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एक औरत

एक औरत

कमरे में बंद दरवाज़ों के भीतरी पल्लों पर जड़े शीशों से छन कर आती रोशनी बाहर धकलते बादामी रंग के परदे, नीम अँधेरे में सुगबुगाती सी लगती आराम कुर्सी, कोने में राखी ड्रेसिंग टेबल, बाथरूम के दरवाजे के पास रखा नारंगी रंग का पाँव पोश.... सब पर सन्नाटा तैर रहा था. कुछ पल पहले का हवा में तैर रहा उन्माद उच्चाट नीरवता को फैलाते हुए निचेष्ट पड़े शरीरों पर हावी होने लगा. किनारे पडी गुडी-मुडी बदन से खिसक गयी सफ़ेद चादर को पुनः खींच कर उसने उस पर ओढा दिया. इसी प्रयास में उसके खुद भी काफी शरीर ढक गया.

चादर के स्पर्श का एहसास होते ही धीरे से बंद आँखें खोल कर उसने छत की तरफ देखा और फिर उसे देखती हुयी हलकी मुस्कराहट के साथ उठने के लिए कोहनी पर शरीर टिकाया ही था कि उसने उसकी कोहनी को हलके से खिसका दिया. धम्म से वह फिर बिस्तर पर गिर पड़ी.

"क्या करते हो?" उसके स्वर में झुंझलाहट से अधिक प्रसन्नता थी.

"वही जो करना चाहिए.", उसकी बांह चादर के ऊपर से उसकी छाती को घेरती हुयी उसके एपीठ तक जा पहुँची. थोड़ी देर पहले जो चादर ओढाई थी, उसे परे सरकते हुए उसकी पीठ पर अपनी हथेली फैला कर ररखते हुए माथे पर गिर आये उसके बालों को चूम लिया.

झुरझुरा कर उसने भी चादर में क़ैद अपनी बाहों को बाहर निकला और दोनों हाथों से उसकी गर्दन को पीछे से थाम कर होठों और जीभ से उसके भीतर की टोह लेने लगी. चार आँखें एक दुसरे में उलझ कर चुपचाप अपने -अपने अस्तित्व की गवाही दे रही थीं.

चार हाथ दो जिस्मों को अलग-अलग कोण से फिर नापने लगे. जाने कितने हजारों सालों से यही होता आया है. इसी तरह सब उलझ जाता है. ज़िन्दगी साँसें लेने लगती है. दर-विवाद पीछे छूटने लगते हैं. इसी तरह हर बार कोई कंधा होठों की नर्म गर्माहट से पिघलने लगता है. संभावनाओं का एक पुल दो आत्माओं के बीच कुछ थामने की कोशिश करता है और फिर धराशायी हो जाता है. सादियों से चला आ रहा एक रिश्ता फिर अपनी गांठें खोल देता है.

मरद और औरत के बीच सब कुछ वैसा ही पडा रह जाता है. मर्द अपनी मर्दानगी में जकड़ा औरत की जिस्मानी खूबसूरती से बार-बार खुद को पराजित करने की कोशिश करता है. औरत अपने वजूद से बाहर निकलती भी है तो मर्द की जेबें टटोलने लगती है. दुनिया की सारी खूबसूरत औरतें आखिर अमीर और ताक़तवर मर्दों के साथ यूँ ही तो नहीं होतीं.

इस बार चादर वैसी ही गुडी-मुडी बहुत देर तक पडी रही. इस बार जब उसने कोहनी पर शरीर टिकाया तो उस तरफ तकिये पर उसकी गहरी साँसें बंद आँखों को इत्मीनान से सहला रही थीं.

थोड़ी देर बाद जब गीले बालों से पानी टपकाती बड़े से सफ़ेद तौलिये में लिपटी वह बाहर आयी तो शायद कमरे में उसकी उपस्थिति के एहसास ने उसे नींद में सहला दिया. कुनमुना कर उसने करवट बदली तो उसके बदन का उघड़ा पण वह झेल नहीं पाई. गुलाबे गालों की दहक में सिमटते हुए उसने गुडी-मुडी चादर उसे गर्दन तक ओढा दी.

चादर के स्पर्श ने या शायद उसकी महक ने उसे चेताया तो वह अधखुली आँखों से बोला,"तुम भी सो लो थोडी देर." थकान उसके एक एक शब्द से टपक रही थी.

"नहीं, तुम्हें भूख लगी होगी. देखूं क्या है फ्रिज में."

वही औरत की शाश्वत चिंता!

"बेटा, आ खा ले." या " भैया, देखो मैंने क्या बनाया है?"

वही एक बात जाने कितने ढंग से कितने घरों में, कितने बंद कमरों में यूँ ही अनंत बार प्रतिध्वनित होती यहाँ भी गूंज गयी.

हल्की सी कुनमुनाहट के बीच फिर एक बार करवट बदलते हुए वह बोला," अभी नहीं, अभी भूख नहीं है."

हमेशा की तरह वही भ्रम, वही दिलासा कि मैं तो सिर्फ प्यार का भूखा हूँ. प्यार के बाद रोटी का और फिर प्यार का........ और यूँ एक छोर से दूसरे छोर की ओर भागता कब समझ पता है अपनी भूख को.....? या फिर कि भूखा है भी?

सर तकिया पर टिकाये उसे देखते फिर गहरी नींद में खो गया तो वह हलके हाथ से उसके बाल सहला कर ड्रेसिंग टेबल की तरफ चली आयी. हलके हरे रंग की शिफौन की साड़ी पहने, कंधे तक गीले बाल छितराए आराम कुर्सी पर बैठी इंतज़ार करने लगी.

कभी समझ नहीं पाती किस चीज़ का इंतजार है उसे. बस यूँ ही लगता है कि किसी दिन भयंकर उठा पटक हो जायेगी या पुरानी कथाओं की तरह आसमान फट पडेगा, बाढ़ आ जायेगी या फिर धीमे धीमे कुछ भी न होते हुए साल दर साल गुज़र जायेंगे. कुछ होगा ज़रूर, यही इंतजार जिंदा बनाये रखता है.

अभी जैसे थोड़ी देर बाद यह उठेगा, उसे जीते रहने का एहसास दिलाएगा और चला जाएगा. दुनिया में जा कर ज़िन्दगी बटोरने के लिए. अपने हिस्से की ज़िन्दगी जब चुकने लगेगी तब फिर किसी दिन अपने भीतर रखा उसका हिस्सा उसे देने आयेगा. फिर चला जाएगा. टुकड़ा-टुकड़ा ज़िन्दगी जीते , खुले सिरों से इधर-उधर अपना एहसास छोड़ते ये बुढा जायेंगें. फिर इनके बच्चे पूरी-पूरी ज़िंदगी जीने की दम तोड़ती कोशिश में थककर इसी तरह टुकड़ा-टुकड़ा ज़िंदगी जीने लगेंगें.....

बच्चे...... शब्द उठा तो देर तक गूंजता रहा. सपनों का कोई सिरा नहीं होता. कोई भी सपना नींद में डूबे बेखबर आदमी को फुसला कर अपने पीछे लगा लेता है. और जब उसकी दौड़ भरपूर यौवन पर आती है, तो परछाईंयों के ढेर के किसी कोने पर चुपचाप खुद भी परछाई बन कर खड़ा हो जाता है. पागल बना पीछे दौड़ता आदमी अपने सिर के बाल नोचता अपने सपने को इन ठंडी पडी परछाईयों के ढेर में ढूँढने लगता है. शायद किसी एकाध में कुछ जान बची हो तो उठ पड़े और वह उसी के पीछे दौड़ पड़े.

इस वक़्त जो मर्द गहरी साँसें लेता उसके बनाये खाने के इंतजार में सो रहा है, उसके बच्चों के बाप नहीं है. साधारण सा कारण है; वह उसका पति नहीं है. इसके साथ जो किया वह व्यभिचार है..... लेकिन देह तो तब फुन्कारती है जब पति बलात्कार करता है. देह से ले कर मन तक........

पर शायद यह दूसरा आदमी है, सिर्फ इसलिए कि जब यह आया तो पहला आदमी था. लेकिन खुद कभी पहली औरत कहाँ हो सकी? खुद सिर्फ औरत थी..... पहली या दूसरी या तीसरी....... इस सबके बीच सिर्फ एक औरत......

सारी पढाई लिखाई और सपने परछाईया बना कर पिछवाड़े की ज़मीन पर बोये तो जो उगा, उन्हें तो अपना नाम भी नहीं दे पाई. दो बिरवे फूटे. ज़रा धुप सहने लायक हुए कि खनकते सिक्कों के बल पर खुले आसमान में कुलांचे भरने का सपना सीखने बोर्डिंग भेज दिए गए. हाथों में रह गया कभी कभी आबाद होने वाला सभ्य देह-व्यापार..... इसी के बदले थीं सारी सुविधाएँ और तरतीब से सजे साफ़ सुथरे कमरे, कुछ में पीछे छूट चुके खिलौने..... और इन सब के बीच में पड़ा कहीं पीछे छूट चुके प्रेम का लौटता एहसास....

व्यभिचार...... नहीं! मन गर्दन हिला देता है. साफ़ नकार देता है. जानता है अपनी वकालत करना. यह तो सिर्फ एक संयोग है. यही आदमी पहले मिलता तो यही पति भी होता. सारी परछइयां सचमुच के जीते जागते सपने होतीं, घर के सामने के बाग़ में शान से सिर उठाये खड़े रहते, फलते फूलते......

क्यारियों में एक काला सांप रेंग गया. अगर ये पहला होता तो क्या कोई और दूसरा होता? नहीं जान पाई कभी. मन की ठिठकन झुंझलाने लगी. साहस छूटने लगा तो घबरा कर रसोईं में चली आयी.

आज सरीखे दिन संजोने पड़ते हैं. सरे बंदोबस्त दुरुस्त करने पड़ते हैं. साहस बटोर कर खूबसूरती से बोले गए झूठ, घर के बाहर लगा टाला, आंसरिंग मशीन पर लगा फ़ोन, गाँव गया नौकर....

राइस कुकर में पानी और चावल डाले. कल का बना चिकन ओवन में रखा. टेबल लगा ही रही थी कि खटर-पटर बेडरूम तक पहुँच गयी.

उसी गुडी-मुडी चादर को लूंगी की तरह लपेटता बालों में हाथ फिरता थकान से बोझिल चेहरा, मगर विशवास छलकती आँखें...... सुबह ही लगातार पांच घंटे ड्राइव कर के आया था. परसों सुबह तक हर हाल में घर पहुँच जाना है. खाली घर में माँ ज्यादा दिन बहार जाने की इजाज़त नहीं देती. शादी.... ? एक भरपूर अट्टहास उठता है, होठों तक आते-आते हल्की सी मुस्कराहट बन जाता है.

इसी की छाँव में खाना मेज़ पर लगते उसे देखता है. एक नज़र उसकी तरफ डालती सोचती सी उसकी आँखें भी मुस्कुरा उठती हैं. दुनिया में कितनी औरतें हैं.... सिर्फ यही क्यूँ..... ? लेकिन सिर्फ यही एक तो है. सारे प्रयास कर चुका. एक हज़ार किलोमीटर दूर बोर्डिंग में भरपूर ज़िंदगी जीते दो नन्हें इंसानों के मन का भाव कायम रहे, जब तक कि वे इसके ढेह जाने के धचके को सहने लायक न हो जाएँ. लेकिन कब होंगें?

शुरू की उतावली अब एक नर्म धडकता इंतजार बन गयी है. ठहाके के साथ कभी-कभी कह देता है-"ज़िंदगी जितने रंग दिखाए, सर आँखों पर....... " लेकिन कब तक........

कभी खुद भी घबरा जाती है. कब तक..... ? कब तक वही इंतजार कर पायेगी? किसी दिन ढेह न पड़े. ऐसे ही फिर फ़ोन कर देती है. ऐसे ही फिर सारे बंदोबस्त होते हैं. ऐसे ही फिर नौकर चिकन बना कर गाँव चला जाता है...

बाहर ताला लग जाता है. पांच घंटे लगातार ड्राइव कर के वह आता है. संभावनाओं के पुल फिर एक बार बनते-बनते कुछ थामने लगते हैं, और फिर एक बार सब बिखर जाता है..... लेकिन कब तक... ? और वह फिर से औरत बन जाती है... सिर्फ एक औरत.

प्रितपाल कौर

पूर्व प्रकाशित 'हंस' दिसंबर 1998.

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