ही सेंकनी हैं, बाकी सब तो मैंने सुबह ही बना लिया था।'

इतना कहते ही रानी रसोई की ओर हो ली। दो लोगों के लिये चपातियाँ उतारने में देर ही कितनी लगनी थी! कुछ ही देर में रानी ने आकर पूछा — ‘आलोक, खाना टेबल पर खाना पसन्द करोगे या बेड पर बैठकर?'

‘आलथी पालथी मारकर खाना मुझे अधिक पसन्द है, इसलिये बेड पर ठीक रहेगा।'

रानी ने बेड पर मैट बिछाया और खाना लगाने के बाद आलोक को पुकारा।

खाना खाते समय दोनों बीच—बीच में बातें भी करते रहेे। बातें औपचारिक थीं। आलोक को लगा, रानी बचपन की स्मृतियों को याद तो करना चाहती है, किन्तु असमंजस में प्रतीत होती है कि कैसे और कहाँ से आरम्भ करूँ? उसकी इसी मनःस्थिति को भाँपते हुए, उसने कहा — ‘रानी, तुम्हें याद होगा, बचपन में गर्मियों की रातों में जब आकाश में चारों तरफ चाँदनी फैली हुई होती थी और हम — तुम, प्रदीप, विनय, रमा और मैं — हमारे घर के सामने वाले चबूतरे पर चौंकड़ी मारकर तथा घेरे में बैठकर ‘गीटे' खेला करते थे।'

आलोक द्वारा षुरुआत करने के पश्चात्‌ रानी की असमंजसता दूर हो गई और उसकी आँखों के समक्ष बचपन के दिन प्रत्यक्ष हो उठे। उसने गर्मजोशी से कहा — ‘अरे, ये भी कोई भूलने वाली बातें हैं! बचपन की वे बातें पानी पर खींची लकीरें नहीं कि लहर आई और अपने साथ बहाकर ले गई। वे यादें तो मेरे रोम—रोम में बसी हैं, अन्तिम साँस तक मेरी धरोहर रहेंगी।'

रानी कुछ क्षणों के लिये रुकी जैसे कुछ याद कर रही हो। फिर कहा — ‘तुम भूले नहीं हाेंेगे, छुट्टी वाले दिन तुम्हारी छत पर पतंग उड़ाना! हमारे और तुम्हारे घर की ऊपर की छतों के बीच की दीवार बहुत छोटी थी। मैं आसानी से दीवार फाँद कर तुम्हारी छत पर आ जाया करती थी। कभी तुम्हारे चौबारे से गानों की आवाज़़ सुनकर मैं सीधी तुम्हारे चौबारे में ही आ धमकती थी। तुम पढ़ भी रहे होते थे और तुम्हारे पास रखे ट्रांजिस्टर पर विविध भारती या ऑल इण्डिया रेडियो से फिल्मी गानों के प्रोग्राम भी चल रहे होते थे। एक बार मैंने पूछा था कि गाने सुनते हो या पढ़ते हो? तुमने कहा था कि पढ़ते हुए तुम्हें यह भी पता नहीं चलता कि कौन—सा गाना बज रहा है, बस संगीतमय वातावरण में तुम्हारा मन पढ़ाई में अधिक लगता है। तुम्हारी यह बात उस समय बड़ी अटपटी—सी लगी थी। तुम्हारी देखा—देखी मैंने भी इस तरह का माहौल बनाकर पढ़ने की कोशिश की, किन्तु गानों के चलते हुए मैं पढ़ाई पर ‘कंसट्रेट' नहीं कर पाई। उस समय तो नहीं, बाद में समझ आया कि हर व्यक्ति की मूल प्रकृति भिन्न होती है। पंजाबी में कहते हैं — ‘किसे नू माह स्वादि, ते किसे नू माह वादि।' परीक्षा के नज़दीक आने पर तो चाची जी से पूछ कर अक्सर ही मैं तुमसे ‘मैथ्स' के सवाल समझने के लिये तुम्हारे चौबारे में आ जाया करती थी। तुम ‘मैथ्स' में अव्वल थे और मैं फिस्सडी। तुम्हारी हेल्प से ‘मैथ्स' में मेरे भी अच्छे नम्बर आ गये थे। सच में बड़े ही प्यारे थे बचपन के हँसी—खेल के वे दिन! शायद किसी शायर ने इसी तरह के अनुभवों से गुज़रकर नज़्म की ये पंक्तियाँ लिखी होगींः

कोई लौटा दे मेरे बचपन के वो दिन

जब सिर्फ मैं थी और मेरा बचपन था

ना कोई गम था और ना कोई उलझन थी

जहाँ ज़िन्दगी खेल—खेल में आगे बढ़ती थी

जहाँ पता ना चलता था कब रात हुई और कब दिन!'

रानी के उछाह को आगे बढ़ाते तथा बचपन के दिनों को स्मरण करते हुए आलोक ने कहा — ‘और वह दिन तो तुम्हें अवश्य ही याद होगा, जब तुम्हारे दीवार फाँद कर आते ही मैनें तुम्हें बाँहों में भर कर ‘किस' कर लिया था। इतना अचानक हुआ यह कि तुम भाैंचक्की—सी रह गई थी और मेरी बाँहों के घेरे से निकलकर वापस दीवार फाँद कर नीचे चली गई थी। वह अहसास आज भी अवचेतन में कहीं वैसे—का—वैसा कायम है। लेकिन तब मैं डर गया था कि तुम कहीं आंटी को यह सब न बता दो। जब काफी देर तक कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई तो मैं अपने कमरे में आकर पढ़ने बैठ गया था। मन के किसी कोने में डर था। दूसरे दिन इतवार था। मैं बेमन से पतंग लिये छत पर खड़ा था। क्या देखता हूँ कि तुम दीवार फाँद कर आ रही हो। आते ही तुमने मुझे बाँहों में भर लिया था। मुँह से एक भी शब्द नहीं निकला था, लेकिन उस मौन—मूक स्वीकृति ने मेरे मन के सारे डर को रफूचक्र कर दिया था। फिर तुमने जब कहा, आओ पतंग उड़ायें तो मेरा मन पतंग से पहले ही आकाश छूने लगा था।'

मानवीय सम्बन्धों में रागात्मक भावों में प्रेम का भाव सर्वोपरि है। मानव—जीवन में भिन्न—भिन्न रिश्तों में तथा भिन्न—भिन्न अवस्थाओं में यह भाव भिन्न—भिन्न रूपों में प्रकट होता है। यौवन की दहलीज़ पर कदम रखते युवा—वर्ग तथा कुछ केसों में उससे पूर्व भी विपरीत लिंगियों में जब प्रेम का प्रस्फुटन होने लगता है तो उनके जीवन—क्रम की दिशा तथा उनकी मानसिक दशा में आमूल—चूल परिवर्तन होने लगते हैं। प्रथम—प्रेम का भाव जब व्यक्ति के मन में अंकुरित होता है, तो मन—रूपी सितार के तार झंकृत हो उठते हैं। इसकी तपिश व्यक्ति विशेषकर युवती / स्त्री के जीवन की आखिरी श्वास तक बनी रहती है। प्रेम की स्मृतियाँ प्रेम से भी अधिक मोहक होती हैं। ऐसे में प्रेम—पात्र के पार्थिव तथा भौतिक अस्तित्व का स्थान स्मृति रूप में हृदय में नित्य उपस्थित रहने लगता है, उसकी प्रगाढ़ता प्रकट भले न हो, क्योंकि एक तरह से वह अवचेतन का हिस्सा बन चुका होता है, किन्तु इसके अस्तित्व को नकारना सम्भव नहीं। जब कभी भी अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं तो इसे पुनः मुखरित होने में देर नहीं लगती।

आलोक के मुख से बचपन की उस विशेष घटना, जिसने उसके अन्तःकरण में प्रथम बार प्रेम का अहसास उत्पन्न किया था, को सुनकर रानी रोमांचित हो उठी, प्रेम की स्मृतियाँ मुखरित हो उठीं, किन्तु उसने प्रकट में इतना ही कहा — ‘तुम तो यादों के झरोखों में ऐसे खो गये हो कि खाना खाते—खाते तुम्हारे हाथ भी रुक गये हैं।'

‘तुम्हारी यादों के झरोखों की बात से मुझे मेरे कवि—मित्र मुकेश गम्भीर की ये पंक्तियाँ याद हो आई हैंः

तेरी ओर से

चली आने वाली हवायें भी,

उल्फत की खुशबू को साथ लाती हैं

और धीमे से,

मेरे कानों में कह जाती हैं

कि आज भी,

उम्र के इस आखिरी मोड़ पर

करता है कोई मेरा इन्तज़ार।'

‘वाह—वाह, बहुत खूब! तुमसे यह सुनकर बहुत अच्छा लग रहा है। पहले खाना पूरा कर लो, फिर इत्मीनान से बातें करेंगे।'

और फिर खाना समाप्त होने तक दोनों चुप रहे।

आलोक — ‘रानी, खाना बड़ा स्वादिश्ट था। बातों—बातों में जरूरत से कुछ ज्यादा ही खा लिया है।'

‘वैसे तो तुमने ऐसा कुछ ज्यादा खाया नहीं है, फिर भी अगर तुम्हें लगता है कि ज्यादा खा लिया है तो रात के खाने की छुट्टी कर लेना।'

‘अब रात के खाने की छुट्टी तो करनी ही होगी। भोजन उतना ही अच्छा होता है, जिसके बाद शरीर में स्फूर्ति तो बढ़े, किन्तु भारीपन महसूस न हो। आज थोड़ा भारीपन—सा लग रहा है।'

‘चाय या कॉफी ले लो, भारीपन दूर हो जायेगा।'

‘अभी मैं कुछ नहीं लूँगा। भोजन करने के घंटे भर तक मैं चाय—कॉफी आदि नहीं लेता। यदि भोजन के तुरन्त बाद चाय या कॉफी पीते हैं तो भोजन हज़म होने की प्रक्रिया तेज हो जाती है, जिससे शरीर में शुगर का लेबल बढ़ जाता है और इन्सुलिन उस अनुपात में न बनने से डॉयबिटीज़ होने के आसार बढ़ जाते हैं।'

‘आलोक, तुम्हें याद है, पापा की ट्रांसफर जालंधर होने पर हमने एक—दूसरे को कभी न भूलने की बातें की थीं।'

‘बिल्कुल याद है। भला उन बातों को मैं कैसे भूल सकता हूँ? तुमने वायदा किया था कि जालंधर जाकर तुम पत्र लिखोगी। मैंने दो—तीन महीने तक खूब प्रतीक्षा की। रोज़ डाकिये की राह देखा करता था, लेकिन प्रतीक्षा प्रतीक्षा ही रही, फलीभूत नहीं हुई। मेरे पास तुम्हारा अता—पता था नहीं। होता तो मेरा पत्र तुम्हारे हाथों में होता। आखिर हारकर प्रतीक्षा छोड़ दी। मन को समझा लिया कि तुम मुझे भूल चुकी हो। अपने अन्दर की ओर ही सिमट गया। पढ़ाई ही मेरा शुगल रह गया।'

आलोक की बात सुनकर रानी थोड़ी—सी विचलित हुई। अभी तक वह बिना हिले—डुले चौंकड़ी मारकर बैठी थी। अपने को सहज करने के लिये उसने टाँगों को खोला। पहली की जगह दूसरी टाँग नीचे रखकर पुनः चौंकड़ी मार ली। अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिये कहना आरम्भ किया — ‘आलोक, मुझे आज भी अफसोस है कि मैंने अपना वायदा नहीं निभाया। मेरी इस नादानी से तुम्हें कष्ट हुआ, उसके लिये मैं स्वयं को कभी माफ नहीं कर पाऊँगी। लेकिन मेरी स्थिति को मेरे नज़रिये से देखोगे तो मुझे जरूर माफ कर दोगे। जालन्धर जाने के बाद बहुत दिनों तक मैं स्वयं को बदली हुई परिस्थिति में फिट नहीं कर पाई। कहाँ तो हम रोज़ मिला करते थे और कहाँ तुम से मिलने का कोई चाँस ही नहीं था। बहुत बार सोचा, तुम्हें पत्र लिखूँ, किन्तु यह सोचकर हाथ रुक जाते थे कि पत्र से क्या होगा? ज्यादा—से—ज्यादा जवाब में तुम्हारा पत्र आ जायेगा। तुम से बिछुड़ने पर मेरे जीवन में जो रिक्तता आ गई थी, क्या पत्र उसकी भरपाई कर सकते थे? मन ने कहा, नहीं। वापस ट्रांसफर होकर कभी बठिण्डा आ पायेंगे, की उस समय कोई उम्मीद नहीं थी। लड़की होने के कारण तुमसे कभी मिल पाऊँगी, की भी कोई राह दिखाई नहीं देती थी। यही सब सोचकर तुम्हें पत्र नहीं लिखा। मन को मार लिया। किसी से भी मिलना—जुलना अच्छा नहीं लगता था। समय बीतता रहा और जब पाँच—छः साल बाद एक दिन पापा ने घर आकर बताया कि हमारी ट्रांसफर बठिण्डा की हो गई है, मन में सोई हुई आस जाग उठी।

‘बठिण्डा आने पर एक दिन बाज़ार में रमा से मुलाकात हो गई। उससे पता चला कि तुम लोगों ने घर में गाय पाली हुई है। चाहे गणेश नगर के जिस मकान में अब हम रहते थे, वह तुम्हारे घर से बहुत दूर था, फिर भी मैं तुम्हारे घर से लस्सी लेने के लिये आने लगी। दिल में चाहत थी कि इस बहाने तुम से मिलना हो जायेगा, क्योंकि जालन्धर रहते हुए भी तुम्हारे साथ बिताये पलों का स्मरण सदैव बना रहा था। पहली बार चाची जी से तुम्हारे बारे में पूछा। उन्होंने कहा, ऊपर पढ़ रहा है, जाओ मिल लो। लेकिन मैं उम्र के उस दौर में थी जब अधिकतर लड़कियाँ बड़ों के सामने लड़कों से मिलने में संकोच करती हैं। इसलिये उनको इतना कहकर कि आज मैं जल्दी में हूँ, वापस लौट गई थी। कुछ दिनों बाद की बात है। मैं तुम्हारे घर लस्सी लेने आई थी तो तुम ‘बैठक' में बैठे हुए कोई मैगज़ीन पढ़ रहे थे। घर पर उस दिन तुम अकेले थे। मैंने लस्सी के लिये डोल आगे किया, तुमने चुपचाप डोल पकड़ा और अन्दर चले गये। तब जरूर मन में इच्छा जगी थी कि तुम से बात करूँ, किन्तु जब तुमने लस्सी भरा डोल चुपचाप मुझे पकड़ा दिया, तो मन—की—मन में दबाये मैं लौट गई थी।'

‘रानी, यह ठीक है कि उस समय तुम्हारे पत्र न आने से मुझे बुरा लगा था। वह बुरा लगना तात्कालिक था। लेकिन आज सोचता हूँ तो लगता है, तुम्हारी सोच ठीक थी। पत्र—व्यवहार से कब तक निभाते जब मिलने की कोई आस ही नहीं थी। तुम्हारे जालंधर चले जाने के बाद से मैं भी अपने आप में खोया रहने लगा था। बहुत कम मिलता—जुलता था किसी से। हर समय पढ़ाई में ही व्यस्त रहता था। अपनी इसी मनोदशा के चलते मैं तुमसे कोई बात नहीं कर पाया था जब तुम लस्सी लेने आई थी जबकि घर पर मैं अकेला था। तुमसे यही प्रार्थना है कि इस अपराध—बोध कि तुमने वायदा नहीं निभाया, को मन से निकाल दो। देखो, नियति का करिश्मा! जब नाउम्मीदी में उम्र गुज़र गई तो अचानक हमारा मेल करवा दिया।'

उपरोक्त बातचीत के कारण स्थिति में गम्भीरता आ गई थी। गम्भीरता को कम करने के इरादे से रानी ने पूछा — ‘आलोक, कॉलेज और युनिवर्सिटी में तो जरूर किसी—न—किसी से दिल लगा होगा?'

‘रानी, सच तो यह है, यदि तुम इसे सच मानो और विश्वास करो, कि तुम्हारे जालंधर चले जाने के बाद और रश्मि के मेरे जीवन में आने तक मैं किसी और लड़की से दिल लगाने की सोच भी नहीं सका।'

‘इतने सालों बाद तुमने मुझे पहचान लिया और मेरे एक बार कहने पर मिलने चले आये, भला मैं तुम्हारी बातों को कैसे सच नहीं मानूँगी और क्योंकर तुम्हारा विश्वास नहीं करूँगी? अब तो चार बजने वाले हैं, खाना खाये भी काफी देर हो गई है, अब तो चाय बना लूँ?'

‘हाँ, अब चाय पी जा सकती है।'

चाय पीने के बाद रानी बोली — ‘आलोक, तुम कह रहे थे कि तुम पहली बार वाली ‘किस' का अहसास आज भी भूले नहीं हो। होश सँभालने के बाद तुम्हारी ‘किस' ने ही पहली बार ‘पुरुष—स्पर्श' से मेरा परिचय करवाया था। उफ, वह स्पर्श! सारा शरीर जैसे बिजली के करंट लगने से झनझना उठा था। विचित्र—से सम्मोहन की रोम—रोम को पुलकित कर देने वाली अनुभूति हुई थी। मुद्दतों बाद आज अवसर आया है उस अहसास को ताज़ा करने का, करना चाहोगे?'

आलोक को रानी का निमन्त्रण रोमांचित कर गया। फिर भी नैतिकता के स्तर पर उसके मन में संकोच था। अतः उसने प्रतिप्रश्न किया — ‘क्या ऐसा करना उचित होगा?'

‘आलोक, उचित—अनुचित मैं नहीं जानती। मन के भाव तुम्हारे सामने जरूर प्रकट करूँगी, फैसला तुम कर लेना। कॉलेज टाईम में मैंने मीरा के जीवनचरित में पढ़ा था कि जब मीरा केवल चार वर्ष की थी, तब राजमहल में ठहरे एक सन्त ने मीरा की गूढ़ सूझबूझ से प्रभावित होकर अपने ठाकुरजी उन्हें भेंट कर दिये थे और मीरा ने इनका नाम ‘गिरधर' रखा था। उसके बाद तो गिरधर ही मीरा के प्राण बन गये। एक बार एक बारात राजमहल के सामने से गुज़र रही थी। बारात में बींद को देखकर मीरा ने अपनी माँ से जिद्द कर पूछा था — ‘माँ, मेरा बींद कौन है', तो माँ ने टालने के लहज़े में कह दिया था कि तेरा बींद तो तेरा गिरधर गोपाल है, और कौन? तत्पश्चात्‌ मीरा ने अपने मन में सदैव के लिये गिरधर को ही पति—रूप में बसा लिया था। उसी तरह पहली ‘किस' वाले दिन से ही मेरे मन की धरती में तुम्हारे प्रेम का बीज पड़ गया था और मैंने मन—ही—मन तुम्हें अपना बना लिया था।

पहले ही दिन से हम दिल में ठान चुके हैं,

तेरे बन के तुझे अपना मान चुके हैं।

‘किन्तु अफसोस कि परिस्थिति और संयोग अनुकूल न होने से तुम्हारे साथ शादी नहीं हो पायी और रमेश जी मेरे पति बन गये। सांसारिक रीति—निर्वाह के लिये मैंने शादी की थी, किन्तु मेरे मन के बाग की कली कभी फूल नहीं बन पाई। हमारे बीच सर्दी और बर्फ जैसा सम्बन्ध कभी नहीं बन पाया, हम धूप और बारिश जैसे ही रहे। विवाह केवल दो शरीरों का ही मिलन नहीं होता, बल्कि दो आत्माओं का मिलन होता है। रमेश जी मेरे शरीर के तो स्वामी बन गये, मन में तो तुम्हीं बसे रहे। शरीर का साथ, शरीर का पाना ही शरीर के स्वामी को पाना या उसका होना नहीं होता, बल्कि पाना तो उस व्यक्ति का अभिन्न हिस्सा बनना होता है, और ऐसी उपलब्धि के लिये मन में प्रेम प्रस्फुटित होना पहली शर्त है। यह सब सामाजिक नियमों के अनुसार ही हो, जरूरी नहीं। यह तो आदमी की व्यक्तिगत अभिरुचि तथा मनःस्थिति से प्रभावित तथा संचालित होता है। व्यक्ति को समझौते तो जीवन में न जाने कितनी बार करने पड़ते हैं, लेकिन मन में किसी के लिये प्यार तो केवल एक ही बार प्रस्फुटित होता है और उसकी तपस आखिरी साँसों तक बनी रहती है। मैंने अपने मन की बात कह दी है, अब तुम वही करो, जो तुम्हें ठीक लगता है या जिसकी गवाही तुम्हारा मन देता हो।'

‘तुमने तो दुविधा में डाल दिया, रानी। मैंने नहीं सोचा था कि तुम बचपन की बातों को इतनी गम्भीरता से सँजोये बैठी होगी!'

‘आलोक, यह हकीकत है कि औरत पहले प्यार को उम्र के आखिरी लम्हों तक सीने में सँजोये रखती है, उसे भूल नहीं पाती। लेकिन, यह भी सत्य है कि इस तथ्य को स्वीकार करने के लिये जिस आन्तरिक दृढ़ता की जरूरत होती है, वह बहुत कम पायी जाती है।'

रानी के दिल की बात सुनकर आलोक असमंजस में पड़ गया। कुछ पलों तक सोचता रहा। उसे लगा, रानी के मन के भीतर से आ रही निमन्त्रण की पुकार को स्वीकार न करना उसका अपमान करना होगा। साथ ही उसे स्मरण हो आई ‘नदी के द्वीप' उपन्यास में ‘अज्ञेय' द्वारा की गई टिप्पणी — ‘स्त्री माँगे तो ‘न' कहने का अधिकार पुरुष को नहीं है, शीलविरुद्ध है माँग — के औचित्य—अनौचित्य से परे...।' यही सब सोचकर वह बेड से उठा। खड़े होकर बाँहें फैला दीं। रानी भी बेड से उठी और आलोक की फैली हुई बाँहों में समा गई। आलोक ने रानी को बाँहों के घेरे में लेकर बड़े हल्के स्पर्श से उसके होंठों पर अपने होंठ रख दिये। पाँच—सात मिनट इसी अवस्था में गुज़र गये। आखिर रानी ने कहा — ‘आओ, थोड़ी देर कमर सीधी कर लेते हैं।'

तब जाकर आलोक ने उसे बाँहों के घेरे से मुक्त किया और बेड पर लेट गया और रानी ड्रेसग टेबल के सामने खड़ी होकर आलोक द्वारा चूमे गये अपने होंठों को कुछ इस तरह देखती रही जैसे इन पलों को सदा—सदा के लिये अपने अन्तःकरण पर अंकित कर लेना चाहती हो। आलोक अपलक उसकी ओर देख रहा था, किन्तु उसने रानी की एकाग्रता को भंग करना उचित नहीं समझा। विपरीत लिंगी व्यक्ति का स्पर्श जिससे प्रेम होता है, चाहे स्मृति में हो अथवा हकीकत में विशेष तरह की अनुभूति कराता है।

कुछ क्षणों पश्चात्‌ रानी घूम कर बोली —‘मैं साड़ी चेंज कर आऊँ।'

जब वह वापस आई तो सलवार—सूट पहने थी।

आलोक — ‘सलवार—सूट भी खूब जंच रहा है तुम पर।'

‘यह सब तुम्हारी प्यारभरी नज़र के कारण है। अक्सर मैं सलवार—सूट ही पहनती हूँ। वैसे भी सर्दियों में सलवार—सूट ज्यादा कम्पफर्टेबल रहता है।'

इतना कहकर वह आलोक की बगल में लेट गई। प्यार भरी यादों में वे ऐसे मग्न हुए कि कब सात बज गये, उन्हें पता ही नहीं चला। रानी ने उठते हुए कहा —‘आलोक, मुद्दतों से जिस प्यार की चाह थी, वो आज तुमने पूरी कर दी। कभी नहीं जाना था कि दूसरे की साँसें अपनी रग—रग में भी समा सकती हैं। ज़िन्दगी में पहली बार जाना है कि वो कौन—सा रिश्ता है जो आहिस्ता—आहिस्ता साँसों में गुँथ जाता है, रोम—रोम में समा जाता है। मैंने ज़िन्दगी का इतना लम्बा सफर तय कर लिया है, किन्तु ऐसा अहसास पहली बार हुआ है।' थोड़ा रुक कर पूछा — ‘अब बताओ, ऑमलेट खाओगे या कुछ और बनाऊँ?'

‘पहली बात तो यह है कि अब मैं जाना चाहूँगा। दूसरी, तुम सुबह से काम में जुटी हुई हो, थक गई होगी। और जहाँ तक ऑमलेट का सवाल है तो तुम्हें बता दूँ कि मुझे अंडा छोड़े हुए पन्द्रह—बीस साल हो गये हैं।'

रानी ने आग्रह करते हुए कहा — ‘आलोक, मुद्दतों बाद मिले हैं, आज की रात तो मेरे पास ही रुक जाओ। रमेश जी तो कल दोपहर तक ही वापस आयेंगे। और जो तुमने थकावट की बात कही, तो सच तो यह है कि तुमसे मिलने के बाद थकावट होने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता, क्योंकि जब किसी अपने के लिये काम किया जाता है तो थकान होती ही नहीं।'

रानी की बात सुनकर आलोक ने वापस जाने की बात न उठाकर कहा — ‘अगर ऐसा है और यदि तुम ठीक समझोे तो मार्किट चलते हैं। घूमना—फिरना भी हो जायेगा और वहीं कुछ हल्का—फुल्का खा—पी लेंगे।'

‘तुम जो भी चाहोगे, मुझे अच्छा ही लगेगा। चलो, मार्किट ही चलते हैं। साथ—साथ घूमना भी हो जायेगा। लेकिन जरा रुको, तुम कोई वूलन तो पहन कर आये नहीं, मैं तुम्हारे लिये स्वेटर लेकर आती हूँ। बाहर तो इस समय काफी सर्दी होगी!'

थोड़ी देर में ही रानी कपड़े बदल कर व आलोक के लिये स्वेटर लेकर आ गई। रास्ते में आलोक ने कहा — ‘रानी, कहीं नज़दीक मन्दिर हो तो चलते हैं।'

‘बहुत बढ़िया आइडिया है। बचपन की दोस्ती उम्र के इस पड़ाव पर परवान चढ़ी है, भगवान्‌ का धन्यवाद तो अवश्य करेंगे।'

मन्दिर में दोनों ने प्रसाद चढ़ाया। पंड़ित जी से आशीर्वाद लिया। साथ ही रानी ने झुक कर आलोक के पैरों को छूकर हाथ माथे से लगाये।

‘अरे, यह क्या करती हो?'

‘अपने देवता के चरण—स्पर्श करने से कोई गुनाह हो गया क्या?'

बात को बिना और तूल दिये दोनों मन्दिर की सीढ़ियों से नीचे उतर आये और मार्किट की ओर चल दिये। पहले गोल—गप्पे खाये, फिर कुछ शॉपिंग की। आलोक ने रानी के लिये एक साड़ी खरीदी और रानी ने आलोक के लिये अपनी पसन्द की गर्म जैकेट व नाईट—सूट लिया। बढ़िया रेस्त्रां में हल्का—सा खाना खाया और घर लौट आये।

आलोक को नाईट—सूट पकड़ा कर रानी स्वयं दूसरे कमरे में चली गई। आधा घंटा हो गया और रानी अभी दूसरे कमरे में ही थी। टी.वी. देखते—देखते आलोक बोरियत महसूस करने लगा। उठा और जा पहुँचा दूसरे कमरे में। कमरा खुला ही था। क्या देखता है कि रानी दुल्हन की वेश—भूषा में लगभग तैयार हो चुकी थी। आलोक उसे इस रूप में देखकर हतप्रभ रह गया। पोशाक व्यक्तित्व को कितना बदल देती है!

आलोक को दरवाज़े पर खड़ा देखकर रानी बोली — ‘तुम चलो, मैं अभी आई।'

थोड़ी देर में रानी हल्का—सा घूँघट काढ़े हुए आई और आलोक की बगल में बैठ गई।

आलोक ने प्रश्नवाचक दृष्टि से पूछा — ‘यह सब?'

‘आज तुम आये, मेरे मन की मुराद पूरी हुई। अब मुझे दुल्हन रूप में स्वीकार करो।'

‘मुझे इस पल, इस दृश्य जो हृदय—पटल पर तो सदा—सदा के लिये अंकित हो गया है, को कैमरे में कैद कर लेने दो ताकि इन यादगार पलों व दृश्य को इन आँखों से भविष्य में भी निहार सकूँ।'

आलोक ने एक नहीं, कई फोटो लीं। जब वह मोबाइल बन्द करने लगा तो रानी बोली — ‘मेरी अकेली की फोटो तो ले ली, अब अपनी दोनों की सेल्फी भी ले लोे। यह भी एक यादगार रहेगी।'

और आलोक ने उसकी इच्छा पूरी करते हुए सेल्फी लेकर मोबाइल बन्द कर दिया। उसके बाद बड़े प्रेम से उसका घूँघट ऊपर उठाया। उसकी ठोड़ी को अँगुलियों से छूआ और माथे से शुरू कर आँखों पर चुम्बन करते हुए उसे बाँहों में भर लिया। प्यार भरी बातों में रात बीतती गई, किन्तु नींद नदारद थी। ये वे क्षण थे, जब दो प्रौढ़ प्राणी बचपन की यादों के आलम्बन से शारीरिक सन्तोष नहीं, वरन्‌ आत्मिक नैकट्‌य और आन्तरिक तृप्ति पाने के लिये आतुर थे।

रात को सोने से पूर्व आसमान तारों से भरा था। बादलों का कहीं नामो—निशान न था। लेकिन बीच रात किसी समय मौसम ने करवट बदली। लगभग चार बजे के करीब आसमानी बिजली कौंधने व बादल गर्जने लगे। बादलों के आपस में टकराने से हुई भयंकर गर्जना सुनकर रानी एकदम आलोक की छाती से सटकर चिपक गई। घंटे—एक पश्चात्‌ उन्होंने उठकर बाहर झाँका। अभी अँधियारा छाया हुआ था और झमाझम वर्षा हो रही थी। अब सोने का तो समय था नहीं, अतः बेड से उठकर फ्रैश हुए। चाय बनाने के लिये रसोई की ओर जाते हुए रानी ने पूछा — ‘आलोक, चाय के साथ बटर—टोस्ट बना दूँ?'

‘इतनी सुबह बटर—टोस्ट कहाँ बनाओगी, चाय के साथ एक—आध बिस्कुट ही ले लूँगा।'

आलोक के मना करने पर भी रानी चाय के साथ बटर—टोस्ट बना लाई। उनके चाय पीते—पीते वर्षा धीमी होती—होती लगभग रुक गई। आलोक ने कहा — ‘रानी, अब मैं चलता हूँ।'

रानी ने भी और नहीं रोका। आलोक को विदा करते समय उसने केवल इतना ही कहा — ‘देखो आलोक, रात को एक बादल न था। हमारे मिलन की खुशी में न जाने कहाँ से अचानक बादल उमड़ आये और खुलकर बरसे। आज पहली बार आत्मिक तृप्ति का अनुभव हुआ है। मन तरंगित है। ऐसा लगता है जैसे मन के आँगन में फूलों की बगिया खिल उठी हो! तनिक—सा अफसोस अगर मन में है तो बस इतना ही कि तुम इतनी देर से क्यों मिले? तमाम ज़िन्दगी मरुस्थल की भाँति रही है अब तक। अब एक—दूसरे से दूर रहते हुए भी हम एक रहेंगे। जैसे भी मौका मिला करेगा, महीने में कम—से—कम एक—आध बार जरूर मिला करेंगे।'

‘अवश्य' कहकर आलोक कार में बैठ गया और हाथ हिलाता हुआ निकल गया। रानी वहीं खड़ी देखती रही जब तक कि कार का आकार छोटा होते—होते सड़क के मोड़ पर जाकर लुप्त नहीं हो गया।

ढाई—तीन घंटे तक आई बारिश व तूफान के कारण सर्दी बढ़ गई थी। रात भर जागते रहने के बावजूद आलोक के जाने तक तो रानी की देह में अनिद्रा का कोई लक्षण नहीं था, किन्तु उसके जाने के बाद काम की कोई जल्दी न होने की वजह से रानी बेडरूम में आकर रजाई में दुबक गई। रजाई की गर्माहट में कब नींद ने आ घेरा, उसे पता भी नहीं चला। डोरबेल बजने पर ही नींद टूटी। उठकर दरवाज़ा खोला। बाहर लच्छमी इन्तज़ार कर रही थी। अन्दर आकर लच्छमी बोली — ‘मैडम जी, आप तो बहुत जल्दी उठकर अपने सारे काम निपटा लेती हो, आज क्या तबीयत ठीक नहीं है जो अभी तक सो रही थी?'

सारी बात का खुलासा नौकरानी के सामने करने की कोई जरूरत नहीं थी, लेकिन जवाब तो देना था। इसलिये रानी ने इतना ही कहा — ‘तबीयत तो ठीक है। मुँह—अँधेरे बादलों की भयंकर गर्जना के साथ जो आँधी—पानी बरसा था, उस समय नींद खुल गई थी। जब दुबारा नींद आई तो टाईम का पता ही नहीं चला। चलो कोई बात नहीं, साहब अभी आये नहीं हैं, काम थोड़ा देरी से भी होगा तो भी कोई चता नहीं।'

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