'राम का जीवन या जीवन में राम' - एक अवलोकन VIRENDER VEER MEHTA द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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'राम का जीवन या जीवन में राम' - एक अवलोकन

राम का जीवन या जीवन में राम – अनघा जोगलेकर

(एक संक्षिप्त अवलोकन )

साहित्य लेखन में जितना कठिन किसी वास्तविकता से जुड़े विषय पर लिखना होता है, उससे भी कहीं अधिक कठिन होता है किसी ऐतिहासिक या पौराणिक चरित्र पर अपने मन के भावों को कल्पना के साथ समाहित करते हुये लेखन करना। और यदि यह लेखन किसी आस्था से जुड़े विषय पर किया जाए, तो उससे जुड़ी चुनौतीयों का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।

ऐसा ही एक चुनौतीपूर्ण लेखन हुआ है लेखिका अनघा जोगेलेकर की लेखनी से।

अनघा की लिखी पुस्तक "राम का जीवन या जीवन में राम" वास्तव में बाल्मीकि रामायण का ही एक रूप है जिसे लेखिका ने श्रीराम से जुड़े अपने जीवन में सुने और पढ़े भिन्न-भिन्न तथ्यों को एकत्रित करते हुए, अपनी आस्था, तर्कशीलता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से एक शोधपत्र की तरह सामने रखने का प्रयास किया है। यदि भाषा और लेखन शैली की बात करें तो निःसन्देह सुंदर लेखन हुआ है। भाषा सहज ही सरल किंतु साहित्यिक स्तर पर उत्कृष्टता लिये हुए हैं।

राम कथा लिखने के अपने उद्देश्य को लेखिका ने पुस्तक की प्रस्तावना में यथा संभव कहने का प्रयास भी किया है। जिसकी बानगी सहज ही इन पंक्तियों में नजर आती है।

//मुझे ऐसा लगा जैसे वे कह रहे हो, जब तुमने मेरे बारें में लिखने का मन बना ही लिया है तो लिखो अवश्य लिखो..... परन्तु मुझे तुमसे यही कहना हैं कि मुझे.... मानव रूप में प्रस्तुत करो, भगवान रूप में नहीं।//

या फिर

//मुझें....... अर्थात राम को मानव सदियों से पूजता आया हैं,... मुझे मात्र पूजाघर में सीमित कर दिया गया है परंतु मैं चाहता हूं कि जनमानस मेरे जीवन को देखे, समझे और मुझें अपने जीवन मे उतारने का प्रयत्न करें....//

इस पुस्तक का सुंदर पक्ष यह है, कि पुस्तक में हर अध्याय के बाद उससे संबंधित किसी मिथक या संदेश पर एक लेखकीय आहवान किया है और यही आहवान इस पुस्तक को सहज ही एक साधारण पुस्तक या सामान्य राम-कथा से आगे बढ़कर एक 'आदर्श राम-कथा' बना देती है। यह पुस्तक 16 अध्यायों या खण्डों में बांटी गई हैं। राम कथा का प्रारंभ होता है, पृथ्वी या सृष्टि की सरंचना और उसके जन्म की परिकल्पना से और वही इस कथा का अंत भगवान राम की ‘जल समाधि’ के साथ होता है।

प्रथ्वी की सरंचना

पुस्तक का शुभारम्भ होता है पृथ्वी या सृष्टि की सरंचना और उसके जन्म की परिकल्पना से। ये सर्विदित है कि हिंदू पुराणों में तीन आदि देव 'ब्रह्मा-विष्णु-महेश' की परिकल्पना पर ही सभी मुख्य ग्रंथ रचे गये हैं। सृष्टि की रचना, उसके पालन और उसके संहार से भी इन्हीं तीन आदि देवों को जोड़ा गया है। लेखिका की राम कथा में सर्वप्रथम इसी विषय को सामने रखने का प्रयास किया है। उन्होंने सभी आदि शक्तियों और देवों को अपने अति आधुनिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इन्हें किसी अन्य 'लोक' या यूँ कहे कि एक अलग ही 'गैलेक्सी' का निवासी होना दिखाया हैं, जिनके अपने अलग-अलग ग्रह या भू-मंडल हैं। इसी कल्पना के तहत लेखिका ने सृष्टि निर्माण की कल्पना और जल व स्थल आदि का निर्माण दिखाया है जो कुछ-कुछ कल्पना का आभास देते हुए भी, आधुनिक वैज्ञानिक विचारधारा से जुड़ा हुआ लगता है।

हमारे हिंदू धर्म में, अधिकांश देवी-देवताओं के अनगिनित रूपों में उन्हें सामान्य मानव से कुछ अलग ही दिखाया गया है, जिसमें ब्रह्माजी को चार मुख का दिखाना, विष्णुजी को सामान्य रंग से अलग नीले रंग में दिखाना या गणेशा जी को उनकी सूंड के साथ दिखाना सहज ही चर्चित हैं। इस संदर्भ में भी लेखिका की सोच सहज ही वैज्ञानिक दृष्टिकोण लिए हुए है।

राम का प्रथ्वी पर आगमन

सभी हिन्दू पुराणों में श्री राम को, विष्णु अवतार ही माना गया हैं, लेखिका ने भी सहज ही उन्हें इसी रूप में अवतरित होते दर्शाया है लेकिन फिर भी उनके अवतरण के पीछे 'चमत्कारिक रूप से कुछ अलग मानवीय रूप की महत्ता' को दर्शाने का प्रयास अच्छा हुआ हैं। खंड के अंत में लेखिका ने सूर्यवंशी होंते हुई भी श्रीराम द्वारा अपने नाम के साथ 'चन्द्र' लगाने पर अपना विचार अपने आह्वान रूप में प्रकट करते हुए (कि श्री राम अपने नाम के साथ चन्द्र लिखते थे क्योंकि शायद वह इस तरह अपनी माता और उनके कुल को सम्मान देना चाहते थे) आहावान किया हैं कि क्या हमारे पुरूष प्रधान समाज मे कोई इस पंरपरा का पालन करने के लिए अग्रसर या स्त्री के कुल को महत्व देकर उनका सम्मान करने का प्रयास करने का इच्छुक हैं?

ताड़का वध

ताड़का वध रामायण का एक ऐसा प्रसंग है जिसे केवल अधिकांश राम कथाओं में राक्षसी संदर्भ देकर पूर्ति कर दी जाती है, लेकिन लेखिका ने इस अंश में 'राक्षस' शब्द को न केवल एक 'लक्षण' से जोड़ा है बल्कि ये दिखाने का प्रयास किया है कि जब एक मानव, विक्षिप्त मानसिकता के अधीन होकर गलत आचरण का आदि हो जाता है तब वह राक्षस ही कहलाने योग्य होता है, भले ही वह किसी भी जाति या प्रजाति का हो। इसी संदर्भ में लेखिका ने ताड़का के जीवन परिचय से जुड़ा बाल्मीकि रामायण का उद्धाहरण भी दिया है।

खण्ड में दिये गए संदर्भ, "ताड़का के स्त्री होते हुए भी राम द्वारा उसका वध करना" को भी बड़े ही तर्कसंगत तरीके से पुस्तक में उठाया गया है। इसी विषय पर लेखिका ने अपने आहावान में भी प्रश्न उठाया है कि मनुष्य का मन भले ही तमाम बुराइयों (समाज में राक्षस जैसी वृति रखने या करने वाले व्याक्तियों) का विरोध करता है लेकिन क्या इनको नष्ट करने का साहस भी कर पाता हैं?

विश्वामित्र का यघ

पुस्तक के इस खंड में विश्वामित्र द्वारा दोनों अयोध्या कुमारों (राम-लखन) को शस्त्र शिक्षा और धर्मनीति ज्ञान प्रदान करने का चित्रण किया गया है, जो सहज ही बन पड़ा है। हालांकि इस खंड के एक दो दृश्यों में लेखिका का आस्था भाव उनके लेखकीय भाव से आगे निकल गया हैं, जहां उन्होंने 'राम' को 'विश्वमित्र' से अधिक मान दिया है। मेरी निजी सोच के अनुसार भले ही गुरु विश्वामित्र 'श्री राम' को ईश्वरीय अवतार के रूप में देखते थे, लेकिन वस्तुतः शिक्षा देने के घटनाक्रम में राम सहज ही एक शिष्य थे। और ऐसे घटनाक्रम में गुरु की अपेक्षा शिष्य को मान देना थोडा असहज लगता है। बरहाल इस खंड में यज्ञ की प्रक्रिया और उसके महत्व पर दिया गया विवरण बहुत ही दिलचस्प हुआ है, जो लेखिका द्वारा धार्मिक संकल्पनाओं तथा वैज्ञानिक संदर्भों की सहायता से बताया गया हैं। अपने आह्वान के अंतर्गत इस खंड में लेखिका ने सहज ही एक प्रश्न किया कि जिस तरह राम ने अपने पिता और अपने गुरु को आराध्य मानकर अपना धर्म सेवा के रूप में स्वीकार किया हैं क्या आज की पीढ़ी अपने माता-पिता अथवा अपने शिक्षकों के प्रति ऐसी भावना रखती हैं?

अहिल्या का पुनर्वसन

अहिल्या का उद्धार और उससे जुड़े मिथक में से अधिकांश में अहिल्या को पत्थर या पाषाण प्रतिमाँ के रूप में ही दिखाया गया है, लेकिन यहाँ लेखिका का उसको तार्किक और सामाजिक दृष्टि से सामने रखने का प्रयास हुआ हैं। ये सर्वविदित है कि 'बलात्कार' और जबरन दुराचार जैसी स्थति में नारी शारीरिक रूप से तो आहत होती ही है लेकिन उससे भी कहीं अधिक वह मानसिक रूप से आहत होती है। नारी की उसी स्थिति को पाषाण रुप में परिवर्तित होने अहसास दिलाया गया है इस पुस्तक में.. जहां नारी जीवित है, और दैनिक क्रियाओं में सलग्न होते हए भी भावनाएँ और इच्छाओं से पूर्णतय मृत हो कार वह एक 'पाषाण' जैसी स्थिति में आ जाती है। लेखिका के शब्दों में श्री राम द्वारा दिखाई गयी एक अभिवयक्ति देखते ही बनती हैं......

“मन की कथा, तन की व्यथा

कैसी है दशा इस नारी की,

प्रखर हैं स्वयं वह अग्नि-सी

पर दाह का दर्द सहती-सी,

जगतजननी है, जगत पालिनी

फिर भी अपमान सहती-सी?”

कथा में विशेषत: यह दिखाने का प्रयास हुआ कि श्री राम ने न केवल अहिल्या को पाषाण-मुक्त (पत्थर हो चुकी नारी में आत्म विश्वास जगाया) कर उसे समाज और उसके परिवार में सम्मान दिलाने का प्रयास किया बल्कि दोषी इंद्र को सजा देने का संकल्प भी दोहराया। इसी संदर्भ में लेखिका का आहावन भी हुआ हैं कि हम में से कितने लोग अपने अंदर बसे राम को जाग्रत कर, ऐसे कृत्य के विरुद्ध खड़े हो पाते है या समाज को आंदोलित कर पाते हैं!

सीता स्वयंवर

इस अंश में लेखिका द्वारा वर्णित, शिव-धनुष का वैज्ञानिक दृष्टिकोण बहुत ही सुंदर और आकर्षक बना है, भले ही उसकी सत्यता से कोई सहमत हो पाए या नहीं। शिव-धनुष में परमाणु अस्त्र की कल्पना शायद लेखिका के अपने 'प्रोफेशन' से ही कहीं निकल कर आई है, जिसे सिरे से तो नकारा ही नहीं जा सकता क्यूंकि यदि हम वर्तमान-विज्ञान की बात छोड़ भी छोड़ दे तो भी द्वितीय विश्वयुद्ध में हम परमाणु का उपयोग अस्त्रों में भली भांति देख चुके हैं।

वैसे सीता स्वयंवर के इस खंड में लेखिका का पूरा ध्यान इस बात पर केन्द्रित रहा कि किस तरह सीता के कुल का ज्ञात न होने पर भी, न केवल राजा जनक ने उसे अपनी पुत्री के रूप में स्वीकार किया वरन राम द्वारा सब कुछ जानने के बाद भी सहज ही उसको अपनी अर्धांग्नी के रूप में स्वीकार किया। हालांकि इस अंश में लेखिका के कहे कुछ शब्दों से मैं निजि तौर पर सहमत नहीं हूँ, जहां विश्वमित्र राम को, सीता के स्वयंवर के बारे में बताते हुए कहते हैं।..... “राम, सीता को चयन का अधिकार नहीं है जिस दिन उसके जन्म पर प्रश्नचिन्ह लगाया गया, उसी दिन उसकी अपने योग्य पति के चयन की स्वंत्रता भी समाप्त हो गई।” (कहीं न कहीं विरोधभास ही लगा)

स्वयंवर एक ऐसी प्रक्रिया थी जिसमें उस विशेष शस्त्र 'धनुष' को चलाने पर ही सीता द्वारा विजेता को स्वीकार करना बताया गया हैं। जाहिर हैं रामकथाओं में, इस संदर्भ में सीता की इच्छा को भी सहज ही दर्शाया गया है। दूसरी बात, स्वयंवर में आने वाले बड़े-बड़े राजाओं की भागीदारी (यहाँ तक कि कुछ कथाओं में रावण की भागीदारी भी) इस बात की घोतक थी कि सीता के अज्ञात कुल का होना कोई विशेष अवरोध या हीन नहीं माना गया था। बरहाल लेखिका के इस अंश के लिए दिये गए आहावान कि जब उस काल में अनाथ और अज्ञात कुल की सीता के लिये जनक और राम जैसे यशस्वी पुरुष आगे आ सकते थे तो आज के आधुनिक समाज मे ऐसे लोगों की संख्या नगण्य क्यूं होती जा रही है? क्या हम में से कोई ऐसा साहस नहीं कर पाता हैं?

राम का वनवास

महाराज दशरथ की तीसरी पत्नी, कैकेयी द्वारा राम का वनवास सहज ही रामायण के विवादित तथ्यों में रहा है। एक स्त्री या एक माता के रूप में उसके चरित्र को क्रमशः हठी स्वाभाव का चित्रण लगभग सभी राम कथाओं में एक समान दिखाया गया है। यहाँ इस पुस्तक में लेखिका द्वारा, पृथ्वी पर फैली राक्षस प्रजाति को समाप्त करने के लिए तत्कालीन ऋषि विश्वामित्र का कैकेयी को साथ लेकर राम के वनवास को एक सुनियोजित योजना का अंग दिखाना, सहज ही कैकेयी की उस छवि को साफ़ करने का प्रयत्न करता है जिसके लिए वह प्रारम्भ से जानी जाती रही हैं।

श्री राम पर वनवास की आज्ञा सुनने के बाद हुयी प्रतिक्रिया, और उनके प्रत्युतर को लेखिका ने अपने काव्यात्मक शब्दों में बहुत सुंदरता से रचा है.....

"मां,.. तू न इतना क्रोध कर

अब थोड़ा सा तो धीर धर,

मुझे बस वन ही जाना हैं

अपने पुत्र पर विश्वास कर,

बस एक विनती है तुझसे मां

मेरे भरत का तू ध्यान रख।“

खंड के अंत में, अपने आहावान में भी लेखिका ने यही बताना चाहा हैं कि जब मां अपने बच्चों के लिये कठोर बन के कोई निर्णय लेती है तो जरूरी नहीं कि उसके पीछे कोई दुर्भावना ही हो, बल्कि बच्चों द्वारा उसमें छिपे भाव को समझते हुए माँ को सम्मान देने का प्रयास होना ही चाहिए।

केवट का सम्मान

इस खंड में वनवास के प्रारम्भिक दौर में निषादराज गुह के राम-सीता-लखन को अपने यहां आश्रय देने के प्रयास में असफल होने का बाद केवट का प्रसंग आता है, जिस में अधिकांश राम कथाओं में केवट द्वारा उन्हें अपनी नाव में न बैठाने को लेकर ही दृश्य बुना गया हैं। यहां लेखिका ने सहज ही इसके मूल में 'जाति भेद' को चिन्हित करते हुए अपने आह्वान में ये प्रश्न भी उठाया हैं कि आखिर जिस राम को हम अपना आराध्य मानते हैं, क्या उनके जीवन आदर्शों के अनुरूप हम अपने दैनिक जीवन में निम्नवर्गीय (घरेलू काम वाले या अन्य कामगर) लोगों को सम्मान दे पातें हैं?

चित्रकूट और राम का सैन्य संघटन

चित्रकूट और राम का सैन्य संघटन, इन दोनों ही खंडों में लेखिका ने अपनी काल्पनिक शक्ति का उपयोग करते हुई राम वनवास के प्रारम्भिक दौर का बहुत सुंदरता से वर्णन किया हैं। चाहे वह भरत द्वारा भाई राम को लौटा न पाने की स्थिति में उनकी चरण-पादुका (खड़ाऊ) लेकर वापिस जाने का प्रसंग हो या वनवास के दौरान वन में रहने वाले नागरिकों को शस्त्र शिक्षा के साथ उन्हें आत्मसम्मान से जीने के लिये प्रेरित करने का प्रसंग हो।

वनवास के दौरान अपनी रक्षा के लिए दोनों भाई (राम-लक्ष्मण) अपने साथ 'शस्त्र' लेकर गये थे या उन्होंने इसका निर्माण अपने वन-प्रवास के दौरान किया। यह विषय चर्चा के लिए काफी दिलचस्प हो सकता है, बरहाल लेखिका के अनुसार न केवल राम अपने साथ अस्त्र-शस्त्र लेकर गये थे, बल्कि वन में रहने के दौरान उन्होंने वन में रहने वाले साधारण जन सामान्य के लिए शस्त्रों का निर्माण भी किया था। इसी प्रक्रिया में उन्होंने राक्षसों के साथ एक सैन्य संघटन भी बनाया था। ( हालांकि अधिकांश राम कथाओं में, वन प्रवास के दौरान राम-लक्ष्मण और सीता के अतिरिक्त किसी और का उनके साथ दिखाया जाना बहुत ही कम नजर आता है।) इस संदर्भ में लेखिका की यह कल्पना विचारणीय भी हैं क्यूंकि वनवास के दौरान इतने वर्ष नितांत निर्झर लेकिन 'सुंदर' वन में उनका अकेले होना असामान्य सा लगता है। इसी संदर्भ में लेखिका ने वनवास के दौरान दोनों भाइयों द्वारा एक काल्पनिक पात्र ‘विलोम’ की रचना और उसके समूह की स्त्रियों को भी आत्मरक्षा के प्रति सचेत होने और अस्त्र शिक्षा का ज्ञान देते हुए दिखाया है, जो उस समय के सामजिक ढांचे, विशेषकर आदिवासी प्रजाति के परिपेक्ष में दिलचस्प होते हुए भी थोडा असहज लगता है। हां आज के स्त्री दृष्टिकोण से भले ही यह लेखिका की ओर से आत्मसंतुष्टि का कारण दिखाई देता लगता हों।

खरदूषण का वध

इस खंड में वर्णित, शूर्पणखा का राम पर मोहित होना और उसके घायल होने के बाद 'खर' और 'दूषण' का युद्ध एवं उनके वध का पूरा प्रसंग इस पुस्तक का सबसे सामान्य खंड लगा। इसमें ऐसा कुछ नहीं लगा जिसे कहा जा सके कि यहां कुछ विशेष कहने का प्रयास रहा। बरहाल इस खंड में ‘खर’ के 12 सेनापतियों के बारें में जानना दिलचस्प होगा, जिसके संदर्भ में लेखिका ने युद्धिष्ठर-भीष्म वार्तालाप का वर्णन करते हुए बताया हैं कि ब्राह्मण 'यज्ञवल्क्य' के 3 पुत्र और12 शिष्यों को भगवान् शिव के श्राप स्वरूप राक्षस कुल में खर, दूषण और त्रिशिरा तथा उनके सैनिकों के रूप में जन्म लेना पड़ा था।

सीता हरण

लगभग सभी राम कथाओं में 'सीता हरण' प्रसंग में मारीच का वर्णन और उसका राम को भ्रमित करके आश्रम से दूर लेकर जाना बहुत दिलचस्प माना जाता रहा हैं। लेखिका का यहां मारीच को एक छोटा-मोटा जादूगर दिखाना और सोने की खान के वर्णन के साथ राम को अपनी माया में उलझा कर आश्रम से दूर ले जाने का प्रसंग बहुत ही दिलचस्प और वास्तविकता के करीब लगने वाला बना हैं। हालांकि जिस स्थान पर आश्रम और सीता हरण का प्रसंग घटित हुआ माना जाता है, वहां या आसपास सोने की खदानों का पाया जाना सहज सुलभ नहीं हैं। उस समय की स्थिति या या आश्रम के वास्तविक स्थान से जुडी भ्रांतियों पर सहमति-असहमति अवश्य हो सकती हैं। बरहाल खंड के अंत में लेखिका का आहावान कि 'श्री राम ने तो मायावी मारीच को अंत में पहचान कर दंडित कर ही दिया लेकिन क्या हम वर्तमान के मायावी और धोखबाज 'मारिचों' को पहचान पातें हैं, या दंडित कर पातें हैं?' बहुत सुंदर हुआ हैं।

सीता की खोज

इस खंड के मुख्य आकर्षण में 'हनुमान और राम' का मिलन तथा सीता की खोज हैं। अधिकांश राम कथाओं में हनुमान जी का राम से मिलन एक पूर्वनियोजित घटना और बाल्यकाल में ही इसका प्रथम मेल होना दिखाया गया है, जो स्वाभाविक नहीं लगता। लेखिका ने अपनी कथा में, सीताहरण के पश्चात उसकी खोज के दौरान राम-लक्ष्मण का प्रथम परिचय हनुमान से पंचवटी से दक्षिण दिशा की ओर जाते समय ऋषिमुख पर दिखाया, जो स्वाभाविक लगता है। अब यह सत्य है या मिथ्या, वह एक अलग बात है।

इसी प्रसंग में आगे लेखिका ने सीता के आभूषणों को घास के बने होना दिखाया है। ऐसा शायद लेखिका ने इस लिए दिखाना चाहा हैं कि वनवास के दौरान सीता-राम और लक्ष्मण द्वारा 'सब कुछ' त्यागने के बाद तपस्वी-जीवन जीने का प्रण लिया था। यह धारणा कुछ तर्कसंगत तो लगती है लेकिन व्यवहारिक तौर पर घास के आभूषणों का जंगल में हनुमान द्वारा पा लेना और राम द्वारा सहज ही उन्हें पहचान लेना कुछ सही नहीं लगता। इनके स्थान पर लेखिका लकड़ी या ऐसी ही अन्य किसी वस्तु का विकल्प ले सकती थी।

सीता की खोज के दौरान भेजे गए वानर के दल में हनुमान और उनके साथियों के सागर तक पहुँचने के प्रसंग में, हनुमान का सागर को तैर कर लंका की ओर जाने के वर्णन में पूरी तरह लेखिका ने अपनी आस्था से आगे बढ़कर अपनी तर्कशीलता का प्रयोग किया हैं। कमोबेश सभी हनुमान से जुडी सभी कथाओं में हनुमान जी के बचपन से उड़ने और सूर्य पकड़ने की बात पढ़ने में आती है। ऐसे में आस्था से हटकर लेखिका का ये आकलन कि हनुमान जी ने अपनी प्रजाति के ‘विशेष गुण’ के साथ सागर की गहराई में स्थित बड़े-बड़े चट्टानी पत्थरों की सहायता से सागर पार करने के दुर्गम कार्य को किया, वास्तविकता से दूर नहीं लगता। इसी खंड में आगे, अशोक वाटिका में हनुमान और सीता का वार्तालाप एवं अशोक वाटिका का विन्ध्वंस और लंका-दहन जैसे वर्णन को भी लेखिका ने सीमित किन्तु सटीक शब्दों में दर्शाने का प्रयत्न किया हैं। इस खंड के आहवान में लेखिका ने हनुमान जैसे सच्चे मित्र होने या उन्हें सहेजकर रखने की प्रेरणा देने का प्रयास करना चाहा हैं।

सेतु निर्माण

राम कथा का यह खंड पूरी तरह से सेतु निर्माण पर आधारित है। ऐसा माना गया है कि राम सेतु का निर्माण उस काल के प्रख्यात विशेषज्ञ 'नल-नील' के द्वारा दिए गये निर्देशों पर हुआ था। इस सन्दर्भ लेखिका ने राम सेतु के निर्माण में विशेष तौर पर सागवान की लकड़ी का वर्णन किया है, जबकि इस विषय से जुड़ी अधिकांश पुस्तकों में 'पत्थरों' का ही वर्णन रहा है। लेकिन अभी पीछे हाल ही में हुयी कुछ खोजों पर गौर किया जाए तो उनके आधार पर सेतु में प्रयुक्त पत्थरों को तैरने की प्रवर्ती के चलते स्पष्ट रूप से चट्टानी पत्थरों में नहीं माना गया हैं। इसलिए माना जा सकता हैं कि उस काल में कुछ इस प्रकार के पर्वत वहां रहे हो। बरहाल यहाँ ये कहना तर्कसंगत ही होगा कि पत्थरों के साथ उस में 'सागवान' का भी प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया गया हो जो कालांतर में समय के साथ-साथ जल प्रवाह में ओझल हो गए हों। लेखिका की धारणा यहाँ इस लिए भी सटीक कही जा सकती है क्यूंकि उस युग में 'इस क्षेत्र विशेष में' सागोन के वन बहुतायात में पाये जाते थे।

इस खंड के आहावान में लेखिका ने नल-नील को प्रेरक मानते हुए कहना चाहा है कि क्यों नहीं मनुष्य भी अपने मन के नल और नील जैसे ज्ञान विचारों से समाज को एक नई दिशा देने का प्रयास करते, ये काफी प्रेरक बना है।

लंका विजय

यह खंड विशेषतौर पर राम कथाओं में काफी विस्तृत माना जाता है, लेकिन लेखिका ने 'राम-रावण' के बीच के युद्ध को जिस तरह बहुत कम शब्दों में व्यक्त किया है, उससे यह अंश बहुत अधिक प्रभावी नहीं बन सका है। हालांकि ये निश्चित नहीं है कि इसके पीछे पुस्तक को और अधिक विस्तार न देने की कोई मंशा रही है लेखिका की, या युद्ध के दौरान होने वाले अधिकांश चमत्कारी घटनाक्रमों के साथ वह अपनी सहमति नहीं बना पायी। बरहाल इसमें एक विशेष बिंदू जिसे उन्होंने छु कर छोड़ दिया है, वह है, रावण की नाभि में अमृत का होना। जिस पर उनके किसी वैज्ञानिक दृष्टिकोण का जानना अवश्य ही दिलचस्प रहता।

इस खंड के आहावन में लेखिका ने सहज ही आज के साधारण मनुष्य को, राम की मानवीय शक्ति की तरह मानव को भी रावण के दस सिर रूपी बुराइयों की तुलना करते हुए उन बुराईयों को नष्ट करने के विशेषतौर पर प्रेरित किया हैं

सीता परित्याग

ये एक बहुत ही दिलचस्प तथ्य है कि राम कथाओं में हिंदी में रचित सबसे अधिक प्रचलित पुस्तक राम चरित्रमानस में सीता त्याग का खंड तुलसीदास जी ने रचा ही नहीं था, क्योंकि वह मानते थे कि उनके राम इतने कठोर हो ही नहीं सकते कि वह सीता मैया का त्याग कर सके। ऐसा ही कुछ इस खंड में लेखिका की भावनाओं से अनुभव होता हैं।

अयोध्या लौटने और राम-राज्य की स्थापना के दौरान ही वह घटना घटी जिसमें धोबी-प्रकरण के बात सीता को वन जाना पड़ा और बाल्मीकि के आश्रम में ही शेष समय बिताना पड़ा। लेखिका ने अपने इस खंड में इस पूरे प्रकरण में सारा घटनक्रम स्वयं सीता की इच्छा से होना दर्शाया हैं और अंत में अश्वमेघ के बाद सीता और राम के मिलन के समय एक भूकंपीय घटना के साथ सीता का भूमि में समा जाना दिखाया हैं। हालांकि लेखिका के विचारों से सहमत-असहमत होना सभी का अपना निजि अधिकार हैं फिर भी मैं यही कहना चाहूंगा कि 'राजा राम' और 'सीता के राम' दोनों के अपने अलग-अलग कर्तव्य थे, जिसमें 'राजा राम' एक आदर्श राज्य की स्थापना में सफल हो गए थे लेकिन अपनी सीता के प्रति कर्तव्य में चूक गए थे।

राम के सरयू नदी में जल समाधि के साथ ही इस पुस्तक की समाप्ति होती है और अपने अंतिम आहावान में लेखिका हर पाठक से पूछना चाहती हैं कि क्या मात्र तिलक लगा लेने या राम की पूजा करने से ही हमारी भक्ति पूर्ण हो जाती है या राम के आदर्शों का अनुसरण करने का प्रयास भी हमारे जीवन में होना चाहिए।

कुल मिलकर यदि कुछ शब्दों में कहा जाए तो लेखिका ने अपनी इस पुस्तक में श्रीराम के ईश्वरीय रूप की अपेक्षा एक मानव रूप को दर्शाने का प्रयास करते हुए, उनके जीवन से उद्घटित सकारत्मक गुणों को आम जनसाधारण के बीच बतौर प्रेरणा बांटने का सद्दकार्य किया हैं। लेखिका द्वारा ही रचित कविता पाठ के साथ ही मैं अपनी लेखनी को विश्राम देता हूँ।

चौड़ा सीना, ऊँचा मस्तक,

चाहे तो शिव का तांडव कर,

गर शक्ति है तेरी बाँहों में तो...

जन-जन का तू रक्षण कर।

हुंकार, सिंह-सा गर्जन कर,

अजानबाहु-सा ध्यान कर,

है ऊष्मा तेरे रक्त में तो...

इस भ्रष्ट समाज को नष्ट कर,

एक नए समाज का सृजन कर।

बस पाने की ही चाह रखी,

बस लेने में जीवन बीता,

कभी तो दानवीर कर्ण बन,

न सही अपने कवच-कुंडल..

अहंकार का तो दान कर।

भीम सी हुंकार भर,

गांडीव की टंकार कर,

कृष्ण का सुदर्शन चक्र बन,

द्रौपती-सा चीत्कार कर,

ना सही राम सा मर्यादित..

कम से कम पुरषोंत्तम बन।

विरेंदर ‘वीर’ मेहता