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कोलाहल

कोलाहल

एक अनजान सी चुप्पी मेरी जुबान पर रखी दिन रात मुझे उलाहने देती रहती है. अक्सर सोचता हूँ कि इस चुप्पी को ढहा कर एक इमारत खडी कर दूँ, जिसका नाम मेरे अपने नाम पर हो. दुनिया में जब कोई किसी का भी नाम ले तो इस ईमारत का नाम भी उसमें शामिल हो और मेरा नाम गूँज गूंज कर इस चुप्पी को धराशायी करता रहे.

लेकिन चुप्पी एक ही बात की रट लगाये रहती है, “ मैं बोलूंगी तो बदनाम न हो जाउंगी?”

मैं कहता हूँ, “ तुम भला क्यूँ बदनाम हो जाओगी ?”

“इसलिए कि मेरा नाम ही चुप्पी है.”

“तुम्हारा नाम ही तो चुप्पी है. तुम खुद तो चुप्पी नहीं हो. इस वक़्त मुझसे भी तो यह सब बोल कर ही कह रही हो.”

“नहीं, मैं बोल नहीं रही हूँ. मैं चुप ही हूँ. तुम अपने दिमाग में मुझे सोच रहे हो.”

“मैं भला तुम्हें कैसे सोच सकता हूँ?”

“क्यूँ नहीं सोच सकते? क्या तुमने कभी इश्क नहीं किया?”

“अरे! अब ये साला इश्क यहाँ कहाँ से आ गया?”

“इश्क कहीं से नहीं आता मेरी जान. इश्क तो दुनिया के आदि से लेकर अंत तक अपनी जगह यूँ ही बना रहता है. हम लोग इसके पास और दूर होते रहते हैं.”

“ वाह! क्या बात कही है. तुम तो दार्शनिक की तरह बात करती हो.”

“मैं दार्शनिक नहीं हूँ . मैं चुप्पी हूँ. दार्शनिक बोलते हैं. मैं चुप रहती हूँ. मेरा उनका क्या मुकाबला?”

“ अच्छा! चलो मान लिया कि तुम चुप रहती हो और दार्शनिक भी नहीं हो. तो यह सब बातें कहाँ से आ रही हैं?”

“मैंने कहा न कि यह सब इश्क से जुड़े मामले हैं."

“मुझे तुम्हारी कोई बात समझ नहीं आ रही.”

“अभी समझाती हूँ. पहले यह बात साफ़ करो कि तुमने इश्क किया है कि नहीं?”

“ये लो! दुनिया में कौन है जिसने इश्क न किया हो"

“ये बात रहने दो. मैं बड़े नाम गिना सकती हूँ.”

“तो गिनाओ.”

“तुम मुद्दे से भटक रहे हो. तुम क्या जानना चाहते हो? पहले ये तय कर लो, फिर आगे बात करेंगे.”

"मैं कुछ भी जानना नहीं चाहता. मैं तो सिर्फ तुम्हें ढहाना चाहता हूँ और तुम एक बेकार का बखेड़ा ले कर बैठ गयी हो."

"मैंने क्या बखेड़ा किया है? सुनूँ मैं भी." उसके तेवर तीखे लगे मुझे.

"इश्क" मैंने भी अपनी नज़र तीखी कर ली. "मैं इमारत खड़ी करने की बात कर रहा था तुम इश्क को बीच में ले आयी."

"हाँ, इश्क तो हर जगह आ टपकता है. तुम इनकार कर सकते हो?"

"किस को? इश्क को या इश्क के टपकने को?"

"दोनों को." उसने एक ठहाका लगाया तो लगा मुझे इसके ढहाने में खासी मेहनत करनी पड़ेगी. ये चुप्पी तो बड़ी दमदार लगती है.

"इश्क से मुझे इनकार नहीं. और रही बात टपकने की तो ये तुम बताओ. इश्क अक्सर तुम्हारी मौजूदगी में मौजूद रहता है. तुम खिसक लो तो वाचाल हो कर इश्क भी हवा हो जाता है."

"ये क्या बात हुयी भला?"

"सोचो, खुद ही सोचो. जब इश्क बोलने लगे तो उसकी इश्कियत हल्की हो कर हवा में तैरने लगती है. और फिर जब ये सर चढ़ कर बोलने लगता है तो एक ही झटके में ज़माना इसे सिरे से ही उड़ा देता है."

"यानी इश्क ख़तम हो जाता है? यही कहना चाहते हो?"

"और क्या? या तो आशिक को मार दिया जाता है या इश्क खुद अपनी मौत मर जाता है और इश्क से खाली हुया इंसान साफ़ सुथरा हो कर दुनिया के कारोबार के लायक हो कर अपनी दुनिया में सही सलामत लौट आता है."

"बात तो तुमने पते की कही है. आखिर हो तो इंसान ही न. अकल बहुत है तुम्हारे पास."

चुप्पी ने अपनी ठुड्डी के नीचे अंगुली रखी और सोच में पड़ गयी.

मैं अकड़ कर गुब्बारा बन गया था. उड़ने लगा था हवा में बिलकुल जैसे इश्क़ में आशिक उड़ते हैं. लेकिन मेरी ऐसी किस्मत कहाँ?

"ए सुनो, तुम्हें क्या लगता है कि तुम इश्क से अछूते हो? "

"देखो, मैंने कभी इश्क न किया हो ऐसा तो नहीं, लेकिन इस वक़्त मैं इश्क नहीं कर रहा."

"तुम बड़े बेवकूफ हो. इश्क होता है, किया नहीं जाता. तुमने फिल्मी गाने नहीं सुने? और फिर मान लो कि तुम्हें इश्क हुआ था. इसका क्या सबूत कि तुम्हें इस वक़्त इश्क नहीं है?"

"देखो मेरी तरफ. बताओ कि मैं तुम्हें गुलाम दिखाई देता हूँ या कि आज़ाद? "

"हाय मेरे इंसान! अब तुम गुलामी को यहाँ कहाँ फैलाने के लिए ले आये? भले मानस मैं इश्क की बात कर रही हूँ."

"मैं भी इश्क़ की ही बात कर रहा हूँ. इश्क में आदमी गुलाम हो जाता है. उससे निकलने पर आज़ाद."

"तुम बादाम खाया करो. अकल से पैदल लगते हो. इडियट, इश्क में आदमी आज़ाद हो जाता है. पूरी तरह से. दुनिया से, दीन से, खुशी से, गम से."

"तुम बड़ी दाकियनूसी बातें करती हो चुप्पी मोहतरमा. ये पुराने ज़माने में होता था. आजकल इश्क सबसे बड़ी बेडी है."

"यानी वक़्त के साथ इश्क की फितरत बदलती है?'

"हाँ, मैडम. वक़्त सबसे बड़ा खिलाडी है. तुम खुद किसी ज़माने में बड़ी काम की चीज़ हुआ करती थी. आज कौड़ी के दाम नहीं बिकती. मैं बिलावजह तो तुम्हे ढहाना नहीं चाहता. मैं तुम्हारी कब्र पर एक विशाल ईमारत खडी करूँगा जिसका नाम होगा.. कोलाहल. "

"तुम कुछ भी कहो लेकिन तुम मुझसे बे-इन्तहा इश्क करते हो. मैं तुम्हारे दिलो दिमाग में बस गयी हूँ."

मुझे उसकी आँखों में कुछ गीला गीला सा नज़र आया. इससे पहले कि मेरी आँखों का भी वही हाल हो, मैंने एक झटके से अपना दामन उसके हाथ से छुडा लिया.

"तुम वाकई वाहियात हो. मुझे तुम्हें ढहाना ही होगा. " लेकिन अब तक मेरी आवाज़ की तल्खी मेरी जुबां से छिटक कर नीचे मेरे पैरों के पास मेरे जूते की नोक पर गिर पडी थी.

"क्या सच?"

"क्या, क्या सच?"

"क्या सचमुच तुम मुझे ढहाना चाहते हो?"

"हाँ, कितनी दफा कहूँ एक ही बात?"

" दिल नहीं दुखेगा मुझे ढहाते हुए?"

"नहीं. क्यों दुखे मेरा दिल. तुम कौन सी खुशी देती हो मुझे. हर वक़्त मेरे दिमाग में हलचल पैदा करती रहती हो. हर वक़्त मुझे किसी न किसी उलझन में डाले रखती हो."

"यानी मैं हर वक़्त तुम्हारे भीतर मौजूद रहती हूँ?"

"हाँ भई हाँ"

"अब तुम खुद ही बताओ अगर अपने अन्दर से मेरी मौजूदगी हटा दोगे तो तुम्हारा क्या शेष बचेगा?"

"मैं कुछ नहीं जानता. इसी तरह की सोच से ही तो तुमने मुझे बंदी बना रखा है. मुझे तुम्हारी यह क़ैद नहीं चाहिए. मैं तुम्हें ढहा कर ही मानूंगा. तभी इस दुनिया में कामयाब बनूँगा और अपने नाम की ईमारत खडी कर पाउँगा. "

"याने सारी समस्या मेरे होने से है."

"नहीं,तुम्हरे सिर्फ होने से कोई फर्क नहीं पड़ता. तुम अगर अपने आप में हो तो तुमसे मुझे क्या किसी को कोई परेशाने नहीं है. लेकिन तुम जब मुझे में हो और मुझ पर हावी हो तो मैं आज़ाद नहीं. इससे मैं हैरान हूँ. "

"यानी एक बात तो तुम मानते हो कि मैं तुम्हारे भीतर हर वक़्त मौजूद हूँ."

"मानता हूँ मेरी जान मानता हूँ." मेरा अपना स्वर ढीला पड गया था. मैं खुद अपने अन्दर आयी इस मुलामियत से हैरत में पड़ गया था.

"जानते हो अभी एक पल पहले तुमने मुझसे अपने इश्क का इकरार किया है."

"नहीं." लेकिन मेरी नहीं में अब दम नहीं था.

चुप्पी ने मुझे एक नज़र देखा और चुप हो कर धीरे से मेरे अन्दर उतर गयी.

प्रितपाल कौर.

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