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चाट

चाट

बात सीधी सी थी, लेकिन उसकी गंध बेहद तीखी थी. तभी तो जया की ही नहीं पूरे मोहल्ले की नाकें अपने अपने ढंग से सुगबुगा गयी थी.

नयी-नयी अकाउन्ट्स अफसर की प्रमोशन पाए रामलाल ने कहा था, “सब पैसे का मामला है भाई.”

फिर अपनी तीन बेटियों की माँ, दसवीं पास पत्नी सावित्री को सुनाते हुए बोले थे, “अजी लड़का कोई कम नहीं है लडकी से. लडकी कॉलेज में पढ़ाती है तो क्या हुआ? लड़के का लाखों का बिज़नस है. लडकी का रंग-रूप गुण देख कर ही उन के घर जा कर रिश्ता माँगा था. पर ये माँ-बेटी तो बेगैरत निकलीं. ऐसा अच्छा रिश्ता….. मैं भी देखूंगा, अब कौन सा आईएएस मिलता है इनको. अरे फ़ालतू बातें बनाती हैं कि लडकी ने मना कर दिया. मना तो उस की माँ ने किया है. विधवा औरत की सोने की मुर्गी…. ऐसे कैसे हाथ से जाने दें?” वितृष्णा से उन का मुंह अजीब सा हो आया था. और भी जाने क्या-क्या बडबडाते रहे.

रामलाल ने जब विवाह किया था तो इसी कम पढ़ी-लिखी, सुघड़ स्त्री पर दिलो-जान से फ़िदा थे. उस समय खुद क्लर्क थे. साल भर के भीतर ही जब विभागीय परीक्षा पास कर तरक्की पा गए तो यही बीवी आँखों में खटकने लगी थी. अब लगता है जल्दबाजी कर ली. कुछ समय ठहर जाते तो शायद अधिक पढ़ी-लिखी और कमाऊ पत्नी मिल जाती, समाज में रुतबा ऊंचा होता सो अलग.

फिर एक के बाद एक तीन बेटियों को जनम दे कर पत्नी उनकी नज़रों में और भी नीचे उतर गयी थी. जीवन के इस पक्ष से घोर निराशा के शिकार, रामलाल अपने शब्द-बाणों से सावित्री को निरंतर घायल करते रहते थे.

जिस लडकी की बात घर में हो रही थी. उसे सावित्री ने अपनी आँखों से बड़े होते देखा है. निधि के बचपन में ही पिता का साया सर से उठ गया था. पूरे मोहल्ले में एक वही घर था जिसमें सावित्री का आना-जाना था. कुछ देर हल्की-फुल्की बातें, थोडा हंसी मज़ाक, कुछ गृहस्थी की समस्याओं के समाधान और एक कप चाय… उस की एकरस ज़िन्दगी में ले-दे कर एक यही मनोरंजन था.

इतने ही परिचय के बल पर रामलाल ने अपने रिश्तेदार 'अमित मेडीकोज़' वालों को उनके बेटे के लिए निधि का रिश्ता सुझाया था. लड़के की अपनी दवाओं की दूकान थी. खाता-पीता संयुक्त परिवार था.

“क्या हुआ जो लड़का अपनी बी.ए. की पढ़ायी पूरी नही कर सका. ऐसा घर-बार निधि के लिए और कहाँ मिल सकता है? बाप है नहीं…. अकेली माँ… यह तो अच्छा है कि लड़की होनहार निकली.

पढ़-लिख कर लेक्चरार लग गयी है. सो उन लोगों को बात जाँच गयी वर्ना आज के ज़माने में लडकी के लिए रिश्ता ढूंढना…… भाई मैं तो माँ-बेटी का उद्धार ही करना चाहता था.” रामलाल का भाषण चालू था.

दया के सागर बने पति के उदगार सावित्री ने मुस्कुरा कर सुने. मन की बात वह जानती थी कि किस का उध्दार होना है. बात बन जाती तो अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने का ऐसा मौक़ा फिर कहाँ मिलता. और मध्यस्थता करने पर मिलने वाली नकदी और गरम सूट का लोभ कौन छोड़ना चाहेगा.

निधि सयानी निकली. चैन की सांस भरती सावित्री का मन उसके प्रति लाड से भर उठा. देखने में अभी बच्ची सी ही लगती है, लेकिन माँ-बेटी दोनों हैं बहुत मज़बूत. मगरमच्छों से भरी दुनिया में ऐसा बने बिना गुज़ारा भी तो नहीं. सावित्री अपने पति की तरफ देखती तो उसे मगरमच्छ का जबड़ा ही दिखायी देता है.

रामलाल के साथ वाला निधि के ठीक सामने वाला घर निर्मल सिंह का था. उन की 28 वर्षीय बेटी निरंजन कौर, पढ़ायी लिखायी ख़त्म कर अपने विवाह के इंतजार में बैठी थी. असमय ही बूढ़े होते अपने चेहरे की तरफ देखती तो चिंता से चूर अनजाने ही निधि के प्रति ईर्ष्या से भर जाती है.

निधि की हर आहट पर निरंजन के कान लगे रहते हैं. खुद को भूलने का यही तरीका उसे रास आया था. इसी धुन में निधि की पीठ पीछे उस के सामाजिक जीवन, हंसमुख व्यक्तित्व, मोहल्ले भर में उसकी प्रसिद्धि पर वह नित नए तीखे-पैने कटाक्ष जब तब कर डालती. लेकिन सामने पड़ने पर उस की सादगी, सुन्दरता और तगड़ी नौकरी की तारीफ करते नही थकती.

अब निरंजन की नाक को गंध मिली तो खुशबु से उसके नथुने फडफडा उठे. वह भीतर तक आनंद से भर उठी. आगन में दोपहर की धूप सेंकती हुयी अपनी माँ से बोली, “ दोनों माँ-बेटी गप्प मारती हैं. लडकी वाले थोड़े ही मना किया करते हैं. मना तो लड़के वालों ने ही किया होगा. हाँ, शर्त लगा लो.” शर्त लगाने की उसकी पुरानी आदत है.

कुछ पल रुक कर आगे बोली, “ मना तो लड़के वालों ने ही किया है. अब ये माँ-बेटी अपनी शर्म छिपाने को कहती फिर रही हैं कि हम ने मना कर दिया है. निधि की माँ ही गयी थी उनके घर रिश्ता ले कर.”

नीरंजन ने कहा तो अपनी माँ से था लेकिन सुन लिया था अगली गली वाली वीणा ने. हाथ में आधा बुना स्वेटर थामे वो दोपहरी काटने उनके घर आयी थी. इस नए शिगूफे की गंध में गुम हो कर अभिवादन करना ही भूल गयी.

मांस की मोटी-मोटी परतों वाला आमतौर पर भावहीन रहने वाला चेहरा आखिरी वाक्य सुनते ही रंगीन हो गया. बुझी-बुझी आँखों में हल्की सी टिमटिमाहट आ गयी और होठों पर मुस्कान की बारीक झलक. बात सुनी तो उन्होंने भी थी पर उन्हें तो हर चीज़ से सिर्फ गंध ही आती है. निरंजन के वाक्य ने सुगंध की जो लहर फैलाई तो उसे पूरे रंग में ले कर अपनी नाक रंगित करने को वह उतावली हो उठी.

हाथ का स्वेटर पलंग पर लगभग फेंकते हुए वीणा ने अपना भारी भरकम शरीर उसी खाट पर निरंजन की बगल में दे पटका. प्रतिवाद में खाट थोड़ा चरमराई पर उसकी कुनमुनाहट उस के भारी स्वर में दब कर रह गयी., “अरी निरंजन, ये तू क्या कह रही? निधि की अम्मा तो कहे थी कि वे लोग रिश्ता ले कर आये रहे उनके घर. तू कैसे जाना कि ये गए थी उनके घर?”

एकबारगी तो निरंजन सकपका गयी, मगर जल्दी ही संभल भी गयी. मन की अकबकाहट चेहरे पर नहीं आने दी. समझ गयी कि अब कई और झूठ गढ़ने होंगे. ठान लिया कि शुरू हो चुके इस सिलसिले को थमने नही देगी. सोचा उसको कौन किसी को लिख कर देना है. किसी के सामने पड़ने की बात उठेगी ही नहीं. उठ भी गयी तो साफ़ मना कर देगी. सच तो ये है कि लगा वीणा जैसा ध्वनी विस्तारक यंत्र कहाँ मिलने वाला है.

निरंजन जानती थी कि वीणा अपने हिसाब से किस्से की सिलाई कटायी कर के ही आगे बढायेगी. अपने आप को सुरक्षित पा कर उसने मन बना लिया और आगे बताने लगी, “हांजी जी मौसी जी वो मेरी सहेली है न आशा…. उस के घर के साथ वाला घर ही तो है लड़के वालों का. उस ने खुद देखा था, निधि की अम्मा को उनके घर जाते हुए.”

पूरी कथा में एक अकेला सच आशा के घर की भौगौलिक स्थिति ही थी. शेष निरंजन के सक्रिय मस्तिष्क की भरपूर उड़ान.

रंग जमने लगा था. वीणा की आँखों के दिए कुछ और तेज़ी से टिमटिमाने लगे थे. मुस्कानें फैलने लगी थीं. निरंजन की माँ की आँखें विस्मय से विस्फारित होने लगी. अपनी बेटी की जानकारी पर उन्हें गर्व हो आया. यह तिकड़ी निधि के इस साधारण से किस्से की बखिया उधेड़ने में तन्मयता से जुट गयीं.

निधि के घर के साथ वाले घर की मालकिन जया आरंभ से अंत तक इस पूरे काण्ड की चश्मदीद गवाह थीं. दबंग जया एम्.ए. तक पढ़ी हैं. आसपास के परिवेश की वे अधिकतम जानकारी रखती हैं.

मगर इस ताज़ा किस्से में जया को कुछ आनंद नहीं आया.

उन के पास फुर्सत ही फुर्सत है. बेटा हॉस्टल में रह कर एम्.इ. कर रहा है. बेटी भी सी. ए. करने के लिए मामा के घर दिल्ली चली गयी है. निधि वाले उस मामले में उन्हें कुछ सुगंध तो आयी मन बहलाव के लिए, लेकिन स्वाद फीका लगा.

पिछले वर्ष जया को पेट में अलसर हो गया था. लगभग ६ महीने तक सिर्फ उबली दाल, चावल और दलीया, दूध पर कटे थे. याने सभी कुछ स्वाद-हीन. सदा से ही चटनी, अचार की शौक़ीन जया ने दिन कैसे काटे, वे ही जानती थी. मुंह सूख गया था. बात-बात पर ठहाके लगाने वाली जया किसी के बोलने पर भी झल्लाने लगी थी. घर में दूसरों को साधारण खाना भी खाते देखती तो भृकुटी तन जाती. खैर किसी तरह दिन बीते.

निधि के रिश्ते की इस फीकी कथा को वे यों ही कहाँ निगलने वाली थी? नमक, मिर्च मसाला सभी कुछ तो छिड़क दिया अपनी ओर से, कोई कमी नहीं छोडी.

जाया की समझ का पैमाना बहुत विस्तृत है. सटा हुआ घर होने के कारण डाकिया पहले उन्हीं के यहाँ डाक डाल कर निधि के घर के बाहरी गेट पर लगे ताला जड़े डब्बे में डाक डालता है. जया डाकिये से हाथ में डाक लेना ज्यादा पसंद करती हैं. सो उसके आने से आधा घंटा पहले मौसम के अनुसार, अपनी कुर्सी बरामदे या लॉन में डाल कर बैठ जाती हैं. ताक-झाँक करने का ऐसा सु-अवसर वे भला कैसे छोड़ सकती हैं?

डाक लेते समय डाकिये के हाथ में थामे आस-पास के घरों के पते पर आये पत्रों पर भी जया एक भरपूर नज़र डाल लेतीं. उन्होंने अक्सर देखा है निधि के नाम आते उस हलके नीले लम्बे लिफ़ाफ़े को, पिछले एक साल से, हफ्ते में एक बार.

‘आज चोर आया पकड़ में' की तर्ज़ पर उनकी सोच चल पडी है. सुग-बुग तो भीतर कब से ही चल रही थी किन्तु अब विशवास हो गया. समझ गयीं. लडकी का कहीं प्रेम-व्रेम चल रहा है. उन नीले लिफाफों के भीतर के गुप-चुप सन्देश और भेजने वाला अनजान नाम उनके दिमाग में चक्कर-घिन्नी खाने लगे हैं. इसी प्रक्रिया में सारी कहानी के पेंच अपने आप आ कर जुड़ने लगे. सोचती सी वे सोफे पर बैठ गयीं.

अपनी दृष्टि से पूरे किस्से की लज्जतदार चाट उन्होंने बना डाली है. सब मसाले छिडक लिए. अब इंतजार है किसी ग्राहक का. इसी उधेड बुन में थीं कि महरी आ गयी. उसे देखते ही जया आमतौर पर कुढ़ने की अभ्यस्त थीं पर आज उनकी बांछे खिल गयीं. उन दोनों के बीच प्रेम और घृणा का बेहद मज़बूत रिश्ता है. न उन का हीरा बाई के बिना गुज़ारा है न हीरा बाई का उनके बिना.

रोज़ दोनों औरतें बेलौस एक दूसरी पर चिल्ला लेतीं. इधर-उधर की सारी भड़ास निकाल कर हीरा बाई झाड़ू-पोचे में लग जाती है और जया अपने मनोरंजन में.

हीरे बाई को देखते ही जया उल्लास से हुलस पडी. उसे लगभग गले से लगा लिया, “अरी आ री….. कुछ सुना तूने? अरे वही……… निधि के बारे में?”

‘सुना तो है' लेकिन अज मेम साहिब की ज़रुरत पडी जाना उसने अपना आसन कुछ ऊंचा कर लिया, “क्या मेम साब? क्या हुआ निधि बाई जी को?”

अपनी तरंग में जया नहीं समझ पाई कैसी दक्षता से नितान अनपढ़ औरत उन्हें बना ले गयी है. उन का तो मन उत्सुक था अपनी चाट परोसने को.

“अरी, निधि के रिश्ते की बता चली थी न….. अमित मेडीकोज़ वालों के लड़के के साथ…….” जया की ऑंखें और होठ गोलमोल हो आये और स्वर का तीखापन अनायास ही मधुर हो फुसफुसाहट के निकट आ गया.

हीरा बाई आराम से आलथी-पालथी मारे, कीमती कालीन पर बैठी भरपूर आनंद उठा रही थी.

रोज़-रोज़ उसे ऐसा सुख कहाँ मिलता था. फुरत के क्षण, मेम साब के हाथ की बनी गरम चाय, नरम गुदगुदा कालीन, उस पर पसरी और कहानी सुनती हीरा बाई. अब उस लोक में भला कौन सा स्वर्ग होगा?

आनंद तो जया भी पा रही थी.

“तुझे पता है बाई, निधि की माँ सब से कह रही है कि उन्होंने इस रिश्ते के लिए मना कर दिया है. लेकिन असली बात तो और ही है. ये आजकल की छोकरियाँ…….चच…..” वह कुछ और रहस्यमयी हो गयीं.

“शर्म-हया का तो नाम भी नहीं. इसका चक्कर चल रहा क्या कहीं?” हीरा बाई की चाय का स्वाद और मीठा हो आया था.

“अरी सुन तो सही. रंग बिरंगे लिफ़ाफ़े में रोज़ इसके नाम से ख़त आते हैं. मैंने खुद देखे हैं डाकिये के हाथ में. अभी पिछले महीने गयी थी न अपनी मौसी के घर अहमदाबाद…...”

“हांजी ………… गयी तो थी. मेरे को भी याद है.” चाय की सुडकन के बीच हीरा बाई बोल उठी.

फुसफुसाहट और धीमी हो गयी, “कुछ गड़बड़ हो गयी होगी. तभी तो इतने दिन लगा कार आयी. आयी थी तो कैसी बीमार-बीमार सी लग रही थी. “

दुबली- पतली निधि 15 दिन के लिए कॉलेज के छात्रों के साथ घूम फिर कर लौटी तो बदी तरो-ताज़ा थी. पर अब इस चटपटी चाट के सन्दर्भ में वह जया को अतीत के आइने में कुछ और दुबली दिखायी देने लगी थी. प्रतिवाद कौन करता? इस समय की एक मात्र श्रोता तो खुद बन रही चाट को देखती, आगे आने वाले स्वाद की कल्पना में डूबी, तनमन से विभोर हुयी जा रही थी.

“यही बात अमित मेडिकोज वालों को पता चल गयी. अब भला जीते मक्खी कौन निगलना चाहता है? सो जी, उन्होंने रिश्ते से मना कर दिया. अब ये माँ-बेटी अपनी इज्जत बचाने को उल्टा ढिंढोरा पीट रही हैं. सारी दुनिया को मूर्ख बना ले पर मुझे नहीं बना सकती. इन की रग-रग मैं पहचानती हूँ.”

सादियों पुराने कहानी सुनने के नशे में आकंठ डूबी हीराबाई जया की इस कला से अभिभूत मुंह बाए सुन रही थी. चाट बड़ी ज़ोरदार बन पडी थी.

हीराबाई फुर्तीले हाथों से काम में जुटी चाट परोसने की विधि सोच रही थी. आज शाम तक तीन और घरों में तो यह कार्य संपन्न हो जायेगा. आगे का सिलसिला फिर यहीं से चल निकलेगा. फिर तो लोग खुद आयेंगे. देखने, सूंघने और चखने. असली मजा तो अब आएगा. जब तिरछी नज़रें उस घर के ओर उठेंगी, राह चलते कटाक्ष उस ओर की हवा को भेदेंगे.

निधि की माँ से हीराबाई को कोई पुराना बैर था. जया उसके ज़रिये अपने भी कई हिसाब किताब साफ़ कर लेंगीं. अकेली अपने दम पर मर्दों की दुनिया में शान से सर उठाये जीती, कन्या विद्यालय की प्रिंसिपल निधि की माँ कौशल्या पर उन्हें एक अंजना रोष था. पर आज वह उल्लास में थीं. अब आयेगा ऊंट पहाड़ के नीचे.

अलग-अलग घरों में अलग अलग तरीकों से होती इस सारी मानसिक और शाब्दिक मेहनत का उद्देश्य था निधि तक इनका पहुंचना. एक एक कर सब अटकलें पहुंची भी, कोई इस राह तो कोई उस राह.

पल भर को निधि को तीर की तरह चुभतीं. लेकिन अब उसे इनकी आदत हो गयी थी. बचपन से अज तक यही देखती सुनती आयी थी. नया कुछ भी ना था. केवल सन्दर्भ और फिकरों के वाक्य बदलते रहते थे. कोशिश सभी में एक ही रहती थी.

अब नितांत भावहीन हो कर निधि सब प्रहार झेलती. अप्रभावित, अपने काम में डूबी, साथ ही सलिल के प्रेम में सराबोर. सलिल; उस का पड़ोसी, बचपन का दोस्त, युवावस्था का प्रेमी और निकट भविष्य में होने वाल पति…..

पिछली बार जब आया था तो निधि की माँ से मिल कर अपना निश्चय दोहरा गया था कि एम्.ए. की पढ़ायी पूरी होते ही अपना फैसला घर में सुना देगा. घर में सुनाने का मतलब था माँ को बताना. पिता और छोटी बहन इन दोनों के रिश्ते के बारे में जानते थे. वे दोनों इससे खुश भी थे. माँ को सुनाने पर धमाका होगा. इसी विस्फोट को सहने की तैयारी में वह लगा था.

इस समय निधि के चेहरे पर जो मोहक मुस्कान उभर आयी इस का स्त्रोत था, पिछले हफ्ते आयी सलिल की नीले लिफ़ाफ़े वाली चिट्ठी. बुधवार को उसका एम् इ. का फाइनल परचा था. गुरुवार को वह बी.एच.इ.एल. में अपने नए पद का कार्यभार संभालेगा और उससे अगले हफ्ते वीकेंड पर घर आयगे विस्फोट करने. मुस्कुराती निधि मन ही मन खत को बार बार पढ़ रही थी.

इस अमित मेडिकोज वाले मामले को लेकर निधि के मन में गहरा क्षोभ था. किन्तु चाट पर चटनी की कमी उसने भी महसूस की. चाट उस तक पहुँचाने वाले के हाथों यह सन्देश भेजने का मन उसका भी हुया कि जया से ही जा कर पूछे उस इन्सान के बारे में. वही बताये कि निधि का वह रहस्यमय प्रेमी कौन है, जिसे लेकर उन्होंने यह किस्सा बयान किया है. पर वह चुप रही. सत्य का अंश काफी बड़ा जो था. वह खुद ही नकारना नहीं चाहती थी. केवल सही समय के इंतजार में थी.

निधि की कीमत पर सभी ने भरपूर आनंद उठाया. लेकिन अब निधि की बारी थी. समय का चक्र उल्टा घूमना शुरू हो गया था. अब निधि निश्चिन्त थी. वह जानती थी अगला हफ्ता तूफ़ान ले कर आएगा.

अगला सप्ताह आया. वीकेंड आया. और सलिल भी आ गया. निधि की भावी सास जया के हाथों बनी निधि के उस सादे से प्रसंग की चटपटी चाट पर खुद उन्हीं के बेटे याने निधि के प्रेमी सलिल ने चटनी परोसी.

सुनते ही जया स्तब्ध रह गयी. उन की वाचाल जिव्हा मानो लकवाग्रस्त हो गयी. कुछ पल इसी दुविधा में बीते. फिर जो भयंकर विस्फोट हुआ तो सारे घर में भूकंप बरपाते जया ने सलिल से कहा, “ वो, ज़माने भर की बदनाम लडकी….. उस से शादी करेगा तू? तेरा दिमाग खराब हो गया है.”

वे चिल्लाती रही और वह चुपचाप सुनता रहा. जानता था यह झंझावात यूँ ही शांत रह कर गुजरने देना होगा. यहाँ आते ही वह सब कुछ जान चुका था. धीरे-धीरे बोलती, अपने अपमान की कथा सुनाती निधि की पलकों से जो आंसू ढले थे, उन्हें उस ने पोंछा था, अपने कंधे पर जबरन उस का सर रख कर उसे खुल कर रो लेने दिया था.

महीनों से निधि के अन्दर जो लावा इकठ्ठा हुआ था वह बह निकला तो धुले-धुले से उस के चेहरे को अपने हाथों से ऊपर उठा कर उस की आँखों में झांकते हुए बोला था, “ अब भी सोच लो. समय है. मुझ से शादी करने पर सास तुम्हें ऐसी ही मिलेगी. क्या करूँ? तुम्हें तो पति चुनने का अधिकार है लेकिन मुझे माँ चुनने का अधिकार नहीं है.” और हंस पड़ा था.

उदास निधि के होठों पर जो मुस्कुराहट उसे हँसते देख फूटी तो आगे बोला, “ पर निधि माँ जैसी भी हैं, मन की अच्छी हैं. केवल अपनी आदत से मजबूर हैं. सच बात तो ये है कि कभी उनकी इस आदत के रहते कोई झटका भी तो नहीं लगा जो उन्हें सोचने पर मजबूर करे. अब उन्हें अपनी गलती का एहसास होगा तो तुम पर भी उनका प्रेम ही बरसेगा. वे सभी से अपने ढंग से प्रेम ही करती हैं.”

निधि भी अब तक उदासी से उबर चुकी थी. लगभग छह माह बाद सलिल से मुलाकात हुयी थी. यही उल्लास मायूसियों को फूँक मार कर उड़ाने के लिए काफी था. अब तो सलिल का साथ उम्र भर के लिए पाने वाली थी. मुस्कुराते हुए ही बोली, “ केवल सास का ही? सास के बेटे का प्यार कहाँ बरसेगा?”

“बदमाश", बनावटी गुस्से से दांत पीसता जब तक वह उसे पकड़ता, खिलखिलाती निधि रसोई में चाय बनाती अपनी माँ के पास जा खडी हुयी.

इस समय सलिल माँ के एक तरफ़ा आरोपों को सर झुका कर सुन रहा था तो याद आया निधि की माँ का शांत स्वर. चाय पीते पीते उसे घर के बने सोमोसे लेने का आग्रह करती सारे प्रकरण पर उन्होंने सिर्फ कुछ वाक्यों की टिप्पणी की थी, “ बेटा, जो कुछ भी हुया, अच्छा नहीं हुआ. निधि को तो आज मैंने जाने कितने दिनों के बाद हँसते देखा है. मैं चाहती हूँ अब और संताप इसे न भुगतना पड़े. मेरी बेटी सम्मान के साथ तुम्हारी पत्नी बने.”

सलिल न चाहते हुए भी अपराध-बोध से भर आया था. विचार आया पहले ही विधिपूर्वक निधि के साथ सगायी हो जाती तो यह बवंडर न खडा होता. लेकिन अब तो सब हो चूका था. कैसे उसने दो माह तक लोगों के व्यंग्य बाण झेले होंगे, कैसे कॉलेज में सह-कर्मियों की काना फूसी को अपनी पीठ पर चुभते अनुभव किया होगा, कैसे अपने विद्यार्थियों की तीखी भेदती नज़रों के वार झेले होंगें, यही सोच कर उसे झुरझुरी हो आयी.

लगा जैसे वह निधि का अपराधी है. चुपचाप चाय पी कर कुर्सी की पुष्ट पर रखे निधि के हाथ को थपथपा कर उसके चेहरे पर अपने स्नेह की किरणें फैला कर उसकी माँ को अभिवादन कर चला आया था.

आते ही माँ के सामने साफ़ शब्दों में अपना निश्चय सुना दिया था और इस समय शांत बैठा तूफ़ान के थमने की राह देख रहा था. ताकि अगला क़दम बढ़ा सके.

पिता सारी बात जानते थे. वे इस समय घर पर ही थे, पुत्र को तूफ़ान में घिरे देख कर बचाव के लिए आ गए. पत्नी के रेल की तरह चलते शब्दों के प्रवाह पर रोक लगाते गंभीर किन्तु ऊंचे स्वर में बोले, “कैसी बदनामी? किस के साथ चक्कर है भला? क्या जानती हो तुम?”

जया तीखे स्वर में बोली, “ प्रेम पत्र आते हैं उसके, अपनी आँखों से देखा है मैंने. ”

“ये बैठा है उसको प्रेम पत्र लिखने वाला. तुम्हारे सामने.” वैसे ही ऊंचे स्वर में बोले और अपने दायें हाथ की तर्जनी सलिल की तरफ उठा दी.

सलिल की आँखें शरारत से चमचमा उठी. होठों पर आयी हंसी को जबरन रोका और चेहरे को गंभीर बना कर मुंह नीचा किये बैठा रहा. पिता का अपने पक्ष में खड़ा होना अच्छा लगा.

उधर जया के दिमाग के साथ साथ शरीर ने भी जवाब दे दिया. अपना चकराता सर पकडे 'हाय' कहती जहाँ खडी थी वहीं बैठ गयी.

मोहल्ले के पार्क में शामियाना लगा हुआ है. विवाह की गहमा-गहमी पकवानों की खुशबु, इतर के भभकों, सरसराते नए कपड़ों की चमक, स्त्रियों की कीमती साड़ियों, गहनों, पुरुषों के गरम सूटों और बच्चों की आनंदभरी चिल्लाहटों से मुखर हो रही थी.

सलिल और निधि दूल्हा दुल्हन बने सजे हुए मंच पर विराजमान थे. दोनों के बीच थी सलिल की बहन सरिता. सलिल ने अपनी आदत के अनुरूप कोई शरारत भरा जुमला निधि के कानों के पास छोड़ा था. वह शर्म से लाल हुयी कुछ और सिमट आयी थी. सलिल के पिता मुख्य द्वार पर इष्टमित्रों और रिश्तेदारों के साथ मेहमानों के स्वागत में हाथ जोड़ कर खड़े थे.

जया गुलाबी रंग की ज़रीदार बनारसी सड़ी पहने, भारी कुंदन हार गले में डाले, कलायिओं में ढेरों सोने की चूड़ियाँ चढ़ाए, भारी झुमकों को सर के हर झटके के साथ झुलाती मेहमानों की बधाईयाँ लपक रही थी. सामने रामलाल, सावित्री और तीनों बेटियां आते दिखे. सावित्री हाथ में पकड़ा उपहार निधि को देने मंच पर चली गयी और रामलाल जया की ओर.

जाया चाहती तो थी किसी तरह उनसे मुलाकात टल जाए पर हो न सका. हाथ जोड़, खीसें निपोरते रामलाल उनके सामने खड़े थे. जया ने भी अभिवादन में हाथ जोड़ दिए.

वे बोल पड़े, “ बधाई हो, भाभीजी. आप ने तो मोहल्ले का बेशकीमती हीरा पा लिया. भई, निधि तो हमारी बेटी जैसी है. हम ने तो बहुतेरे कोशिश की अपनी ही जात-बिरादरी में इसे रखें. मान गए आप को.. आप ने तो डाका ही डाल लिया….”

जया जानती थी अमित मेडिकोज वाला प्रस्ताव यही ले कर गए थे निधि के घर. यहाँ उनके मन की कसक पहचान गयीं. साथ ही अपने मन का चोर भी दाढ़ी टटोलने लगा.

तपाक से बोली, “ भाई साहब, बधाई तो आप को हो. मोहल्ले की बेटी, यहीं की बहु भी बन गयी. सच कहा आपने. मेरी बहु तो हीरा है हीरा. कैसी कैसी तो बातें कर डाली लोगों ने…… आग लगे ऐसी बातें बनाने वालों की जुबां में.”

अभी और कडवी बातें निकलनी थी अफवाहें उड़ाने वालों के बारे में कि हीरा बाई वहां आ पहुँची. हलवे में डालने के लिए हलवाई ने सूखे मेवे मंगवाए थे. वही लेने मेम साब के पास आयी थी. आज वह बड़े जोश में थी. लाल गोटा लगे लहंगा, ओढ़नी में सजी, पायलें छनकाती वहां पहुँची तो कुछ शब्द उसके कानों में भी पड़े. मेम साब से इस शादी पर नयी साडी का वादा तो पहले से ही ले चुकी थी, सोचा लगे हाथ कुछ और इनाम भी हासिल कर लिया जाए.

उसने पल्लू सर पर बाये हाथ से टिकाया और दाहिना हाथ चक्करघिन्नी सा नाचते हुए बोली,

“ करमजलों ने कैसे-कैसी बातें बना डाली. हमारी निधि बिटिया जैसी बहु तो दीया ले के ढूंढें से भी न मिलने की. मेम साब तो कब से बहु बनाने का सोचे थी.. वो तो…….”

सामने कुछ विशिष्ट मेहमान आते देख रामलाल से भोजन का आग्रह कर के जया उधर चल पडी तो हीराबाई भी अधूरा वाक्य छोड़ कर उनके पीछे हो ली. उसे तो चाकरी मेम साब की बजानी है. रामलाल भी थाली के बैंगनों की चाल देखते देखते मुकुराते उधर ही चल पड़े जहाँ एक ओर भोजन का प्रबंध था.

सुनहरी कढ़ाई वाले गहरे हरे रंग के सलवार-कमीज़ में सजी निरंजन अपनी माँ के साथ खडी दही भल्ले का मज़ा ले रही थी. जया इधर से गुज़री तो उनके पास भी रुक गयी.

निरंजन की माँ ने बधाई दी तो निरंजन भी बोल पडी, “ मौसी जी, सलिल भैया ने तो अपने लिए शानदार दुल्हन ढूंढ ली. पूछो माँ से मैं तो हमेशा निधि की तारीफ ही किया करती हूँ. कॉलेज में भी सभी कहते हैं इतना मीठा स्वभाव तो कहीं और है ही नहीं. अपने मोहल्ले के लोग तो जाने कैसे कैसे….”

जया के स्वर में मिठास घुल गयी, “ हाँ बेटी, सलिल क्या मैं तो खुद यही चाहती थी. पर जात बिरादरी दूसरी थी, इसी मारे मन मार के बैठी रही. कौन जाने निधि की माँ माने न माने. पर अब सब ठीक हो गया है. बस अब तो सरिता अपने घर की हो ले तो मैं गंगा नहाऊँ.” बड़ी दक्षता से जया ने बात का रुख पलट दिया था

निरंजन की माँ अपने धीमे पंजाबी मिश्रित स्वर में जया को दिलासा देती शायद खुद अपने लिए भी सहारा ढूंढती सी बोली, “ बहन जी, आप की सरिता के लिए रिश्तों के कोई कमी है भला? एक ढूंढो हज़ार मिलेंगे.”

“आप के मुंह में घी शकर. मैं तो सदा यही चाहती हूँ कि आप की, हमारी सब की बेटियां अच्छे घरों में जाएँ.”

विवाह की सब औपचारिकताएं पूरी हो चुकी थी. घर में बाहर से आये मेहमान अपने अपने कमरों में सोने की तैयारी में जुटे थे. पहली मंजिल के एक कोने में बने सजे हुए कमरे में बैठी निधि घबराहट और आनंद के मिले जुले एहसास से भीगी सलिल की प्रतीक्षा में बैठी थकान से चूर हो चुकी थी. दिन भर लोगों की आवा-जाही और रस्मों रिवाज़ निभाती कुछ परेशान भी.

सलिल आया तब तक निधि का सर दर्द बढ़ चुका था. बचपन का दोस्त देखते ही भांप गया कि कुछ गड़बड़ है. ज्यादा पूछना नहीं पड़ा, “ तुम भी क्या सोचोगे… पर सच तो ये है कि मेरा सर दर्द से फटा जा रहा है.”

सलिल समझ गया तनाव अपना रंग दिखा रहा है. निधि की परेशानी चुटकियों में दूर करना वह जानता है.

बेहद रोमांटिक हो कर दायाँ हाथ दिल पर रख शाही अंदाज़ में बोला, “ बेगम साहिबा की खातिर अभी अमित मेडिकोज से सर दर्द की दवा मंगाए देते हैं.”

निधि के जो हंसी छूटी तो हंसते हँसते बेदम हो वह उस के कंधे से झूल गयी.

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