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सबरीना - 23

सबरीना

(23)

‘सुनो सबरीना! कब्रें खोदने का फितूर ना पालो‘

रात गहरा गई थी। हर रोज से ज्यादा काली और डरावनी लग रही थी। हर कोई चुप बैठा था, घड़ी की टिक-टिक रात के सन्नाटे को तोड़ रही थी। कभी-कभार किसी के सिसकने की आवाज से खामोशी टूट जाती थी। प्रोफेसर तारीकबी मरे कहां थे, वे तो सो रहे थे, जैसे गहरी नदंी में हों, चेहरे पर कोई सिकन नहीं, कोई ऐसा संकेत नहीं कि वे अब यहां नहीं हैं। जारीना ने सारी हिम्मत समेटी और डाॅ. मोरसात से पूछा कि प्रोफेसर तारीकबी को घर तक कैसे ले जाया जाएगा। डाॅ. मोरसात उठे और फिर अचानक जारीना की तरफ देखा, ‘ बाॅडी को कौन रिसीव करेगा ? नियम तो यही कहता है कि परिवार का ही कोई व्यक्ति ले जाएगा!‘

सुशांत ने पहले जारीना और फिर सबरीना की ओर देखा। उसे नहीं पता था कि प्रोफेसर तारीकबी के परिवार में कोई है या नहीं। बीते घंटों में जारीना ने लगातार साबित किया है वह कठिन हालात में बहुत तेजी से फैसला करती है। उसने डाॅ. मोरसात से कहा, ‘ आप को तो पता है सर, हम ही परिवार हैं उनका। और कौन है ? कोई है तो बताइये, आप को ही रिसीव करनी होगी और हम सब उन्हें घर ले जाएंगे।’ डाॅ. मोरसात समझ गए और कमरे से बाहर निकल गए।

अस्पताल की औपचारिकताएं पूरी हुई और प्रोफेसर तारीकबी के शव को गाड़ी में रखा गया। उनके मुंह पर डाॅ. मोरसात का कोट ढका हुआ था। अचानक सबरीना ने कोट को चेहरे से हटा दिया। उसे लगा, जैसे चेहरे पर कोट ढका होने से उनका दम घुट रहा होगा। जिसको खबर मिली वो मेडिकल एकेडमी पहुंचा और रात के आखरी पहर में उन्हें उसी घर में लाया गया जहां से वे बीती सुबह जिंदा आदमी की तरह निकले थे। घर के बाहर लोगों का हुजुम इकट्ठा हो गया। यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर, स्टूडैंट्स, पुराने दौर के राजनीतिक लोग, आम और खास, जिसे भी खबर मिलती गई वो पहुंच गया। जिस पलंग पर वो बीती रात सोये थे, उसी पर उन्हें बालकनी में लाया गया। कुछ लोग चाहते थे कि मुसलमानी रिवाज से अंतिम क्रिया हो, लेकिन सबरीना ने विरोध किया। फिर जारीना बोल पड़ी, ’ये प्रोफेसर तारीकबी का अपमान होगा, वे जिंदगी भर धर्म और कर्मकांड का मखौल उड़ाते रहे और अब हम उनका मखौल उड़ाएं।’ जारीना का विरोध करने की किसी की हिम्मत नहीं हुई। सुबह होते-होते यूनिवर्सिटी के रेख्तर प्रो. हम्दुरसोव, हाकिम राहिब उस्मानोव भी आ गए।

मरहूम को मिट्टी के सुपुर्द करने की तैयारी हो रही थी और एक कोने में सिमटी सबरीना अपने पिता को याद कर रही थी। उसके पिता साइबेरिया में सोये हैं और अब प्रोफेसर तारीकबी भी जा रहे हैं। वो एक ही जिंदगी में दो बार अनाथ हुई है। उसे फरगाना घाटी का स्मरण हो आया, जहां प्रोफेसर तारीकबी का बचपन बीता था। वे अक्सर अपने गांव को याद करते थे, उन्होंने घाटी में और पहाड़ों के पार अपने अब्बा मरहूम के साथ बचपन में भेड़े चराई थी। वो अक्सर कहते, ‘अब्बा को पूरा यकीन था कि मैं एक दिन अच्छा चरवाहा बनूंगा। पर, मैं भेड़ों का चरवाहा नहीं बना......फिर चुप हो जाते.....मैं खुद ही भेड़ बना घूमता रहा। अब वक्त मिले तो एक दिन फरगाना चला जाऊं, तुम सब को लेकर जाना है मुझे! देखना, कितना खूबसूरत है फरगाना।’ वो कभी नहीं गए वहां। पर, जब कोई फरगाना से आता तो बेहद खुश हो जाते, पुराने दिनों की बातें करते। जिस रोज ताशकंद से फरगाना के लिए हाईस्पीड ट्रैन शुरू हुई तो वे पूरा दिन स्टेशन पर बैठे रहे, उन लोगों को देखते रहे जो फरगाना जा रहे थे। ट्रैन के विदा होने के बाद देर शाम लौटे। किसी को नहीं बताया, कहां गए थे। सबरीना समझ गई थी कि कहां थे। उन्हें देखते ही बोली, ‘ आ गए फरगाना से वापस!‘ वे कुछ नहीं बोले, चुपचाप रहे और कई दिन बार फिर स्टेशन पर बैठे मिले।

‘ आप, फरगाना होकर क्यों नहीं आते।‘ सबरीना ने जोर देकर कहा।

‘ अब्बा का डर लगता है, 12 साल का था जब फरगाना छोड़ा था, 70 साल से ज्यादा हो गए छोड़े हुए, अब भी लगता है, जैसे अब्बा बैठे होंगे, इंतजार कर रहे होंगे, भेड़ों को जंगल में लेकर जाना होगा, अब कैसे जाऊं।‘ फिर उन्होंने लंबी चुप्पी साध ली। मन फरगाना में था, लेकिन द्वंद्व पीछा नहीं छोड़ता था। वे बचपन के अपने सच को आज के सच से बदलना नहीं चाहते थे, इसलिए फरगाना नहीं गए, लेकिन फरगाना घाटी उनकी बातों का हमेशा हिस्सा बनी रही। सबरीना को याद है वो इस बात पर नाराज हो गए कि उसने एक दिन मजाक में प्रोफेसर तारीकबी को फरगाना में दफनाने की बात कही थी। वे नाराजगी से बोले, ‘ नहीं, मैं फरगाना में दफ्न नहीं होना चाहता। ये मुल्क मेरा है, ये सारी मिट्टी मेरी है। ये तुम्हारे दिमाग का फितूर है कि मरने के बाद आदमी अपने घर, अपनी मिट्टी में लौटना चाहता है। आदमी मरा, सब खत्म। फिर कुछ नहीं बचता।‘

‘ वे, बोलते गए, काफी नाराज होकर बोलते रहे, ‘ सुनो सबरीना, ध्यान से सुनो, अपने पिता को साइबेरिया में रहने देना। साइबेरिया किसका है, वो किसी राजनीतिक सत्ता का नहीं है, वो तुम्हारे पिता का है, वो मेरा है, हमारा है! ठीक से समझ लो, मैं कब्रों को खोदकर यहां-वहां ले जाने का हिमायती नहीं हैं। कुछ ढंग का काम करो, ये दिमाग के भीतर कब्रें खोदने का सिलसिला बंद करो।‘ इसके बाद कभी सबरीना ने उनसे अपने पिता और साइबेरिया का जिक्र नहीं किया। वो उन दिनों को याद करने लगी जब पाकिस्तान से आने के बाद ताशकंद में आवारा घूम रही थी और उसे पुलिस ने नाइट-क्लब से पकड़ा था। जब उसने पुलिस स्टेशन में अपने पिता का नाम बताया तो हर कोई एक-दूसरे की ओर देखने लगा-कमांडर ताशीद करीमोव की बेटी! प्रोफेसर तारीकबी को खबर दी गई, उन्हें उज्बेकिस्तान में अनाथ और निराश्रित लड़कियों के परमानेंट-गार्जियन का दर्जा दिया गया था। इस दर्जे की बराबरी हिन्दुस्तान में सिर्फ बापू और मदर टेरेसा के साथ की जा सकती है। वे, डाॅ. साकिब को लेकर पुलिस स्टेशन पहुंचे और उसे छुड़ाकर साथ ले आए। फिर पता ही नहीं चला, सात-आठ साल का वक्त कैसे बीत गया। सबरीना के लिए कभी वे पिता बन जाते और कभी प्रोफेसर। सबरीना ने जिंदगी का एक नया चेहरा देखा, सब कुछ खोकर उसके बदले में प्रोफेसर तारीकबी की बेटी बन जाता कोई बुरा सौदा नहीं था। उनकी सैंकडों बेटियां हैं, लेकिन सबरीना का दर्जा सबसे अव्वल। सबरीना उनसे अक्सर मजाक करती, ‘ आपकी दाढ़ी से छोटी लड़कियों के लिए कई ब्रश बन जाएंगी, एक कूंची मैं भी बनाऊंगी।’ वे कहते, ‘ हां, हां ठीक है। जिस दिन मरूंगा, उस दिन काटकर रख लेना और मेरी दाढ़ी वाली कूंची से ही घर को रंगना।‘

आज वो लंबी, फर-फहराती दाढ़ी वाला बूढ़ा हमेशा के लिए जा रहा था। अंतिम यात्रा की सभी तैयारी पूरी हो गई थी। उन्हें यूनिवर्सिटी परिसर में ही सुपुर्द-ए-खाक किए जाने पर रेख्तर और मेयर दोनों ने अनुमति दे दी। जनाजा चल पड़, प्रोफेसर तारीकबी की बेटियां ही उन्हें लेकर जा रही थी। वे जीते-जी जिन मजहबी बंदिशों को टूटते देखना चाहते थे, उनकी बेटियों ने वो कर दिखाया, भले ही वो देखने के लिए जिंदा नहीं थे। प्रोफेसर तारीकबी को डिपार्टमेंट आॅफ नेटिव लैंग्वजेज एंड लिटरेचर के बराबर में दफनाया गया। सबरीना और जारीना दफ्न होते प्रोफेसर तारीकबी को देखती रहीं। वे उस पल की इंतजार करती रहीं जो उन्होंने किस्सों-कहानियों में सुना था कि कोई मरा हुआ आदमी आखरी पल में जिंदा हो गया, लेकिन प्रोफेसर तारीकबी जिंदा नहीं हुए। सुशांत ने अपने कंधे से बुखारा वाला रेशमी लबादा उतारा और प्रोफेसर नाजिफ तारीकबी के चेहरे पर ढक दिया। कुछ मिट्टी उठाई और उस मुहब्बत की याद में उनके ऊपर डाल दी, जो उन्हें हिन्दुस्तान से थी। स्टूडैंट्स ने कब्र के पास मौजूद दीवार पर लिख दिया-’महान उज्बेक अकादमिशयन प्रोफेसर नाजिफ तारीकबी यहां पर जगे हुए हैं, उन्हें युवाओं से बात करना अच्छा लगता है।’

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