बिग बैंग Pritpal Kaur द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

बिग बैंग

बिग बैंग

फाइल पर आख़िरी टिप्पणी कर के अपने हस्ताक्षर चिपकाये, झटके से फाइल बंद की और अपनी झुकी हुयी गर्दन सीधी की. सामने दीवार पर लगी घड़ी पर नज़र डाली तो देखा साढ़े छह बज चुके थे. खुद पर गुस्सा भी आ ही गया. जानती है उसके देर तक रुके रहने से कुछ और लोगों को असुविधा होती है. उनकी तीखी नज़र और पीठ पीछे बोले जाते अस्पष्ट तीखे लफ्ज़ सुने तो नहीं लेकिन अंदाजा है उसे. और आज जैसे मौकों पर तो इनका एहसास बहुत तीखा भी हो जाता है. आज भी इसी अंदेशे ने उसे झटके से उठाया. खड़ी हुयी, साड़ी का पल्लू ठीक किया, आराम से बैठने के लिए उतारे गए चप्पल पहने, हैंडबैग उठाया, कंधे से लटकाया और चल पडी.

उसके कमरे के बाहर बैठा कर्मचारी शायद दरवाजे के हैंडल की क्लिक से सजग हुआ था. सुनीता ने उड़ती सी नजर उस पर डाली, वह खडा तो हुआ था लेकिन पैर अभी स्थिर नहीं हुए थे, कमर कुछ झुकी सी थी. अभी बैठे से सावधान खड़े होने की प्रक्रिया चल ही रही थी. वह उसके अभिवादन का उत्तर देती हुयी तेज़ क़दमों से आगे बढ़ गयी. कनखियों से उसने देखा उसका अलसाया चेहरा पल भर को चुस्त हुआ और फिर उसी ढहते हुए से जिस्म में घुल-मिल कर लटक गया. सुनीता ने महसूस किया उसके पीठ फेरते ही वह कुर्सी पर लगभग ढह गया था. जबकि उसे उम्मीद थी कि वह तुरंत उसके दफ्तर के दरवाजे को ताला लगाएगा और घर जाने की तैयारी में जुट जाएगा.

सीधे-सादे रत्ती राम पर उसे दया भी आती है. जानती है कुछ ही दिन का दौर है. उसे नौकरी पाये कुछ महीने ही हुए हैं. अस्थायी है, इसलिए ऐसा सटपटाया सा रहता है. स्थाई होते ही यूनियन वालों के हत्थे चढ़ जाएगा. फिर सारी भाव भंगिमा भी बदल जायेगी. तब यही रत्तीराम राम पांच बजे के बाद हर पन्द्रह मिनट पर उसे चाय पानी के लिए पूछने आया करेगा. तब खुद उसके मन में भी रत्तीराम के लिए सहानुभूति बची नहीं रह जायेगी. बल्कि उसकी मौजूदगी को नकारते वह इन्हीं ढेरों-ढेर फाइलों में मगजपच्ची करती अपने हस्ताक्षरों की चिड़ियाँ बैठाती रहगी.

सोच कर ही अजीब आनंद से भर गयी वह. सुनीता पर काम नशे की तरह हावी रहता है. जब काम नहीं कर रही होती तो लोगों के बारे में सोचती रहती है. अब इस वक़्त भी रत्तीराम को लेकर यह सब ऊट-पटांग सोचना…. खुद पर हंसी आ गयी.

सर को एक और झटका दे कर कंधे पर लटका बैग ठीक किया तो याद आया सुभाष को उसकी यही बात बहुत पसंद है.

“तुम सर को ऐसे झटकती हो तो यूँ लगता है जैसे ढेर सारा पानी अचानक आसमान से मेरे ऊपर आ पडा हो, छल छल करता….” सुनीता की मुस्कुराहट चौड़ी हो आयी.

तभी पीछे दरवाजे बंद होने, ताले लगने की आवाजें और बातचीत के टुकड़े कानों में पड़े. स्टाफ के लोग होंगे. सोचती सीढ़ियों से नीचे उतर आयी. इस बहुमंजिली ईमारत की पहली मंजिल पर सुनीता का दफ्तर है.

ग्राउंड फ्लोर पर पहुँचते ही उसे देखते हुए रिसेप्शन काउंटर पर मौजूद मेहता फ़ोन पर बात करता हुआ ही अपनी कुर्सी से उठ खड़ा हुआ.

इस आठ माले की बिल्डिंग में कई सरकारी दफ्तर हैं, जिसकी भी ड्यूटी रिसेप्शन पर हो वह फ़ोन कॉल्स के बोझ के तले दबा रहता है. एक पल की भी फुर्सत नहीं. इसके बावजूद मेहता का मूड हमेशा अच्छा रहता है. हमेशा मुस्कुराता हुए मेहता का चेहरा हर वक़्त खिला रहता है.

इस वक़्त उसके होटों की हरकत से लगा उसने माउथ पीस में कहा, “एक्सक्यूस मी" और बायीं हथेली से उसे ढक कर बेहद खिले हुए स्वर में बोला,” गुड इवनिंग मैडम, वर्किंग लेट अगेन?”

सुनीता को अधेड़ वय का बाल बच्चेदार दीखता मेहता बहुत पसंद है. हर वक़्त यूँ खिला-खिला चेहरा जैसे परेशानियाँ उसके घर का रास्ता जानती ही नहीं. सुनीता की थकान और सुस्ती पल में काफूर हो गयी. मन किया रुक कर मेहता से ढेर सारी बातें करे. पर फिर याद आया सुभाष आज सुबह से ही घर पर है. आज उसने दफ्तर से छुट्टी के लिए छुट्टी ली है. उसकी इस बात पर सुबह कितना हंसी थी सुनीता.

अब तक दो फिल्मों देख चुका होगा, ग़ज़लों की सीडी सुनते हुए शाम की ड्रिंक के साथ उसका इंतजार करता हुआ उकता भी चुका होगा. लेकिन एक बात है कितना भी बोर हो, उसकी याद में परेशान हो. उसे दफ्तर के वक़्त फ़ोन नहीं करता. इस बात का ख्याल पति-पत्नी दोनों रखते हैं. काम के वक़्त एक दूसरे को कत्तई डिस्टर्ब नहीं करते.

अभी सोचा सुनीता ने कि बाहर निकल कर एक बार फ़ोन करेगी लेकिन फिर सोचा रहने दो. घर जा कर सीधे ही गले लग लिया जाए. बातों से क्या होना है? अब देर हो ही गयी है तो आधा घंटा और सही.

एक बात तय है कि सुभाष अब तक बुरी तरह पक चूका होगा अकेलेपन से और उसे माँ-बहनों के अलावा बाकी सारी गलियाँ भी निकाल चुका होगा. एक बार ऐसे ही किसी बात पर उसे बाँहों में समेटे हुए उसे ' हरामी, साली, बुधु' और न जाने क्या क्या कहे जा रहा था.

चुप हुआ तो वह बोल पडी थी, “और भी सुनाओ. चुप क्यों हो गए?”

“अब तो माँ-बहनों की ही बची हैं. सुनोगी?”

“रहने दो. वो मुझे लगेगीं तो है नहीं…...” सुनीता के आगे के शब्द सुभाष ने अपने होटों से छू लिए थे.

अभी मेहता के अभिवादन के प्रत्युत्तर में कुछ चौड़ी मुस्कराहट चेहरे पर रखे उसने कहा था, “वैरी गुड इवनिंग मिस्टर मेहता. इवनिंग शिफ्ट?”

सुनीता की मुस्कराहट को उसी जोश के साथ लौटाते हुए मेहता ने कहा था, “येस, मैडम.”

उसी तेज़ चल से भागती सी वह कार पार्क तक आ गयी थी. पूरे कार पार्क में उसकी हल्की नीली स्विफ्ट के अलावा कुछेक ही गाड़ियाँ और खड़ी थीं.

उसके दफ्तर की ऊपरी मंजिल वाले सूचना केंद्र की सफ़ेद एम्बेसडर का ड्राईवर समय काटने के लिए अपनी चमचमाती गाड़ी को हाथ के कपडे से रगड़-रगड़ कर और चमका रहा था. वह मुस्कुरा उठी.

सच ही पुरुषों को कितना शौक होता है गाड़ी चमकाने का. सुभाष को ही लो…. उसकी काली हौंडा एकॉर्ड पर ज़रा सी भी धूल नज़र आ जाये तो फ़ौरन डस्टर हाथ में ले कर शुरू हो जाता है. हालाँकि उनका नौकर हरी हर सुबह पूरा एक घंटा दोनों गाड़ियों को साफ़ करने और चमकाने का काम करता है. वैसे इस एक घंटे में से सुनीता की गाडी के हिस्से में सिर्फ पन्द्रह मिनट ही आते हैं. उसके बावजूद अक्सर हरी को सुभाष की डांट पड़ ही जाती है. कारण यही की कहीं न कहीं कोई धूल का कण रह जाता है या फिर कोई धागा ही लगा रह जाए तो भी हरी की शामत आ जाती है.

कई बार तो ऐसा भी हुआ है की सुभाष की गाडी की चमक दमक बहाल करने में हरी इतना खो गया कि सुनीता की गाडी का नंबर ही नहीं आया. वह दफ्तर जाने के लिए घर से निकली है और हरी सुभाष की गाडी पर लगा हुआ है, जबकि सुनीता की गाड़ी पिछले दिन की धूल में अटी पराई सी लग रही है.

ऐसे में सुनीता को गुस्सा भी बहुत आता है. भुनभुनाती सी वह हरी से डस्टर छीन कर अपनी गाड़ी का विंड स्क्रीन पोंछ कर निकल लेती है. हरी खडा मैडम का गुस्सा देखता है और फिर साहिब की गाड़ी पर पिल पड़ता है. अब दोनों को तो नाराज़ कर नहीं सकता. मैडम तो आज नाराज़ हो ही गयीं. कल मैडम की गाड़ी पहले साफ़ करेगा. कुछ दिन ठीक चलता है. फिर किसी दिन कोई कमी रह जाती है और सुभाष की डांट हरी को पड़ती है और फिर हरी यही गफलत कर बैठता है. ये कभी न खत्म होने वाला सिलसिला बन गया है.

सुनीता को लगता है जैसे ये गाड़ियाँ सुनीता और सुभाष के दो बच्चे हैं. इनमें भी सुभाष की गाडी सगा बच्चा है और सुनीता की गाड़ी सौतेला बच्चा.

गाडी स्टार्ट करते ही सुनीता को याद आया आज शुक्रवार है. यानी वीकेंड शुरू. शनिवार का दिन सुनीता के लिए बाकी पांच दिनों जैसा ही दौड़-भाग भरा होता है. फर्क सिर्फ इतना कि बाकी पांच दिनों से अलग ये भाग-दौड़ घर के अन्दर ही रहती है.

वक्युम क्लीनर से कालीन, दीवारें और छतें साफ़ करनी. खिड़कियाँ दरवाजे हरी के सर पर खड़े हो कर साफ़ करवाने, फर्नीचर को चमकवाना, परदे बदलने, टूटे बटन टांकने, हफ्ते भर के लिए खाने की तैयारी करनी. खाना सुनीता खुद ही बनाती है. अक्सर सुभाष भी बनाता है. दोनों को ही नौकर का बनाया खाना पसंद नहीं आता. खाने की तैयारी में हफ्ते भर के लिए सब्जियाँ बना कर फ्रीजर में रखना शामिल है. जो दोनों मिल कर करते हैं. सफाई का काम सुनीता हरी को लेकर करती है. इस काम में सुभाष को कोई दिलचस्पी नहीं है.

इसके अलावा शनिवार का दिन बीतता है, वाशिंग मशीन में कपडे धोने में, हरी से आयरन करवाने में, ड्राई क्लीनिंग के कपडे इकठे कर के भेजने में और शाम को सज-धज कर हफ्ते भर की शौपिंग के बाद किसी अच्छे से रेस्तरां में खाना खाने में. सब काम दोनों मिल कर करते हैं, एक टीम की तरह जिसका प्यादा होता है उनीस साल का बच्चा सा दिखाई देता हरी.

मध्यवर्गीय परिवार की गृहणी सुनीता की माँ शकुन्तला जब उनकी शादी के कुछ ही महीनों बाद एक हफ्ते के लिए मेहमान बन कर रहने के लिए आयीं तो आवक देखती रह गयी थी. उन्होंने तो अब तक यही देखा था की मर्द बाहर का काम करते हैं जिसमें पैसा कामना ही मुख्य काम है, बाकी सब औरतें ही संभालती हैं.

सुनीता और सुभाष को यूँ कंधे से कन्धा मिला क कर घर में हर काम एक साथ करते देख कर काफी कुछ सोचती रही, गुनती रही. फिर एक दिन सुनीता को अलग से अपने पास बिठा कर अपनी गोद में रखे उसके सर पर स्नेह से हाथ फेरते बोली थी, “बेटा, ऐसा पति भाग से मिलता है. देख, बहुत खयाल रखना इसका. कितना चाहता है तुझे…. मरद हो कर घर के सारे काम में साथ लगा रहता है."

माँ की बात पर हंसी तो आयी थी उसे. लेकिन माँ की बात में जो एक बड़ा सा सच छिपा दिखाई दे रहा था उसे नकार भी नहीं पायी थी. माँ ही क्यों वह खुद भी नाज़ करती है सुभाष पर. दूसरे पतियों की तरह नहीं है सुभाष. हर बात में सुनीता का ख्याल रखता है, सिर्फ गाड़ी के चमकाने को छोड़ कर. हंसी आ गयी उसे. खुल कर हंस पडी. टैक्स विभाग में ऊंचे पद पर आसीन सुनीता को अपना करियर सुभाष के भरोसे ही चलता दिखाई देता है.

ऐसे में उसे याद आती है अपनी बचपन की सहेली प्रज्ञा की. जब कभी उससे मिलना होता है प्रज्ञा हर बार पिछली बार से भी कहीं ज्यादा थकी-टूटी क्लांत दिखाई देती है. कुछ नहीं पूछती सुनीता . जानती है घर और बाहर की दोहरी चक्की में पिसती प्रज्ञा कहेगी भी क्या? उसे तो शायद कुछ सोचने की भी फुर्सत नहीं.

सुनीता की न मिलने की शिकायत पर एक फीकी सी हंसी हंस देती है. उसके बाद के सुनीता के शब्द मानो उस तक पहुँचते ही नहीं. अपनी ही किसी उधेड़-बन में खोयी प्रज्ञा उसके लम्बे-लम्बे सवालों पर हूँ-हाँ करती है और सुनीता खीझ उठती है. यहाँ तक कि अब सुनीता को प्रज्ञा से ऊब सी होने लगी है.

अचानक फिर सुभाष का ख्याल आया तो दिल खिल उठा और चेहरे पर फिर एक मीठी सी मुस्कराहट आ गयी. ‘साइड व्यू मिरर' को खोलते हुए उसने खुद को देर तक निहारा. चमकीली भूरी ऑंखें, सुतवां नाक, थोड़े मोटे लेकिन बेहद खूबसूरत भरे-भरे होंठ, गुलाबी रंगत, कन्धों तक झूलते रेशमी घने घुंघराले बाल, अपने आप पर मोहित हो उठी.

रास्ते भर खुद में खोयी सुनीता जब घर के पास तक पहुँची तो देखा कंसोल की घड़ी सात बजा रही थी. तभी अचानक याद आया आज दफ्तर में काम ज़्यादा था, सोमवार की मीटिंग के लिए प्रोजेक्ट रिपोर्ट फाइनल करनी थी, इसलिए उम्मीद नहीं थी समय पर घर आने की. इसलिए सुबह ही कह दिया था सुभाष से कि शाम को आठ बजे से पहले नहीं आ पायेगी.

सुबह निकलते वक़्त ये बात कही थी लेकिन दफ्तर में दाखिल होने के बाद कुछ याद भी तो नहीं रहता.

रोज़ भी अक्सर ही दोनों को घर पहुचते पहुँचते सात बज ही जाते हैं. कॉर्पोरेट में सीनियर मेनेजर सुभाष की अपनी व्यस्तताएं कम नहीं हैं. कई बार तो पार्टी में होता है तो देर रात भी आता है.

आज सुनीता का टाइपिस्ट बहुत फुर्ती से काम कर रहा था सो एक घंटा पहले ही घर पहुँच गयी है और बेहद खुश है. आज मूड कुछ ज्यादा ही अच्छा है सुनीता का. कोई ख़ास वजह तो नहीं है बस यूँ ही. सोच कर एक बार फिर मुस्कुरा पडी है. आज बहुत खुश है सुनीता. घर की तरफ तेज़ी से लपकती, सड़क का तीखा मोड़ वैसी ही तीखी स्टीयरिंग की काट से काटती सुनीता आज सुभाष को सरप्राइज देने के मूड में है. घर जल्दी आ जाने का.

मोड़ मुड़ते ही दूर से देखा था नलिनी दी की मैरून हौंडा सिटी को. मन खिल उठा. सुभाष की रिश्ते की बहन नलिनी दी रेल मंत्रालय में ऊंचे ओहदे पर आसीन है. अमीर कारोबारी परिवार की इस लडकी ने शादी नहीं की है. और करने का इरादा भी नहीं है उनका.

कहती हैं, “शादी की उम्र तीस तक ही होती है. तब तक कोई भा जाये तो ठीक वर्ना अकेले रहने की ऐसी आदत हो जाती है कि फिर किसी और के साथ रहना सज़ा है. सो भाई मैं तो सजा नहीं काटूँगी.”

परिवार का दबाव भी नहीं है सो आज़ाद हैं. ज़िन्दगी अपनी शर्तों पर अपने हिसाब से जीती हैं. नलिनी दी से मिलने की उम्मीद से सुनीता की खुशी कुछ और बढ़ गयी. वीकेंड की पहली शाम अच्छी रहेगी आज. मोर द मेरियर.

खुशमिजाज़ नलिनी सुनीता को बहुत पसंद हैं. उनके कॉलेज के ज़माने में जमाल खान से चला रोमांस और उसी से शादी करने की जिद के चलते अविवाहित रह जाना, ये सारी कहानी सुभाष से सुन चुकी है सुनीता.

बेहद हसीन हैं नलिनी दी. साढ़े पांच फीट ऊंची, सांचे में ढली देह और ऊंचे पद की मालिक नलिनी दी के माता-पिता को और खुद उन्हें भी कितने ही प्रपोजल उनकी शादी के लिए आये, वह सब सुनीता से छिपा नहीं है. हर वक़्त हंसती मुस्कुराती अपने आस-पास मजाक के फव्वारे छोडती दीदी के भीतर जो दर्द गाँठ बना बैठा है, उसकी टीस सुनीता ने कभी उनके चेहरे पर नहीं देखी.

काफी दिनों से दीदी से मिलना नहीं हुआ था. लगता है अभी आयी होंगी. चलो कुछ देर उनके साथ गप्पे हो जायेंगी. और फिर उनके साथ डिनर के लिए कहीं बाहर जाने का प्रोग्राम बना लिया जाएगा. कब से उधार है एक डिनर. छः महीने पहले सुभाष का प्रमोशन हुआ है, तब से कभी सुभाष को टाइम नहीं होता कभी सुनीता को तो कभी निलिनी को.

नलिनी दी की गाडी के पास से गुजरते हुए अपनी निर्धारित जगह पर गाडी पार्क कर के बाहर निकलने से पहले बैग से घर की चाभी निकाल ली. दोनों बैठे होंगें हॉल में ताश खेलते या फिर चुपचाप बैठे गज़लें सुनते, एकदम से जाकर बच्चों की तरह 'हौव्वा' कह कर उन्हें डरायेगी.

यही सोच कर बाहरी गेट अहिस्ता से खोला और बंद किया, ताकि आवाज़ भीतर तक ना जाए. दरवाजे के पास तक दबे क़दमों से गयी, दरवाजे पर दाहिना कान लगा कर सुना- कोई आवाज़ नहीं….

की होल में चाभी डाली, घुमाई, हलके से हैंडल घुमा कर थोडा सा दरवाज़ा ठेल कर भीतर झाँका. हॉल में कोई नहीं था. लैदर के इतालियन सोफे, कीमती पर्शियन कालीन, महंगी बड़ी एक पूरी दीवार को लगभग पूरी तरह ढकती पेंटिंग, कोने में रखा बोस का म्यूजिक सिस्टम और घनघोर सन्नाटा…..

हैरान सुनीता अपने पीछे हलके से दरवाज़ा बंद कर के अन्दर आ गयी.

“कहाँ हैं दोनों?”

हैरत से परेशान सुनीता ने अब अपने पैरों की आहट छिपाने का कोई यतन नहीं किया, लेकिन कालीन का गुद्गुदापन उसके आगमन को छिपा गया था. तभी हल्की सी सम्मिलित हंसी उसे अपने बेडरूम के बंद दरवाजे से आती हुयी सुनायी दी.

हूँ! तो आज बैठक आज वहां जमी है. एक पल पहले आयी मायूसी और हैरानी को फिर से उल्लास में बदलने में पल भी नहीं लगा था. सुनीता लपकी बेडरूम की तरफ और एक ही झटके में फटाक से दरवाजा खोल दिया.

और तभी वो हुआ जो उसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था. वह दरवाजे की बीचों-बीच जड़ हो कर खड़ी रह गयी. अगले ही पल अंदर का दृश्य उसकी आँखों को गर्म सलाखों की तरह भेद कर दिमाग में ज्वार की तरह चढ़ आया और एक विस्फोट सुनीता के पूरे वजूद में आग की सी तेज़ी से भभक कर फैल गया. उसके हाथों पैरों में इस कदर जलन होने लगी कि जी किया इन्हें उसी वक़्त एक पल भी बिना गवाए काट कर कहीं फ़ेंक दे.

दरवाजे का खुलना था कि उसके झटके से अंदर दाखिल हुयी हवा के बड़े से धक्के से बिस्तर पर इत्मीनान से लेते हुए दो जिस्म उससे भी बड़े झटके के साथ उठ खड़े हुए थे. उनकी नज़दीकी का बायस उनकी जिस्मानी हकीकत थी जो उस वक़्त बेहद खुले और उघड़े हुए ढंग से बयाँ हो रही थी.

दोनों के जिस्मों पर जो एक चादर ढकी हुयी थी वो अब सुनीता के देख लिए जाने के बाद सरक कर एक किनारे से नीचे गिर चुकी थी. शायद उसे भी अब उस नज़ारे में शामिल होने पर शर्मिन्दगी का एहसास हो गया था जो अब से कुछ देर पहले वो देख चुकी थी.

वे दो जिस्म इस अचानक हुये खुलासे के झटके से अपनी हद में वापिस आ जाने को उतावले थे लेकिन हालात ऐसे थे कि कुछ किया नहीं जा सकता था.

आसमान से चाँद छिटक कर किसी दूसरे गृह की तलाश में निकल लिया था. सूरज ने अपने सभी नौ गृहों को तिलांजली दे दी थी. पूरी दुनिया और सारा ब्रह्माण्ड डगमगा गया था. सितारों ने

अपने-अपने मुंह इधर-उधर फेर लिए थे. इस दृश्य की गवाही देने को कोई राजी नहीं था.

दरवाजे के बीचों-बीच मूर्ती बनी खड़ी सुनीता की सारी खूबसूरती एक ही पल में स्वाहा हो गयी थी. निर्जन उचाट चेहरे पर न आँखें बची थीं, न कान. उसका मुंह भी चेहरे से गायब हो गया था. वहां सिर्फ एक काली सी परछाईं बची थी. उसके होंठ कमरे की तपती हवा ने सिल दिए थे. वर्ना शायद वो कोई सवाल करती सुभाष से या निलिनी से. लेकिन क्या सवाल करती? इन सवालों के कोई जवाब हुआ करते हैं भला?

खड़े रह कर भी क्या करती दरवाजे के बीचों बीच? ये दरवाज़ा तो अब टूट चूका था. एक अदृश्य दीवार वहां अब खड़ी थी. जिसके आर-पार सिर्फ सुनीता ही देख सकती थी. उसने अपनी जलती हुयी आंखे उठा कर देखा तो सिर्फ घनघोर अँधेरा ही नज़र आया. वह चुपचाप वहां से हट गयी. दिमाग में कुछ नहीं था सोचने के लिए. कुछ भी नहीं.

ये विस्फोट सृष्टि के आरंभ का था या अंत का. सुनीता तय नहीं कर पाई. उसके पैर के नीचे की ज़मीन ही नहीं सर से आसमान भी उड़ गया था. वह मरुस्थल में विचर रही थी.

सृष्टि का नाश इसी तरह होता है एक ही पल में और उद्भव होता है तो वो भी विस्फोट के ही साथ. बिग बैंग के नाम से. सुनीता का जीवन इन दोनों विस्फोटों के बीच मानव मन की विकृति के अन्धकार भरे सन्नाटे में खो गया था. उसने अपने थके हुए पैरों को घसीट कर गेस्ट रूम तक किसी तरह ठेला और फिर अपने ही वजूद की तलाश से बचने के लिए बिस्तर पर ढह गयी.

प्रितपाल कौर.