कौन दिलों की जाने! - 10 Lajpat Rai Garg द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कौन दिलों की जाने! - 10

कौन दिलों की जाने!

दस

24 जनवरी

दोपहर में मोबाइल की घंटी बजी। रानी ने जब मोबाइल उठाया तो मकर संक्रान्ति के बाद आज आलोक का नाम देखकर उसके हृदय में खुशी की हिलोरें उठने लगीं। उसका मुख प्रसन्नता से प्रफुल्लित हो उठा। ‘हैलो' के उत्तर में उधर से आवाज़़ आई — ‘रानी, कहीं डिस्टर्ब तो नहीं कर दिया, क्या कर रही थी?'

‘तुम्हारे फोन आने से डिस्टर्ब नहीं, बल्कि प्रसन्न होती हूँ। कर कुछ भी नहीं रही थी, बस लेटे—लेटे मन्टो की कहानियाँ पढ़ रही थी।'

‘वैरी गुड, कैसी लग रही हैं मन्टो की कहानियाँ, कोई और किताब भी पढ़ी है क्या?'

‘अभी दो कहानियाँ — ‘काली सलवार' तथा ‘ठंडा गोश्त' ही पढ़ी हैं। इस तरह की कहानियाँ मन्टो ही लिख सकता था, ऐसा लेखन हरेक के बस की बात नहीं। पढ़कर रूह काँप उठी। अमृता प्रीतम की ‘रसीदी टिकट' पूरी पढ़ ली है। बहुत बढ़िया लगी। इसे गद्य में लिखी एक लम्बी सुन्दर कविता कहना अधिक उचित होगा। अमृता प्रीतम ने अपने जीवन की परतें उघाड़ कर रख दी हैं। कहीं कोई दुराव—छिपाव नहीं। यह जानते हुए भी कि तुमने ‘रसीदी टिकट' पढ़ी हुई है, अगर तुम ‘बोर' न हो तो इसमें वर्णित कुछ मर्मस्पर्शी प्रसंग तुमसे ‘शेयर' करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रही हूँ।'

‘मन्टो की कहानियाँ वास्तव में पाठक को झँझोर देती हैं। ‘रसीदी टिकट' पर भी तुम्हारी टिप्पणी बहुत सटीक है। रही बात ‘बोर' होने की तो एक बात समझ लो कि यह शब्द मेरे शब्दकोष में है ही नहीं। आजकल ‘बोर' शब्द इतना अधिक प्रचलित हो गया है कि हर व्यक्ति ‘बोर' की बीमारी से पीड़ित लगता है। मुझे तो बड़ी कोफ्त होती है, जब मैं छोटे—छोटे बच्चों को कहते सुनता हूँ — पापा / मम्मी, मैं ‘बोर' हो रहा / रही हूँ। इसलिये तुम निश्चिंत होकर जो प्रसंग तुम्हें अच्छे लगे हैं, मेरे साथ ‘शेयर' करो, मुझे प्रसन्नता होगी। मैं भी देखूँ, क्या—क्या अच्छा लगा है तुम्हें?'

‘तो सुनो। साहिर लुधियानवी के लिये अपने मनोभावों को अभिव्यक्त करते समय अमृता प्रीतम लिखती हैं — ‘वह चुपचाप सिर्फ सिगरेट पीता रहता था, कोई आधी सिगरेट पीकर राखदानी में बुझा देता था, फिर नई सिगरेट सुलगा लेता था, और उसके जाने के बाद केवल सिगरेटों के बड़े—बड़े टुकड़े कमरे में रह जाते थे। कभी...... एक बार उसके हाथ को छूना चाहती थी, पर मेरे सामने मेरे ही संस्कारों की एक वह दूरी थी, जो तय नहीं होती थी.... उसके जाने के बाद, मैं उसके छोड़े हुए सिगरेटों के टुकड़ों को सँभालकर अलमारी में रख लेती थी, और फिर एक—एक टुकड़े को अकेले में बैठकर जलाती थी, .... और जब उँगलियों के बीच पकड़ती थी, तो लगता था, जैसे उसका हाथ छू रही हूँ....' और— ‘एक दिन साहिर आया था, तो उसे हल्का—सा बुखार चढ़ा हुआ था। उसके गले में दर्द था, साँस खचा—खचा था। उस दिन उसके गले और छाती पर मैंने ‘विक्स' मली थी। कितनी ही देर मलती रही थी, और तब लगा था, इसी तरह पैरों पर खड़े—खड़े मैं पोरों से, उँगलियों से और हथेली से उसकी छाती को हौले—हौले मलते हुए सारी उम्र गुज़ार सकती हूँ।'

दूसरी ओर से हुंकार न सुनकर रानी ने मज़ाक में पूछा — ‘आलोक, सुन रहे हो ना, कहीं सपनों में तो नहीं खो गये?'

‘हाँ—हाँ, सुन रहा हूँ। ऐसे प्रसंग सुनते अथवा पढ़ते हुए कल्पना—लोक के द्वार स्वतः ही खुल जाते हैं। तुम सुनाती रहो।'

‘आलोक, अगले दो प्रसंग इमरोज़़ के विषय में हैं। पहला नेपाल की एक कविता के भावों के माध्यम द्वारा— ‘राही, तुम मुझे संध्या वेला में क्यों मिले? ज़िन्दगी का सफर खत्म होने वाला है, तुम्हें मिलना था तो ज़िन्दगी की दोपहर में मिलते, उस समय का सेंक तो देख लेते।' दूसरा — ‘अपने स्टुडियो में बैठे हुए इमरोज़़ ने अपना पतला—सा ब्रुश अपने कागज के ऊपर से उठाकर उसे एक बार लाल रंग में डुबोया, और फिर उठकर उस ब्रुश से मेरे माथे पर बदी लगा दी थी।' अमृता प्रीतम के साहिर और इमरोज़ के प्रति प्रकट उद्‌गार ही तुमसे ‘शेयर' करना चाहती थी। तुम्हारी क्या राय है?'

‘जो प्रसंग तुमने सुनाये हैं, कहीं—न—कहीं तुम्हारे मनोभावों को ही प्रकट करते हैं अथवा कह सकते हैं कि ये प्रसंग तुम्हारी इच्छाओं की परोक्ष अभिव्यक्ति हैं। अमृता प्रीतम ने ‘रसीदी टिकट' के रूप में साहित्यजगत्‌ को अनुपम भेंट दी है। आत्मकथा लिखना सबसे कठिन साहित्यिक विधा है। लेखक कीे सत्य के प्रति प्रतिबद्धता की सही परीक्षा उसकी आत्मकथा से ही परखी जा सकती है। अच्छा, यह बताओ, क्रिकेट में तुम्हारी रुचि है क्या?'

‘थोड़ी बहुत। अपनी टीम के बैट्‌समैन जब चौके—छक्के लगाते हैं और गेंदबाज दूसरी टीम के खिलाड़ी को आऊट करते हैं तो बड़ा मज़ा आता है।'

‘ऐसा सोचना या करना खेल—भावना के विपरीत है, रानी। खेल—भावना के अनुसार तो जो भी अच्छा खेल रहा हो, चाहे वह विरोधी टीम ही क्यों न हो, उसकी तारीफ करनी चाहिये। विजय—पराजय दोनों जीवन के अटूट अंग हैं। खेल हमें जीतने के साथ—साथ हारना भी सिखाते हैं। सिखाते हैं कि जब तक हम हारना नहीं सीखते, तब तक जीतने का महत्त्व भी समझ में नहीं आता है। ‘गीता' का निष्काम कर्म का सिद्धान्त इस क्षेत्र में भी उतना ही सार्थक है, जितना किसी भी अन्य क्षेत्र में। संडे को इंग्लैंड—इण्डिया का वनडे देखा था?'

‘हाँ, बड़ा रोमांचक मैच था। एक समय जब भारत की पाँचवीं विकेट गिरी तो लग रहा था कि भारत बड़ी हार की तरफ बढ़ रहा है, किन्तु केदार जाधव ने पारी को ऐसा सँभाला कि आखिरी बॉल तक मैच में रोमांच बना रहा।'

‘कल दोपहर में फ्री हो क्या?'

‘क्यों?'

‘मुझे हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित की जा रही ‘गणतंत्र—दिवस की पूर्व संध्या पर काव्य—गोष्ठी' के लिये पंचकूला आना है। यदि तुम फ्री हो तो तुम भी वहाँ आ जाना। कई अच्छे कवियों की कविताएँ सुनने का मौका मिलेगा।'

‘क्या टाइमिंग्स हैं?'

‘तीन से पाँच।'

‘ऐसा क्यों नहीं करते कि तुम ग्यारह—साढ़े ग्यारह बजे तक मेरे पास आ जाओ। पहले मुझे बिना तेल या घी के सब्जी कैसे बनती है, सिखाना; फिर इकट्ठे खाना खाकर काव्य—गोष्टी के लिये निकल लेंगे।'

‘जैसा तुम चाहती हो, वैसा ही होगा। मैं समय पर पहुँच जाऊँगा।'

‘मैं इन्तज़ार करूँगी।'

***