मुझे याद है स्कूल के वे दिन ,जब मैं सुबह सुबह तैयार होकर स्कूल के लिए पैदल निकलता था । सुबह एक कप चाय और रात की बासी रोटी मिलती थी । फिर स्लीपर पहनकर कपड़े के झोले का बस्ता लेकर खाली जेब निकल पड़ता । इस कपड़े के बस्ते में जो घर की पुराने कपड़ो को सिलकर बनाई जाती, जिसमे कुछ किताबें,कम्पास और एक स्याहीवाली पेन होती थी,ये पेन अक्सर लीक करती थी, जिसके कारण शर्ट की सामने वाली जेब स्याही के रंग से रगी होती।
ठंड के मौसम में सुबह सुबह उठकर तैयार होना किसी सजा से कम न लगता, एक स्वेटर ऊपर होती, रास्ते मे बड़ी गाड़ियां जब गुजरतीं तो उनके गुजरने के बाद एक हवा का तेज झोंका आता और ठंड से सारा बदन ठिठुर जाता,रास्ते भर ऐसी कई गाड़ियां गुजरती और हम कांपते,ठिठुरते स्कूल पँहुचते,भला हो हमारे गुरुजनों का वे धूप में अपनी कक्षाएं लगाते, मैदान में उनके साथ धूप में बैठने पर काँपते बदन और कड़कड़ाती हड्डियों को आराम मिलता।
गरीबी का स्कूल बहुत ज्यादा प्रेरणा नही जगाता, तकलीफ,अभाव और असुविधा के बीच पढ़ना होता है ,जहाँ शिक्षक भी बहुत ज्यादा दिलचस्पी नही लेते, बहुत कम आत्मीय सम्बंध बन पाते हैं,वरना मार कुटाई के अलावा कुछ नही,टीचर भी कहीं का गुस्सा कहीं निकालता था,किसी से कोई बात हुई नही कि क्लास में हम सबकी आफत,किसी भी सवाल का जवाब न दे पाने पर पीठ लाल हो जाती थी । पर इतनी मार के बाद भी पढ़ाई अच्छी न हो सकी। क्योंकि जब रोज रोज का यही सिलसिला बन जाय क्या घर और क्या स्कूल,, कि बस जब तब बात बात में झापड़ खाना है ,तो फिर मन ढीठ हो जाता है । फिर किसी अपमान का कोई असर नही होता ।
मेरे ठीक बाजू में बैठने वाला एक छात्र पूरी क्लास के दौरान ऊंघता रहता । उसकी इस आदत से टीचर बहुत नाराज होते और कभी कभी तो बाल पकड़ कर उसकी धुनाई हो जाती,वो सिसकता हुआ बैठा रहता । दरअसल उसका शराबी बाप रोज रात के उससे दारू मंगाता फिर चार दोस्तों के साथ घर मे ही शराब पीता। पीने के बाद देर राततक उसका हंगामा चलता । इस कारण वो कभी कभी रात भर सो नहीं पाता था । उसका निकम्मा बाप दिन को नशा उतरने पर सोया रहता, पर उसकी माँ सेठों के घरों में काम पर जाने के लिए उठ जाती सो,उसे भी उठाकर स्कूल के लिए तैयार कर देती । वो आधा जगा, आधा सोया स्कूल आ जाता । यदि वो ऐसा नही करेगा तो रात को उसका बाप जो शराब पीकर हैवान हो जाता है उसकी बेदम पिटाई करता ।
हम कक्षा पांचवी तक साथ रहे , पर एक दिन वो स्कूल नही आया, फिर कई दिन तक नही आया और फिर उसकी माँ ने रोते रोते हमारे मास्टर को बताया कि वो अपने बाप से तंग आकर घर छोड़कर भाग गया है और आज 4 महीने से ज्यादा हो गए वो वापस नही लौटा है ।
वो फिर कभी नही आया,,,,
इस तरह उस सरकारी स्कूल में प्राथमिक कक्षा पूरी हुई, फिर हायरसेकंडरी की पढ़ाई, फिर ग्रेजुएशन पूरी हुई तो कुछ कुछ समझ आने लगा कि पढ़ाई ही हमारी रोजी रोटी का जुगाड़ बन सकती है ।
पर हमारे जैसे लाखों ग्रेजुएट यहाँ धक्के खा रहे थे। केवल कॉलेज की बी ए पास डिग्री से कुछ नही होने वाला। कुछ हुनर सीखना होगा ।
पढ़ाई का माहौल न मिलने से कहीं न कहीं कमजोरी रह गई ,इसलिए नॉकरी के इम्तहान में टॉप नही कर सके । इसलिए आई टी आई कर ली। कुछ बुनियादी तकनीकी शिक्षा और फिर एक बड़ी सी फैक्टरी में मेकेनिक बन गए ।
हमारी कक्षा के हमारे साथियों में ,,,,एक पान की दुकान चलाने लगा, एक अपने घर के बाहर कैरम क्लब चलाने लगा, रुपये दो रुपये लेकर वो घण्टे भर के लिए खेलने देता । एक मित्र कपड़े के शो रूम में सेल्समैन हो गया । एक जनरल स्टोर्स में काम करने लगा । सबका कॅरियर बन गया था शानदार,,,ये सब म्युनिस्पैलिटी और सरकारी स्कूल के होनहार थे ।
ये संस्मरण मैं इसलिए लिख रहा हूँ कि आजाद भारत के इन स्कूलों की बदहाली से आप वाकिफ हो सकें, उस वक्त के हमारे राजनेताओं ने राज्य में अंग्रेजी की पढ़ाई बंद करा दी,हिंदी हिंदी की जयकार होने लगी ,सब स्वतंत्र हो गए,अंग्रेजी गुलामी का प्रतीक माने जाने लगी । नेता खूब वाह वाही लूटने लगे और इधर चुपचाप अपने बच्चो को मिशनरी की स्कूलों में खूब पैसे देकर अंग्रेजी पढ़ाया,कुछ लोगो ने बाहर भेज दिया,,,
हिंदी पढ़ने वाले लोग बेवकुफ कहलाये,वे कहीं के न रहे,हिंदी से किसी का पेट नही भरा जबकि इंग्लिश की टीचर्स के भाव ही अलग थे,अच्छी तनख्वाह और बड़े बड़े लोगों से सम्पर्क,,,उनके काम बनते,उनका स्तर अलग होता,,
50 से 90 तक के दशक के युवाओं का, जो हिंदी मीडियम से थे उनका कोई माई बाप नही रहा,,,वे या तो स्कूल के टीचर हो गए या टाइपिंग सीखकर ऑफिस में क्लर्क हो गए,,,
उनमें से बहुत अब रिटायर हो गए हैं और अब कुछ जो सरकारी नोकरी में थे उन्हें पेंशन मिल रही है।
सबके सब औसत दर्जे के,,,किसी की प्रतिभा सामने नही आई,बड़ा कारण बाकी दुनिया से संम्पर्क के लिए भाषा का संकट,,,