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मैं अम्मा नहीं हूँ.

मैं अम्मा नहीं हूँ.

मैंने पहली बार उन्हें देखा था अपने घर के बड़े से आँगन में तीन मेजों को एक के बाद एक सिरे से लगा कर उन पर अपनी पुरानी नौकरानी की मदद से खाना बनाते हुए. उनके पीछे बहुत सारा रोज़मर्रा का सामान बेतरतीब बिखरा हुआ था. आगन के एक कौने में पेंट के डब्बे, ब्रश, सैंड पेपर्स, मैले कपडे जो रंगाई पुताई के कम में आते हैं, वे पड़े थे.

वे खुद उन तीन मेजों के दूसरी तरफ गैस के चूल्हे पर दोनों तरफ एक एक कड़ाही चढ़ाये बेहद व्यस्तता से खाना बना रही थी. नौकरानी उनके कहे अनुसार एक के बाद एक मसालों के डब्बे पकड़ा रही थी. सब्ज़िया काट रही थी. मेरे देखते देखते आधे घंटे के अन्दर उन्होंने तीन तरकारिया, एक दाल, मटर पुलाव बना लिए थे. और उन सब को सर्विंग बाउल्स में डाल कर अन्दर डाइनिंग टेबल पर भेज दिया था.

अब वे घूम कर हमारी तरफ आ गयी थी. नौकरानी रोटिया बना रही थी. इस बीच उन्होंने नौकरानी को अन्दर कौन सी और कितनी प्लेटें लगानी हैं इसके बारे में बता दिया था. खुशमिजाज़ नौकरानी हामी भरते हुये रोटिया सेक रही थी.

इस दौरान हमारे लिए यानि मेरे और मेरी माँ के लिए चाय भी बन चुकी थी. वे धीरे धीरे चलती हुयी अन्दर गयी थी जो मेरे हिसाब से उनका डाइनिंग रूम था. और वहां से दो खूबसूरत प्लेटों में कुछ मिठाई और नमकीन ले कर आयी थी.

उनकी बातों से और वैसे भी मैं साफ़ देख रही थी कि पूरे घर में मरम्मत और रंगाई-पुतायी का कम चल रहा था. सब सामान अस्त व्यस्त था. कमरे बाहर बिखरे पड़े थे लेकिन इस सारी अव्यवस्था के बीच उनकी व्यवस्था बिलकुल भी चरमराई नहीं थी.

वे शहर के अति प्रतिष्ठित डॉक्टर की पत्नी हैं. उनकी बेटी शहर की जानी मानी स्त्री-रोग विशेषज्ञ हैं और बेटा शहर का जाना माना आँख के रोग का विशेषज्ञ. बेटे की पत्नी शिशु- विशेषज्ञ है. याने कुल मिला कर पूरा परिवार, सिर्फ उनको छोड़ कर डाक्टरी के पेशे में डूबा हुआ समाज की सेवा करता है. और वे उन सब की सेवा करती हैं.

बेटी डॉ. अनीता ने शादी नहीं की, वे मेरी माँ की सहपाठी रही हैं. मेरी माँ मेरे इलाज के लिए मुझे लेकर यहाँ आयी हैं. अनीता अभी हॉस्पिटल से वापिस नहीं आयी हैं. हम दोनों अम्मा जी के पास बैठे उनका इंतजार कर रहे हैं.

अम्मा जी लगभग सत्तर की उम्र की बेहद भव्य, नन्हे कद की खूबसूरत और मृदुभाषी महिला हैं. उनकी यादाशत भी गज़ब की है. वे मेरी माँ की बातें याद कर कर के मुझे सुना रही हैं. साथ ही अपने बेटे, बहु, बेटी और पति के लिए अलग अलग तरह का मन पसंद खाना भी बना रही हैं.

ज़ाहिर है थकी हुयी लग रही हैं. लेकिन उनका एक भी शब्द इस थकान का जिक्र नहीं करता. सभी की पसंद नापसंद के बारे में बताते हुए ये भी बता रही हैं कि किस तरह उनकी रसोई फिलहाल उनसे छूट गयी है.

बेटे को अपने आई क्लिनिक के लिए मौजूदा कमरा बड़ा करना है, सो उनकी रसोई को तुडवा कर उसमें मिला दिया गया है. वे पिछले एक महीने से इसी तरह तीन मेजों पर खाना और नाश्ता बना रही हैं. और अभी ये सिलसिला लम्बा चलने वाला है क्यूंकि उनकी रसोई अब छत पर बन रही है जो कम से कम दो महीनो में जा कर तैयार हो पायेगी.

मेरी उम्र ज्यादा नहीं है. मेरी शादी हुये भी ज्यादा अरसा नहीं हुआ है फिर भी मैं उनके जीवट से हैरान हूँ. इतनी सहन शीलता मेरी समझ से परे है. मेरी माँ को जो कि खुद एक बड़े ओहदे की सरकारी अफसर हैं, मैंने बहुत कम रसोई में देखा है. लगभग नहीं के बराबर. सो मैं अम्मा जी को समझ नहीं पा रही हूँ.

रसोई तो घर का एक महत्वपूर्ण हिसा होती है. लेकिन अम्मा जी उसे हर बार मेरी रसोई कहती हैं. और उन्हें कतई रंज नहीं है इस बात का कि उनकी वो रसोई जिसमें पूरे घर के लिए वे दिन भर लगी रहती हैं, उनसे छिन गयी है. वे अपने काम चलाऊ तीन मेजों के सहारे खुले आसमान के नीचे बने उस चौके में उसी लगन से उसी तरह स्वादिष्ट खाना बना रही हैं. परिवार के लोगों को शायद अंदाजा भी नहीं है कि वे किस मुश्किल से दो चार होती हैं, हर रोज़, पूरा-पूरा दिन.

खिचडी बालों वाले सर और झुकी हुयी कमर लिए, मोटा चश्मा आँखों पर चदाये, सफ़ेद और लाल प्रिंट की खूबसूरत लेकिन थोड़ी सी मैली साड़ी में अपना जिस्म लपेटे अम्मा जी को देख देख कर मेरा दिल उदास हो गया है.

एक साल पहले मेरी शादी हुयी है. शादी से पहले तमाम तरह के वादों के बावजूद आज तक न तो मैं अपनी पढाई जारी रख पाई हूँ और ना ही कोई जॉब या कारोबार ही शुरू कर पाई हूँ. और अब मुझ पर बच्चा पैदा करने का दबाव लगातार बढ रहा है. इसी सिलसिले में आज मैं और मेरी माँ डॉक्टर अनीता से मिलने आये हैं.

मैं सोच में पड गयी हूँ. एक नज़र मैं अपनी माँ पर डालती हूँ. फैब इंडिया का कुरता और चुरीदार पायजामा पहने वे एक बेहद स्मार्ट और दिलकश खूबसूरत महिला हैं . दूसरी तरफ अम्मा जी हैं. मुझे अपना भविष्य अम्मा जी में नज़र आने लगा है. और मैं घबरा कर उठ खडी होती हूँ.

क्या जिस राह पर मेरी ज़िंदगी चल रही है वो एक दिन मुझे भी इसी मोड़ पर ला कर खडी कर देगी जहाँ आज अम्मा जी खडी हैं?

मेरी आँखों के सामने एक तस्वीर उभर आयी है. मेरे कई बच्चे हैं, एक भरा पूरा परिवार जिसके लिए मैं दिन भर काम में लगी हूँ. लेकिन जिसके पास मेरे लिए वक़्त नहीं है और ना ही मेरे किये गए काम की कोई कदर. यहाँ तक कि मेरे लिए, मेरे आराम या सहूलत को लेकर किसी को कोई फिक़र या ज़िम्मेदारी का एहसास. क्या यही मेरे ज़िन्दगी एक हासिल होगा?

ऐसा नहीं कि घर में रहना, घर का ख्याल रखना और घर के सदस्यों के लिए खाना पकाना मुझे नापसंद है. लेकिन क्या सिर्फ यही ज़िंदगी का हासिल है?

मुझे ऐसा नहीं लगता. यही वजह थी कि मैंने शादी के वक़्त ये बात साफ़ तौर पर दोनों तरफ के परिवरों को बता दी थी कि मैं अपने पढायी जारी रखूंगी. और वक़्त आने पर अपना कोई कारोबार भी करूंगी. लेकिन जिस तरह के हालात में मेरे ज़िन्दगी गुज़र रही है मुझे अपना कोई भी सपना पूरा होता नज़र नहीं आ रहा.

शादी के वक़्त मेरी सारी शर्तें मान ली गयी थी. मेरे पिता चाहते थे उनके व माँ के रिटायर होने से पहले वे सारे बच्चों की शादियाँ निपटा दें. मैं सब से छोटी सो मुझे उनकी इस इच्छा के तहत अपनी कुर्बानी कॉलेज के दूसरे साल में ही देनी पडी.

थर्ड इयर के लिए मुझे कॉलेज में एडमिशन के लिए फीस भरने नहीं जाने दिया गया क्यूंकि मेरी सास की तबीयत अच्छी नहीं चल रही थी. मुझे कहा गया कि अगर मैं कॉलेज जाउंगी तो घर किस तरह चलेगा?

हालाँकि घर में दो नौकर हर वक़्त मौजूद रहते हैं लेकिन मालकिन का होना ज़रूरी है कह कर मेरा मुंह बंद करवा दिया गया. जबकि कुछ दिन घर में रह कर मैने मह्सूस किया कि मम्मी जी की तबीयत हल्का फुल्का ऊपर नीचे अक्सर रहती थी. जो उस वक़्त चंगी भली हो जाती थी जब उन्हें रिश्तेदारी में, शौपिंग के लिए या फिर अपने किटी क्लब की किसी पार्टी के लिए जाना होता था.

मैंने दबे शब्दों में ये बात उठाई तो रंजन ने मुझे फ़ौरन डांट दिया. उसका तर्क था कि माँ ने सारी ज़िंदगी घर की देख भाल में बिताई है अब चूँकि उनकी बहु आ गयी है तो उनको पूरा हक बनता है कि वे अपनी ज़िंदगी अपने ढंग से जियें. घर संभालना अब पूरी तरह से मेरी ज़िम्मेदारी है.

मैंने इस ज़िम्मेदारी से कभी नज़रें नहीं चुराईं लेकिन अपने प्रति जो मेरी ज़िम्मेदारी है, खुद को लेकर जो मेरे सपने हैं उनके बारे में जब मैंने सवाल किया तो रंजन उखड गया. उसने मुझ पर आरोप लगाया कि मैं सिर्फ अपने बारे में सोचती हूँ. मुझे घर में किसी और का कोई ख्याल नहीं है.

उसके अनुसार मुझे तो ये चाहिए कि घर के सभी सदस्यों की पसंद नापसंद जानने में अपना वक़्त बिताऊँ और फिर उसी हिसाब से अपना ज्यादा से ज्यादा वक़्त रसोईं में बिताऊँ.

इस पर जब मैंने सवाल किया कि मेरी पसंद और नापसंद का ख्याल रखने की ज़िम्मेदारी किसकी है तो रंजन ने तीखी नज़रों से मुझे घूरा था. और मुझे लगा था कि शायद मैं शादी का मतलब ही नहीं समझती.

मैं फिर भी चुप नहीं रही थी. मैंने फिर सवाल किया था कि मैं शादी से पहले ही बता चुकी थी कि मैं अपनी पढ़ाई जारी रखूंगी तो तल्ख़ शब्दों और उतनी ही तीखी नज़रों से मुझे घूरते हुए रंजन ने कहा था कि पढ़ाई लिखाई की वजह से ही मैं इतना तर्क और विवाद करती हूँ. इसीलिये वह नहीं चाहता कि मैं आगे पढ़ूं.

मेरे दिल पर एक भारी पत्थर आ कर गिरा था. मुझे आँखों के सामने अँधेरा नज़र आने लगा था. कई दिनों तक उदास रह कर सोचने और समझने के बाद मैंने फैसला किया था कि मैं घर में और मन लगा कर सब को खुश रखूं तो शायद वे लोग भी मेरी बात को समझेंगे.

मैं मन लगा कर घर और रसोई में जुट गयी थी. कई दिन सब अच्छा चलता रहा. मेरी तारीफ भी हुयी. लेकिन मुझे कोई खिड़की खुलती नज़र नहीं आयी. एक दिन मैंने जब देखा मम्मी जी की तबीयत अच्छी थी और वे अच्छे मूड में भी थीं, मेरी बनाई खीर की तारीफ कर थी. मैंने बात छेडी,

"मम्मी जी, आप ही समझिए न रंजन को. मैं अपनी पढ़ाई जारी रखना चाहती हूँ."

"बेटा, बहुत अच्छी बात है. पढ़ाई तो सब को करनी चाहिए. मैं तो कहती हूँ हम ने नही की तो पिछड़ ही गए ना. तुमको तो ज़रूर करनी चाहिये. पर बेटा, मैं इसमें क्या कहूँ? तेरा पति है. तू जाने वो जाने. हमारे यहाँ बीच में नहीं बोलते हैं. जैसा उसको ठीक लगे तू वैसा ही करियो. कल को झगडा होवे पति-पत्नी में तो बेकार में सास बदनाम हो जावे हैं." कह कर उन्होंने सिरे से अपना पल्ला इस पूरे विवाद से झाड लिया था.

मरता क्या न करता. मैंने अपने घर में पिता से बात करने की कोशिश की. उनका भी यही जवाब मिला कि अब मेरा घर वही है. मुझे उन सब के अनुसार ही चलना होगा. वगैरह वगैरह.

अब मैंने जंग की ठानी. सीधे रंजन से बात की और रंजन ने भी मुझे टका सा जवाब दे दिया. "हमारे यहाँ स्त्रियाँ पढ़ती लिखती नहीं हैं. तुम भी ये विचार छोड़ दो. क्या कमी है यहाँ? "

"लेकिन तुम ने तो इतनी ऊंची डिग्री ली है. इतने अच्छे पद पर हो. तुम भी ऐसा सोचते हो?" मैंने प्रतिवाद करना चाहां.

"बिलकुल, समझदार हूँ, इसीलिये नहीं चाहता कि तुम आगे पढ़ो. तुम बहुत बहस करती हो बिना पढ़े लिखे भी. पढ़ लिख के तो मेरी बॉस बन के बैठ जाओगी".

"मेरा विशवास करो. ऐसा कुछ नहीं होगा. और फिर मेरी माँ भी तो एक बड़ी अफसर हैं. ये बात तो तुम जानते ही हो."मैंने अपना नया पासा फेंका था.

"जी मेम साहिब. बिलकुल. हमने ये बात पहले ही आपके पिता जी से साफ़ कर ली थी. उन्होंने कहा था कि आपकी माँ हर काम उनसे पूछ कर करती हैं. आपकी तरह बहस बाजी नहीं करतीं."

अब मैं क्या कहती?

"और जब मैंने पहले कहा था कि मैं पढ़ाई जारी रखूंगी. तब आपने क्यूँ मुझे मना नहीं किया था? ताकि मैं ये शादी ही नहीं करती."

"यार तुम अच्छी लगी थी. फिर कहने की बात और होती है. करने की और. मैंने तो यूँ ही कह दिया था. अब करने की बात है सो मैं मुकरता हूँ अपनी बात से. कर लो मेरा क्या करना है?" उसने ढीढपने की हद कर दी थी.

एक टेड़ी सी मुस्कान मेरी तरफ फ़ेंक कर वह बाहर चला गया था. यूँ इस तरह बाहर जाना मेरे लिए विलासिता थी और उसके लिए हक. क्यूंकि मैं बहू थी और वह बेटा. वैसे घर की बेटी अंजना के लिए भी पाबंदियां इतनी नहीं थी जितनी मुझ पर लग चुकी थी. या शायद मुझे मेरा दुःख बड़ा लगता था.

एक घंटे बाद जब वह घर लौटा तो शायद मेरा उदास बुझा हुआ चेहरा देख कर वो थोडा पिघला था. "देखो यार, तुम अच्छी लडकी हो. घर में रहो. खुश रहो. क्यूँ मेरी जान के पीछे पडी हो? ये जिद छोड़ दो. इससे किसी का भला नहीं होगा. "

मैं समझ गयी थी कि मेरी किस्मत पर शादी नाम का ताला लग गया है. और चाबी मेरे पति की जेब मैं है जो हरगिज़ मेरे हाथ नहीं लगेगी. मन मार कर मैंने अपनी तकदीर से समझौता कर लिया था. और तभी ये नया खेल घर में शुरू हो गया था. हर हफ्ते दस दिन मैं मम्मी जे मुझसे पूछती थीं--- "बेटा कब अच्छी खबर सूना रही हो? "

मैं अभी तक घर को समझ नहीं पाई थी. पति का प्यार मुझे भिगो नहीं पाया था. अभी तक सुबह जब मैं सो कर उठती थी तो दिल उचाट रहता था. दोपहर अक्सर आंसुओं के साथ बीतती थी. अभी तो मेरा अपना मन और देह एक जंग के बीचोंबीच जी रहे थे. अभी तो रंजन की देह की गंध का अनजाना पन अक्सर मुझे चौंका देता था. उसकी आवाज़ मेरे कानों पर तो उतरती लेकिन दिल के बाहर से ही फिसल कर मेरे वजूद के बियाबान में भटक जाती थी.

कई बार दिन के वक़्त अकेली होती और सोचती तो लगता शायद अरेंज की गयी शादी का यही मुक्कदर होता है. फिर याद आता कि ज्यादातर शादियाँ ऐसी ही हैं. खुद मेरे माता-पिता की भी. लेकिन वे तो सहज हैं. माँ की हर बात का मान पापा रखते हैं. फिर रंजन ऐसा क्यूँ नहीं करता?

पापा और माँ पर भी क्रोध आता. उन्होंने क्यूँ नहीं सोचा कि इस परिवार में मेरा यह हाल भी हो सकता है. लेकिन फिर याद आता है मेरे सामने ये सब बातें हुयी थी. और रंजन ने आश्वस्त किया था हम सभी को कि मेरी ज़िन्दगी जैसी मैं चाहती हूँ वैसी ही होगी. मुझे पूरी आज़ादी होगी अपनी पढ़ाई और फिर काम करने की. अब ये सब नहीं हो रहा तो पापा और माँ भी अगर समाज में बदनामी के डर से मुझ पर समझौता करने के दबाव डाल रहे हैं तो मैं उन्हें कितना दोष दूँ और कैसे दूँ?

घर संपन्न है. मुझे किसी चीज़ की कमी नहीं. अच्छा पहनती हूँ. अच्छा खाती हूँ. महीने में एकाध बार फिल्म का प्रोग्राम होता है. डिनर के लिए जाते हैं. लेकिन एक बड़ी सी कमी है. मुझे वक़्त नहीं मिलता रंजन के साथ. जहाँ भी जाते हैं रंजन का पूरा परिवार होता है. माँ, बाबा, दोनों बड़े भाई, उनकी पत्नियाँ, और तीनों बच्चे.

मैं खुद को अभी तक किसी से भी नहीं जोड़ पाई हूँ. मुझे लगता है कि रंजन से दिल से मेरा रिश्ता नहीं जुडा इसलिए यह भटकन है. जबकि रंजन और उनकी माँ को लगता है मैं उदास हूँ तो मेरी उदासी का हल मेरा एक बच्चा हो जाना है. यह मुझे परिवार से जोड़ देगा. नहीं भी होगा ऐसा तो कम से कम मैं व्यस्त हो जाउंगी और सवाल करना बंद कर दूंगी.

जब मैंने इस बारे में अपनी माँ से बात कर के उन्हें अपने विचार बताने की कोशिश की तो मेरे लिए एक और झटका मौजूद था. मेरी माँ ने भी इस बात की पुष्टि की कि बच्चा हो जाने के बाद उस परिवार में मेरी उपस्थिति मज़बूत हो जायेगी और फिर मैं अपनी बात मनवा सकूंगी. याने बच्चा एक मोहरे का काम करेगा मुझे उस परिवार में अपना हक जमाने और हासिल करने में.

मेरी हालत आसमान से गिरे और खजूर में अटके वाले इंसान की सी हो गयी है. मैंने माँ से उनके अपने एक सफल प्रशासनिक अधिकारी होने और पापा के और उनके मधुर संबंधों की बात करनी चाही तो माँ ने यह कह कर मेरा मुंह बंद कर दिया," बेटा, हर कहानी अलग होती है. हर इंसान अनूठा होता है. मैं और तुम्हारे पापा जहाँ आज हैं वहां आने तक हमने भी कई तूफ़ान झेले हैं. तुम्हारे हिस्से के भी तुम्हें खुद ही झेलने होंगें."

और फिर लगभग कई महीने तक इंतजार के बाद जब मैं गर्भवती नहीं हुयी तो कुछ बातचीत मेरी माँ और मम्मी जी के बीच हुयी और आज मैं यहाँ अम्मा जी की काम-चलाऊ रसोई के बाहर बैठी चाय पी रही हूँ, साथ ही उनकी स्त्री-रोग विशेषग्य बेटी का इंतजार कर रही हूँ.

लेकिन मेरे अन्दर कई सवाल एक साथ फिर उठ खड़े हुए हैं. वही सवाल जो धीरे धीरे मेरी उदासीनता और मेरे आस पास के माहौल से थक कर मेरे अन्दर चुपचाप सो रहे थे. अचानक वे अंगड़ाई ले कर उठ बैठे हैं. क्या मेरा हश्र भी अम्मा जी जैसा होने वाला है?

मैं अम्मा जी की तरफ देख रही हूँ. वे आखिरकार हमारे सामने की आराम कुर्सी पर आकर बैठ गयी हैं. नौकरानी उनके पास स्टूल पर बैठी उनके दायें हाथ को अपनी गोद में रखे हुए उनकी बांह की मालिश कर रही है. तेल के कुछ छींटे उनकी सफ़ेद साड़ी पर भी गिर गए हैं. जहाँ मुझे पहले से ही हल्दी और मसालों के निशान नज़र आ रहे हैं. शायद उनके कपड़ों से पसीने के अलावा इन सब की गंध भी आ रही हो. लेकिन मैं उनके ठीक सामने हूँ इसलिए ठीक से नहीं कह सकती. वे मुझसे बर्फी खाने का इसरार कर रही हैं.

और मैं खुद को उनकी जगह पर बैठा हुआ देख रही हूँ. उनके खिचडी बाल मुझे अपने सर पर उगे हुए महसूस हो रहे हैं. मुझे कमर में दर्द महसूस हो रहा है. दायीं बांह में दर्द कम हो रहा है मालिश के चलते और बाई बांह में टीस के साथ तेज़ दर्द उठता महसूस हो रहा है. अचानक मुझे तेज़ उबकाई आती है. मसालों की गंध मेरी नाक में बहुत तेज़ी से घुसी चली जा रही है.

मैं इशारा करती हूँ और नौकरानी फ़ौरन जल्दी से मुझे बाथरूम की तरफ ले कर जाती है. वापिस आ कर मैं ठगी ठगी सी कुर्सी पर बैठी हूँ और माँ मुझसे पूछ रही हैं, " बेटा, पीरियड्स कब हुए थे? कुछ याद है?"

प्रितपाल कौर.

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