परी....! Sapna Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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परी....!

परी....!

वह आंखे फाड़-फाड़ कर चारों ओर देख रही थी । . कुछ देर तो लगा था । आंखे चुधियां सी गई हैं । ऐसी रोशनी .. ऐसी सजावट सिर्फ टी.वी. सीरीयलों में देखा था। यहां सबकुछ वैसा ही तो था। वैसी ही सजावट, और वैसी ही सजी-धजी लड़कियों औरतों की रेलम पेल। हीरो जैसे दिखते आदमी जन । उसका बड़ा मन हो रहा था, वो भी भीतर जाकर घूमे। इस स्टाॅल से उस स्टॉल तक। कभी चाउमीन कभी बुढ़िया के बाल और बर्फ के रंगबिरंगे गोले खाये, पेप्सी मिराण्डा भी उसे ललचा रहे थे। उसे लल्लू चाचा और हरि भाइया से जलन हो रही थी । दोनों का रूप रंग देख पहले तो उसे खूब हंसी आई थी । कैसा मोटा फुला हुआ गुब्बारे जैसा लबादा पहने थे दोनों । बिल्कुल उस मिकी माउस के गद्दे जैसा जिसपर बच्चे उछल कूद मचा रहे हैं । गोलू मोलू जैसे मुखौटे... एक साहब और दूसरा मेम साहब बना था । सफेद चेहरा ..लाल पुते गाल काली आंखे और गुलाबी मोटे होंठ! ऊपर से काला कुर्ता, गुलाबी शलवार, गुलाबी ..ही दस्ताने! और साहब, कोट पैंट और हैट पहने-हाथ में छड़ी । दोनों हवा भरे बड़े से गेंद जैसे इधर उधर डोल रहे थे। पीछे पीछे बच्चों का झुंड... कभी उनके कपड़े खींचता और कभी हाथ मिलाता ।

और भी तो थे। वो टी.वी. में जो दिखाते हैं, - मिकी माउस, डोनॉल्ड डक, बनी खरगोश । उसके टी.वी. पर नहीं आता ये सब। वह तो अम्मा जिनके घर में काम करती है, वहां के टी.वी. पर आता है,वहीं देखा है उसने । उसे कार्टून नहीं सीरियल देखने में मजा आता है । खासतौर से गोपी बहू वाला । सरस्वती चन्द्र तो उसके टी.वी. पर भी आता है। कभी कभी उसका गोपी बहू, छूट भी जाता है। वह तो समय से पहुंचती है पर वो, अंश भईया स्कूल नहीं गये होते तो इहै कार्टून देखते बइठै रहते । वह कितना कहती अंशु... थोड़ा लगाये दो गोपी बहू.. पर उ किसी की नहीं सुनते।

पैर में बड़ी जोर से मच्छर चाब रहे हैं। बार बार वह पैर उठाकर खजुआने लगती है, पर मोजों के ऊपर से ठीक से खजुआते नहीं बनता। मन होता है, यही बैठ कर मोजे उतार अच्छे से दोनों पैर खजुआ ले । पर, कैसे बैठ जाये? वो तो परी बनी है न! सफेद घेर वाली फ्रॉक, कुहनी तक दास्ताने, सिर पर चमचमता मुकुट ...हाथ में सितारों जड़ित रूपहली छड़ी । मुख्य द्वार के दोनों ओर द्वारपाल की वेशभूषा में उसी के मोहल्ले के दीनू काका और राम आसरे जीजा थे । दोनों के सिर पर पगड़ी, बड़ी-बड़ी ऐंठी मूछें, चमकीले अंगरखे, चूड़िदार पैजामा और जयपुरी जूता । मुस्तैदी से द्वार पर डटे, जैसे मुगले आज़म के सिपाही यही हों । द्वार के बीचों बीच छोटी सी चौकी पर वह खड़ी है परी के भेष में । आइने में अपने को ही देख हैरान रह गई थी रानो । कमली से तो बढ़ के लगे थी। कितना चिढ़ती थी वो कमली से। हर लगन में पांच छै बार वही तो बनती थी परी। अब बेचारी पड़ी है महारानी के कोप में। पूरे शरीर पर मोटे मोटे दाने और बुखार में पस्त! उसके बीमार पड़ने से ही तो रानों को मौका मिल गया। ठेकेदार को ऐसे कैसे लौटा सकते थे। दीनू काका अम्मा को समझा रहे थे। कहीं और मुहल्ले से लड़की ले गया और उसने अच्छा किया, तो फिर समझों बाकी सारे पार्ट के लिये भी दूसरे मोहल्ले में मिल जायेंगे लोग। मुफ्त का खाना फिर सिर्फ परी बनने के लिये सौ रूपया कोई भी लपक लेगा ये मौका ! और लोगों को भी जो साहब, मेम साहब, मिकी, ...डोनाल्ड, पहरेदार, फूल वाली बनने का मौका मिलता रहता था, वो भी हाथ से जायेगा....अब ठेकेदार चार जगह क्यों दौड़ेगा, जहां से परी लेगा वहीं से औरों को भी ले लेगा ।

लोगों की भीड़ बढ़ रही है । उसे भूख महसूस हो रही है । भीतर से पकवानों की खुशबू और प्राण लिये ले रही है । सुबह से परी बनने की खुशी और रोमांच में कुछ खाया पिया भी कहां था ठीक से। साबुन और शैम्पू से रगड़ -रगड़ कर घंटा भर तो नहाई थी ... केतना मैला छूटा था । फिर सारे शरीर में अम्मा ने तेल मला था ... रगड़ कर नहाने से शरीर जो रूखा हो गया था । खुशी के मारे दिन नहीं बीत रहा था । भात तरकारी गले के नीचे नहीं उतर रही थी। भाग कर सभी लड़कियांे को बता आयी थी। आज वह परी बनने वाली है । सभी का उतरा हुआ मँुॅंह देखकर उसे बड़ा मजा आया था । पर अब आतें भूख से कुलबुला रही हंै, खड़े - खड़े पैर भी पीराने लगे और मच्छर अलग नोचे पड़े हैं । फिर से मन होता है बैठ कर अच्छी तरह पैर हाथ खजुआ ले! पर यहां तो उसे जरा हिलते डुलते देख ठेकेदार टोक गया है - सीधे खड़ी रहे।

वह हसरत से भीतर पंडाल की ओर देख रही है। थोड़ा सा तिरछे खड़े होने पर भीतर तक सब दीखता है । खूब चहल पहल है! जब वह परी भेष मे ंआकर खड़ी हुई थी, तब बहुत कम लोग आये थे। जयमाल के लिये स्टेज सज रहा था। एक तरफ आरकेस्ट्रा भी था । एक स्टेज और बना था ... सुना था बाहर से नाचने वाली आयी है .. पर यहां से कुछ भी साफ दिख कहाॅँ रहा है ... सिर्फ झूमते लोगों के सिर दिख रहे हैं।

’कहां बिटर, बिटर ताक रही है... ढ़ग से खड़ी रह। ’ इ ठेकेदार है जो उसे डपट रहा है । वह फिर सितारे वाली छड़ी को सीधे तान कर खड़ी हो गई। ठेकेदार पूनम की ओर बढ़ गया जो फूल वाली बनकर खड़ी थी! भाला लिये बड़ी बड़ी मूछें लगाये दरबान बने चाचा लोगों के पास।

‘‘एई.... थोड़ा फूल फेंक... मुट्ठी भर फेंकेगी तो आधे घंटे में फूल खतम हो जावेंगा! अगली बार से तुम सबको न बुलायेंगे ... अबकी गच्छा खा गये! ठेकेदार गुस्से में था। लगनसरा का समय है, काम करने वाले मिलते कहाॅँ थे। फिर ये बबलू ठेकेदार तो कई टेंट हाउसों से जुड़ा था। आजकल लोग फिजूल का ताम झाम भी तो ज्यादा करने लगे हैं। दस बीघा खेत के मालिक होंगे और मकानों पे लिखायेंगे फलाना हाउस। शादी ब्याह में चाहेंगे रजवाड़ों जैसी छाप दिखे । अब असली तो कुछ करने का दम नहीं होता तो नकली पर ही पैसा बहाते हैं।

भूख पर अब थकान भी हावी हो रही है। मन कर रहा है कहीं जाकर सो जाये। गली से और भी लोग आये हैं। मुन्नी दीदी, सुशीला और चम्पा दीदी। कुछ बेयरा बनी है, काली कोट पंैट और सफेद शर्ट पहने चेहरे पर लाली लिपस्टिक भी है। कुछ हलवाइयों के साथ लगी है।

बच्चे थर्माकोल की प्लेटों में भरभर के चाउमीन खा रहे हैं .. दो बार, तीन बार भी। कोई कोई तो भरी प्लेट डस्टबिन में डाल दे रहा है। उस बच्चे को तो उसने दो बार ऐसा करते देखा है। बच्चे ही क्यों, बड़े भी तो ऐसा ही कर रहे हैं। हर स्टाल पर जाकर प्लेट भरेंगे। कोल्डड्रिंक, सूप, जूस, काॅफी सबका टेस्ट ले रहे हैं लोग! इससे अच्छा तो वह खाना बनाने वाली जगह पर रहती वहां सब चखने को मिल जाता है। काम भी कुछ नहीं होता ..... सलाद की सब्जी छील भी दो प्लेटे लगवा दो .... कोई कुछ थमाने को बोले तो कर दो ... बस्स और कितना कुछ बटोरने को मिल जाता है। माया चाची हमेशा गरम मसाले पुड़िया लाती है। ऐसी शादियों से काजू और बादाम भी । और मुन्नी दीदी को देखो, बेयरा बनी इधर से उधर डोल रही है... ट्रे में जाने क्या लिये । उसे कुछ दे नहीं सकती क्या ..... उसे नहीं पता क्या कितनी देर से वह भूखी खड़ी है। वह जब ट्रे में समान भरने जाती होगी तो क्या मुंह में नहीं भरती होगी ... कितना मुस्कुरा रही है . भूखे पेट कोई मुस्कुरा सकता है क्या ?

पैर लग रहे हैं कट जायेंगे -पार्टी अब उतार पर है। आने वालों की भीड़ अब खत्म है अब लोग जा रहे हैं । दरबान बने चाचा लोग भी ढ़ीले पड़ गये हैं । उन्हे कस कर सुर्ती की तलब लगी होगी। फूल वाली के फूल कबके खत्म हो गये थे वह और फूल लाने के बहाने धीरे से भीतर बढ़ ली थी ....अब पड़ांल के पीछे बैठी ठूंस रही होगी, उसे भी जाना चाहिये, कौन ध्यान देगा। भीतर छितराये हुये कुछ घर के लोग ही दिख रहे थे । वह धीरे धीरे पीछे की ओर बढ़ गई है। बड़ी जोर की भूख लगी है पीछे सभी हैं ... उसी की गली वाले ... अपनी अपनी थाली परोसे खा रहे हैं ... देखों तो भला सब उसे भूल गये ...... खा पीकर चलते बनते वह छूट जाती तो?

‘‘ए... लड़की ....’’ वो सामने टेंट के पीछे से कोई बुला रहा है। उधर, जिधर कमरे हैं। वह रूककर देखती है । कोई मुहल्ले वाला तो नहीं .... ना ये तो साहब लोगों में से कोई है । मेहमान सा। वह सहमती सी उधर बढ़ गयी है। कुछ भभका सा उठा है ... दारू! पर ये वैसी महक नहीं है जो उसके मुहल्ले के हर घर से आती है सरे साँझ।

वह पास गयी तो हाथ बढ़ाकर खींच लिया। ‘‘क्या है’’ आव़ाज मानों फंस गयी हो।

चल बताता हॅूँ .....’’ कहकर वह उसे कमरे की ओर खींचने लगा। डर के मारे उसके हाथ पांव बेजान होने लगे थे।

‘‘का हो रहा है उहाॅँ ......’’ कड़कती आवाज थी मुन्नी की। वह हाथ छुड़ाकर कांपती हुई उनसे लिपट गयी। मुन्नी चाची खा जाने वाली आँॅखों से उस आदमी को देखती पच्च से जमीन पर थूक दी। दाँॅंत पीसती बोली थी - देहिजरा हरन ...

बचा खुचा खाना सभी पालिथीनों में भर रहे थे घर ले जाने के लिये। टेंट हाउस के ट्रेक्टर से जब वह उतरी थी तो जैसे नींद में चल रही थी। हाथ की पन्नी उसने माॅँ को थमाई और फिर जमीन पर सो रहे भाई बहनों के बीच जाकर पसर गई। अम्मा की आवाज कानों में पड़ रही थी, ‘‘ते’’ खायी कि नाही रे। मुनिया कहत रही.. तू उहाँॅ कुछू नाहीं खायी है ... उठके खा ले, फिर सो जाये। पर, उसका थका शरीर घर की फटी गुदडी पर चैन से सो रहा था। उसे नींद में महसूस हुआ है, अम्मा ने उसके सिर पर हाथ फेरा है और उसकी मुट्टी में से सौ का नोट निकाल लिया है ..... वह करवट बदल कर बगल में सोई बहन से लिपट गई है।

***

- सपना सिंह

10/1467, 'अनहद'

अरण नगर, रीवा - 486001