कौन दिलों की जाने!
पाँच
रमेश दिल्ली से रात को देर से आया था, इसलिये नौ बजे तक सोता रहा। उठते ही उसने रानी को कहा — ‘कल तुम्हें बताया था कि मैंने एक जरूरी मीटिंग अटैंड करनी है, इसलिये जल्दी जाना है। मैं तैयार होता हूँ, तुम नाश्ता और खाना बनाओ।'
‘मुझे याद है। आप तैयार होकर आइये, मैंने नाश्ता और खाना तैयार कर रखा है।'
‘वैरी गुड।'
रमेश के ऑफिस जाने के बाद लच्छमी से जल्दी से घर के बाकी बचे काम करवा कर रानी ग्यारह बजे के लगभग आलोक के पास होटल पहुँच गई। कमरे में दाखिल होते ही रानी बोली — ‘देखो, कैसी मज़बूरी थी कि एक ही शहर में होते हुए भी तुम्हें घर की बजाय होटल में रुकना पड़ा।'
‘यह कोई ऐसी बड़ी बात नहीं है। इस बात को दिल से मत लगाना। जीवन में बहुत बार परिस्थितियों से समझौते करने पड़ते हैं। जो व्यक्ति इस तरह के समझौते सहर्ष स्वीकार कर लेता है, जीवन में सदा खुश रहता है। मेरे लिये तो खुशी की बात है कि तुम्हारे हाथ का बना नाश्ता हम साथ—साथ करेंगे। अब यह मत कहना कि मैं तो नाश्ता करके आई हूँ।'
‘तुम सोच सकते हो कि जब तुम्हारे लिये नाश्ता लेकर आना था तो मैं घर पर नाश्ता करके आई होऊँगी?'
‘अरे, मैं तो मज़ाक में कह रहा था, तुम तो सीरियस हो गई।'
आलोक ने होटल—रूम बारह बजे खाली करने की बजाय चैकआऊट का समय चार बजे तक बढ़वा लिया था। जब बारह बजे रानी जाने के लिये उठने लगी तो आलोक बोला — ‘यदि थोड़ा और रुक सकती हो तो रुक जाओ, मैंने चैकआऊट टाईम चार बजे तक बढ़वा रखा है।'
‘अँधा क्या चाहे दो आँखें। इस तरह एक—साथ जीने के कुछ और पल हमारे होंगे। सच में ऐसे ही पलों में मन की कलियाँ खिल उठती हैं।'
इस तरह प्रेम में आकंठ डूबे दो प्राणियों को दिल की बातें करने का एक सुनहरा अवसर मिल गया। ऐसे में समय भी पंख लगाकर उड़ता प्रतीत होता है। तीन बजे आलोक ने पूछा — ‘लंच का ऑर्डर दूँ?'
‘तुम लंच करोगे? मैं तो नहीं कर सकती।'
‘तुम्हारे लिये ही पूछ रहा था। तुम्हारे बनाये स्वादिष्ट नाश्ता करने के बाद लंच की तो सोच भी नहीं सकता।'
‘ऐसा करो, कॉफी और कुछ स्नैक्स मँगवा लो।'
ठीक चार बजे उन्होंने रूम खाली किया। रानी ने आलोक को आईएसबीटी—43 पर छोड़ा और घर आ गयी। जैसे ही उसकी कार घर के बाहर पहुँची, लच्छमी मेन गेट खोल रही थी। घर के अन्दर आकर रानी ने लच्छमी को कहा — ‘कल से शाम को मत आया करना। तेरे पैसों में कोई कटौती नहीं करूँगी। बस, सुबह थोड़ा जल्दी आ जाया करना।'
‘ठीक है मैडम जी, जैसा आप चाहें।'
शक करना मानव—मन की सहज—स्वाभाविक प्रवृति है। इस भौतिक संसार में कोई विरला ही इस नकारात्मक मनोवृत्ति से अछूता बच पाता है। सच तो यह है कि इस मनोवृत्ति से जो मुक्त हो गया, वह सच्चे अर्थों में साधु हो गया। मन में शक का बीज पड़ने की देरी है कि उसे बृहद्काय वृक्ष बनने में देर नहीं लगती। मानव की शक करने की प्रवृत्ति कई बार ऐसी—ऐसी स्थितियाँ पैदा कर देती है, जिनके परिणाम कल्पनातीत होते हैं। मुम्बई से आने के बाद से रह—रह कर रमेश के मन में आलोक के सम्बन्ध में तरह—तरह के विचार, शंकाएँ उभरने लगी थीं। उसका मन कुढ़ने लगा कि क्यों उसने आलोक के बारे में रानी से विस्तार से नहीं पूछा? आलोक कहाँ रहता है, क्या करता है, बचपन के दोस्त जैसा कि रानी ने बताया, इतने लम्बे अर्से बाद कैसे एकदम से एक—दूसरे को पहचाना, एकबार मिलते ही कैसे इतने नज़दीक आ गये कि आलोक रानी से मिलने घर तक चला आया, कितना समय इकट्ठे रहे होंगे, क्या आलोक रात को भी घर पर रहा होगा? आदि—आदि।
वीरवार को रानी की किटी—पार्टी होती है। वैसे तो उसका नित्यनियम है कि सुबह समय से उठती है, नहा—धोकर पूजा—अर्चना करती है और रमेश के तैयार होने तक रसोई के सभी कामकाज निपटा लेती है, लेकिन किटी—पार्टी वाले दिन उसके काम निपटाने में कुछ अधिक फुर्तीलापन आ जाता है, क्योंकि उसे देर से पहुँचना पसन्द नहीं। ‘पंक्चुएलिटी' में वह सदैव नम्बर वन मानी जाती है। इसलिये रमेश के बाथरूम से निकलने से पहले ही वह लच्छमी को सब समझा कर किटी—पार्टी के लिये चली गयी थी। जब रमेश तैयार होकर टेबल पर पहुँचा तो लच्छमी आकर बोली— ‘साब जी, मैडम जी तो किटी—पार्टी में गई हैं, नाश्ता व खाना बना कर रख गई हैं। आप कहें तो नाश्ता लगा दूँ।'
‘हाँ, और टिफिन भी तैयार कर देना।'
रमेश ने सोचा, आज लच्छमी घर पर अकेली है, क्यों न इससे आलोक के बारे में कुछ जानकारी ही प्राप्त की जाये। इसी मनोरथ से उसने लच्छमी को अपने पास बुलाकर पूछा — ‘लच्छमी, एक बात बता। कुछ दिन पहले जब मैं मुम्बई गया हुआ था, तब तुम्हारी मैडम का कोई दोस्त घर पर आया था क्या? आया था तो वह कितनी देर तक घर पर रहा?'
‘साब जी, उस दिन जब मैं काम करने आई थी तो मैडम जी ने यह तो बताया था कि उनका बचपन का दोस्त आने वाला है, किन्तु वह मेरे काम खत्म करने के बाद आया होगा। हो सकता है, वह देर शाम तक रुका हो, क्योंकि मैडम जी ने मुझे शाम को यह कहकर आने के लिये मना कर दिया था कि वे कहीं घूमने जा सकते हैं।'
‘दूसरे दिन जब तुम काम करने आई तो क्या वह घर पर था?'
‘नहीं।'
‘अच्छा, यह बताओ कि इस सोमवार को भी तुम्हारी मैडम का दोस्त घर आया था क्या?'
‘सोमवार के बारे में तो मुझे कुछ मालूम नहीं। हाँ, इतना जरूर उस दिन मैडम जी ने कहा था कि दोपहर बाद उन्हें किसी सहेली को मिलने जाना है, इसलिये मुझे शाम को आने से मना किया था।'
लच्छमी अपना काम निपटा कर चली गई। एक बार तो रमेश के मन में आया कि ऑफिस जाने की बजाय घर पर रहकर रानी की प्रतीक्षा करे और उसके आने के बाद आलोक के सम्बन्ध में बात करके ही ऑफिस जायेे, किन्तु मन की बात मन में रखकर वह ऑफिस के लिये निकल गया। चाहे प्रकट रूप में रमेश अपने रूटीन के कामों में व्यस्त रहा, फिर भी अपने मन से आलोक के ख्याल को निकाल नहीं पाया। प्रत्यक्षतः उसने रानी से इस सम्बन्ध में कोई पूछताछ नहीं की, किन्तु रानी के प्रति उसका व्यवहार जो पहले से ही नीरस था, अब शंकालु भी हो गया।
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