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नम्बर वाला आदमी

  जब जिंदगी की पहचान नम्बरों से होने लगे और जीना मशीन के सहारे, तो फिर कोई यकीन किस पर करे और इनसे निपटने के लिये किस तरह अपनी याददाश्त को सलामत रखे ? बड़ी उलझन में पड़ी है इन दिनों भाई ईन्दरचंद की मानसिकता,,, जितने भी जीवन यापन के साधन है, सबमें नम्बरों की जरूरत पड़ती है . आज सुबह से घर मे खाने और दैनिक जरूरतों का सामान खत्म हो गया है . उसे लेने जाना है ,चाहे एटीएम से केश निकाले या दुकान में कार्ड स्वाइप करे दोनों ही सूरतों में उसमें पासवर्ड डालना होगा और वो उन्हें याद नही ,, ये सारे नम्बर जैसे बैंक अकाउंट का नम्बर,एटीएम का पासवर्ड,पेनकार्ड का नम्बर,आधार का नम्बर,मेल आईडी का पासवर्ड   ये सब पहले उन्हें  मुहजबानी याद रहा करते थे ,पर अब दिमाग पर जोर डालना पड़ता है और फिर भी गलती हो जाती है और उनका लेन देन ठीक से नही हो पाता . कार चलाना उनके बस में नही , मोपेड से काम चल रहा है, पर शहर का ट्राफिक इस कदर बढ़ गया है कि कब किससे भिड़ जाय कोई ठिकाना नही . और अगर इस बुढ़ापे में अपनी हड्डी तुड़वा बैठे तब तो और दुर्गति , किसी तरह डर डर कर बहुत सावधानी से उन्हें गाड़ी चलाना पड़ता है .
वे बहुत उदास थे और अपनी दिनोदिन  कमजोर हो रही याददाश्त से चिंतित नजर आ रहे थे .
        कुल जमा एक बेटा था वो भी विदेश में सेटल हो गया है अपने परिवार के साथ . बार बार उन्हें अपने शहर बुलाता है. एक दो बार मन बनाकर पति पत्नी गए भी. महीने दो महीने रहकर देखा ,पर वहां तो मानो खाली वक्त काटने को दौड़ता था . बेटे बहु सुबह से काम पर निकल जाते, बच्चे स्कूल. और सारा दिन इंदर चन्द अपनी बीबी के साथ एक दूसरे का मुंह देखते कुछ देर बतियाते, कुछ देर लड़ते झगड़ते और फिर खाली के खाली . ऊबते ऊंघते आखिरकार उन्होंने अपने ही घर में रहने का फैसला कर लिया .
बेटा नॉकरी छोड़कर आने से रहा . अब तो बस उन्हें एक दूसरे का साथ है . पास में बाजार है मुहल्ला है ,आसपास जान पहचान के लोग है ,तो समय बीत जाता है . पर ये नम्बर याद रखना बड़ा मुश्किल काम हो रखा है .
अब न वो डायरी मिल रही है, न बैंक के कागज, जिसमे सभी नम्बर लिखकर सावधानी से छुपा कर ,देखकर वे उपयोग कर लेते हैं ,क्योंकि बार बार चेतावनी मिलती रहती है ,अपने अकॉउंट और कार्ड का नम्बर किसी को न बतायें . क्योकि फ्राड हो रहे हैं चोरियां हो रही है . लोग कार्ड का नम्बर पता कर लेते है और फिर ठगी कर लेते हैं .
अब उन्हें नम्बर याद नही समान भी लाना बेहद जरूरी है . उन्होने फिर अपनी डायरी ढूंढने का अभियान चलाया और पत्नी के सहयोग से आखिरकार वह मिल गयी . आज का काम किसी तरह बन गया .

पर ये फिक्र तो है ही कि यदि डायरी खो गयी तब क्या करेंगे और यदि डायरी कहाँ रखी है ये भूल गए तब क्या होगा ,,अब उन्होंने इसकी तरकीब निकाली . अपने मोबाइल पर 10 नम्बर सेट कर लिया और शुरू के चार और आखरी के चार नम्बर छोड़कर बीच के चार नम्बर उनके पासवर्ड थे . उस नम्बर को अपनी पत्नी के नाम से सेव् कर लिया . अब नम्बरो को देखने के लिए डायरी और उनके सेलफोन के कांट्रेक्ट नम्बर की श्रृंखला में पत्नी के नाम के नम्बर के बीच के चार नम्बर उनके काम के थे .इस पासवर्ड को कोई नही चुरा सकता था . अपनी इस तरकीब से उन्होंने छोटा सा अस्थाई हल निकाल लिया था, किंतु बदलते समय ने उन्हें किस कदर नम्बरों और संकेतो में बांध लिया था कि पहचान की दुकान और पहचान के लोग भी उनकी सहायता नही कर सकते थे ,क्योंकि अब सब सिस्टम में आ गया था . वे मन ही मन बतिया रहे थे कि मशीन के सिस्टम में जिसे केवल कोडवर्ड और पासवर्ड चाहिए, आज के युग की क्या अजब देन है मुश्किल आसान करने वाली ये मशीने बड़ी सहायक है ,पर समय पर बेहद निष्ठुर, जो किसी आदमी की तरह खुशामद नही करवाती,जो किसी आदमी की तरह झुंझलाती नही, किसी काम के बदले रिश्वत नही मांगती ,जिन्हें सिर्फ आपका नम्बर चाहिए होता है और वो अपना काम कर देती है . पर नम्बर याद न हों तो उनके पास दया की कोई गुंजाइश नही,, आपकी लाख की साख हो उनके सामने सब खाक है .
     मतलब नम्बर और मशीन दोनो ने उनकी जिंदगी की मुश्किलें आसान कर दी हैं ,पर यदि उनके हिसाब से सतर्क नही रहे तो सब खत्म, उन बेजान मशीनों को आपकी तकलीफ से कोई फर्क नही पड़ता . वे काम तो तत्काल करती है पर उनके पास आपका दुखड़ा सुनने का कोई विकल्प नही ! उन्हें किसी का दर्द और आंसू पहचानना नही आता और इनकी ही तरह आज आदमी भी होता जा रहा है,,

पहले लोग चेहरा देखकर सब सामान थैले में जोड़ देते थे, अब सब टुकुर टुकुर ताकते रहते है या तो केश दीजिये या अपना कार्ड,,,तभी गाड़ी दौड़ेगी,,,अब यहां कोई किसी का नही ,,,

उन्होंने सभी समान महीने भर का ले लिया. वे बाकी सारा दिन कुछ न कुछ पढ़ते रहते हैं और एकाध अखबारों में लिखते भी हैं ,अभी वे उतने बूढ़े नहीं हुए हैं पर बुढ़ापे का असर तो आगे बढ़ना ही है . आज सम्पादक ने फोन कर बुजुर्ग दिवस पर उनसे कुछ लिखने को कहा है, वे लिख रहे हैं बुढ़ापे का होने वाला हाल,,,,

     "बुढ़ापे में बहुत से रोग अपना घर बना लेते हैं और उनकी शैतानियत से जर्जर काया त्रस्त रहती है,फिर उसपर से अकेलापन आ जाय तो क्या कहने . जब जिंदगी जवानी की दोपहरी में कर्मपथ पर तेजी से भाग रही थी तब आगे सुखद आरामदेह भविष्य की कल्पना थी . उसकी आस में वर्तमान के सारे कांटे मंजूर थे . अपनो के बीच दो घड़ी सुकून से बिताने की चाहत बनी रही और जब वो दिन आया तो अपने कहाँ रहे, वे भी जवानी की दोपहरी में मतवाले हैं . मैं देख रहा हूँ एक बूढ़े दंपत्ति को एक दूसरे का सहारा देकर जिंदगी को घसीटते, अकेले में रोते, उदास और अंधेरी रातों में जागते. उनकी दम निकालने वाली खांसी में कोई पूछने वाला नही ,,हाथ भर की दूरी में पड़ी दवाई उठाकर पिलाने वाला कोई नही ,,,मौत आती नही पर अपने आने का भयानक डर दिखाती रहती है . हर दिन तन्हाई और दर्द बढ़ाती बूढ़ी कड़कती हड्डियां . तमाम सुविधाओ से भरे पूरे जगमगाते और उत्साह से भरे इस शहर में उनकी ठहरी हुई उदास शाम थी ."

    आज उन्हें पैसों की कमी नही है किंतु फिर भी वे अवसाद में है क्योंकि उनके पास उनका सुख दुःख सुननेवाला कोई नही है . इस शहर में कोई किसी के व्यक्तिगत जीवन से मतलब नही रखना चाहता .इस भीड़ में कितना सन्नाटा और अकेलापन है. इससे भले तो वो गावँ हैं ,जहां आज भी चौपाल लगा करती हैं,, चबूतरे है ,जहां सुबह शाम लोगों की बैठकें होती हैं. इन बैठकों में सब अपना सुख दुःख आपस मे बांट लेते हैं. न भी बांटे तो किसी रोते हुए को अपना कंधा जरूर दे देते हैं . दूसरों के द्वारा दुःख  सुन लेने भर से मन हल्का हो जाता है . जो करोड़ो की मशीनें  ऐसा नही कर सकती . कभी कभी गांव में रहना हुआ तो देखा कि घर से निकल कर या अपने आंगन में ही चार आदमी बैठ कर बोल बतिया कर अपने को हल्का कर लेते हैं . मेल मिलाप अकेलेपन के रोग का बड़ा उपचार है .
कोई कहता है जिंदा रहेंगे तो मिलेंगे जबकि सच्चाई ये है कि मिलते रहेंगे तो जिंदा रहेंगे,,,,"

    इस लेख को लिखते लिखते भाई इंदरचन्द  अपना समाधान भी निकाल रहे थे कि अब इन मशीनो,इन् नम्बरों और इस शहर को अलविदा कहने का वक्त आ गया,,


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