एकांत का उजाला
एकांत का उजाला-प्रितपाल कौर.
जनसत्ता 2 अक्टूबर २०१६.
"पीछे मुड कर क्यूँ देखती हो? क्या है वहां? सिर्फ दर्द, परेशानियाँ......"
"जानती हूँ..." चेहरे पर छाई रहने वाली हंसी कब की लुप्त हो चुकी थी.
पीछे मुड कर नहीं देख रही थी बल्कि बार-बार पीछे घूमती गर्दन को खींच रही थी. मरोड़ रही थी कि सामने देखे. सामने जहाँ भविष्य ने एक बार फिर जन्म लिया है. टूटन और बिखराव से अनजान दूध पीता उसका शैशव फुर्ती से हाथ-पैर चलाता जल्दी-जल्दी परवान चढ़ना चाहता है. अपनी दुनिया खडी करना चाहता है. जहाँ आँखों पर झिल्लियाँ नहीं चढ़ाई जातीं, पैरों में नाप से छोटे जूते नहीं पहनाये जाते. जहाँ खुल के हंसने पर अंदेशों का हौव्वा नहीं दिखाया जाता, जहाँ हाथों को शिकंजों में नहेने कसा जाता, जहाँ दिमाग पर रंदा फेर कर कुंद करने का प्रयास सतत चलता नहीं रहता......
कितना कुछ दिखाई देता है. सामने देखती है तब भी विगत की परछाइयाँ कहाँ छोड़ पाती हैं. बांह फैलाये भविष्य की ओर बढ़ते भी उसे लगता है जैसे अनगिनत साए उसे घेरे साथ ही बढ़े आ रहे हैं.
सामने देखती आँखें जब पीछे घूमती हैं तो दिखाई देती है एक लडकी....... दुनिया के अथाह समंदर में एक बूँद सरीखी...... छोटी सी दुनिया ही तो चाहती थी. अपने होने का एहसास था, उसी को जीना चाहती थी, आत्म-सम्मान के साथ. पर शायद वक़्त ही सही नहीं था.
एक लडकी. रंग बिरंगे फ्रॉक, गुड़ियाएं, किताबें, आइस-क्रीम और भाइयों के साथ मस्ती. सिर्फ यही तो था. दुनिया में क़दम रखे तो अपने औरत होने का एहसास जागा. और जगीं औरत होने की अपेक्षाएं ज़िन्दगी से....
पर क्या औरत होने का मान मिला? कुछ समझ नहीं पाती. क्या सिर्फ कपडे उतार कर खुद को परोसना...मन का तन का का बलात्कार लगातार झेल कर, हर सुबह ताज़ा दम हो, कपडे पहन कर चेहरे पर मुस्कराहट बिखेरना. इन सब के बीच खाना, चाय, मेहमान-नवाजी और लगातार होता अपमान.... कारण सिर्फ इतना कि अपने होने का एहसास अभी तक बना हुआ क्यूँ है?
और फिर शुरू हुए ये लांछन. जीने की अदम्य लालसा जब सब झेल ले गयी थी, तब सदियों पुराने पुरुष ने वही सदियों पुराना हथकंडा इस्तेमाल किया था. समर्पित के प्रेम को आर्थिक आलंबन से तौल कर एक घ्रणित नाम दिया था. शब्दों का भाव कोड़े की तरह आ कर लगा था आत्मा पर.
स्वयं अपने भीतर विचरते, खुद को टटोलते, प्राणों पर हुए इस आघात के बाद फिर और क्या शेष बचा था? माँ होने का सम्मान तक धुल गया था. चीत्कार कर रोई थी एक बार... सब कोने भर लिए थे सैलाब से..... पर सब भीतर ही...
बाहर झाँका तो दया ही उमड़ी... समाज... नारी थी न. इसीलिये तो उसकी लज्जा शीलता को बव्चाये रखने का दायित्व एक पुरुष को सौंपा था. उसके समाज ने. जैसे वह खुद मिट्टी का कोइ लौन्दा थी या फिर डंडे के बल पर हांका जाने वाला कोई पशु.... जो अपने लज्जा खुद नहीं ढक सकता, सर पर छत नहीं डाल सकता, बहती हवा से मुंह का कौर नहीं पैदा कर सकता. पर ये सब भी कहाँ वह पुरुष ही दे सका?
दायित्व के नाम पर अगर किया भी तो सिर्फ सम्भोग. सालों साल केवल उसी के दम पर बिता कर भी एक एहसास था... एक झूठा विशवास कि माँ होने का सम्मान तो झोली में है. मगर वह भी तो पानी एक बुलबुला ही निकला.
दूसरी बार माँ बन कर भी जब बाहें खाली रह गयी तब कितना कुछ यूँही रेत के ढूह सा बिखर गया था.... उसी को समेटती अपने ही किसी किनारे पर ठिठकी खडी थी जब कुछ शब्द चीर कर उसके वजूद के कई हिस्से कर गए थे. माँ का कृन्दन, प्रेमिका की गुहार, पत्नी की गरिमा सब शनत हो गए थे. एक ठंडा बेजान पत्थर खुद वहां अपने हाथों रख दिया था जहाँ कभे एजीवंत मांस का लोथड़ा, लहू से सराबोर धड़का करता था.
समाज पर उस दिन भी हंसी थी. पागलों सरीखा भरपूर अट्टहास... पत्नी होने की गरिमा, माँ होने का सम्मान सभी तो अवसरवादी थे. बड़े समाज के हर छोटे छोटे हिस्से में, जिसे वे लोग घर कहते थे, वही विद्रूपता नंगी खडी दिखाई दे रही थी. हर एक अंगुली जो उसकी तरफ उठी थी, बची तीन अन्गुलिया अपने अपने उठाने वाले पर ताने खडी थी. इसी समाज के उस सदस्य पर जिसका नाम पति था, जितना क्षोभ था, उस दिन मिट गया था. ... उसके नन्हे कद पर मात्र दया बची है. और प्रेम दया पात्र में नहीं डाला जा सकता. लेकिन ठन्डे बेजान पत्थर के नीचे जो अब भी रह रह कर धड़क उठता है........ आँखें पनीली हो आयीं.
अपने भीतर की औरत का क्या करूँ? यह नहीं मरती. आज भी इसे लगता है कोई पुरुष हो, और यह उसकी छाती पर सिर रख कर सांस ले सके.
लेकिन सिर्फ सांस लेने भर से क्या होगा? साँसें प्राण फून्केगी तो देह कटेगी, भूख जागेगी, और एक गोल दायरा फिर इसी छोर से शुरू हो जायेगा. इसी से डरती है.
"डरती हूँ आज भी. अपने-आप को पूरी तरह आज भी नहीं जीत पाई."
"नहीं, तुम्हें देख कर ऐसा नहीं लगता. तुम जीत चुकी हो खुद को. सिर्फ पहचान नहीं पा रही."
प्रश्नवाचक निगाहें उसकी तरफ उठाई तो वेह कट कर रह गया.
"तुमने ही कब पहचाना मुझे? आज भी सोच कर देखो तो समझ पाओगे. तुम्हें जो आकर्षित कर रहा है वो मेरा शरीर ही है."
मेज़ पर रखा पानी का गिलास उठा कर एक ही सांस में पी गया. गले के कांटे पेट में उढ़ेले तो वहां भी उन्हें झेलना दुष्कर लगा.
"लुक. तुम जो भी हो, मैं तुम्हें तुम्हारी सम्पूर्णता के साथ देखता हूँ. मन, आत्मा, बुधि, देह.......अच्छा, तुम ही बताओ... क्या तुम्हारी देह तुमसे अलग है? फिर इसकी आवाज़ नकारने पर क्यूँ तुली हो?"
कुछ देर चुप्पी छाई रही. बहुत धीमे से बुदबुदाती उसकी आवाज़ उठी तो वह सुनाने के लिए आगे झुक आया....
"इस देह ने छला है....हमेशा छला है. वह दौर..... जब पहली बार पुरुष को पाना चाहती थी. कटती रही, टीसती रही... मने के बहकावे में आ कर भी मनमर्जी जी पाने में असमर्थ.... समर्थ हुयी तो एक और देह गढ़ने लगी. भीतर उठती हिलोरें सिवाय इस देह के, मन, आत्मा सभी को भाती थी. यह देह..... ऐंठती थी....हर पल डसती थी. ... मन के सुख पाने की चाह में यह हमेशा कष्ट देती है."
उस पर झुंझलाहट पूरी तरह हावी हो गयी थी.
"फिर भी यह ढीठ मन कितना चाहता है इसे. इसे तंदरुस्त रखना चाहता है... सजाता है... संवारता है... खुद मुझे पीछे धकेल देता है..."स्वयं से उकता कर बांया हाथ मेज़ पर पटका तो दर्द से कराह उठी.
मेज़ का किनारा हथेली में धंस गया. लम्बी सी लकीर गुलाबी से लाल हुयी और लाल बूंदे टपकने लगीं. दायें हाथ से इसे लपेटा और वश बेसिन की तरफ चल पडी. ठन्डे पानी की धार के नीचे कुछ देर हाथ को रखा. साफ़ पारदर्शी पानी हथेली को छू कर पनीला लाल होता हुआ नीचे बहता देखती रही. ठन्डे पानी से चमड़ी के एहसास कुछ कुंद पड़े, दर्द धीमा हुआ तो दायें हाथ से बांया हाथ थामे पीछे मुडी.
जाने कब से पीछे खड़ा था. उसके चेहरे पर जो देखा तो उसे झेल नहीं पायी. आँखें झुकाई तो फिर दोनों हाथ नज़र में आ गए. दर्द उठा तो यदा आया पट्टी बांधनी है. बाथरूम की तरफ बढ़ी पीछे उसकी पदचाप स्पष्ट थी.
आगे बढ़ कर उसने पट्टी का रोल, बीटाडीन, कैंची संभाल लिए तो कुछ कह नहीं पाई. चुपचाप घाव धोने की जलन को झेला, दवा की नरमाई से पिघलते घाव को सहलाते उसके हाथों को देखती रही..... पट्टी बाँधने लगा तो अनामिका में पहनी अंगूठी आड़े आने लगी. एक बार चार ऑंखें मिलीं, शायद पल भर को ठिठकी भी और फिर उसने सधे हाथों से अंगूठी उतार कर पास के शेल्फ पर रख दी.
बल्ब की तेज़ रोशनी अंगूठी पर पडी तो उसमें जड़े पत्थरों में से कुछ झिलमिलाये..... उसने आँखें फेर लीं. अंगूठी से खाली हुयी हथेली देखने की उत्सुकता जगी. मुंह घुमाया तो घायल हाथ उसके दोनों हाथों में रखा सुकून से सांस ले रहा था. लगभग पूरी हथली पट्टी में लिपटी चैन से सो रही थी. अंगुलिओं के ऊपरी हिस्से भर खाली थे. धीमे से हाथ छुड़ा लिया.
उसके शांत चेहरे की झिझक में दबी चैन की उसांस दिखी तो नहीं, फिर भी जैसे बंद किताब के भीतर का आभास शीर्षक से ही हो गया हो. जिस आत्मीयता से वह पट्टी बांधता रहा था, उसके निष्चल हाथ को सहलाता रहा वह भीतर कुछ थमा गया. तिलमिलाता सा एक प्रश्न भे यूथ खड़ा हो गया.
क्यूँ पहले नहीं समझ सका खुद को? इसे ? और दोनों के बीच जो था उसको? क्यूँ खुद एक ज़िन्दगी बुनने में लगा रहा? ऐसा ताना-बाना जो आज पन्द्रह साल के बाद भी अधूरा ही था. हर बार धुप में तपते किसी चेहरे पर छाँव दिखी भी तो परछाई इसी की थी. तपते मन को कहीं भी ठौर नहीं मिला.
लेकिन भीतर कहीं एक विश्वास भी था कि पन्द्रह साल में जो चादर उधर उसने बुनी होगी, उसमें लिपटी वह तो चैन से तकिये पर सिर टिकाये आँखों में मुस्कुराहट समेटे होगी. आ कर देखा तो जड़ हो गया. चेहरे पर मुस्कराहट ओढ़े आग उगलती आँखों से लगातार झुलसते उसे देख कर तिलमिला उठा था. जिस पुरुष की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाने की बात सोच कर आया था, उसके प्रति क्षोभ से भर उठा था. आज उसकी चादर के ताने-बाने में जो अपमान के दाग जगह-जगह काले धब्बों की तरह जड़े थे, उन्हीं को रह रह कर कुरेद रहा था.
चाहता था वह अपने अतीत की गिरफ्त से पूरी तरह छूट जाये तो शायद दोनों ही एक नयी ज़िंदगी बन सकें. पति शब्द का जो अर्थ उसने जाना है, उससे अलग उसमें उम्मीद जगा सके तो दोनों ही जी सकें. यही सोचते आँखों में विशवास उतर आया.
दो क़दम पीछे हट कर सीधी खडी हुयी तो सामने उसकी आँखों की मुस्कराहट अपनी रौ में बहती उसे गुदगुदाने लगी. गंभीर स्वर गूंजा तो लगा आज पहली बार किसी पुरुष का स्वर सुना है.
"जिस मज़बूत लडकी से बिना कुछ कहे चला गया था. वही औरत आज सामने खडी है....ऑफ़ कोर्स , हाथ पर बंधी पट्टी के साथ.... यही तो एडिशनल चरम भी है... विल यू एक्सेप्ट मी? "
वही शाश्वत डोर पैरों को बाँधने के लिए फन्दा बुनने लगी. वैसे ही कुछ दाने पेड़ के नीचे बिखरे दिखे तो डालिओं में छिपा जला भी नज़र आ गया. ..... नहीं..... अब और नहीं.
सारे संशय मिट गए. मन पर छाई नीरवता धुल गयी. एक भरपूर खिलखिलाहट उसके गले से उभरी और खिलखिलाते ही वह कमरे में लौट आयी. पीछे आती पदचाप गर्व जगाये रखने को काफी थी.
उसके अकबकाये चेहरे पर दांया हाथ हलके से फिराते, शेव की हुयी स्निग्ध नरमाहट से आनंदित होते खिलखिलाहट फिर उभर आयी.
"कम ऑन, बेकार बातें मत करो. हम दोनों सचमुच एक दुसरे को झेल सकते हैं. हमारे रिश्ते में मर्द और औरत का क्या काम?"
कुछ देर ठहर कर उसे देखती रही. दो क़दम आगे बढ़ी. उसे बाहों में समेटा. हथेलियों से उसकी पीठ थपथपाई और झटके से अलग कर दिया. रसोई की तरफ जाते एक बार ठिठकी, मुड कर खडी हो गयी.
उसकी खाली आँखों में झाँक कर बोली,"मेरा वह समय चुक गया जब मैं किसी के लिए जी सकती थी. तुम चले गए और हम ने उसे खो दिया. अब मेरे सामने जो है, वहां टिकने के लिए मेरे पास पुरुष को पीठ देने की गुंजाईश नहीं है. मैं कम हो गयी हूँ. सिर्फ खुद के लिए बची हूँ."
और फिर गंभीर चेहरे पर खींच कर मुस्कराहट लाते हुए बोल पडी," याद है, जब हम कॉलेज में थे तुम चाय कितनी अच्छी बनाते थे. आज चाय पिलाओ, उन दिनों की याद में. मैं ऑमलेट बनाती हूँ."
चेहरे पर वही पुरानी जाने पहचानी मुस्कराहट लौट आयी थी. सॉसपैन उसे पकडाया तो वह भी अपने आपे में लौट आया. हल्की सी हंसी के साध एक धौल उस की पीठ पर लगा दिया. होंठ खुद ही गोल हो कर सीटी बजाने लगे. पानी डाल कर पैन गैस पर रखा और कैबिनेट खोल कर चाय का सामान ढूँढने लगा. फ्रिज में से अंडे निकालते हुए उसे भी वो धुन याद आ गयी. उसके साथ स्वर मिलाते वह भी गुनगुना उठी.
प्रितपाल कौर.
जनसत्ता में प्रकाशित