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और फिर क्या?

और फिर क्या?

“आखें बंद कर के देखोगे तो अँधेरा ही दिखाई देगा.”

विजय ने झुंझलाते हुए ऊंची आवाज़ में कहा. सुधाकर बड़े भाई की बात सुनते ही क्रोध से भर उठा. उसे हर किसी का सुझाव देना नहीं भाता था. लेकिन विजय का हर वाक्य उसे सोचने पर मजबूर भी कर रहा था. जब क्रोध कुछ शांत हुआ तो उसने सोचना शुरू किया.

“आखिर कमी क्या है? सभी कुछ तो ठीक ठाक था फिर ये क्या हो गया? क्यों मधु ही इतनी जिद्दी हो गयी हैं? अब जब सारी समस्याएं सुलझ गयी हैं. मधु की माँ भी इस रिश्ते के लिए राजी हो गयी हैं. खुद मेरे परिवार में विरोध ख़त्म हो गया है. तब फिर मधु का यह बर्ताव …..”

उस दिन तो हद ही हो गयी थी. सुबह ही मधु से उसकी मुलाक़ात हुयी थी. उसने पिछली बार की तरह फिर वही बात छेड़ दी थी. वह चाहता था कि मधु अपने शोध का काम बीच में ही छोड़ दे. लेकिन वह इस मसले पर अब तक चुप्पी साधे थी. मगर आज लगा जैसे वह कुछ फैसला कर के ही आयी थी.

मधु ने कहा था, “सुधाकर समझने की कोशिश करो. मैं दो साल की मेह्नत पर इस तरह पानी नहीं फेर सकती. दूसरे यह मेरे कैरियर और मेरी पढ़ाई के अलावा मेरे अस्तित्व का भी मामला है.”

“तो क्या शादी के फैसले पर पानी फेर सकती हो?” वह चिढ़ गया था.

“सुधाकर, प्लीज् मुझे गलत मत समझो.” मधु का रुख कुछ नर्म तो हुआ था लेकिन उसके स्वर में फैसले की मजबूती साफ़ थी. “ इतनी मेह्नत को मैं ऐसे कैसे बर्बाद कर सकती हूँ? और फिर डॉ. प्रकाश ने मेरे इस प्रोजेक्ट पर इतने मेहनत की है…….. मैं उनका विशवास इस तरह नहीं तोड़ सकती.”

“तो क्या मेरा विशवास तोड़ सकती हो?”

“तुम्हें क्या हो गया है सुधाकर? तुम इतने जिद्दी कैसे हो गए हो?” मधु अभी तक सुलह के मूड में थी.

“अच्छा तो अब मैं जिद्दी भी हो गया हूँ.” वह तिलमिला उठा था, “ज़रा अपनी तरफ भी तो देखो….. तुम खुद कितनी हठी हो गयी हो"

मधु चुप हो गयी थी. उसकी आँखों में अविश्वास की झलक थी. सोच रही थी सुधाकर को समझने में कितनी भूल कर बैठी थी. क्या इसी पुरुष से उसे प्रेम हुआ था? कई प्रश्न मन में कौंध गए थे. वह खामोशी से आहत मन लिए उसे देखती बैठी रह गयी थी.

चुप्पी सुधाकर ने ही तोडी थी. “यह दम घोटू चुप्पी मुझ से बर्दाश्त नहीं होती. साफ़ साफ़ कहो क्या कहना चाहती हो?”

उसके शब्दों में जो पैनापन था, उसी से दहकता हुआ उसका स्वर मधु के कानों में पिघलते हुए लावे की तरह उतर गया.

वह फिर भी चुप ही बैठी रही. दोनों के बीच पडी कॉफ़ी कब की ठंडी हो चुकी थी. आखिर जब सुधाकर और बर्दाश्त नहीं कर सका तो उठ खड़ा हुआ.

“अब जब तुम कुछ कह ही नहीं रही हो तो बेहतर यही होगा कि अपने इस ऊल-जुलूल व्यवहार के प्रति गंभीर हो कर सोचो. पूरे जीवन का सुख एक इस टुच्ची सी पी. एच. डी. पर कुर्बान करना चाहती हो तो फिर मुझे भी कुछ सोचना ही पड़ेगा.”

आहत मधु ने प्रतिवाद में कुछ कहने को मुंह खोला ही था कि सुधाकर पीठ फेर कर वहां से चला गया. विचारशून्य हुआ मधु का मस्तिष्क कुछ भी सोच पाने की स्थिति में नहीं था.

सुबह के ग्यारेह बजे का वक़्त था. रेस्तरां लगभग खाली था. दूर की मेज पर दो महिलाएं बैठी थीं. उन के साथ का दो-तीन साल का शरारती बच्चा पूरे रेस्तरां में धमा-चौकड़ी मचाता कई बार उसके पास से भी गुजरा लेकिन अपने आप में डूबी मधु ने उसकी तरफ ध्यान नहीं दिया.

सुधाकर का व्यवहार पिछले काफी समय से निरंकुश होता जा रहा था. इसे वह समझ चुकी थी. लेकिन उसकी एक तरफ़ा सोच इस हद तक पहुँच सकती है कि मधु की रिसर्च को वह टुच्ची कहे……… अपमानित मधु का मन किया चुपचाप घर जा कर सो जाए. न किसी से कोई बात करे न कोई उसे बुलाये.

फिर उसे याद आया कि अभी तो अभिलेखागार में जा कर पुराने दस्तावेज़ टटोलने हैं. इसके अलावा काम बीच में छोड़ कर भरी दोपहरी में बिस्तर में घुसी वह माँ के लिए वह एक नयी उलझन बन जायेगी.

लकिन सुधाकर के हाथों हुआ यह अपमान क्या वह यों कभी भुला पायेगी? यह दर्द कभी भर पायेगा? अचानक मन किया जोर-जोर से रो पड़े. लेकिन उठी. ठन्डे, भरे हुए काफी के प्यालों की तरफ देखते टेबल पर सौ का एक नोट रख, बैग उठा कर कंधे पर टांगा और खुद को पत्थर हो चुके पैरों से घसीटती बाहर निकल आयी.

इधर बाहर से तमतमाता हुआ लौटा सुधाकर बडबडाता हुआ सीधे अपने कमरे की तरफ जा रहा था कि भाभी ने टोक दिया, “क्यूँ भाई, मधु से मिल कर आये हो तो क्या हम से बात भी न करोगे?”

उन के उलाहने में शरारत भी थी और स्नेह भी.

पर सुधाकर का बोझिल उखड़ा मन इस स्पर्श को पाकर भी स्पंदित न हो सका. एक मूक उदास दृष्टि भाभी पर डालता वह अपने कमरे की तरफ बढ़ गया.

विजय की पत्नी सुशीला को लगा कुछ तो गड़बड़ है. वह सोच में पड़ गयी.

सुधाकर शादी की तारीख तय करने के लिए छुट्टी ले कर आया है. पांच दिन यहाँ आये हो गए हैं लेकिन शादी की तारीख तय नहीं हो पा रही है. पिछले चार दिनों से सुधाकर और मधु के बीच जो तनातनी चल रही है उस से सुशीला सशंकित है. इन दिनों तो सुधाकर को खुश रहना चाहिए. लेकिन दिनों-दिन उस के उखड़ते तेवर देख कर घर में सभी परेशान थे.

वैसे भी पिता का विजातीय मधु को बहु बनाने का आरम्भिक विरोध खत्म हो चूका था. सभी कुछ ठीक-ठाक था. फिर कौन सी समस्या आड़े आ रही थी, वह समझ नहीं पा रही थी.

जब सुधाकर सुशीला के सामने भी अनबूझे सवाल खड़े कर गया तो उस ने अपने पति को उसके पास भेजा था.

बड़े भाई को कुछ अधिक नहीं पूछना पडा था. कमरे के दरवाजे पर खड़े होते ही जो दृश्य सामने दिखा था, वह काफी कुछ समझा गया, साथ ही कई नए सवाल भी खड़े कर गया. कमरे में रखी मधु की तस्वीर फर्श पर पडी थी, फ्रेम का शीशा टूटा पड़ा था. सुधाकर पागलों की तरह कुछ कागजों की चिन्दियाँ बनाता कमरे में इधर-उधर उड़ा रहा था.

विजय जनता है तेज़ दिमाग सुधाकर का गुस्सा भी वैसा ही है, तीखा, एक दम सर तक चढ़ जाने वाला.

अपने स्वर में बड़े भाई का अधिकार भर कर विजय ने पूछा, “यह क्या चल रहा है सुधाकर?”

उसने चौंक कर देखा. गुस्सा कुछ ठंडा पडा लेकिन अस्वीकृति का दंश बहुत गहरे धंसा था. कुछ पल की खामोशी के बाद उसने विस्फोट कर डाला, “मैं मधु से शादी नहीं करूँगा.”

विजय के लिए यह अप्रत्याशित था. दोनों के बीच कुछ तनाव है, इसे तो घर में सभी समझ गए थे. लेकिन बात यहाँ तक बढ़ जायेगी, इस का अनुमान नहीं था.

विजय ने आगे बढ़ कर सुधाकर को दोनों कन्धों से पकड़ कर पलंग पर बैठाया. उस के हाथों से मधु का भेजा एक कार्ड जिसे वह फाड़ने वाला था, ले कर पास की मेज़ पर रखा और निहायत मुलायम स्वर में कहा, “विस्तार से बताओ, क्या बात है?”

“अब क्या बताना? सब समाप्त हो गया है. सब मधु ने ख़त्म कर दिया है. जाने क्या धुन है उसको? शादी से ज्यादा अपने शोध की फिक्र है उसको…. मुझसे ज्यादा अपने गॉइड ……. डॉ. प्रकाश की चिंता है उसको…….उन्हें नाराज़ नहीं करना चाहती….”

उस की बात सुन कर विजय का मन भारी हो गया. मधु उनकी विद्यार्थी रही है. डॉ. प्रकाश उनके अभिन्न मित्रों में से हैं. सुधाकर और मधु का परिचय भी डॉ. प्रकाश के साले की शादी में उन्हीं के घर पर हुया था.

लेकिन अब गुस्से से भरा सुधाकर उन के लिए मन में मैले भाव लिए बैठा था. विजय परेशान हो गया. अपने भीतर का गुबार निकला कर जब सुधाकर थोडा शांत हुआ तो विजय को कहने का मौक़ा मिला, “क्या बात है? मैं कुछ समझ नहीं पा रहा. क्या मधु ने शादी से मना कर दिया है?”

सुधाकर फिर तिलमिला उठा. “वह क्या मना करेगी? मैं ही कर आया हूँ.”

उस की बात का विष दोनों भाइयों के बीच की हवा को दूषित कर गया.

विजय हैरान था. छोटे भाई के उग्र स्वभाव को जानता था . मगर एक गंभीर मसले पर ऐसे बेहूदा व्यवहार की उम्मीद उसे कत्तई नहीं थी.

थोड़ी देर तक उन के बीच सन्नाटा छाया रहा. विजय की आँखों के सामने मधु का अपमानित बुझा हुआ चेहरा डोल उठा कि इस समय वह कितनी अकेली होगी. यही सोच कर मन भर आया.

अपने भाई पर गुस्सा आया तो बोल ही पड़ा, “क्यों मना कर आये हो? …… ज़रा हम भी सुनें?”

“यह मेरा निजी मामला है.” उस ने मानों बड़े भाई को चपत ही लगा डाली.

इस पर विजय खुद को और नहीं रोक सका. ऊंचे स्वर में कहा, “यह तुम्हारा निजी मामला तब तक था, जब तक हम नहीं जानते थे. इस समय मधु इस घर की होने वाली बहु है. हम सब से उसका एक सम्बन्ध बन चूका है….. और इसकी शुरुआत करने वाले भी तुम ही हो. अब इस समय जब सारी परेशानियाँ और विरोध दूर हो चुके हैं, तब तुम्हारा यह बर्ताव बिलकुल ग़ैर जिम्मेदाराना और बचकाना है. तुम से मुझे ऐसी उम्मीद कत्तई नहीं थी.”

“और मुझे मधु से ऐसी उम्मीद नहीं थी.”

“क्या किया है उसने? बताओगे भी?” विजय का धैर्य छूट चला था.

“सुनना चाहते हैं तो सुनिए… वह अपनी रिसर्च नहीं छोड़ना चाहती.”

विजय अब भी नहीं समझ पाया. “तुम दोनों की शादी से रिसर्च के छोड़ने का क्या सम्बन्ध है? खुल कर अपनी बात कहो.” विजय के स्वर में अब झुंझलाहट बढ़ गयी थी.

“भैया, आप को भी समझाना पड़ेगा?" सुधाकर का अधैर्य उसके स्वर की बेचैने से टपका पड रहा था. “शादी के बाद रिसर्च पूरी करने के लिए उसे यहीं रहना होगा.”

“तो इसमें कौन सी अड़चन है? यहाँ उसकी माँ है, हम भी यहीं रहते हैं…… बीच बीच में तुम्हारे पास भी आती-जाती रहेगी.”

“अभी तो उसे तीन साल और लग जायेंगे. ऐसे कैसे चलेगा? मुझे क्या फायदा होगा शादी करने का? मेरा घर कब बसेगा? ….. कब? ……” सुधाकर ने बात अधूरी छोड़ दी थी. उसका चेहरा तमतमा आया था.

विजय पर भारी पत्थर आ कर गिरा हो जैसे. यही सुधाकर मधु की सादगी, उस के मेहनती स्वभाव और उसे मिलती सफलताओं का प्रशसंक था. अब उसी मधु के उन सभी गुणों को दर-किनार कर सिर्फ अपने ही बारे में सोच रहा था. क्या पत्नी बनने के लिए मधु को अपने योग्यता और प्रतिभा को पीछे छोड़ देना होगा? वह ऐसा करेगी? और मानो अगर सुधाकर के लिए अपनी भावनाओं के वशीभूत हो कर ऐसा कर भी ले तो क्या फिर जी पायेगी?

विजय को मधु के खिले चेहरे की उल्लास भरी हंसी पर काला पर्दा गिरता दिखाई देने लगा.

विजय ने सुधाकर को समझाना चाहा, “तीन साल क्या होते हैं? निकल जायेंगे…. सोचो तो… इतनी प्रतिभाशाली लडकी अपनी पढ़ाई लिखाई छोड़ छाड़ कर घर में घुसी रहे तो क्या ये उसके साथ अत्याचार नहीं होगा?”

“मैं कहाँ कहता हूँ कि घर में घुसी रहे. वहां जबलपुर में एक प्राइवेट स्कूल में इतिहास की टीचर की पोस्ट खाली है. मैं बात कर चुका हूँ. मधु वहीं पढ़ायेगी.” अब सुधाकर गुस्से के दायरे से बाहर आ रहा था. लेकिन अपने विश्वासों के दायरे में उसकी गोल दौड़ जारी थी.

“तुम ने उससे यह बात कही?”

“हाँ कही थी. लेकिन वो कहती है रिसर्च बीच में छोड़ कर स्कूल की नौकरी नहीं करेगी. उसे अपनी महत्वाकांक्षा से बहुत प्रेम है.” सुधाकर की चिढ़ के असली वजह सामने आ ही गयी थी.

विजय को समझ में आने लगा था कि असली तीर कहाँ लगा है. प्रेम के शुरुआती दिनों में इसी मधु की इन्हीं मह्त्वाकांक्षी बातों की तारीफ किया करता था. उस समय वह प्रेमिका थी. अब जब पत्नी होने की बात उठी है तो यही गुण अवगुण बन गए हैं.

विजय का मन विषाद से भर गया. अपने ही सगे भाई से ऐसी घटिया सोच की उम्मीद नहीं थी उसे. फिर भी समझाने के लिए उसे कहना ही पडा, “ उसका महत्वाकांक्षी होना अब तुम्हें अच्छा नहीं लग रहा… पहले तो उसकी यही बात तुम्हें बहुत पसंद थी. “

“हाँ, पसंद थी. अब शादी कर के घर बसाना है… अब उसे त्याग करना ही होगा.”

“उसके त्याग की बात करते हो? तुम क्या त्याग करोगे?” विजय फिर झुंझला उठा था.

उसे यह विचार परेशान करने लगा कि थोपा हुआ निर्णय मधु को कितने समय तक शादी में बाँध कर रख पायेगा? और क्या वह ऐसा बंधन स्वीकार करेगी भी?

जहाँ तक वह उसे जानता था, संवेदनशील और स्नेही स्वभाव की वह युवती बेहद स्वभिनानी भी थी. उसके स्वाभिमान को कुचलने वाली कोई भी स्थिति वह स्वीकार नहीं करेगी.

कितनी परेशानियों और बहस मुबाहिसों के बाद दोनों परिवारों के बुजुर्गों ने इस अंतरजातीय विवाह को स्वीकृति दी थी. खुद विजय ने इस संघर्ष में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी. और अब ये नया मोड़…….. विजय निराशा से भर गया. उस की हर बात, हर तर्क सुधाकर के आग्रह की दीवार पर अपना ही सर फोड़ लेने जैसे आत्मघाती प्रयास बन कर रह गए.

“आँखें बंद कर के देखोगे तो अँधेरा ही दिखेगा.” आखिर जब सुधाकर कुछ भी सुनने को तैयार नहीं हुआ तो हार कर विजय इतना ही कह पाया था और बेबस, भरा मन लिए वहां से हट गया.

सुधाकर की तिलमिलाहट पर इन शब्दों का वार हुआ तो क्रोध फिर भभक पड़ा. याने भैया भी मुझे ही दोषी समझते हैं. आखिर मधु उन्हीं की तो स्टूडेंट है. दोनों के विचार एक जैसे ही तो होंगें. ऐसा कैसे हो सकता है कि शादी कर के भी मैं अकेला ही रहूँ. मैं अच्छा कमाता हूँ. क्या ज़रुरत है भला मधु को कैरियर बनाने की? वह मुझ से प्रेम करती है तो मेरे साथ रहे. घर बसाये. हमारे यहाँ ऐसा ही तो होता है. मधु को ये बात समझनी चाहिए. उस की जगह तो घर में ही है. मेरी पत्नी बने और श्रीमती सुधाकर बन कर समाज में प्रतिष्ठित हो. मैं सभी कुछ तो उसे देना चाहता हूँ. नाम, प्रतिष्ठा.. लेकिन फिर भी……

मधु पर क्रोध उमड़ा तो भाई के शब्द फिर याद आये. आँखें बंद कर के देखने का क्या मतलब? क्या मेरे फैसले को उन्होंने पूर्वाग्रह से ग्रसित समझ लिया है? तो क्या मधु की सोच का चश्मा लगाना होगा मुझे? लेकिन क्यों? मन में प्रश्न उठा तो एक और प्रश्न भी उठा. मधु ही मेरी सोच का चश्मा लगा कर क्यों देखे? तो क्या हम दोनों ही बंद आँखों से देख रहे हैं?

देर शाम तक अपने कमरे में पड़ा यही सब सोचता रहा. उसे लगा शायद यही सच है. उसे मधु के साथ तसल्ली से बैठ कर एक बार और बात करनी होगी. कमरे से बाहर पूरे घर का तनावपूर्ण माहौल उसे अपने फैसले पर फिर से सोचने पर मजबूर कर रहा था. शायद विजय भैया सही कह रहे थे. मधु पर कुछ भी थोपना उचित नहीं होगा. बेहतर होगा कि सौहार्दपूर्ण माहौल में एक बार फिर बात की जाये. उसे अचानक अपना रौद्र रूप और अक्खड़ व्यवहार जो उसने रेस्तरां में दिखाया था लज्जित करने लगा.

सुधाकर मन में ठान कर, शरीर का आलस परे ठेल कर कमरे से बाहर निकला तो भाभी की सवालिया निगाह उसकी तरफ उठी. लेकिन आँखें नीची किये वह चुपचाप बैठक की तरफ चला आया.

इधर फ़ोन मधु की माँ ने उठाया. उसे होल्ड करने को कहा और कुछ ही पलों में मधु लाइन पर थी. इंतजार में उसका एक एक पल भारी हो आया था. डर रहा था कहीं फ़ोन पर बता करने से मना ना कर दे.

भीतर शब्दों का जाल बुनता रहा. सोचता रहा कि क्या कहना है, कैसे कहना है, लेकिन जब मधु की चिर परिचित मगर ठंडी मरियल सी हेल्लो कानों में पडी तो अहंकार फिर जाग उठा. जाने क्या तो कहना चाहता था लेकिन जो स्वर फूटे वे उसे खुद ही अनजाने से लगे.

‘हेल्लो, मधु, … आज सुबह जो भी हुआ, अच्छा नहीं हुआ. मुझे लगता है हमें बैठ कर बात करनी चाहिए. मैं शायद अपनी बात बेहतर तरीके से तुम से कह सकूँ. “

कुछ पलों के भारी मौन के बाद उसी तरह ठन्डे स्वर में मधू ने कहा, “ नहीं सुधाकर हम पिछले दो सालों से बैठ कर ही बातें करते आये हैं. न तो मैं तुम्हें अपनी बात समझा पायी हूँ और न ही तुम मुझे…… सिर्फ दैहिक आकर्षण के सहारे शादी चल सकती है मुझे ऐसा नहीं लगता….”

दोनों तरफ चुप्पी छाई रही. सुधाकर बहुत कुछ कहना चाहता था. शायद अपने प्रेम के बारे में… आने वाले दिनों की खुशियों के बारे में…..

मधु की तरफ भी बहुत कुछ अनकहा पड़ा था. बिखरी आकांक्षाएं, टूटे हुए सपने, खुद अपनी मंज़िल की तरफ बढ़ते क़दम और उनके नीचे टीसता हुआ उस का मन…..

पहल मधू ने ही की थी, “सुधाकर...”

उधर की चुप्पी से लगा शायद फ़ोन कट चुका है. पर सुधाकर की छोटी सी 'हूँ 'ने भरोसा दिलाया कि वह सुनना चाहता है.

इतने दिनों तक मजबूती से अपना पक्ष रखता, मधु की दृढ़ चुप्पी से उखड़ता, क्रोध से भरता जाता सुधाकर आज उसे कुछ शांत लगा. वह सोचने लगी इसी पुरुष के साथ तो जीवन बिताना चाहती थी. इसे जानते समझती भी थी लेकिन इसके क्रोध का सामना करने में खुद को हमेश असमर्थ पाया है. तभी तो ऐसी परिस्थिति आ गयी है कि चाह कर भी बात को इतना बढ़ने से नहीं रोक पाई. हर बार चुप रही कि तूफ़ान यूँ ही गुजर जाएगा. पर तूफ़ान तो घिर ही आया बवंडर बना. उमड़ रहा है दो परिवारों के मान सम्मान पर.

मधु एकाएक भूल गयी. अपना मान अपमान, अस्वीकृति, सब कुछ. दायित्व बोध जागा तो सबसे पहले जो चेहरा आँखों के सामने आया वो सुधाकर का ही था. अपमान के दर्द से टीसती बंद होती ऑंखें खोल कर कुछ देखने की कोशिश की तो अपना दोष भी दिखाई दे ही गया. पूरे समय सुधाकर के सुझाव को चुप्पी से नकारती वही कहाँ सही थी? वह समझ गयी कि सुधाकर का गुस्सा उस की अस्वीकृति से ज्यादा उसकी चुप्पी से भड़का था.

तभी उसे याद आया किन्हीं अन्तरंग क्षणों में सुधाकर ने कहा भी था, “ तुम्हारी मानसिक दृढ़ता मुझे पसंद है पर तुम अपनी बात कह दिया करो. हमारे बीच मत-भेद हो तो तुम्हारी चुप्पी से मैं दहल जाता हूँ. असंवाद की स्थिति मैं सह नहीं पाता.”

लगा आज बात साफ़ कर लेनी होगी. सम्बन्ध तोडना भी है तो खुल कर अपनी बात कह कर, दो टूक शब्दों में.

सारा मन मुटाव, क्रोध, अपमान, अलगाव पल में धुल गया. तो कहना आसान हो गया, “मैं तुमसे मिलना चाहती हूँ, अभी. इसी वक़्त.”

“आ रहा हूँ" इतना कह कर रिसीवर रख जब वह बाहर के दवाज़े की तरफ लपका तो विचार व्यवस्थित हो कर निश्चय की राह पर चल पड़े थे. उसे समझ आने लगा था कि उस का आग्रह कितना एक तरफ़ा और निरंकुश था. रास्ते भर सोचता रहा और जब मधु के घर के बाहर गाडी रोकी तो उसके चेहरे पर एक दृढ़ निश्चय की छाप थी.

गाडी का दरवाज़ा बंद करते ही सामने मधू नज़र आयी. तनाव से भरी चेहरे की मॉसपेशियों को बमुश्किल ढीला करती, हल्की सी मुस्कराहट सुधाकर को भली लगी. चुपचाप दोनों भीतर जा कर सोफे पर बैठ गए. माँ अन्दर अपने कमरे में जा चुकी थी.

“मधु…… "सुधाकर कुछ कहना ही चाहता था कि मधु ने उसके हाथ पर अपना हाथ रख कर टोक दिया, “नहीं, सुधाकर, पहले मुझे कह लेने दो……… "

सुधाकर शांत हो कर सवलिया निगाहों से उसे देखते बैठा रहा. मधु एकाएक घबरा उठी. सुधाकर ने इसे लक्ष किया और धीरे से उस का हाथ अपने हाथों में ले लिया, “कहो , जो भी मन में है…..”

संशय धुल गए. मधु ने मन को उलीचना शुरू कर दिया. सम्बन्ध तोड़ने या जोड़े रखने की उलझन से आज़ाद, किसी भी तरह की ज़िम्मेदारी से मुक्त, अपने ही आसमान में एक उड़ान भरी और बोली, “सुधाकर, शादी का अर्थ सिर्फ सामाजिक मान्यता पा लेना और साथ रहने की आजादी हासिल करना नहीं होता.”

“मैं जानता हूँ. लेकिन शादी का अर्थ दुःख सुख बांटना और घर बसाना भी तो है ना?”

“सो तो है. मगर शादी के अर्थ साथ जीना, साथ बड़े होना और अपने अस्तित्व को विस्तार देना भी है.” मधु की मुस्कराहट मुखर हो आयी थी.

“शादी का मतलब अपनी मान्यताओं, अपने विचारों को कह डालना और उन पर टिप्पणी सुनने की हिम्मत रखना भी है यार.” सुधाकर अपनी हंसी दबा नहीं पा रहा था. मन की निराशा धुल-पुंछ कर नीले आसमान सरीखी हो आयी थी.

“शादी का मतलब मैदान छोड़ कर भाग जाना तो बिलकुल नहीं है.” इस बार दोनों के ठहाके पूरे घर में गूँज गए थे और माँ ने अपने कमरे में दम साधे बैठे इत्मीनान की सांस ली थी.

इस बीच कब मधु का सर सुधाकर के कंधे से जा टिका और कब सुधाकर की बांह ने उसकी कमर को समेटा कोई जान नहीं पाया. खामोशी में एक दूसरे के मन की थाह पाते, पिछले कई दिनों की कडवाहट को मिटाने की कोशिश में कितना समय बीत गया इसे पहले मधू ने लक्ष्य किया.

“उठो, खाना मेज़ पर लगा हुआ है. माँ वेट कर रही हैं ….”

दोनों को खिले चेहरों के साथ डाइनिंग रूम में आते देख माँ ने कहा, “भाई अब तो मधु का मुझे ख़ास ख्याल रखना पडेगा. कुछ ही दिनों की मेह्मान है मेरे घर में.”

वह कुछ कहती उस से पहले कुर्सी खींच कर बैठता सुधाकर बोल पड़ा, “नहीं मम्मी, इतनी आसानी से आपका पीछा नहीं छोड़ने वाले हम लोग. जब तक शोध पूरा नहीं हो जाता मधु यहीं रहेगी. बीच बीच में दामाद को भी आप को झेलना पड़ेगा.”

माँ की सवालिया निगाहें मधु की तरफ उठीं तो उस की चमकती आँखों में झांकता आश्वस्त करता भविष्य उन्हें आनंदित कर गया.

सुधाकर की तरफ पुलाव की डिश बढ़ाते मधु ने कहा, “ क्यूँ भई, मेरी माँ को ही क्यों? तुम्हारे भाई भाभी को भी तो नकचढी बहु झेलनी पड़ेगी.”

और एक सम्मिलित ठहाके के बीच प्लेटों और चमचो की खनखनाहट डूब गयी.

- प्रितपाल कौर

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