डॉमनिक की वापसी - 31 Vivek Mishra द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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डॉमनिक की वापसी - 31

डॉमनिक की वापसी

(31)

शिमोर्ग और विश्वमोहन के जाने के बाद तुरंत अस्पताल से निकल पड़ने पर भी हम दोपहर बीतते-बीतते ही संगीत के पुराने गुरुकुल पहुँच सके.

सचमुच ही वहाँ पहुँच के लगा था किसी ने अतीत में प्राण फूँक कर उसे जीवंत कर दिया है... कच्ची मुडेर से घिरे गोबर और लाल मिटटी से लिपे आँगन के बीचों-बीच झूमता विशालकाय नीम अतीत और वर्तमान में आवाजाही करता हुआ लगता था. वह कई कहानियाँ का गवाह था. आँगन के चारों ओर खपरैल की ढलवां छप्पर वाले कमरों के आगे छोटी-छोटी दालानें थीं. जिनकी दीवारों पे कई साल पहले की, अब बदरंग हो आई चितेवरी बनी थी. जिनमें केले के पेड़, हाथी-घोड़ा-पालकी, नाव-जाल-मछुआरे के चित्र कच्चे रंगों से बने थे. कच्ची ईटों के खम्बों पे वीणा, सारंगी, बाँसुरी, तबला जैसे बाद्य यंत्रों के चित्र बने थे...

निशांत ने कोने में भीतर-बाहर दोनों तरफ दरवाज़े वाला कमरा यह कहते हुए खोला कि वह डॉमनिक दा का कमरा है. दोनों तरफ के दरवाज़े खोलते ही कमरे में पर्याप्त रोशनी हो गई...कमरे के कोने में ज़मीन पे लगे बिस्तरे और खूँटी पर टंगे दो-एक जोड़ी कपड़ों के आलावा कोई खास सामान नहीं था. बिस्तर के सिरहाने एक खुली हुई अलमारी थी जिसमें कुछ पुरानी जिल्द फटी किताबें. कुछ पुराने अख़बार पड़े थे. उनके बीच कुछ अधलिखे खुले काग़ज़ और एक पुरानी कॉपी दिखाई दे रही थी. दूसरी तरफ एक कनस्तर में डंडा, झाड़ू, झंडा, एक पुराना भाला, एक बिना तारों वाला गिटार रखा था.. ये कबाड़ था या नुक्कड़ नाटक में काम आने वाला सामान कहा नहीं जा सकता था. हम लोगों ने पुरानी किताबों वाली अलमारी के काग़ज़ों को उलटना-पलटना शुरू किया... किसी पर कोई पुरानी कविता लिखी थी तो किसी पर कोई गीत. कॉपी में शायद कोई नाटक लिखने की कोशिश की गई थी जिसे दो-चार पन्ने लिखके ही छोड़ दिया गया था..

उस अलमारी में और कुछ भी ख़ास नहीं दिख रहा था. तभी अजीत ने सिरहाने की ओर से बिस्तर पलट दिया, बिस्तर के नीचे एक कॉपी दबी थी. मैंने अजीत से लेकर कॉपी के पन्ने पलटने शुरू किए. उन पन्नों के खुलते ही उन अँधेरे दिनों पे धुंधली सी रोशनी पड़ने लगी जिनका गवाह दीपांश की जिंदगी से जुड़ा कोई आदमी न था. रेबेका के चले जाने के बाद वे दिन उसने अकेले ही काटे थे.

लिखा था..

.....रेबेका के यूँ चले जाने और उसे न ढूँढ़ पाने, उसके लिए कुछ न कर पाने की वजह से मैं अपने आप से इस कदर नाराज़ था कि मैंने ख़ुद से भी बात करनी बंद कर दी। उसके बाद जैसे मेरे भीतर की अराजकता इतनी बढ़ गई कि मैं अपने ख़िलाफ़ ही साजिश करने लगा. मैं चाहता था कि मैं अपने आपको ऐसी परिस्थितियों में डालूं, ख़ुद को इतनी यातनाएं दूँ, किसी अनजानी राह पर निकलकर ऐसी कोई यात्रा करूँ कि चलते-चलते ही एक दिन पूरा हो जाऊँ, मर जाऊँ, मौत ऐसी हो कि कोई मेरे जाने पर उसका दोष किसी पर न मड़े। लगे कि मैं चलते-चलते ही इस दुनिया से चला गया...

मैंने ऐसा ही किया. जहाँ था वहाँ से निकल के मैं सबसे पहले वृन्दावन पहुँचा. वहाँ दो दिन एक आश्रम में रहा. पर जल्दी ही वहाँ के ढोंग और पाखण्ड से ऊब गया. आधी रात को उठकर उस आश्रम से चल दिया. बहुत तेज़ बारिश हो रही थी. रास्ते मैं एक पुरानी धर्मशाला जैसी कोई इमारत थी जिसके बरामदे में कुछ लोग सो रहे थे, मैंने भी उस रात कुछ देर के लिए वहीं शरण ली. एक बार दीवार से पीठ टिका के पैर फैलाए तो नींद आई या बेहोशी पता नहीं चला.

सुबह आँख खुली तो चार-पाँच लोग मुझे घेर के बैठे थे. वे शायद यह जानना चाहते थे कि मैं उनके जैसा न होते हुए भी वहाँ क्या कर रहा हूँ. वे बहुत आश्चर्य से मुझे देख रहे थे. मैं पूरी तरह जागने पर ही जान सका कि वह कुष्ठ आश्रम है. मुझे घेर कर बैठे लोगों में से सबसे बुजुर्ग आदमी ने कहा, ‘बाबू यह जगह तुम्हारे लिए ठीक नहीं है, हम सब कोढ़ी हैं.’ उसने बताया कि वे उस दिन किसी यात्रा पर निकल रहे हैं. मैंने कहा ‘मैं भी चलूँगा.’

यात्रा अभी तीन-चार मील ही चली होगी कि लगा आगे रास्ता बंद है. आगे बढ़के देखा तो पता चला कि एक विधवा की मौत हो गई है, किसी आश्रम में रहती थी. लोग बता रहे थे रास्ते पर ही चक्कर खाके गिरी और जान निकल गई. इस बात को दो घंटे हो चुके हैं पर यह तय नहीं हो पा रहा है कि उसका अंतिम संस्कार कौन करेगा. जिस आश्रम में रहती थी उसका पता लगाया गया पर उसने भी देह को ले जाने से मना कर दिया. मन में आया कि यदि आश्रम वालों ने मना कर दिया तो क्या हुआ, यहाँ इतने लोग हैं. यहाँ से कुछ ही दूरी पर शमशान घाट है. पर बार-बार एक ही बात सुनाई दे रही है- ‘न जाने कौन है?’ दिख तो रहा है, स्त्री है, विधवा है, गले में कंठी पहने है-हिन्दू है, फिर क्या दुविधा है. घर-परिवार, लोग-समाज, पुलिस, व्यवस्था कोई नहीं है जो इसकी देह यहाँ से ले जाए.

न जाने घर-द्वार छोड़ कर कबसे यहाँ इस शहर में पड़ी है. शायद मौत से कई दिनों पहले से ही सारी पहचानें धुंधला गईं होगीं.. सब छोड़कर बस एक आस्था की डोर पकड़े, ईश्वर के भरोसे इस शहर में आखिरी साँस लेने की आस में कंठी फेरते हुए बैकुंठ जाने की प्रार्थना करती, अकेली रही आई होगी इस शहर में. कौन जाने जान निकलने तक वह आखिरी इच्छा भी मन में रही होगी या नहीं. धीरे-धीरे भीड़ छटने लगी. लोगों के शोर मचाने पर रास्ता खुल गया. सब अपने रास्ते निकलने लगे... एक प्राणहीन देह अपनी प्रतीक्षारत आँखों से टकटकी लगाए हर आनेजाने वाले को देखती रही. जिस धर्म में अटूट आस्था लिए वह वर्षों से इस शहर में प्राण त्यागने की प्रतीक्षा करती रही होगी. उसी में रहने वाले.. उसी के धर्म को मानने वाले सब धीरे-धीरे वहां से चले गए. फिर आम दिनों की तरह रास्ता चलने लगा. मैंने अपने साथ के लोगों से कहा हमें कुछ करना चाहिए पर उन्हें कहीं किसी अनुष्ठान के बाद होने वाले भंडारे में पहुँचना था. वे सब जैसे वहाँ किसी क़ारोबार का हिस्सा थे. इसलिए वह भी सभी की तरह इस सबको नज़र अंदाज़ करके वहाँ से निकल गए...

मैं कुछ देर वहीं उस विधवा की मृत देह के पास बैठा रहा. मेरे साथ मेरे दो एक साथी और बैठ गए. कुछ देर बाद उन्हीं में से एक, जिस आश्रम में वृद्धा रहती थी वहाँ से एक पर्ची बनबा लाया. उसने कहा, ‘अब संस्कार कर सकते हो.’ मेरे वहाँ बैठ जाने पर न जाने उसने कैसे जाना कि मैं उसका अंतिम संस्कार करना चाहता हूँ. उन दो लोगों की मदद से हमने उसका संस्कार किया. जेब में बचे हुए आखिरी पैसे संस्कार में लग गए. जेब से पैसे निकाल रहा था तो रेबेका का दिया रूमाल और एक केपिटल ‘डी’ लिखी हुई रिस्ट बैंड हाथ में आ गई. न जाने क्या सोचके वो रूमाल और रिस्ट बैंड उस चिता पर रख दीं. लगा रेबेका और रिद्धि दोनों का अंतिम संस्कार कर दिया. वहीं उसकी चिता के पास बैठ के खूब रोया. इतना की मन साफ़ और हल्का हो गया..

सोचने लगा ‘रिद्धि और मैं जिस धरातल पर खड़े थे लगता था दो इंसान एक दूसरे को पूरी तरह समझ पा रहे हैं- पर उसके यूँ चले जाने से अँधेरा इतना घना हो गया कि आसपास कुछ भी दिखाई देना बंद हो गया था. जीना बिलकुल बेमानी लगने लगा था. शायद उस समय में किसी भी क्षण, कभी भी ये जीवन पूरा हो जाता पर नहीं हुआ. चिता के धुएँ के साथ बहुत सारा ग़ुबार ऊपर आसमान में उठ गया.

रेबेका कहती थी.. ‘तुम्हें अभी दुनिया को और देखना है, अपनी इस पहचान से मुक्त होकर इसे और जानना है... तुम्हें अपनी कला के रूप में लौटना है.’

जब थोड़ा संभला तो लगा वो सही कहती थी। दुनिया को जानने के लिए दुनिया तो देखनी ही होगी और वह भी उसके बीच में रहके। पक्ष में या प्रतिपक्ष में। यहाँ तटस्थ कुछ नहीं है। यहाँ किनारे पे बैठके देखा जाना कुछ नहीं है, अब तक मैं लड़ता भी रहा और बचता भी रहा. जो मझधार में है, वह इस दुनिया को जैसे देख रहा है, उसी का देखा जाना सच्चा है. मुक्त जीवन की धारा से नहीं, मुक्त तो अपने आप से होना है। मेरी तरह जो दुनिया से भाग खड़ा हुआ, उसकी दुनिया सच्ची दुनिया नहीं है। रेबेका ने भँवर के बीचों-बीच रहकर, उसमें डूबते-उतराते हुए, बहुत हिम्मत से ज़िन्दगी की हक़ीक़तों को देखा था। ऐसा देखना ही सच्चा है. इस देखे जाने के दौरान- बच निकलने का संघर्ष और भँवर की डुबाकर मार डालने की जिद्द, ये दोनो ही इंसान के भीतर, उसके डूब जाने के बाद भी रहे आते हैं।

तब जैसे मैंने अपने से वादा किया, मैं अपनी आखिरी साँस तक बिना डरे, बिना भागे जीवन की निशानदेही करने की कोशिश करूँगा... साथ में रुके उन साथियों ने कुछ पैसे दिए. उसके बाद वह यात्रा और वो शहर पीछे छुट गया...

जब अपनी पहचान को भूलके कहीं चलने के लिए क़दम बढ़े तो अपने घर, पहाड़ों पे लौटने की भी इच्छा नहीं हुई, चलकर किसी दोस्त.. हिमानी.., या शिमोर्ग से भी मिलने की इच्छा नहीं हुई. अपने आप ही जैसे पैर उठे और सफ़र शुरू हो गया. जब रुका तो देखा यहाँ- रेबेका.. मेरा मतलब रिद्धि के घर आ गया.. कहा रिद्धि के पिता की संगीत की पाठशाला देखनी है. रिद्धि की माँ जैसे इस जगह के लिए किसी का इंतज़ार ही कर रही थीं. उन्होंने गुरुकुल का रास्ता दिखा दिया.

गुरुकुल लगभग बंद ही पड़ा था. केवल शाम के समय कुछ बच्चे अपने से ही संगीत का अभ्यास करते थे. इससे जुड़े पुराने दो-चार लोग यहाँ संगीत सिखाने के लिए किसी को रखना भी चाहते थे पर उनके पास देने को कुछ नहीं था. मुझे कुछ चाहिए भी नहीं था सिवाय रहने की थोड़ी-सी जगह और खाने के. सबने नाम पूछा तो सोच में पड़ गया ‘देबू, दीपांश’ बहुत पीछे छुट गए थे. याद आया रिद्धि आखिर में मुझे डॉमनिक बुलाने लगी थी. सो अपना नाम डॉमनिक ही बता दिया. लोगों ने जाति और धर्म भी पूछा. पता चला यदि ब्राहमण होता तो सुबह-शाम पूजा अर्चना भी करनी होती. लगा अपना नाम ‘डॉमनिक’ बताकर इस सबसे बच गया. नाम की वजह से सबने अपने आप ही मुझे ईसाई समझ लिया. कुछ ने कहा मैं ईसाइयत का प्रचार करने लोगों को क्रिश्चियन बनाने यहाँ आया हूँ. तब मुझे कहना पड़ा कि मेरा नाम डॉमनिक है पर मैं किसी ईश्वर को नहीं मानता.

दो-चार दिन संगीत की कक्षाएं हुईं और अपने आप ही बच्चों की संख्या बढ़ने लगी. उसके बाद बच्चों का एक नाटक तैयार किया जो सभी को बहुत पसंद आया. और उसी से ‘रिद्धिरंग’ की शुरुआत हो गई. बाद में नाटक में भाग लेने वाले लड़के-लड़कियों की संख्या बढती गई. धीरे-धीरे गुरुकुल से बाहर निकल के नुक्कड़ नाटकों की शरुआत हुई.

दुनिया में तेज़ी से आए बदलावों की हवा यहाँ भी चली, चीज़े बदली भी. पर ऊपर-ऊपर से.. भीतर कुछ था जो पहले जैसा ही जड़ था. वही जात-पात, वही ऊँच-नीच, वही समर्थों की अहमन्यता...

पहले तो सब ऐसे जुड़े जैसे उन्हें मेरी, मेरी कला की और उन सब बातों की जो मेंरे द्वारा संभव थीं बहुत जरूरत हो. उस समय वे मेरी हर बात मानने को तैयार थे. इसीलिए शुरू के दो तीन महीने बहुत अच्छे बीते. पर यहाँ जाति का गुमान और उसकी रक्षा ऐसे मुद्दे थे जिन्हें छूते ही लोग ऐसे बिदकते थे जैसे सोए हुए साँप को छू लिया हो. वे केवल फुंकारते ही नहीं काटने को दौड़ते. पर इसी जड़ता के बीच यहाँ की नई पीढ़ी में एक उम्मीद भी देखी. लगा इनकी लड़ाई कई स्तरों पर है और दुश्मन का कोई स्पष्ट चेहरा नहीं, कोई स्पष्ट किला नहीं जिसे ढहा के लड़ाई जीती जा सके. सब धुआँ –धुआँ, एक कोहासे में लिपटा. दुश्मन कभी बाहर, तो कभी अपने ही मन के भीतर. कभी सड़कों पर, तो कभी घर में. अपनी जाति से बाहर विवाह करने की वजह से कितने ही परिवारों ने तो अपने ही बच्चों को मौत के घाट उतार दिया. उन्हें प्रेम करने की सजा मिली. जहाँ संसार में कितनी मक्कारियाँ फैली हैं और कोई उन्हें रोकने, उनपर अंकुश लगाने वाला नहीं, और यहाँ प्रेम की इतनी बड़ी सजा.’

आगे क्षेत्र की समस्याओं और उससे जुड़े वहाँ के लोगों के मनोविज्ञान के बारे में लिखा था...हम उससे आगे पढ़ पाते कि शाम की संगीत की कक्षा का समय हो गया था. बच्चे एक सुर में कबीर वाणी गा रहे थे.. हमने उस कॉपी के साथ बाकी के काग़ज़ भी निशांत के बैग में रख लिए और बाहर आकर नीम के नीचे बैठकर उन्हें सुनने लगे...

हद-हद टपे सो औलिया, बेहद टपे सो पीर

हद अनहद दोनों टपे, वाको नाम फ़कीर !!

हद हद करते सब गए, बेहद गए न कोए

अनहद के मैदान में रहा कबीरा सोय...!!

जब वहाँ से चले तो कबीर बड़ी दूर तक हवा में तिरते कानों में गूँजते रहे...

***