Domnik ki Vapsi - 10 books and stories free download online pdf in Hindi

डॉमनिक की वापसी - 10

डॉमनिक की वापसी

(10)

समय बीता।

सचमुच पहाड़ों ने आवाज़ को कई गुना करके लौटाया, वक़्त जरूरत के लिए। आंदोलन तेज़ हुआ तो मौके की नज़ाक़त देखकर, अब तक इस सब से मुँह मोड़े खड़ी राजनैतिक पार्टियों ने भी अपनी घुसपैठ शुरू कर दी. अब उनके झंडे खुलकर पहाड़ों पर फहराने लगे। श्रेय लेने वाले खादी के कलफ़ लगे कुर्ते झाड़कर आगे आ गए और पहाड़ों से प्यार करने वाले, ‘बुरांश में प्यार का खुमार है’ गाने वाले अपराधी और भगोड़े क़रार दिए जाने लगे।

टोलियाँ बिखर गईं। नए मंडल और समितियों का रातो-रात गठन होने लगा। निर्दोषों की हत्याओं पर देहरादून, लखनऊ और दिल्ली में जमकर राजनीति होने लगी। सभी पार्टियाँ मरने वालों को अपना कार्यकर्ता बताने लगीं। दसियों साल पहले पहाड़ों को छोड़कर दिल्ली आ बसे ऐसे लोग, जिन्होंने पलटकर कभी गाँव की खोज़ खबर भी नहीं ली थी। फोन करके अपनी ज़मीनों की कीमतों का जायज़ा लेने लगे। दिल्ली के कई बुद्धिजीवी जिन्होंने पहाड़ों पर पैदा होने के बाद दो चार साल ही वहाँ बिताए थे, जो पहाड़ों के दुख-दर्द लिखकर पहाड़ के कवि-कथाकार का तमगा लेकर केन्द्र सरकारों की अकादमी नुमा एशगाहों में पड़े सो रहे थे, अचानक जागके देहरादून-हरिद्वार के चक्कर काटने लगे। दिल्ली-मुम्बई के कई सेठों ने जिनका कई साल पहले कोई बारीक सा तार भी अगर पहाड़ की तलहटी से भी जुड़ता था, तो उन्होंने आनन-फानन में पहाड़ की समस्याओं पर केन्द्रित कई पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू कर दिया, ‘उत्तराखंड विकास मोर्चा’ या ‘पहाड़ कल्याण’ समिति’ जैसे नामों से कई समाजसेवी संस्थाओं का पुरानी तारीखों में घूस देकर पंजीकरण करा लिया. मैदान के कुछ रेडीमेड बुद्धिजीवी जो कल तक वहाँ के लोगों को पहाड़ी-पहाड़ी कहके बेइज्जत किया करते थे, इन पत्रिकाओं के संपादक और ऐसी संस्थाओं के सलाहकार नियुक्त कर दिए गए। नए राज्य का सपना भविष्य की किसी सुंदर इमारत के बजाय स्वार्थ और लालच का अखाड़ा बन गया।

ज्यों ज्यों आंदोलन तेज़ हुआ, उस पर राजनैतिक रंग चढ़ा तो दमन के लिए सत्ता की लाठी भी और तेज़ी से घूमी। पुलिस दीपांश के गाँव और घर तक भी पहुँची। उसके कमरे से कुछ लोगों के नाम-पते और प्रदेश का नया नक्शा मिला, कुछ मौका परस्त लोगों ने झूठी गवाहियाँ भी दी। कितने ही लोगों पर बीसियों झूठी-सच्ची धाराएं लगा दी गईं। कई लोग गिरफ़्तार हुए। कई पहाड़ छोड़कर भागे। दीपांश का घर भी छूटा और उसे भी बहते पानी-सा नीचे उतरना पड़ा। पहाड़ से पानी उतरा तो मैदान में बहता यहाँ-वहाँ टकराता, सूखता-सिमटता-मैला होता-भाप बनता हुआ आगे बढ़ने लगा…

वह कई दिनों की लांघनो वाला दिन था। जब किसी के बताए कुछेक फोन नम्बर और कुछ सही-गलत, आधे-अधूरे पतों के साथ दीपांश दिल्ली पहुँचा था। कहीं नंबर नहीं लगा, कहीं पता नहीं मिला। कितने ही पतों पर जाने के लिए उसका ही मन नहीं किया. कितने ही नाम और चेहरे थे जो नज़रों के सामने घूम रहे थे. उनके ऑफिस पहुँच कर उनके घरों के सही पते और नंबर हासिल किए जा सकते थे, पर जब अपने भीतर ही कुछ खो गया हो तो बाहर कुछ ढूँढना बहुत कठिन हो जाता है। किसी के पास जाते हुए, किसी को फोन करते हुए एक संकोच बार-बार सिर उठाता था। फिर भी जब जाने को कोई दिशा नहीं थी और कहीं चले जाना बेहद जरूरी हो गया था, तभी वह यहाँ आया था। अलग-अलग नंबरों पर फोन करते, इधर-उधर भटकते शाम होने को आई थी पर बात कुछ बन नहीं सकी थी।

दिन की आखिरी उम्मीद कागज़ पे लिखा आखिरी नंबर था.

मण्डी हाउस, हाँ यही जगह तो बताई थी। कहा था वहाँ पहुँचकर फोन कर लेना। चौराहे की एक दुकान से नंबर मिलाया, कई बार मिलाने पर भी नम्बर नहीं मिला। हारकर फोन रख देना पड़ा। अब तक भीतर बहुत कुछ ध्वस्त हो चुका था और ख़ुद को समेटे रखने की शक्ति सूखती जा रही थी। पर बिखरना नहीं था। थकना नहीं था।

चाय की दुकान के सामने आसमान सिर पर उठाए पीपल खड़ा था। उसी के नीचे पड़ी एक पत्थर की बैंच पर बैठ गया। पेड़ पर घने पत्तों के बीच कुछ पक्षी चहचहा रहे थे। कहीं से आए थे या ठीक अभी कहीं जाने को थे, कहा नहीं जा सकता था।

कौन जाने वे भी पहाड़ से ही उतरे हों!

चिड़ियों की चहचहाहट दीपांश के भीतर अदृश्य पहाड़ों से टकरा कर गूँज गई। बेचैनी से गर्दन की नसें तन गईं। सिर उठाकर पहाड़ों को देखना चाहा पर वहाँ पहाड़ नहीं थे। पहाड़ों का संगीत नहीं था। पीपल के सिर पर रखा, धीरे-धीरे मलीन होता नीला रंग कुछेक इमारतों के बीच से झांकता था। जिसने पहाड़ों के ऊपर छाया हुआ नीला न देखा हो वह नहीं जान सकता कि उन्मुक्त आसमान संझा होते ही कैसे रंग बदलता है। कैसे धरती पुलक-पुलक के सूरज के दिए हुए रंग ही उसे उसकी आगे की यात्रा के लिए लौटाती है। कैसे किरणें धरती का एक सिरा थामे क्षितिज में ठिठक जाती हैं। यहाँ तो जैसे हल्की सी कालिख आसमान को ढकती चली जा रही थी। सोचा, ‘शुक्र है! अभी भी पेड़ बचे हुए हैं, यहाँ। पक्षी भी आकर बैठते हैं, उनपर।’ लगा ढपली होती तो पीपल के पत्तों में छुपे पक्षियों के स्वर में मिला देता, उसकी थाप।

तभी लगा कोई थाप दे रहा है। आवाज़ लगा रहा है।

यहाँ कौन ढपली बजाएगा? कौन आवाज़ देगा? लगा बाहर का नहीं भीतर का नाद है। या उसका भ्रम। पर आवाज़ तेज़ हो गई। सचमुच ढपली बज रही थी। कोई गा रहा था। सड़क के उस पार, पार्क के कोने में लड़के-लड़कियों का एक समूह, घेरा बना कर खड़ा था, दो के हाथों में ढपली थी। खिंचा चला गया…। एक नहीं कई स्वर एक साथ गा रहे थे…

‘कितना चौड़ा पाट नदी का, कितनी भारी शाम,

कितने खोए-खोए से हम, कितना तट निष्काम……,

…कितनी चुप-चुप गई रोशनी, छिप-छिप आई रात,

कितनी सिहर-सिहर कर अधरों से फूटी दो बात,

चार नयन मुस्काए, खोए, भींगे, फिर पथराए!

कितनी बड़ी विवशता जीवन, कितनी हम कह पाए!

(सर्वेश्वर दयाल सक्सैना)

भूख, थकन, टूटन सब घुलने लगी। एक पल को शब्दों ने दुख को सोख लिया। कविता ज़िन्दगी की किताब पर फैली स्याही के लिए स्याहीसोख्ता हो गई।

मन के पन्ने सूखे तो फड़फड़ाने लगे। साथ-साथ गुनगुनाने लगा।

पेड़ से टेक लगाकर खड़े दीपांश पर सबसे पहले विश्वमोहन की नज़र पड़ी। वह रिहर्शल देख रहा था और विश्वमोहन उसे। विश्वमोहन ने न जाने उसमें क्या देखा कि रिहर्शल खत्म होते ही, उससे सीधा सवाल किया, ‘मेरे साथ थिएटर में काम करोगे?’

दीपांश के चेहरे पर घोर अनिर्णय छाया था। पर विश्वमोहन की बात ने अंधेरे में अचानक जैसे कुछ चमका दिया जिसे सुनकर वह अपने पैरों पर खड़ा नहीं रह पाया। वहीं घास पर बैठ गया।

विश्वमोहन पारखी आदमी थे। उसे ध्यान से देखते हुए बोले, ‘बाहर से आए लगते हो, लगता है यहाँ रहने का जुगाड़ भी नहीं है। है न? खैर वो भी हो जाएगा, पहले इन सबसे मिलो।’

विश्वमोहन ने एक-एककर उसे इति, शिमोर्ग, रमाकान्त और अन्य सभी से मिलवाया फिर इति से कहा कि वह उसका पता और नम्बर बगैरह नोट कर ले और यदि उसे किसी तरह की मदद की जरूररत हो, तो ज़रा देख ले।

दीपांश को कुछ भी कहने की जरूरत नहीं थी। अज़नबी शहर में भटकते भूखे और बेठिकाना आदमी की शक्ल दूर से ही पहचानी जा सकती है। उसे देखकर ही लग रहा था कि वह शहर में नया है और यहाँ उसके रहने- खाने की कोई व्यवस्था नहीं है।

इति पहले विश्वमोहन के ऐसे त्वरित आदेशों से झुंझला उठती थी पर अब वह इसकी आदि हो चुकी थी। लोगों को ऐसे ही चलते फिरते पहचानना और अपने ग्रुप से जोड़ लेना उनकी स्टाइल थी। इति ने दीपांश के रुकने की व्यवस्था करने के लिए कई फोन किए पर तुरन्त कहीं बात बनी नहीं।

थोड़ी देर में सभी अपनी-अपनी राह चल दिए। दीपांश इति के साथ चलते हुए वहीं आ खड़ा हुआ जहाँ से वह चला था, उसी पीपल के पास। वहाँ अब पक्षियों की आवाज़ नहीं आ रही। ट्रैफिक के शोर के बीच ख़ामोश हो चुका पेड़ उसे बेचैन कर रहा था। वह सिर उठाए उसमें कुछ ढूँढ रहा था। कौन जाने वे चहचहाते पक्षी वहीं ठौर पा गए थे या उड़ गए थे, …कहीं और। अजनबी शहर में, बिना किसी ठौर, रात काटने की चिन्ता दीपांश के मन में भी थी, जो लाख दबाने पर भी रह रहके चेहरे पर आए जा रही थी। उससे उबरने के लिए उसने फिर पीपल की ओर देखा। रोशनी कम थी सो पत्तों के बीच छुपे परिंदों को अलग करके देख पाना कठिन था। इसलिए नज़रें वहाँ से हटाकर चौराहे से निकल के किसी ऑक्टोपस की विशाल भुजाओं-सी चारों तरफ़ फैली सड़कों की ओर घुमा दीं। वे शाम के ट्रेफिक से भरी और सूजी हुई लग रही थीं। उनके भीतर फसी गाड़ियाँ अपनी अलग-अलग तरह की लाइटों और तीखे होर्नो से एक दूसरे पर खोंखिया रही थीं।

इति पर इस सबका कोई खास असर नहीं था। वह अभी भी फोन पर बात किए जा रही थी। बस शोर के कारण उसका स्वर थोड़ा तेज़ हो गया था। जिससे दीपांश भी उसकी बात सुन रहा था और समझ पा रहा था कि उसके रुकने का इस तरह यकायक कहीं इन्तज़ाम करना उसके लिए मुश्किल है और इस काम की वजह से वह लेट होती जा रही है और ऐसा करते हुए वह थोडा झुंझला-सी गई है.

वहीं रमाकान्त पीपल के नीचे, बैंच पर बैठे सिगरेट पी रहे थे। वह थोड़ी देर तक दीपांश और इति की उपस्थिति से अंजान बने रहे फिर इति की ओर देखकर बोले, ‘परेशान मत हो, यह मेरे साथ चला जाएगा।’

इति ने दीपांश की ओर ऐसे देखा मानो कह रही हो कि और कोई चारा भी तो नहीं। रमाकान्त ने दीपांश को इशारे से बैठने के लिए कहा और जेब से एक सिगरेट निकाल कर उसकी ओर बढ़ा दी। दीपांश ने बैन्च पर बैठते हुए न में सिर हिलाया। दोनों ने इति को जाते हुए देखा। उसी समय दीपांश कुछ कहना चाहता था पर कह नहीं सका। जिसने उसे यहाँ बुलाया था वह नहीं मिला, विश्वमोहन जिन्होंने उसे रोका था वह उसे इति के हवाले करके चले गए, कुछ देर में इति भी आँखों से ओझल हो गई। अब वह एक अज़नबी के साथ, किसी अनजानी जगह पर जाने के लिए बैठा था। विश्वमोहन ने रमाकान्त से परिचय कराते हुए बस इतना ही बताया था कि यह हमारे ग्रुप के बहुत टेलेन्टेड और सबसे सीनियर एक्टर हैं। रमाकान्त ने आखिरी कश लेके, सिगरेट बुझाई और खड़े हो गए। बस इतना ही कहा, ‘चलो।’

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