कौन दिलों की जाने! - 30 Lajpat Rai Garg द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कौन दिलों की जाने! - 30

कौन दिलों की जाने!

तीस

आलोक ने रिसेप्शन पर रूम—सम्बन्धी इन्कवारी की और बुकिंग फॉर्मेलिटीज़ पूरी कर रूम में पहुँचा। फ्रैश होकर चाय बनाई। आधा—एक घंटा सुस्ताने के बाद वह रूम बन्द करके घूमने के लिये निकल पड़ा। घूमता—फिरता धोबी बाज़ार में जैन डिपार्टमेंटल स्टोर पर जा पहुँचा। प्रदीप पारदर्शी केबिन में बढ़िया मेज़—कुर्सी पर विराजमान था। उसके सामने टेबल पर एलसीडी स्क्रीन वाला लैपटॉप खुला था। प्रदीप चाहे आलोक का हमउम्र था, किन्तु उसका शरीर ढल चुका था। चेहरे पर उभर आई झुर्रियों की वजह से वह आलोक से आठ—दस वर्ष बड़ा लगता था। आलोक ने केबिन का दरवाज़ा खोलकर अन्दर प्रवेश करते हुए हाथ जोड़कर कहा — ‘नमस्ते, प्रदीप जी।'

‘नमस्ते', प्रदीप ने आश्चर्य की मुद्रा में कहा — ‘मैंने पहचाना नहीं आपको, आपकी तारीफ?'

‘आलोक, आपके बचपन का दोस्त।'

नाम और बचपन की बात सुनते ही प्रदीप का चेहरा खिल उठा। कुर्सी से उठकर आगे बढ़ा और आलोक को झप्पी डाल ली और बोला — ‘व्हॉट ए सरप्राइज यार, दिल खुश कर दिया इस तरह प्रगट होकर। बैठो।' थोड़ा रुक कर उलाहने के तौर पर कहा — ‘तुम पटियाला क्या गये, वहीं के होकर रह गये। आज कैसे याद आ गयी इधर की?'

प्रदीप के उलाहने के स्वर को नज़रअन्दाज़ कर आलोक ने कहा — ‘प्रदीप जी, मैं किसी काम से आया था। अब फ्री था। घूमने निकला था कि साईन—बोर्ड पर निगाह पड़ी। तुम्हें मिलने की ललक अन्दर खींच लाई। बड़ी प्रसन्नता हुई तुमसे मिलकर।'

प्रदीप ने बेल बजाई। नौकर पानी की ट्रे लेकर दाखिल हुआ।

प्रदीप — ‘अच्छा, यह बताओ, क्या पीओगे — चाय, कॉफी या कोल्ड—ड्रिंक?'

‘चाय या कॉफी मँगवा लो।'

प्रदीप ने अपने नौकर को कॉफी तथा कुछ मीठा लाने के लिये कहा। आलोक ने मीठे के लिये मना किया तो प्रदीप बोला — ‘इतने अर्से बाद मिले हैं यार, मुँह मीठा तो जरूर करेंगे। यह बताओ, कहाँ रुके हो?'

‘मैं बाहिया फोर्ट में रुका हूँ। कल सुबह वापस जाना है।'

‘होटल में क्यों भाई, हमारी कोठी को अपनी चरणरज से पवित्र करते।'

‘अब तो कमरा लिया हुआ है। फिर कभी आना हुआ तो तुम्हारे पास ही रुकूँगा।'

‘चलो तुम्हारी बात मान ली, लेकिन सुबह नाश्ता इकट्ठे करेंगे। अब ना मत कहना।'

‘तुम न भी कहते तो भी सुबह तुम्हारे घर तो मैं आता ही। तुम्हारा नया घर देखे बिना थोड़े—ना वापस जाना था।'

‘मैं ड्राईवर भेज दूँगा। किस वक्त तक तैयार हो जाओगे?'

‘साढ़े आठ बजे तक मैं तैयार मिलूँगा।'

दोनों मित्र बचपन और कारोबार की बातें करते रहे। घंटे—एक बाद आलोक ने इज़ाजत मांगी। प्रदीप ने नौकर को बुलाकर कहा — ‘ड्राईवर को कहो, साहब को बाहिया फोर्ट छोड़ आए।'

और प्रदीप स्वयं आलोक के साथ बाहर तक आया। जब बाहर आ रहे थे तो आलोक ने पूछा — ‘प्रदीप भाई, काफी कमज़ोर लग रहे हो?'

‘यार, शुगर और बी.पी. के कारण लगता है जैसे शरीर की सारी शक्ति ही चुकता गयी है।'

‘शुगर कन्ट्रोल में रखने के लिये तो दवाई के साथ सुबह—शाम की सैर बहुत जरूरी है।'

‘यार, सैर के लिये समय ही कहाँ मिलता है? रात को नौ—साढ़े नौ बजे घर जाता हूँ। खाना—वाना खाते ग्यारह बज जाते हैं। फिर सुबह लेट उठने की वजह से सैर हो ही नहीं पाती, क्योंकि नौ—सवा नौ बजे स्टोर पर आना होता है।'

‘प्रदीप मेरे भाई, बुरा ना मानना, लाईफ स्टाईल थोड़ा बदलना पड़ेगा यदि और बीमारियों के चँगुल से बचे रहना चाहते हो!'

बाज़ार में जगह तंग होने की वजह से गाड़ी लगाते ही ड्राईवर ने हॉर्न बजाया। आलोक ने कहा — ‘अच्छा, चलता हूँ। सुबह मिलते हैं।'

रानी के मायके का घर डबल स्टोरी है। अनिल—शिल्पा का बेडरूम ऊपर की मंज़िल पर है, विनय—अनिता का नीचे। रानी फोल्डग बेड लगाकर माँ के पास बरामदे में सोई थी। चाहे देर तक माँ—बेटी के बीच बातें होती रही थीं, फिर भी नित्य की तरह रानी जल्दी उठ गई। बाकी सभी अभी सोये हुए थे। नित्यकर्म से निवृत होकर तथा माँ को कहकर वह पार्क में सैर करने के लिये घर से निकल पड़ी। रास्ते में उसने आलोक को फोन मिलाया। फोन मिलते ही चहकते हुए कहा — ‘उठ जाग मुसाफिर भोर भई, अब रैन कहाँ जो सोवत है।'

आलोक ने भी रानी के अन्दाज़ में ही उत्तर दिया — ‘मुसाफिर तो सो ही नहीं पाया सारी रात। जो सो ही न पाया, उसे जगाना कैसा?'

‘क्यों भई, सो क्यों नहीं पाये सारी रात?'

‘तुम्हारी याद जो सताती रही।'

‘आलोक, तुम्हारा जवाब नहीं।'

‘और तुम्हारा तो जैसे है! बिल्कुल नहीं। तुम यूनीक हो। घर से बोल रही हो?'

‘घर में इतनी लिबर्टी पॉसिबल हो सकती है? सैर के लिये निकली हूँ। रास्ते में से बात कर रही हूँ।'

‘वाह! एक पंथ दो काज।'

‘कब तक वापस जाने का प्रोग्राम है?'

‘रात को घूमता—फिरता प्रदीप के डिपार्टमेंटल स्टोर पर पहुँच गया था। प्रदीप बड़ा खुश हुआ। नाश्ते के लिये घर पर बुलाया है।'

रानी ने मज़ाकिया मूड में कहा — ‘फिर तो जनाब की पौ बारह है। अच्छा नाश्ता मिलेगा और मिलेगा पुरानी सहेली के दर्शन का सुअवसर।'

आलोक ने उसे थोड़ा तंग करने के अन्दाज़ में उत्तर देते हुए प्रश्न किया — ‘तुम्हें ईर्ष्या हो रही है?'

आलोक का उत्तर सुनकर रानी ने अपने लहज़े को बदलते हुए कहा — ‘मुझे ईर्ष्या क्यों होगी? बल्कि मैं तो खुश हूँ कि चलो, मैं तो तुम्हें घर का नाश्ता नहीं करवा पाई, फिर भी तुम्हें होटल का खाना नहीं खाना पड़ेगा। कब तक होटल वापस आ जाओगे?'

‘साढ़े आठ बजे प्रदीप का ड्राईवर लेने आयेगा। दसेक बजे तक तो वापस आ ही जाऊँगा, क्योंकि प्रदीप ने भी स्टोर पर जाना होगा।'

‘कोशिश करूँगी कि तुम्हारे होटल छोड़ने से पहले मैं तुम्हें मिलने आ सकूँ।'

‘मैं इन्तज़ार करूँगा।'

‘ओ.के., बॉय।'

ठीक साढ़े आठ बजे प्रदीप का ड्राईवर होटल पहुँच गया। आलोक लॉबी में बैठा समाचारपत्र पढ़ रहा था। फूलों का बुके वह सुबह सैर से वापस आते हुए ले आया था। कोठी पर पहुँच कर ड्राईवर ने कार पोर्च में लगाई और हॉर्न बजाया। हॉर्न सुनते ही प्रदीप और रमा बाहर आ गये। रमा का शरीर इतना थुलथुला था कि बचपन वाली इकहरे बदन की रमा की चिह्नमात्र झलक भी कहीं दिखाई न देती थी। अगर कहीं उसके साथ प्रदीप साथ खड़ा न होता तो आलोक के लिये उसे पहचानना भी असम्भव होता। आलोक को देखते ही उन्होंने हाथ जोड़कर नमस्ते की। रमा ने कहा — ‘स्वागत है भाई साहब।'

‘धन्यवाद' कहते हुए आलोक ने उन्हें बुके देकर नमस्ते की। अन्दर आते हुए आलोक ने कहा — ‘प्रदीप जी, कोठी बड़ी आलीशान है, कब बनवाई थी?'

‘दस साल पहले गृह—प्रवेश किया था।'

ड्रार्इंग—रूम की साज—सज्जा सुरूचि व सुघड़ता की प्रतीक न लग कर मकान—मालिक के धनाड्‌य होने की सूचक अधिक लग रही थी। सोफे पर बैठने के साथ ही आलोक ने चारों तरफ नज़र घुमाई। हर जगह विभिन्न प्रकार के शो—पीसीज़ रखे हुए थे। हर चीज़ के आधिक्य से खुलेपन का अभाव उसे अखरा। ड्रार्इंग—रूम एक प्रकार से म्यूजियम—सा प्रतीत हुआ। ऊपर से उमस—भरे दिन होने की वजह से आलोक को दम घुटता—सा लगा, यहाँ तक कि उसे उमस की खारी आर्द्रता के कारण साँस लेने में भी दिक्कत—सी अनुभव हुई। उसे बार—बार पसीना पोंछते देखकर प्रदीप उठा और ए.सी. ऑन करते हुए बोला — ‘सॉरी यार, जल्दी में ए.सी. चालू करना ही भूल गया था।'

उनके बैठते ही नौकर जूस लेकर प्रस्तुत हुआ।

आलोक ने कहा — ‘मैं बर्फ वाला नहीं लूँगा।'

प्रदीप ने नौकर को कहा — ‘जाओ, साहब के लिये एक गिलास जूस बिना बर्फ के लेकर आओ।'

रमा ने आलोक से पूछा — ‘भाई साहब, अपनी पाँच साथियों की टोली में से विनय ने रिटायरमेंट के बाद यहीं पक्की रिहाइश कर ली है। उसके बेटे ने बड़ा अच्छा शोरूम खोला है। बाकी रही रानी, कभी मिली क्या? मोहाली में रहती है। उसके हस्बैंड का इम्पोर्ट—एक्सपोर्ट का अच्छा कारोबार है।'

‘हाँ, छः—सात महीने पहले रानी एक विवाह—समारोह में अचानक मिल गयी थी। उसने तो पहचाना नहीं, लेकिन मेरा नाम सुनते ही एकदम से पहचान गई। उसने ही बताया था कि आप बचपन में इकट्ठे खेलते—खेलते जीवन—यात्रा का सपफर भी इकट्ठे तय कर रहे हो। आप दोनों को बहुत—बहुत बधाई।'

रमा ने हलके—से व्यंग्य के साथ कहा — ‘रानी और आपकी दोस्ती थी भी तो बहुत पक्की। जब भी मुझे मिलती है, किसी—न—किसी रूप में आपका जिक्र जरूर आ जाता है। आपका पता—ठिकाना मालूम नहीं था उसे, वरना वह आपसे बहुत पहले मिलती। आपकी बधाई के लिये धन्यवाद!'

‘बच्चे क्या कर रहे हैं?'

रमा के मुख पर उदासी के चिह्न उभर आये। फिर भी संयत रहने की कोशिश करते हुए कहा — ‘भगवान्‌ की हर प्रकार की बहुत कृपा है, भाई साहब। बस सन्तान का सुख नहीं मिला हमें। वंशधर बिना सब सूना—सूना लगता है।'

आलोक ने देखा, भरसक कोशिश के बावजूद रमा की आँखें नम हो गयी थीं। वह इतना ही कह पाया — ‘ओह! प्रभु की जो इच्छा।'

इतने में नौकर ने आकर कहा — ‘साब जी, नाश्ता लगा दिया है।'

प्रदीप ने आलोक का हाथ पकड़ते हुए कहा — ‘आओ।'

डाईनिंग टेबल पर पहुँचकर आलोक ने देखा — टेबल दो तरह के सैंडविच, ढोकला, दूध और कॉर्न—फ्लैक्स, आलू—पूरी, गर्म गुलाब जामुन, आईसक्रीम से पूरी तरह भरा हुआ था। बोला — ‘रमा जी, आपने तो नाश्ते में इतना कुछ बनवा लिया है कि मेरे जैसे व्यक्ति के लिये तो मुश्किल पैदा हो गई है कि क्या खाऊँ और क्या ना खाऊँ।'

‘भाई साहब, लगभग आधी सदी के बाद मिले हैं, चखना तो आपको सब कुछ ही होगा, खा लेना चाहे थोड़ा—थोड़ा।'

‘अब यह बात है तो कोशिश करता हूँ।'

जब आलोक नाश्ता कर रहा था तो रमा बोली — ‘भाई साहब, यह मत समझना कि यह सब नौकर ने बनाया है। नौकर के लिये तो मैंने गर्म—गर्म पूरी निकालने का काम ही छोड़ा है, बाकी सब तो मैंने खुद ही बनाया है।'

खाने की गद्‌गद भाव से प्रशंसा करते हुए आलोक ने कहा — ‘रमा जी, आप न भी बतातीं तो भी खाने का स्वाद ही बता रहा है कि खाना बनाने वाली ने कितने प्यार से खाना बनाया है। इतना खा लिया है कि अब रात तक और कुछ खाने की गुँज़ाइश तो रही नहीं। आप लोग कभी पटियाला आओ।'

‘जरूर। बच्चे क्या करते हैं और मिसेज़ कैसी हैं?'

आलोक ने बता दिया कि बेटा और बेटी आस्ट्रेलिया में हैं और पत्नी का देहान्त हो चुका है। वातावरण में कुछ क्षणों के लिये उदासी पनपी।

रमा और प्रदीप दोनों ने आलोक की पत्नी के देहान्त का सुनकर अफसोस जताया। आलोक ने सहजता लाने के मकसद से तथा यह जानते हुए कि प्रदीप को स्टोर पर जाने में देर हो रही है, उठते हुए कहा — ‘रमा जी और प्रदीप भाई, आपसे मिलकर व आपके साथ बढ़िया नाश्ता कर बड़ी प्रसन्नता हुई। आपका बहुत—बहुत धन्यवाद।'

‘आलोक जी आओ, मैं आपको होटल छोड़ता हुआ निकल जाऊँगा।'

विनय व अनिल के शोरूम पर जाने और नाश्ता करने के बाद रानी ने अनिता को कहा — ‘भाभी, मैं बाज़ार जाकर आती हूँ। कल जल्दी में पिंकू के लिये कुछ ला नहीं पाई।'

‘दीदी, थोड़ा रुको, मैं अभी तैयार हो जाती हूँ। मैं भी चलूँगी आपके साथ।'

‘भाभी, तुम्हें जल्दी करने की जरूरत नहीं है। मैं हो आती हूँ। मैं सोच रही हूँ कि अपनी सहेली रमा को भी मिल आऊँ!'

रमा का तो बहाना था, जाना तो रानी को आलोक के पास था।

रास्ते में से रानी ने फोन कर पूछा। आलोक होटल पहुँच चुका था। रानी सीधी उसके कमरे में पहुँच गई। दरवाजे पर दस्तक दी। अन्दर से आवाज़़ आई —‘चली आओ, दरवाज़ा खुला है।'

रानी ने जब कमरे में प्रवेश किया तोे आलोक बेड पर बैठा कोई मैग्ज़ीन पढ़ रहा था। अन्दर आते ही रानी कमरे के पर्दे खींचने लगी।

आलोक — ‘यह क्या कर रही हो?'

‘अँधेरा हो तो नींद जल्दी आ जाती है।'

‘किन्तु यह कोई सोने का समय है?'

‘जनाब ने ही तो कहा था कि सारी रात नींद नहीं आई। अब जितनी देर कमरे में हो, तुम्हें लोरी सुनाकर सुलाऊँगी।'

‘फिर तो नींद आ ली! लोरी ही सुनता रहूँगा।'

पर्दे अच्छी तरह बन्द कर रानी ने कंबल खोला और दोनों के ऊपर लेकर लेटते हुए बोली — ‘अब अच्छे बच्चे की तरह आँखें मूँदो और जल्दी से सो जाओ।'

‘और लोरी का क्या हुआ?'

‘अब चुपचाप एक घंटा सो लो। एक शब्द भी नहीं बोलना।'

‘पूरी डिक्टेटर होती जा रही हो।'

‘तुम्हारी भलाई के लिये ही यह सब कर रही हूँ। वक्त बर्बाद न करो।'

बारह बजे होटल का बिल अदा कर आलोक ने बस स्टैंड के लिये रिक्शा पकड़ी और रानी पिंकू के लिये गिफ्ट खरीदने के लिये धोबी बाज़ार की ओर चल दी।

***