डॉमनिक की वापसी - 30 Vivek Mishra द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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डॉमनिक की वापसी - 30

डॉमनिक की वापसी

(30)

दीपांश के अतीत से निकल कर वर्तमान में आने की कोशिश में, हम शिवपुरी की उस लॉज की कैन्टीन में चुपचाप बैठे थे। रमाकांत चूँकि अस्पताल में ही रुके थे इसलिए कल उनसे बात नहीं हो सकी थी. आज हम लोग जाते ही सबसे पहले उन्हीं से मिलना चाहते थे. लगा कुछ ही समय में विश्वमोहन और शिमोर्ग भी दिल्ली निकलने वाले होंगे. इसलिए हम लोग बिना समय गंवाए अस्पताल की ओर चल पड़े. वहाँ पहुँचे तो पता चला कि डॉक्टर विशेष परीक्षण के लिए आए हुए हैं इसलिए सभी दीपांश के कमरे से बाहर ही बैठे हैं.

हम बाहर निकले तो देखा कि वार्ड के बाहर लॉन में रमाकांत लड़के-लड़कियों से घिरे बैठे थे. हम भी धीरे से उनके पीछे जाकर कुछ इस तरह से बैठ गए कि हमारी उपस्थिति से उनके बोलने में खलल न पड़े.. वह उन्हें नरवर में नई-पुरानी पीढ़ी के, उसकी सोच के अंतर को अपने अनुभव से तोलते हुए कुछ समझाने की कोशिश करते हुए बता रहे थे- ‘ये जो कुछ भी यहाँ जाति और प्रेम के नाम पे चल रहा है. ये एक दिन की बीमारी नहीं है. सीधे-सीधे उन्हें किसी के प्रेम से, किसी के रिश्ते से, किसी की शादी से भी कोई लेना देना नहीं. वे भी इन सब बातों को लेकर उतने ही भ्रमित हैं जितना कि वे दूसरों को बता रहे हैं. दरसल हम जानते तो हैं पर कई बार मानते नहीं कि हम समय को, जीवन को आगे बढ़ने से नहीं रोक सकते, उसे बदलने से नहीं रोक सकते फिर भी पूरी ताक़त लगा देते हैं, उसे रोकने में. कई बार हम अपनी संकीर्णताओं को, स्वार्थों को और सीमाओं को सही ठहराने के लिए उन्हें प्रतिरोध का नाम दे देते हैं. जैसे दूसरी तरफ अपने स्वार्थ और लालच के लिए हर नई चीज़ को प्रगति कह देते हैं.’

‘दादा पुराने लोग ही नहीं कुछ नई पीड़ी के लोग भी इन बातों को लेके बहुत कट्टर हैं’ उत्कर्ष ने कहा.

‘हाँ जब किसी की आँखों पे पट्टी बांध के उसे कहीं लाया जाता है तो समय और स्थान दोनों बदल जाने पर भी उसे पता नहीं चलता कि वह कहाँ आ गया है. हम सदियों से आँखों पे पट्टी बांधे सफ़र कर रहे हैं. इसलिए उन नए लोगों का भी दोष नहीं. हमें वही आँखों पे बंधी पट्टी खोलनी है. कल को आज से बेहतर करने के लिए लड़ना है.’ रमाकांत की भारी होती आवाज़ में उत्साह की बात कहते हुए भी एक हताशा थी. वह रह रहके बहुत बेचैनी से दीपांश के कमरे की तरफ देख रहे थे.

‘दादा मुझे तो लगता है देर सबेर नई पीढी के लोग इन बातों को समझेंगे, .. कुछ समझ भी रहे हैं, पर बड़ों को कौन समझाए. बाहर क्या हम अपने घर में ही अपनी ही बहस में हार जाते हैं..’ निशांत ने कहा.

‘बड़े यथार्थ और उसकी सीमाओं से बंधे हुए हैं और बच्चे सपनों और उनकी संभावनाओं से... दोनों को एक दूसरे की ज़मीन नहीं दिखती. या कहें उन्होंने न देखने की कसम खा रखी है. एक ने यथार्थ से आँखें फेर लीं तो दूसरे ने सपने न देखने और न देखने देने की जिद्द पकड़ ली,.. जिंदगी की परवाज़ के लिए दोनों की दरकार है.. जैसे दो पंख, दो पहिए, दो पैर. पर दो से तो जैसे बैर है यहाँ के लोगों को. चाहते ही नहीं कि एक और एक मिलके दो हों, मेल-जोल हो, लोग जुड़ें, सुख-दुःख बाँटें. ये जो एक और एक दो वाली बात है, अच्छाई की एकजुटता है- ये डराती है- कई लोगों को. हम कहीं भी रहें हमें उसी हठधर्मिता, उसी कट्टरपन से बचना है जो सोचने और मेहसूस करने की शक्ति को दबा देता है, चाहे वह जाति की हो, या धर्म की हो, या फिर बाज़ार की.’ बोलते हुए रमाकांत ने फिर दीपांश के कमरे की तरफ नज़र घुमाई. इस बार उन्होंने हम लोगों को अपने पीछे बैठे हुए देखा.

तभी अस्पताल के मेन गेट से विश्वमोहन की गाड़ी ने भी प्रवेश किया.

रमाकांत अपनी जगह से थोड़ा खिसक कर पीछे घूमकर बैठते हुए बोले, ‘दीपांश के कमरे से उसका कुछ सामान मंगाना है- तुम लोगों ने पुराना गुरुकुल और ‘रिद्धिरंग’- दीपांश के इस ग्रुप का वो कमरा देखा भी नहीं है. वहाँ दीपांश की लिखी कुछ आधी-अधूरी चीज़ें पड़ी हैं जिन्हें मैं तुम लोगों को दिखाना चाहता हूँ.’

‘हाँ, एक बार दीपांश से मिललें फिर हम वहीं जाकर देख लेते हैं.’ अजीत ने जैसे मेरे मन की बात कह दी.

‘तब तो तुम लोगों को जल्दी ही निकलना पड़ेगा नहीं तो वापसी में देर होगी. निशांत तुम्हारे साथ चला जाएगा.’ रमाकांत हमारे हामी भरने से जैसे कुछ निश्चिन्त हो गए. उसके बाद वह फिर उन सभी के प्रश्नों और जिज्ञासाओं की ओर मुड़ गए...

आगे की बात सुनने के लिए मैं, अजीत और निशांत वहां नहीं रुके. दीपांश के कमरे से डॉक्टर को निकलता हुआ देखके हम लोग उसके कमरे की तरफ बढ़ गए. कमरे में विश्वमोहन और शिमोर्ग पहले से बैठे थे। पता चला सीटी स्कैन की रिपोर्ट आ चुकी है। चोट बहुत गहरी है और दिमाग के किसी अन्दरूनी हिस्से में खून का थक्का (ब्लड क्लॉट) बन गया है। इसी वजह से रह-रहकर चक्कर आ रहे हैं। बहुत जल्द ऑपरेशन करना होगा, नहीं तो शरीर के किसी भी अंग में, कभी भी लकवा मारने का, या याददाश्त जाने का खतरा बना रहेगा.

विश्वमोहन ने शायद अपनी बात को आखिरी मानकर, अपने शब्दों पर कुछ अधिक ज़ोर देते हुए कहा, ‘तुम्हें दिल्ली चलना होगा.’

पर उन्हें अपने शब्द हवा में निरर्थक तिरते जान पड़े। इसलिए उनपर वज़न धरते हुए बोले, ‘सब ठीक हो जाएगा। तुम इस तरह अपनी ज़िन्दगी बर्बाद नही कर सकते।’

दीपांश के चेहरे पर दर्द से लड़कर बमुश्किल बाहर आती हँसी फैल गई। उसने जैसे अपने भीतर से कुछ समेटते हुए कहा, ‘मैं नहीं जा सकता। दो लड़के जेल में हैं। उन्हें छुड़ाना है। मेरे अलावा और लोगों को भी चोटें लगी हैं। उनका इलाज कौन कराएगा?’ फिर उसने दरवाज़े से बाहर देखते हुए कहा, ‘यहाँ की अपनी लड़ाई है।’

विश्वमोहन इसबार बौखला गए, ‘वो सब मुझे नहीं पता, मैं सिर्फ़ तुम्हें जानता हूँ और तुम्हें हमारे साथ वापस चलना होगा।’

दीपांश के चेहरे पर पीड़ा के बीच भी एक निश्चय की चमक थी। इस बार वह पूरी दृड़ता से बोला ‘वापस! इसे आप वापस जाना कहते हो? ठीक है मैं आपकी बात मान लेता हूँ, पर एक शर्त है’

विश्व मोहन- ‘बोलो क्या?’

दीपांश- ‘एक बार ‘डॉमनिक की वापसी’ को यहाँ ले आओ। यहाँ इस शहर में उसका मंचन करो।’

विश्वमोहन खीज गए। उनके भीतर की कला का गुणा-भाग जैसे अनायास डगमगा गया, ‘तुम जानते भी हो क्या कह रहे हो, कितना खर्च होता है इसमें, फिर यहाँ कौन देखेगा उसे?’

वह इस पर दीपांश की प्रतिक्रिया के लिए रुके पर फिर जैसे अपने आपको फसते हुए देखकर, सपाट स्वर में बोले ‘ये नहीं हो सकता।’

‘जब आपका डॉमनिक यहाँ नहीं आ सकता तो ये वहाँ कैसे जा सकता है?’ दीपांश ने भी अपना निर्णय सुना दिया।

विश्वमोहन ने उसके जवाब में सिर्फ़ उसके चेहरे को ध्यान से देखा और बिना कुछ कहे, कमरे से बाहर चले गए।

शिमोर्ग विश्वमोहन को बाहर जाते हुए देखकर भी वहीं बैठी रही।

वह जैसे किसी अदृश्य डोर को टूटते हुए देख रही थी। दीपांश ने उसकी ओर ऐसे देखा मानो उसे विदा कर रहा हो। शिमोर्ग ने साँस खींचते हुए पीठ सीधी की और बमुश्किल समेटे गए कुछ शब्दों को गले से बाहर धकेला, ‘तुम नहीं चलोगे?…नहीं चाहते हम साथ काम करें, आगे बढ़ें! आखिर इसमें बुरा क्या है?’

डॉमनिक ने छत की ओर देखते हुए कहा, ‘सफल होना बुरा नहीं पर उसे उसी तरह से बार-बार दोहराने की चाह रखना, उसे पकड़ के रखना, एक काल्पनिक क्षण की चाह में भागे फिरना ठीक नहीं…।’

इस बार बोलते हुए शिमोर्ग का गला भर्रा गया, ‘तुम्हारे बिना उस नाटक में, हम सब में कुछ कमी है, जैसे सब अधूरा है, उसमें जो जादू था वो तुम्हारा था, तुम्हारे बिना उस प्रेम के, उस चाँद के मोहपाश में कोई नहीं बंधता, सब खाली-खाली-सा है, हमारे अभिनय में जैसे वो धार ही नहीं रही।’

दीपांश ने इस बार शिमोर्ग के चेहरे पर आँखें जमाते हुए कहा ‘तुम जहाँ हो वहीं कुछ देर ठहर कर तो देखो, तुम्हारे पास वो सब है जिसके लिए तुम मेरे पास आई हो। मैं सच कहता हूँ, कितना कुछ है जो मैंने तुमसे सीखा है। ‘डॉमनिक की वापसी’ का वो जादू मेरे अकेले का नहीं था। उसमें तुम भी थी। वह हम सबका था। वह उतना ही तुम्हारा भी है जितना मेरा।’

शिमोर्ग ने थोड़ा सहज होते हुए कहा, ‘विश्वमोहन तुम्हारे साथ इस प्ले को बहुत आगे ले जाना चाहते हैं।’

डॉमनिक बिना शिमोर्ग की ओर देखे ऐसे बोला जैसे किसी जाल का आखिरी धागा काटकर स्वतन्त्र हो रहा हो, ‘अच्छा है, ...पर मेरा और उनका डॉमनिक एक जगह आके- एक नहीं रहा, दो में बट गया, एक कला में जीना चाहता था, चाहता था कला सिर्फ कला के लिए हो और दूसरा उसकी डोरी पकड़ के कहीं और चढ़ जाना चाहता था। शायद मैं भी अपनी ही बात न समझ पाता जो किसी ने मेरे हाथों से वो डोर जिससे कहीं और पहुँच जाने की ललक जुड़ी थी उसे छुड़ाकर, इस रास्ते पर न डाल दिया होता। जहाँ कला- ज़िन्दगी का, उसकी लड़ाई का हिस्सा है।’

‘……और मैं! तुमने मुझे माफ़ नहीं किया, … दिल दिमाग़ से निकाल दिया हमेशा के लिए!’

‘ऐसा नहीं है शिमोर्ग। यहाँ आके जब मन में सही-गलत जैसा कुछ भी नहीं रहा तो माफ़ी कैसी, सब अपनी तरह से अपने रास्ते चुनते हैं। अगर तुमने चुना तो मैंने भी तो चुना। शायद जो मुझे सही लगा वह उस समय तुम्हारे हिसाब से बिलकुल गलत रहा हो। हम सबने गलतियाँ करके ही सीखा है। आज भी इसी की लड़ाई है कि बिना किसी का रास्ता रोके, सबको अपना रास्ता चुनने का हक है’ दीपांश की पलकें जल्दी-जल्दी झपकने लगीं।

शिमोर्ग की नीली आँखें गीली हो गईं। रुंधे गले से पूछा, ‘सच बताओ। कभी मुझे याद करते हो?’

दीपांश ने छत की ओर देखते हुए कहा, ‘सब छूट जाने पर भी स्मृतियाँ नहीं छूटतीं, आज मेरे पास यादों के सिवा है ही क्या, ...मन के गहरे में कहीं एक कोटर था जिसे मैंने और तुमने मिलकर बनाया, जिसमें एक समय में सिर्फ़ मैं और तुम थे। फिर एक दिन देखा तुम उसमें नहीं थीं। कोटर तब भी वहीं था, पर खाली। मैंने उसके दरवाज़े कभी बंद नहीं किए। वे हमेशा खुले रहे, तुम जब चाहती आ बैठतीं, जब चाहती चली जातीं। तुम चाहती भी तो यही थीं। कौन जाने, वह कोटर शायद अब भी हो वहीं…।’ लगा बोलते हुए दीपांश का गला सूख रहा था।

तभी एक लड़के ने भीतर आकर किसी गाड़ी के छूटने की अन्तिम सूचना दिए जाने वाले अन्दाज़ में कहा, ‘मेम, विश्वमोहन सर बाहर गाड़ी में आपका इन्तज़ार कर रहे हैं। वह कह रहे हैं ‘देर हो रही है।’’

शिमोर्ग की गीली आँखें छलछला के बह गईं। दीपांश छत से लटके तेज़ी से घूमते पंखे को देख रहा था। शिमोर्ग बिना कुछ कहे कमरे से बाहर आ गई।

कुछ देर तक फर्श पर पड़ते सैन्डिलों की आवाज़ सुनाई देती रही।

दीपांश एक गहरे कुएँ से झाँकती आँखों से दरवाज़ा देखता रहा....

***