कौन दिलों की जाने! - 11 Lajpat Rai Garg द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कौन दिलों की जाने! - 11

कौन दिलों की जाने!

ग्यारह

आलोक की कोशिश होती है कि जब तक कोई विवशता न हो, समय की पाबन्दी का ख्याल जरूर रखा जाये। पच्चीस तारीख को ठीक ग्यारह बजे उसने रानी के घर की डोरबेल बजाई। रानी ने दरवाज़ा खोला और ‘आइये' कह कर स्वागत किया। चाय पीने के बाद दोनों ने रसोई का रुख किया। रानी ने छौंक के लिये प्याज़, लहसुन, टमाटर, अदरक, धनिया पहले ही से तैयार कर रखा था। सब्जी कौन—सी बनेगी — गाजर—मटर या मटर—पनीर का फैसला आलोक की पसन्द के अनुसार होना था। मटर के दाने निकाले हुए थे। गाजर—मटर बनाने का फैसला हुआ। रानी ने शीघ्रता से गाजर छील कर काट ली। कड़ाही निकाल कर गैस—स्टोव पर रख दी। आलोक की ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखते हुए पूछा — ‘अब?'

‘मैं बताऊँ और तुम बनाओगी या मैं बनाऊँ और तुम देखोगी?'

‘आज तो तुम्हीं बनाओ, मैं केवल तुम्हें बनाते हुए देखूँगी।'

आलोक ने बर्नर ऑन किया। कड़ाही में जीरा डाला। जीरा जब लाली पकड़ने लगा, तब बारीक किये हुए प्याज़, लहुसन व अदरक डाल दिये। कड़छी से इन्हें हिलाता रहा। थोड़ी देर बाद बारीक किया हुआ टमाटर कड़ाही में उंडेल दिया। कड़छी मारना जारी रखा। जब इन सभी आइटम्स की पेस्ट—सी बनने लगी तो अन्दाज़ से नमक, हल्दी, मिर्च, गर्म मसाला मिलाया और आधा गिलास पानी व गुड़ की छोटी—सी डली डाल कर उबाल आने तक प्रतीक्षा की और अन्त में कटी हुई गाजर व मटर के दाने कड़ाही में छोड़ दिये। थोड़ी देर तक इन्तज़ार किया। फिर कड़ाही को ढँक कर बर्नर सिम पर करके रानी को कहा — ‘आओ पन्द्रह—एक मिनट गपशप करते हैं, इतने में सब्जी तैयार हो जायेगी।'

‘तुम बैठो। मैं सलाद आदि तैयार करती हूँ।'

‘अगर तुम्हें ऐतराज़ न हो तो मैं यहीं खड़ा रहूँ।'

‘मुझे ऐतराज़ कैसा? बल्कि जब तुम मेरे पास रहते हो तो मन अतिरिक्त खुशी महसूस करता है। दो पंक्तियाँ याद आ रही हैः

तुम साथ में होते हो तो कुछ लगता है ऐसा

मिल जाये कड़ी धूप में बरगद का जो साया।'

पन्द्रह मिनट में सब्जी तैयार हो चुकी थी। इधर रानी ने चपातियाँ सेंकीं, उधर आलोक ने बेड पर मैट बिछाकर प्लेटें आदि रखीं। चपातियों वाला हॉटकेस, सब्जी वाला डोंगा व सलाद की प्लेट लाकर रानी भी बेड पर जम गयी और दोनों ने मिलकर खाना खाया।

रानी— ‘आज अपने सामने तुम्हें सब्जी बनाते देखकर अच्छा लगा। इस तरह की बनी हुई सब्जी स्वाद के साथ—साथ सेहत के लिये भी बहुत अच्छी है, खासकर अपनी उम्र के लोगों के लिये।'

‘इस तरह की बनी हुई सब्जी अपनी उम्र के लोगों के लिये ही नहीं, हर उम्र के व्यक्ति के लिये लाभदायक है। जब हम छौंक लगाते वक्त घी या तेल का प्रयोग करते हैं तो उससे घी या तेल के स्वास्थ्यवर्धक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं। अगर घी डालना ही हो तो सब्जी बनाने के बाद ऊपर से डालना चाहिये, इससे घी के पौष्टिक तत्त्व भी कायम रहते हैं और स्वाद भी बढ़ जाता है।'

खाना खाने के बाद रानी बोली — ‘आलोक, तुम दस मिनट ड्रार्इंगरूम में बैठकर अखबार देखो, इतने में मैं तैयार होकर आती हूँ।'

दसेक मिनट बाद जब रानी तैयार होकर आई तो उसने स्काई ब्लू कलर की साड़ी के ऊपर ब्लू कार्डिगन पहना हुआ था और कंधे पर साड़ी के रंग से मिलते—जुलते रंग का शॉल तहकर रखा हुआ था। आलोक तारीफ किये बिना न रह सका। उसने कहा — ‘तुम्हारी ड्रैसिज़ की चॉयस बहुत बढ़िया है। बहुत अच्छी लग रही हो!'

‘तुम्हें हर वक्त, हर बात पर तारीफ करने की आदत है।'

‘नहीं, ऐसा नहीं है। मैं अच्छा लगने पर प्रशंसा अवश्य करता हूँ, यदि अच्छा न लगे तो चुप रह जाता हूँ। वैसे भी, कुछ भी अच्छा लगने पर प्रशंसा जरूर करनी चाहिये, ऐसे में कँजूसी अच्छी नहीं होती। प्रशंसा करने में तुम्हारा कुछ लगता नहीं, प्रशंसित व्यक्ति को जो खुशी मिलती है, वह अमूल्य होती है।'

‘बातों में तुमसे कौन जीत सकता है?'

‘ढाई बजने को हैं, आओ अब चलें। कार्यक्रम के शुरू होने तक आराम से पहुँच जायेंगे।'

जब वे हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला के सभागार में पहुँचे तो काफी लोग सीटों पर विराजमान थे। उनमें से कुछेक लोगों से आलोक पहले से परिचित था। रानी को बिठाकर वह अपने परिचितों से मिलने एक—एक कर उनकी सीट पर गया। उनमें से एक सज्जन जो काफी अर्से से आलोक के परिचित थे, ने पूछ ही लिया — ‘आपके साथ जो महिला आई हैं, वे कौन हैं? इन्हें पहले कभी नहीं देखा।'

‘मेरी मित्र हैं, मोहाली में रहती हैं। साहित्य में रुचि रखती हैं, इसलिये साथ आई हैं।'

और प्रश्न का उत्तर न देना पड़े, इस विचार से आलोक बात समाप्त कर लौट आया और रानी की बगल वाली सीट पर बैठ गया। थोड़ी देर में ही विशिष्ट अतिथि तथा आमन्त्रित कविगण आने शुरू हो गये। प्रबन्धन की स्वागतकर्त्ता टीम के सदस्य इनका स्वागत करते हुए इन्हें मंच के सामने रखे सोफों पर बिठाने लगे। मंच—संचालक ने माईक पर घोषणा की कि कार्यक्रम शीघ्र ही आरम्भ होने जा रहा है। आयोजन के मुख्य अतिथि श्री राधे श्याम शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार का फूल—माला पहनाकर स्वागत किया गया। तत्पश्चात्‌ मंच—संचालक ने उन्हें मंच पर पधारने का निवेदन किया व आमन्त्रित कवियों से भी मंच पर आने का आग्रह किया। जब ये सभी लोग मंच पर विराजमान हो गये तो संचालक ने मुख्य अतिथि व कविगण को दीप प्रज्ज्वलित करने तथा माँ सरस्वती की आराधना करने के लिये प्रार्थना की। तदुपरान्त मंच—संचालक ने मुख्य अतिथि से कार्यक्रम आरम्भ करने की आज्ञा लेकर डॉ. श्याम सखा ‘श्याम', पूर्व निदेशक हरियाणा साहित्य अकादमी एवं प्रसिद्ध साहित्यकार को आगे की कार्रवाई चलाने के लिये आग्रह करते हुए माईक उन्हें सौंप दिया।

काव्य—पाठ के लिये कवियों को आमन्त्रित करने से पूर्व डॉ. श्याम सखा ‘श्याम' ने मुख्य अतिथि का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनकी उपलब्धियों का उल्लेख किया। अपनी बात रखते हुए उन्होंने कहा कि वर्ण—व्यवस्था प्रारम्भ में भले ही कैसी भी रही हो, किन्तु इस सत्य से आँख नहीं मूँद सकते कि पिछली कई शताब्दियों से मनुष्य जातियों—उपजातियों में बंट कर रह गया है तथा ऊँच—नीच के भेदभाव ने परस्पर वैमनस्य व द्वेष जगाकर देश के विकास की राह में काँटे ही बोये हैं। जातिगत भेदभाव तथा संकीर्णता ने समाज को विशृंखलित किया है तथा आज भी घुन की तरह इसकी जड़ों को निरन्तर खोखला किये जा रहा है। अपने इस विचार को कविता की भाषा में इस प्रकार अभिव्यक्ति दीः

जितने थे दिन उतनी राम ने रात बनाई

मगर लोगों ने तो बिना बात के बात बनाई।

एक जैसी कोख माँ की एक जैसा दिल

फिर क्यों हमने इतनी सारी जात बनाई।

श्रोत्राओं की करतल ध्वनि के बीच डॉ. श्याम ने आगरा से पधारे कवि कन्हैया लाल अग्रवाल ‘आदाब' को काव्य—पाठ के लिये आमन्त्रित किया, जिन्होंने दो गज़लें सुनाईं। निम्न शे'रों पर श्रोत्राओं की खूब दाद मिलीः

बढ़ती ही जा रही हैं क्यों आपस की दूरियाँ

दिखती नहीं है कोई कमी इस दरार में।

जिस आदमी को पीर हो गैरों के दर्द से

मुझको तो दिखता नहीं दसियों हज़ार में।

न मेरा है, न तेरा है, ये हिन्दुस्तान सबका है

नहीं समझी गई यह बात तो नुक्सान सबका है।

हज़ारों रास्ते खोजे गये उस तक पहुँचन के,

मगर पहुँचे हुए कह गये रब सबका है।

इसके पश्चात्‌ पंचकूला के वयोवृद्ध कवि श्री रामकृष्ण जैन ने कविता—पाठ किया। उन्होंने अपनी कविताओं — ‘भ्रूण—हत्या का अभिशाप', ‘आज़ादी से पहले भारत', ‘ओ माँ! तेरी याद सताती है' व ‘उठो हद वालो, सोओ नहीं' का पाठ किया। श्रोत्राओं ने खूब सराहना की। वैसे तो सभी कविताएँ हृदयस्पर्शी थीं, फिर भी निम्न कवितांश श्रोताओं के दिलों को छू गयेः

घर की शोभा गृह लक्ष्मी को, हाय! गर्भ में मार रहे हैं

भ्रूण—हत्या है ब्रह्महत्या—सी, धर्म—कर्म सब हार रहे हैं

कब तक इस समाज पर अपने, राहु का अभिशाप रहेगा?

भ्रूण—हत्या इस भारत में, होता कब तक पाप रहेगा?

घर घर में थी गाय रहती, दूध दही की कमी न थी

यूरिया पेस्टीसाईड वाली, होती कहीं ज़मीन न थी

बड़े बड़ों का मान बड़ा था, छोटे हुक्म बजाते थे

आज की भाँति बड़े हमारे, पल—पल चोट न खाते थे

शाकाहारी भोजन सबका, नशों से भारी नफरत थी

कुदरत के नज़दीक थे रहते, खुश रहने की फितरत थी

पशु—पक्षी थे मौज में सारे, सबके ठौर—ठिकाने थे

वो भी खूब ज़माने थे।

दिल में दुःखों की गठरी थी पर

हँसती और हँसाती थी

तीर—सी चुभती पीड़ाओं को

नहीं जुबां पर लाती थी

उस बचपन की इक—इक घटना, अब ज़हन में आती है

ओ माँ! तेरी याद सताती है।

तारीख के पों का लेखन पढ़ो

घृणा से कोई कौम बसती नहीं

ऋषियों का खूं हो जिनकी विरासत

कड़वाहट की बातें वहाँ सजती नहीं।

डेरा बस्सी से पधारी डॉ. सोनिया गुप्ता ने भी कन्या—भ्रूण हत्या के लिये समाज को अपनी कुण्डली के माध्यम से लताड़ाः

कैसा कलयुग आ गया, देखो यारो आज,

खुद अपने ही अंश की, हत्या करे समाज।

हत्या करे समाज, बना है अत्याचारी,

कैसी है यह रीत, हुई कैसी लाचारी।

करने को यह पाप, लोग लुटा रहे पैसा,

कन्या है इक बोझ, समाज भला यह कैसा।

बेटियों के महत्त्व को रेखांकित करती श्री अशोक ‘अंजुम', अलीगढ़ की कुण्डली भी बहुत सराही गईः—

जिस घर में हैं बेटियाँ, उस घर में उल्लास,

मन—आँगन थिरके सदा, एक मधुर अहसास।

एक मधुर अहसास, प्यार की बगिया खिलती,

शीतल प्रेम—सुवास, हर घड़ी सबको मिलती।

कह ‘अंजुम' कविराय, फूल खिलते पत्थर में,

वो हैं पावन धाम, बेटियाँ हैं जिस घर में।

अन्त में सिरसा निवासी डॉ. राज कुमार निजात द्वारा ‘बेटी चालीसा' का पाठ सुनकर सभी श्रोता मन्त्रमुग्ध हो गये। श्रोताओं की करतल—ध्वनि के मध्य कविता—पाठ के अन्तिम दोहे थेः

माँ बेटी अरु बहन से, सजते हैं घर द्वार।

इनके होने से लगें, खुशियों के अम्बार।।

बेटी के सम्मान से, बढ़े देश की शान।

बेटी सारे देश का, है गौरव—सम्मान।।

कार्यक्रम के अन्त में मुख्य अतिथि श्री राधे श्याम शर्मा जी ने ‘गणतंत्र—दिवस की पूर्व संध्या पर काव्य—गोष्ठी' में पधारे सभी कवियों तथा उपस्थित श्रोताओं का अभिनन्दन व धन्यवाद किया तथा गणतन्त्र दिवस की सभी को बधाई दी। तदन्तर कहा कि कवि का समाज की विकृतियों को उजागर करने में अहम्‌ योगदान होता है। कन्या—भ्रूण हत्या आज की ज्वलन्त समस्या है। कंस ने एक कन्या का वध करना चाहा, मगर वह कर नहीं पाया। आज असंख्य गृहस्थ कन्या—भ्रूण हत्या के दोषी हैं। हमारे शास्त्रों में उल्लेख आता है कि सौ गायों की हत्या का पाप एक ब्राह्मण की हत्या के समान, सौ ब्राह्मणों की हत्या का पाप एक सन्त की हत्या के समान और एक कन्या की हत्या का पाप सौ सन्तों की हत्या के समान है। इसी से अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि जो गृहस्थ कन्या—भ्रूण हत्या करते हैं, कितने बड़े महापापी हैं! इस समस्या को जिन कवियों ने सशक्त अभिव्यक्ति दी है, वे साधुवाद के पात्र हैं। काव्य—गोष्ठी का सफल आयोजन करने के लिये उन्होंने आयोजकों को भी धन्यवाद दिया। राष्ट्र—गान के पश्चात्‌ अकादमी की ओर से जलपान का प्रबन्ध किया गया था, किन्तु सर्दियों के दिनों के कारण ढलती साँझ को देखते हुए आलोक तथा रानी बिना जलपान लिये मोहाली की ओर चल पड़ेे।

रास्ते में रानी ने कवियों द्वारा कन्या—भ्रूण हत्या के विषय को उठाने की सराहना करते हुए कहा कि कन्या—भ्रूण हत्या जिस तरह से बढ़ रही है, उससे समाज को बहुत बड़ा नुक्सान होने वाला है। आने वाले समय में परिवार ‘सिंगल चाईल्ड फैमिली' तक सिमट जायेंगे और भविष्य में बहुत से पारिवारिक रिश्तों का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा। आलोक ने रानी की बात का समर्थन करते हुए तथा बात को आगे बढ़ाते हुए कहा —‘चीन ने तो ‘सिंगल चाईल्ड फैमिली पॉलिसी' को ही छोड़ दिया है, क्योंकि इससे समग्र सामाजिक विकास में अवरोध उत्पन्न होने लग गये थे। अपने देश में इसके विपरीत ‘एकल सन्तान परिवार' का रिवाज़ दिनो—दिन बढ़ता जा रहा है।'

‘आजकल बच्चे अपने मन की करते हैं। बड़ों की सुनते ही कहाँ हैं?'

‘जब हम कुछ कर नहीं सकते तो जैसा चल रहा है, उसे वैसा ही चलते रहने देने में ही समझदारी है। बच्चों के जीवन में बेवजह की दखलअन्दाज़ी भी पारिवारिक सम्बन्धों में खटास उत्पन्न करती है। कहते हैं न कि बिन माँगी सलाह की कद्र नहीं होती। अब तो बसन्त नज़दीक आ रहा है, क्या सोचा है?'

‘कब है बसन्त?'

‘पहली फरवरी, बुधवार।'

‘मैं एक—दो घंटे के लिये तो पटियाला आ सकती हूँ, इससे अधिक नहीं।'

‘दिल तो चाहता है कि हम सारा दिन इकट्ठे रहकर बसन्त मनायें।'

‘चाहती तो मैं भी हूँ, किन्तु यह चाहत पूरी होनी मुश्किल लगती है। दिल की चाहत पूरी तो होती है, लेकिन किसी—किसी चाहत को पूरी होने में एक उम्र लग जाती है।'

‘रानी, बड़ी फिलॉस्फिकल बात कह दी है तुमने।'

‘फिलॉस्फिकल नहीं, दिल की बात जुबां पर आ गई।'

घर पहुँचने पर रानी ने चाय के लिये अन्दर आने को कहा, किन्तु आलोक ने यह कह कर मना कर दिया — ‘रानी, अब चाय के लिये नहीं रुक सकता, क्योंकि अँधेरा घिरता आ रहा है।'

सूरज अस्त हो चुका था। साँझ भी ढल चुकी थी, किन्तु तारे और चाँद अभी निकले न थे। सूरज के प्रकाश की चकाचौंध और तारों की झिलमिलाहट के बीच का समय निबिड़ अँधकार का होता है। स्ट्रीट लाईट्‌स तो अभी जली नहीं थीं, किन्तु कोठियों की खिड़कियों से बिजली की रोशनी झाँकने लगी थी। इसलिये आलोक बिना देरी किये पटियाला के लिये रवाना हो लिया।

***