कौन दिलों की जाने! - 29 Lajpat Rai Garg द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कौन दिलों की जाने! - 29

कौन दिलों की जाने!

उनतीस

अगले दिन सुबह रानी जब नित्यकर्म से निवृत होकर अपने कमरे से बाहर निकली तो छः बज चुके थे। रमेश के बेडरूम में झाँकाा। वह भी जगा हुआ था, लेकिन उसने अभी बेड नहीं छोड़ा था। रानी अन्दर आई। ‘राम—राम' की और कहा — ‘अभी कुछ देर पहले विनय का फोन आया था। कह रहा था कि माँ की तबीयत ढीली है। आप कहें तो मैं माँ का पता ले आऊँ?'

रात की बातचीत के पश्चात्‌ रमेश लगभग सहज था, पहले की तरह उखड़ा—उखड़ा नहीं था। कहा — ‘जा आओ, कितने दिन का प्रोग्राम है? वहाँ तलाक सम्बन्धी बात विनय या किसी और से अभी मत करना।'

‘सोच रही हूँ कि दो—चार दिन लगा आऊँ। बाकी वहाँ का माहौल देखकर पता चलेगा। रही तलाक की बात, आप निश्चिंत रहें, मैं ऐसी कोई बात नहीं करूँगी।'

‘किस वक्त जाने का विचार है, ड्राईवर छोड़ आयेगा।'

‘बारह—एक बजे जाने की सोच रही हूँ। ड्राईवर की जरूरत नहीं है। मैं खुद ड्राईव कर लूँगी। हो सके तो इतवार को आप भी आ जाना। वापस इकट्ठे आ जायेंगे'

‘देख लूँगा, लेकिन पक्का मत समझना। घर की एक चाबी मेरे पास है। जाते हुए लच्छमी को बता और समझा जाना। पहुँच कर फोन कर देना।'

‘ठीक है। आपके लिये रात का खाना मैं बनाकर रख दूँगी। गर्म करके खा लेना।'

बातचीत पूरी करने के बाद रमेश बाथरूम चला गया और रानी ने अपने कमरे में आकर आलोक को फोन मिलाया तथा कहा — ‘आलोक, मैं माँ से मिलने जा रही हूँ और रास्ते में तुम्हें मिलते हुए जाऊँगी। तुम दोपहर का खाना मत बनवाना। मैं खाना लेकर आऊँगी। बाकी बातें मिलने पर।'

और फोन बन्द कर दिया।

सामान्यतया रानी एक सब्जी या दाल ही बनाती है। आज उसने सब्जी के साथ दाल भी बनाई। रमेश के टिफिन में केवल सब्जी डाली और दाल शाम के लिये रख दी। लेकिन पटियाला ले जाने के लिये सब्जी और दाल के साथ चपातियाँ टिफिन में ‘पैक' कर लीं। पटियाला पहुँच कर खाना खाते हुए तलाक सम्बन्धी जो—जो बातें रमेश के साथ हुई थीं, आलोक को विस्तार से बताईं। खाना खाने के पश्चात्‌ जैसे ही रानी जाने के लिये उठी, आलोक ने उसका हाथ पकड़कर बिठाते हुए कहा — ‘थोड़ी देर रुको। मैं भी साथ चलता हूँ। रास्ते में तुम्हारे साथ गपशप भी हो जायेगी और मैं अपनी जन्मभूमि भी देख आऊँगा। बहुत साल हो गये बठिण्डा गये हुए।'

‘मैं अपने साथ घर तो नहीं ले जा सकूँगी,' रानी ने थोड़ा मायूस—सी आवाज़ में कहा।

‘कोई बात नहीं। अपनी जन्मभूमि में रुकने का कोई—न—कोई ठिकाना तो मिल ही जायेगा। और नहीं तो होटल तो आजकल सब जगह मिल जाते हैं। अच्छा यह बताओ, अपना वह दोस्त प्रदीप जिनकी धोबी बाजा़र में दुकान होती थी, आजकल कहाँ रहता है, पुराने वाला मकान तो वे बेच गये थे।'

‘प्रदीप का परिवार आजकल भारत नगर में रहता है। वहाँ उन्होंने बहुत बढ़िया कोठी बना ली थी। प्रदीप ने दुकान पर बैठने के बाद काम बहुत बढ़ा लिया है। दुकान की जगह बहुत बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर ने ले ली है। तुम्हें शायद पता नहीं होगा, प्रदीप और रमा पति—पत्नी हैं।'

‘अरे!' आलोक को हैरानी—मिश्रित प्रसन्नता हुई। फिर कहा — ‘यह तो बड़ा अच्छा हुआ। बचपन के दोस्त सदा—सदा के सम्बन्ध में बँध गये।'

‘यह सब किस्मत के सौदे हैं। उन्हें हमारी तरह चालीस—पैंतालीस का वियोग नहीं सहना पड़ा,' रानी के स्वर में मन की कसक स्पष्ट थी।

‘क्या नाम है प्रदीप के डिपार्टमेंटल स्टोर का?'

‘जैन डिपार्टमेंटल स्टोर।'

इसी के साथ ही आलोक ने ब्रीफकेस में एक दिन के लिये कपड़े डाले और रानी को कहा — ‘आओ चलें।'

जैसे ही वे घर से बाहर आये तो देखा कि आसमान में सावन की घटा छाई हुई थी। बादलों के छोटे—बड़े टुकड़े हवा के संग अटखेलियाँ करते प्रतीत होते थे।

आलोक ने कहा — ‘रानी, मौसम खराब लग रहा है। सावन के बादल न जाने कब फट पड़ें। लाओ चाबी दो, तुम बैठो, मैं चलाता हूँ।'

आसमान की ओर देखते हुए रानी बोली — ‘मौसम ऐसा—भी कोई बहुत खराब नहीं है। दो—चार बादल ही हैं।'

‘दो—चार बादल ही घटा बन कब बरस पड़ें, पता ही नहीं चलता। हवा भी तो पुरवइया चल रही है।'

‘आलोक, तुम बैठो। गाड़ी तो मैं ही चलाऊँगी।'

आलोक बिना और बहस किये कार में बैठ गया और रानी ने कार स्टार्ट कर दी। भवानीगढ़ तक सूखा रहा, किन्तु संगरूर से कुछ पहले एकदम से तेज बारिश शुरू हो गई। आलोक ने कहा — ‘अब तो मुझे ड्राईव कर लेने दो, बारिश में तुम्हें दिक्कत हो रही होगी!'

‘आलोक, तुम आराम से बैठो। घबराओ नहीं, मैं आहिस्ता—आहिस्ता चलाऊँगी। वैसे भी सावन की बरसात बहुत दूर तक नहीं होती। कहावत भी है, सावन की बरसात में बैल का एक सींग भीग जाये और दूसरा सूखा रह जाये।'

हुआ भी यही। तीन—चार किलोमीटर चलने के बाद बारिश का नामो—निशान नहीं था।

बठिण्ड़ा में हनुमान चौक पर पहुँच कर रानी ने कार साईड में लगाई और मज़ाकिया अन्दाज़ में कहा — ‘मिस्टर आलोक उतरिये, आपका किराया पूरा हो गया।'

आलोक ने उसी लहज़े में उत्तर दिया — ‘ऐसे बीच चौक में कैसे उतारेंगी ड्राईवर साहिबाँ, मंजिल तक पहुँचाने का किराया दिया है।'

‘यह मज़ाक छोड़ो, बताओ कहाँ ‘ड्रॉप' करूँ?'

‘मज़ाक तो तुमने ही शुरू किया था मेम साहिब, वरना यह नाचीज़ ऐसी जुर्रत कर सकता था? और जब ड्रॉप ही करना है तो कहीं भी फेंक दो, क्या फर्क पड़ता है?' आलोक ने मज़ाकिया लहज़े को जारी रखते हुए कहा।

‘आलोक, बहुत मज़ाक हो गया। प्लीज़ बताओ ना, मेरी तो समझ में ही नहीं आ रहा कि क्या कहूँ .....ठहरो, जरा सोचने दो?'

‘तुम सोचती रहोगी और देर हो जायेगी। मुझे होटल बाहिया फोर्ट छोड़ कर तुम घर चली जाओ।'

‘मैं भी और देर नहीं करना चाहती। कहीं रमेश जी ने विनय को मेरे आने के बारे में फोन न कर दिया हो!'

‘रानी, मन तो मेरा भी करता है आंटी जी के दर्शन करने का। लगभग पैंतालीस साल हो गये उन्हें देखे हुए। वे जितना तुम्हें मिलकर खुश होंगी, उतना ही मुझे देखकर।'

‘तुम्हारी भावना की कद्र करती हूँ, किन्तु मज़बूरी है। इस समय तुम्हें अपने साथ घर नहीं ले जा सकती।'

और इसी के साथ ही रानी ने कार मॉल रोड की ओर मोड़ दी व आलोक को होटल में उतार कर घर की ओर चल दी।

रानी ने कार घर के बाहर रोकी। अनिता भाभी गेट पर ही खड़ी थी। ‘नमस्ते दीदी' कहकर अन्दर की ओर मुँह करके जोर से बोली — ‘देखो पिंकु, कौन आया है?'

आवाज़़ सुनते ही पिंकु बाहर की ओर दौड़ता हुआ आया। सामने रानी को देखकर उसकी टांगों से लिपट गया। रानी ने उसे गोदी में उठाकर अन्दर आते हुए प्यार से पूछा — ‘कैसा है हमारा प्यारा बेटा?'

‘ठीक हूँ बुआ दादी। आप कैसी हैं?'

‘जब हमारा प्यारा बेटा ठीक है तो बुआ दादी भी ठीक है।'

इतने में विनय की पुत्रवधु शिल्पा ने आकर रानी के पाँव स्पर्श कर प्रणाम किया। रानी ने पिंकु को गोदी से नीचे उतार कर शिल्पा को आशीष देते हुए गले से लगा लिया। रानी की माँ सामने बरामदे में दीवान पर लेटी हुई थी। रानी के आने की आवाज़़ सुनकर वह भी उठकर बैठ गई। बेटी के आने से माँ के अन्दर भी नई ऊर्जा पैदा हो गयी थी। रानी आकर माँ से गले लगकर मिली। माँ ने कहा — ‘रानी इस बार तो बहुत समय बाद आई हो! रमेश जी कैसे हैं? उन्हें भी कह देती, मिल जाते। अब मेरा तो क्या पता है, कब साँस साथ छोड़ दें।'

‘माँ, आज सुबह विनय ने फोन किया था। कह रहा था कि माँ बहुत याद करती है और अब मैं तुम्हारे पास हूँ। हो सकता है, रमेश जी भी इतवार को आ जायें। अभी तो तुम चंगी—भली हो। अच्छी सेवा होती है तुम्हारी! अभी साँस छोड़ने की बात क्यों करती हो?'

‘रानी, इसमें तो कोई शक नहीं कि विनय, अनिल, अनिता और शिल्पा सभी मेरा बहुत ख्याल रखते हैं। रात को भी बाथरूम तक जाते वक्त कोई—न—कोई जरूर मेरे साथ होता है। अनिता तो हमेशा मेरे पास ही सोती है।'

‘भाग्यवान्‌ हो माँ। ऐसे समझदार और सेवा करने वाले बच्चे नसीब वालों को ही मिलतेे हैं।'

‘मैं तो भगवान्‌ का शुक्र मनाती हूँ और यही विनती करती हूँ कि असहाय होकर चारपाई न पकड़नी पड़े। चलते—फिरते ही प्राण निकल जायें। अब तो रुकोगी ना पाँच—दस दिन?'

‘इतवार तक तो हूँ ही, आगे देख लूँगी।'

इसी तरह की घर—परिवार की बातें माँ—बेटी के बीच हो रही थीं कि अनिता चाय बना लाई।

***