डॉमनिक की वापसी
(5)
अजीत से ‘डॉमनिक की वापसी’ में डॉमनिक का किरदार निभाने वाले दीपांश से मिलने की इच्छा ज़ाहिर किए हुए अभी दो-तीन दिन ही बीते होंगे कि एक रात साढ़े दस-ग्यारह बजे के बीच जब मैं अपने कमरे पर अकेला ही था और बड़े उचाट मन से दिल्ली प्रेस से मिली एक बेहूदा सी परिचर्चा का अन्तिम पैरा लिखकर उससे निजात पाने की कोशिश कर रहा था, कि किसी ने कमरे का दरवाज़ा खटखटाया। दरवाज़ा खोला तो सामने अजीत खड़ा था और उसके साथ था, दीपांश, ‘डॉमनिक की वापसी’ का ‘डॉमनिक’।
पता नहीं दीपांश को अजीत ने मेरे बारे में क्या बताया था। वह मुझसे कुछ इस तरह से मिला जैसे हम सदियों से एक दूसरे को जानते हों। वह हमारे कमरे पर पहली बार आया था पर नई जगह आने की झिझक, कौतुहल और औपचरिकता की जगह उसके चेहरे पर एक बेफ़िक्री थी।
हम तीनों कमरे के एक कोने में बिछी दरी पर बैठ गए।
अजीत ने बिना कुछ पूछे अलमारी से गिलास और लगभग तीन चौथाई खाली हो चुकी विह्स्की की बोतल निकाली और गिलासों में पलट दी। खाने के लिए कमरे पर कुछ नहीं था। इसलिए मैंने पूछा भी नहीं और उन्होंने मांगा भी नहीं। हम चुपचाप विह्स्की में थोड़ा-थोड़ा पानी डालकर पीने लगे।
कुछ पलों की ख़ामोशी के बाद मेरे मुंह से निकला, ‘इतना जीवन्त, इतना सहज अभिनय मैंने पहले कभी नहीं देखा।’
दीपांश ने धीरे से घूँट भरते हुए कहा, ‘मेरे पास अभिनय जैसा कुछ है ही नहीं, अभिनय कभी भी स्वाभाविक अभिव्यक्ति के बराबर हो ही नहीं सकता, थोड़ा कम या थोड़ा ज्यादा हो ही जाता है’।
उसने लम्बी साँस लेते हुए आगे कहा, ‘शानी की कहानियाँ बहुत पढ़ी हैं मैंने। उनकी एक बात हमेशा ज़हन में रहती है कि कहानी कभी भी ज़िन्दगी के नाप की नहीं हो सकती, वह थोड़ी ढीली या थोड़ी तंग हो ही जाती है.’
ऐसा कहते हुए वह बिलकुल अपने किरदार ‘डॉमनिक’ की तरह लग रहा था।
‘बीच में भूलते या भटकते नहीं हो?’ मैंने पूछा।
उसने माथे पर आ गए बालों को दोनों हाथों से पीछे करते हुए कहा, ‘भटकाव ने ही तो डॉमनिक बनाया है। उसी से दिशा मिली है।’
‘हर बार कैसे पकड़ पाते होगे, अभिव्यक्ति के उसी एक स्तर को?’ प्रश्न मैंने किया था पर अजीत उसमें शामिल था। हम दोनो दीपांश की गहरी पर बिलकुल सुनसान आँखों में देख रहे थे।
‘जीवन में हर बात का पहला सिरा याद रहा आता है। बस मुझे पहला संवाद याद रहता है, मैं उसी के सहारे प्रवेश करता हूँ फिर सब अपने आप घटता है.’
वह खिड़की से झांकते हुए अंधेरे को देखकर बोला, ‘जानते हो जब हम पहली बार किसी का हाथ पकड़ते हैं, तो जैसे एक नए जीवन का सिरा पकड़ते हैं, एक कहानी का पहला वाक्य पढ़ते हैं, एक किताब का पहला पन्ना खोलते हैं। तभी हम जान पाते हैं कि एक भरोसे से किया गया पहला स्पर्श केवल छूने का सुख नहीं होता, उसमें किसी नई दुनिया में प्रवेश की जिज्ञासा, कौतुहल और उससे पैदा हुई थरथराहट भी होती है.’
ऐसा कहते हुए दीपांश की आँखों का खालीपन भरने लगा था।
‘इसलिए प्रेम की किसी भी स्थिति में वह पहला स्पर्श, उसका सुख, उसका एहसास सदा के लिए हमारे साथ रहा आता है, जिसके सहारे हम अनगिनत स्पर्शों के पुल खड़े करते हैं। दरसल वह पहली छुअन नींव है, धरोहर है, उस रिश्ते की। एक सुख की आश्वस्ति है, जो बार-बार स्मृतियों में आकर फिर-फिर छूने को उकसाती है। शायद यही वो आलम्ब है, जो उम्र के धुंधलके में भी स्मृतियों में घुलकर हमेशा आनन्द देता है। इसी के सहारे मैं बार बार उस निर्वात में तिर जाता हूँ, सच मानो वहाँ उस स्पर्श के अलावा कुछ भी नहीं होता.’
उसकी बातों की सरसता में हम किसी अदृश्य झरने की आवाज़ सुन रहे थे।
‘पर यही स्पर्श बहुत रुलाता भी है। उस हाथ के छूट जाने पर सारे पुल ढह जाते हैं। इस एक स्पर्श के सहारे मन कितनी बातें बिना कहे-सुने ही समझ लेता है।’
उसकी आँखों के किनारों पर जमी कालिमा धीरे-धीरे गीली होकर एक किस्से में ढल रही थी। पता नहीं यह नशे का असर था या उसके भीतर उफ़नते सागर का ज़ोर। हम उसकी आँखों में देख रहे थे। वहाँ धीरे-धीरे बादल घिर रहे थे, हवाएं तेज़ हो रही थीं…
……वह किसी पहाड़ी पर एक ढलान से घाटी में उतरता हुआ रास्ता था।
उत्तरांचल में कोटद्वार से थोड़ी-सी ऊँचाई पर सिद्धबली का मंदिर है। मंदिर के पीछे से ढलान उतरने पर एक नदी बारहों महीने छलछलाती बहती है। जिसमें दूर से देखने पर दो परछाइयाँ घाटी में उतरती हुई दिखाई दे रही थीं। हिमानी दीपांश का हाथ पकड़कर मंदिर की ओर खींच रही थी। दीपांश मंदिर नहीं जाना चाहता। अजीब विच्छोव होता है उसे, ईश्वर से। वहीं एक पुराना चर्च है। दोनों चर्च की ओर उतर गए। बहुत दूर कहीं झरने के गिरने की आवाज़ आ रही थी। दोनो चर्च की काई लगी दीवार से जा लगे।
दीपांश ने हिमानी का हाथ हल्के से छुआ, हिमानी की आँखों के ठहरे हुए पानी में एक तरंग उठी जो दीपांश की आँखों में तिरती हुई अनंत में बिला गई, हिमानी ने दीपांश का हाथ कसकर पकड़ लिया। बिना किसी ध्वनि के रक्त का उद्दीपन हस्तांतरित होने लगा। उन्हें लगा उन दोनो के हृदय के स्पंदन की लय और गति एक हो गई है।
उनकी पकड़ में एक वादे जैसा कुछ था। अचानक हिमानी ने हाथ छुड़ाने की कोशिश की और वह दीपांश के कंधे से जा लगी। दीपांश ने उसका हाथ छोड़ दिया और एक पत्थर उठाकर हवा में उछाला। चर्च की दीवार पर बैठी चिड़िया आसमान में खो गई।
अब उन्हें देखने वाला वहाँ कोई नहीं था।
वे शायद पहले स्पर्श के उसी एहसास में तिर रहे थे जिसके बारे में बताते हुए दीपांश की आँखों में यह दृश्य उतर आया था। उनकी साँसों में एक अजीब-सी बेतरतीबी थी जिसे देखकर उस घाटी में बहती हवा थोड़ी तेज़ हो गई थी। दीपांश ने हिमानी के हाथों को अपने हाथ में लेकर चूम लिया था जिससे सुनहला सूरज धीरे-धीरे लाल होने लगा था अब दूर से देखने पर दो नहीं एक ही परछाँईं दिखाई दे रही थी। अब वहाँ की हवा में ख़ालिस प्रेम बह रहा था। बीतते समय की टिक-टिक रुक गई थी। लगा वे उसी पल में जम गए हैं।
बड़ी देर बाद……, चर्च के घण्टे की आवाज़ से समय धीरे से हिला। मोम-सी जमी हुईं आकृतियाँ, एक दूसरे से अलग हुईं जैसे गहरे पानी में डूब के उबरी हों।
अब हिमानी की आँखें पहले जैसी नहीं थीं। अब वे किसी हिरनी की आँखें थीं।
अब उनमें प्रेम के साथ एक सहज अधिकार बोध और गर्व था। अब वह दीपांश को कन्धों से पकड़कर धकेलती हुई मंदिर की ओर ले जा रही थी। वे दोनो धीरे-धीरे आसमान से उतरती धुंध में डूब रहे थे।
हम दीपांश की आँखों में और आगे का दृश्य देख पाते कि उसने आँखे बंद कर लीं। फिर एक लम्बी साँस लेकर आँखें खोलीं। अजीत ने बची हुई विहस्की उसके गिलास में पलट दी। तभी उसने एक निर्रथक जान पड़ता प्रश्न किया, ‘तुम्हारे कमरे पर वॉयलिन है?’
हम दोनों ने उसकी तरफ़ आश्चर्य से देखा। उसने एक नज़र कमरे में बिखरी किताबों, पत्रिकाओं और बासी अख़बारों पर डाली। शायद वह भाँप गया कि वहाँ वॉयलिन का होना लगभग असंभव है। उन दिनों हमारे जीवन में संगीत दिल्ली के भागीरथ पैलेस से डेढ़ सौ रूपए में खरीदे गए एक लोकल रेडियो से निकलकर ही आता था और वह भी तभी श्रव्यमान हो पाता था जब कमरे पर कला, संगीत और फिल्मी गीतों का विरोधी कोई वामपंथी मित्र न बैठा हो। तब तक हमें विचार के रूप में कोई दिशा नहीं मिली थी। हम सिर्फ़ अपने-अपने अंधेरों में भटकते बेरोजगार थे जो झूठी-सच्ची बातें बनाकर किसी सपने का पीछा करते हुए महानगरों की ओर भाग आए थे।
उसने उस कलाविहीन रूखे से वातावरण में किसी तरह अपनी स्मृति में रखे एक अदृश्य से वाद्य यन्त्र का तार छेड़ा फिर जैसे गुनगुनाते हुए बोला, ‘जानते हो पियानो के जादूगर कहे जाने वाले महान संगीतज्ञ बीथोवन को?’
मैं अपने अज्ञान पर झेंपने ही वाला था कि अजीत ने कहा, ‘वह जर्मनी का महान संगीतज्ञ?’
‘हाँ वही जर्मनी के लुडविग वैन बीथोवन। उनका पसंदीदा वाद्य कौन सा था?’
‘………………’
‘जानता हूँ बेवकूफ़ी भरा प्रश्न है। लगेगा ‘पैथेटिक’ और ‘पियानो सोनाटा’ लिखने वाले का प्रिय वाद्य पियानो के सिवा क्या होगा!…पर ऐसा था नहीं, उन्हें वॉयलिन पियानो से ज्यादा प्रिय था, अपनी तंगहाली के दिनों में जब दरबार में उन्हें अपनी पसंद का कोई वाद्य चुनने के लिए कहा गया तो बीथोवन ने वॉयला चुना- बड़ा वॉयलिन.’
अजीत ने जैसे दीपांश के भीतर छुपे उस अदृश्य वाद्य को देख लिया हो, ‘बीथोवन से बहुत प्रभावित लगते हो-अब तुम्हारे और वॉयलिन के संबंध को समझ पा रहा हूँ.’
वह अपनी आँखों की गहराई से मुस्कराया, ‘हम लोगों के बारे में जो जानते हैं और जो सच है, कई बार उसमें बड़ा फ़ासला होता है.’
सच। आज हम उस फासले को देख रहे थे। जिस अभिनेता की एक-एक अदा पर सैकड़ों लोग टकटकी लगाए रहते हैं। जिसके हाथों में वॉयलिन आ जाने पर थिएटर में एक जादू-सा तिरने लगता है। वह एक ऐसा किस्सागो भी है जो बोलता है तो बीता समय सामने जीवन्त हो उठता है।
वह एक साँस खींचकर थोड़ी देर चुप रहा फिर बीथोवन के बारे में ऐसे बताने लगा जैसे वह उसका अपना ही अतीत हो। उसकी उपस्थिति से कमरे का वातावरण बहुत कलात्मक और दार्शनिक-सा हो उठा। उसने बीथोवन की कथा को बीच में रोक कर कहा था, ‘दर्द तुम्हारे गुणों को और भी नुकीला और पैना कर देता है।’ फिर अपने भीतर का सारा दर्द समेटकर उसने किस्सा आगे बढ़ाया।
अजीत और मैं दोनो यही चाहते थे कि बीथोवन का वह किस्सा सारी रात खत्म न हो पर अभी जब वह बीच में ही था कि मेरे दोनो साथी वापस आ गए। वे दीपांश से मिले। हमारे एक साथी जिनका नाम हरि नौटियाल था, जो गढ़वाल के रहने वाले थे और जो हमारे किस्सों में ज्यादा रुचि नहीं लेते थे। वह दीपांश को कमरे पर देखकर कुछ अन्यमन्स्क हो उठे। दीपांश भी उनसे मिलने के बाद कुछ ही पल में वहाँ से चला गया।
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