मर्दानी आँख Pritpal Kaur द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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मर्दानी आँख

मर्दानी आँख

हलके गुलाबी रंग के कुरते में गहरे रंग की प्रिन्ट दार पाइपिंग से सजी किनारी वाली कुर्ती उसकी गोरी रंगत पर फब रही थी. उसके चेहरे पर मासूमियत की गुन्जायिश तो कम थी लेकिन चालाकी का दंश अभी उसके दिल को पूरी तरह लपेट नहीं पाया था ये उसकी उथली आँखें और उनमें लगा ऑय लाइनर दोनों बखूबी बयां कर रहे थे.

हाथों और बाजुओं पर हलके हलके छोटे छोटे रोयें साफ़ नज़र आ रहे थे. जिसका अर्थ था अब जल्दी ही वह वैक्सिंग करवाने जायेगी. दरअसल इस वक़्त उसके दिमाग में यही उधेड़बुन चल रही थी. आज मंगलवार था. दफ्तर से निकलते निकलते सात बज जायेंगे. फिर मेट्रो की धक्का मुक्की, उसके बाद आधा घंटा ऑटो में सिकुड़ के बैठना और आस पास बैठे लोगों के पसीने की गंध को झेलना, उनकी नज़रों से बचना और तब जा कर घर का मुंह देखना नसीब होता था.

घर जा कर भी कौन सा चैन था? माँ इंतजार में रहती कि बेटी आये तो खाना परोस कर आराम करे. दिन भर की तकलीफों का चिटठा बयान करे. हमदर्दी की चाह उसमें कूट कूट कर भरी थी, जिसके चलते वह अपनी तकलीफों को कुछ बढ़ा चढ़ा कर बताती भी थी.

पिता अरसे से अपने आप में मस्त ज़िन्दगी बिता रहे थे. न ज्यादा बोलते, न ज्यादा सुनते. जो दिया जाता खा लेते. यहाँ तक कि खाना देर से मिले तो भी शुक्रिया अदा करते कि मिल गया और चुप-चाप खा कर एक कोने में पड़े रहते. अपनी दवा दारू का ख्याल खुद रखते.

माँ को तकलीफ न देने की भरसक कोशिश करते लेकिन माँ को कौन मनाये? माँ कही न कहीं कुछ न कुछ ढूंढ ही लेती और घर में उसके आने और खाना खा लेने के बाद अक्सर एक घमासान छिड़ जाता.

हालाँकि इस घमासान में बाप बेटी बहुत कम हिस्सा लेते लेकिन घमासान भरपूर होता. माँ अकेली ही इसके लगभग सभी किरदार निभा ले जाती. उन्हें ये शिकायत भी रहती कि वह इसमें हिस्सा नहीं लेती थी. बाप ने यो भी ज़िन्दगी भर उनकी इस हसरत को पूरा नहीं किया था अब बेटी भी जा कर बाप के ही पलड़े में बैठ गयी थी. इस पर वह खासा नाराज़ रहती.

घर का माहौल कुल मिला कर बेहद दमघोटू था. कई बार उसका दिल करता कि घर लौटे ही नहीं. पर घर तो लौटना ही था. बुढ़ापे में माँ बाप को कैसे छोड़ देती? कई बार दिल किया शादी ही कर ले. किसी के भी साथ. लेकिन फिर जब लोगों की शादियों के किस्से सुनती थी तो हिम्मत जवाब दे जाती. लगता कि अपने माँ बाप के मिजाज़ का तो पता हैं इन्हीं को क्यूँ न झेल लिया जाए. नया स्यापा क्यूँ पला जाये? देखा जाये तो सिर्फ माँ को ही झेलना होता था. पिता तो खुद को खुद ही झेल लिया करते हैं.

इन सारी उलझनों के बीच जब कभी रास्ते में, मेट्रो में या ऑटो में कोई छेड़खानी कर बैठता या घूरता या फिर और कोई इसलिए उसके साथ बत्तमीजी करता कि वह एक जवान औरत थी, उसका खून उबाल खाने लगते. लगता ज़िन्दगी ऐसी खूंखार क्यूँ है?

अक्सर सोचती कि क्या कोई भगवान् वाकई है कहीं? अगर है तो क्या उसको इस दुनिया का हाल नज़र नहीं आता? फिर सिर को एक झटका दे कर इस ख्याल को बाहर निकाल फेंकती. वजह कि इससे क्या होना है? होना वही है जो हो रहा है.

आज भी यही ख्याल दिमाग में लिए जब मेट्रो स्टेशन पर आ कर खडी हुयी तो उसकी गोरी रंगत पर उसका गुलाबी कमीज़ कुछ शोख अदा से चमक उठा था. अक्टूबर की डूबती हुयी पीली सोने जैसी धूप उसे दिलकश ढंग से खूबसूरत दिखा रही थी. उसके अलावा आज वह खुश भी थी. दफ्तर में उसकी प्रमोशन को लेकर अटकलें चल रही थी. बात उस तक पहुंच ही गयी थी और दिल जोश से भरा था, आँखों में हमेशा रहने वाली उदासी हलकी हो गयी थी, चेहरे पर मुस्कान की हल्की सी पहचान उभर आयी थी. जिसने उसकी जवान देह को और आकर्षक बना दिया था.

एक ट्रेन उसके स्टेशन के अन्दर आते आते सामने से निकल गयी थी. अब उसे नौ मिनट और इंतजार करना था. अगली ट्रेन के आने का. राजीव चौक के भीड़ भाड़ से भरे अंडरग्राउंड स्टेशन पर वह भी सैंकड़ों दूसरे लोगों की तरह प्लेटफार्म पर खडी हो गयी. अपने आप में गुम. अपने ग़मों. अपनी खुशियों के बियाबान में और दुनिया भर के कोलाहल में डूबी.

थोड़ी देर में उसे एक सुगबुगाता सा एहसास हुआ. लगा उसकी त्वचा को किसी लिजलिजी सी चीज़ ने छू लिया है. एहसास सटीक था लेकिन इतना तीखा नहीं था कि वह हाथ से झटका कर उस लिजलिजी चीज़ को खुद से अलग कर दे. वह लिजलिजी सी चीज़ उसकी त्वचा को बिना छुए भेद रही थी.

उसने उस लिजलिजाहट को अपने बाजुओं पर महसूस किया. फिर वह चीज़ ऊपर खिसकी और धप्प से उसकी क्लीवेज पर आ गिरी. उसने झुक कर अपनी क्लीवेज पर नज़र फेंकी तो वहां सिर्फ उसकी गुलाबी कमीज़ से टकरा कर गिरी ज़रा सी नशीली रोशनी के सिवा कुछ नज़र नहीं आया. लेकिन नज़र हटाते ही फिर उसी लिजलिजी उकताहट ने उसे झटका दिया.

अबकी बार उसने अपनी नज़रों का विस्तार फैलाया तो चोर सामने ही नज़र आ गया. सफ़ेद कमीज़ और नीली जीन्स की मालिक वह एक मर्दानी आँख थी जो उसकी क्लीवेज की बखिया उधेड़ने को आतुर मंद मंद मुस्कुरा रही थी.

उसे ताव आ गया. कठोर आवाज़ में थोडा ज़हर भर कर उसने पूछा, “ हे, हेल्लो. क्या बात है? क्या प्रॉब्लम है?”

“प्रॉब्लम? नो प्रोब्ल्म मैडम. आप को कोई प्रॉब्लम है क्या?” स्वर के साथ साथ मिजाज़ और शक्सियत सभी कुछ उज्जडता की सीमा पर खड़े थे.

“इधर क्या देख रहे हो?”

“जो आप दिखा रही हो. मैडम.”

“क्या मतलब है तुम्हारा?” उसकी बेबाकी और ढीठ लहजे से उसके आत्म-सम्मान को कड़ी चोट लगी.

“क्या दिखा रही हूँ?”

" क्लीवेज "

"बत्तमीज़ आदमी. तुम नज़र हटाओ इधर से" उसके तन बदन में आग ही लग गयी मानो.

"क्यूँ हटाऊं?"

"मैं तुम्हारे देखने के लिए नहीं बनी हूँ."

"तो छिपा के रखो"

"क्या मतलब है तुम्हारा? "

"आप सज धज कर बाहर निकलेंगी , यूँ जगह जगह घूमेंगी तो हम तो देखेंगे ही. "

"यानी? तुम कहना क्या चाहते हो?

"अरे मैडम. मर्दों का काम ही औरतों को निहारना है. अब अगर हम आप को नहीं देखेंगे तो आप को बुरा नहीं लगेगा?"

उसका दिल किया एक कस के चांटा उसको रसीद करे . लेकिन ज़ब्त कर के रह गयी.

"हेल्ल्लो! हम तुम्हारे लिए बाहर नहीं निकलते. हम खुद के लिए बाहर निकलते हैं. अपने काम के लिए ."

"अजी रहने दो. तुम क्यों काम के लिए निकलोगे. सारे काम तो हम मर्द करते हैं. "

अब उसे लगने लगा था कि वार्तालाप उसके और उस बेवकूफ और ढीठ मर्द के बीच नहीं बल्कि उसकी क्लीवेज और उस नामुराद मर्द की अश्लील आँखों के बीच चल रहा था.

"मर्द और काम? कौन सा काम है जो तुम करते हो आज के दौर में? सारे काम तो औरतों के जिम्मे डाल रखे हैं. "

"अरे रहने दो. कौन सा काम है जो मर्द नहीं करते और औरतें करती हैं? चलो तुम गिनाओ.. एक एक कर के."

"गिनो. नंबर एक.... घर कौन संभालता है?"

" निस्संदेह औरतें संभालती हैं. ठीक भी है. घर में रहो और घर संभालो, औरतों. बाहर क्यूँ निकलती हो?"

"निकलना पड़ता है. तुम मर्द लोगों ने इतनी ज़िम्मेदारी हम पर डाल दी है.... बिल कौन जमा करवाएगा? बाज़ार कौन करेगा? बच्चों के स्कूल, डॉक्टर, ये कौन करेगा?"

"अजी ये तो बड़े आसान काम हैं. चुटकी में हो जाते हैं. तुम बताओ पैसा कौन कमाता है? मर्द ही न. "

"अच्छा. देखो इनका वहम! पैसा कमाने की ज़िम्मेदारी भी औरतों पर ही डाल दी है तुम नामर्द मर्दों ने. मर्द बनते हो तो औरत को घर बिठा कर ऐश भी करवाओ."

एक बारगी उसे लगा उसने उस ढीठ शख्स को करारा जवाव दे दिया है. लकिन वह मनहूस कहाँ मानने वाला था. तुनक कर बोला." अरे छोडो. तुम्हारी ख्वाहिशे ही इतनी ऊंची हैं. हमारी कमाई से तुम्हारा पेट नहीं भरता. "

"तो ज्यादा कमाओ. पहले तो बड़े सब्ज़ बाग़ दिखाते हो. जब कमाने के लिए काम करने की बात आती है. तो पल्ला झाड लेते हो कि हमारे बस का नहीं, खुद कमाओ. जब हमें कमाना खुद है सब खुद करना है तो हम पर धौंस किस बात की जमाते हो?"

अब वह थोडा सहमा सा लगा. समझ गया यह औरत सिर्फ क्लीवेज नहीं. उसके ऊपर और उसके नीचे भी पूरी एक औरत है जो इंसान के भेस में आज आ टकराई है. इस सच से कैसे इनकार करता कि दुनिया में पैसे का ही तो सारा खेल है. कौन सा काम है जो पैसे के बिना होता है. आदमी सो कर उठता है तो पैसे का मीटर घूमने लगता है. जो सोने के दौरान भी घूमता ही रहता है. पैदा होता है तो हॉस्पिटल का बिल और मरता है तो अंतिम संस्कार का बिल.

" अरे यार! हम तुम को चाहते हैं. इसलिए आज़ादी देते हैं."

"हाँ, हाँ! आजादी देते हो. ताकि हमें जब जी चाहे जहाँ चाहे नोच सको. अपने दिमाग की सोच दुरुस्त करो फिर हम मानेंगे कि तुम कुछ भला करते हो हम औरतों का"

"अजी आप भी क्या बात ले कर बैठ गयीं. हम आप को देख कर आँखें सेंक लेते हैं और आप भले की बात करती हो. भला किसका हुआ है आज तक इस दुनिया में ?"

"तो फिर तुम लोग इस भलमनसाहत की बात क्यूँ करते हो? हिपोक्रेट कहीं के? "उसके स्वर में नफरत स्पष्ट थी.

"लीजिये छोड दी जी बिलकुल. आप ने कहा और हमने छोड़ दी. हम तो पैदायशी निक्कमे, जाहिल, लम्पट और न जाने क्या क्या हैं." उसकी आँखों में छाई बेशर्म बेहयाई भरी उत्सुकता फिर आ कर उसकी क्लीवेज पर ठहर गयी तो उसका दिल किया एक पटखनी दे डाले उस आदमी के बच्चे को. लेकिन एक नज़र देखा उसका लम्बा क़द और चौड़ा शरीर. फिर एक नज़र डाली अपनी कद काठी पर और मन मसोस कर रह गयी.

साथ ही एक सिहरन सी उसके पूरे तन-बदन में लहरा कर उसे सोच में डाल गयी. क्या सच ही औरतें बदमाश और बुरे मर्दों की तरफ अधिक आकर्षित होती हैं? ऐसा उसने कहीं पढ़ा था. लेकिन यह भी तो पढ़ा था कि औरतें अक्सर मर्द में अपने पिता को ढूढती हैं. क्यूंकि बचपन से ही पिता उनके लिए हीरो होता है. लेकिन खुद उसके पिता में तो कभी उसे कोई हीरो नज़र नहीं आया.

इस वक़्त ये जो बेशर्म सा मर्द सामने बैठा लगातार उसके कपड़ों को अपनी आँखों से चीरता उसकी नग्न देह को निहार रहा था उसके लिए मन में घृणा के साथ एक उत्सुकता क्यूँ पैदा हो रही थी? क्या वो भी एक साधारण सी सिर्फ एक स्त्री देह है जिसे संसर्ग के लिए एक मर्द की ज़रुरत है, जो सिर्फ शारीरिक तौर पर आकर्षक हो? क्या ऐसा इसलिए है कि तेईस साल की परिपक्व उम्र तक उसने खुद को शारीरिक संसर्ग से अलग रखा है? क्या जिस्म की भूख उसे किसी भी हद तक गिरा सकती है?

वह खुद अपने बारे में सोचने लगी. उसने वही बैठे बैठे अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाये और सोचा कि अगर किसी दिन वह इसी बेशर्म और नालायक से दीखते मर्द के साथ हम-बिस्तर होती है तो क्या उसके बाद खुद को आइने में देख पायेगी? और कहीं अगर ऐसे ही किसी मर्द के साथ सिर्फ इस वजह से शादी कर लेती है कि शादी करना उसकी नैतिक और सामजिक ज़िम्मेदारी है तो फिर उसकी ज़िन्दगी कैसी होगी?

सोचते हुए उसके दिमाग में एक चित्र आया जिसमें एक छोटा सा दम-घोटूं दो कमरे का फ्लैट था. जिसमें बिखरे हुए कपड़ों और बिस्तरों से भरे ऊबड़ खाबड़ बियाबान के बीच उसने खुद को सुबह से ले कर शाम तक रसोई, बाथरूम और बेडरूम में घिसटते देखा और उसके सामने अपनी माँ की सूरत आ गयी.

याद आया घर पहुँच कर माँ का सामना करना है. पिता के बेज़ार चेहरे को देखते हुए नज़रंदाज़ करना है. उसे लगा जैसी ज़िंदगी चल रही है वही ठीक है. उसमें बदलाव लाने की कोशिश में कुछ बेहतरी की उम्मीद नज़र नहीं आती.

उसके स्टेशन के आने की सूचना सुनायी दी तो उसने एक नज़र उस ढीठ बेशर्म की तरफ डाली. वह अब एक और दूसरी क्लीवेज के साथ वार्तालाप में संलग्न था. उसकी उत्सुकता ने उसे उकसाया कि कुछ सुने और अपने विचार सांझा करें. लेकिन समझदारी ने वक्त रहते टोक दिया और वह अपना बैग उठा कर ट्रेन से उतर पडी.

प्रितपाल कौर.