तुमने कहा था न
अमिता दी लगातार फोन कर रही थी...... तबसे, जबसे उनकी बेटी की शादी तय हुई थी..... जरूर आना है ..... की रट्ट....पहले डेट नवम्बर में फिक्स हुई थी .....पर टलते टलते अब जाकर मई में फाइनल हुई है, मेरे पास भी कोई बहाना नहीं था। न जाने की। बेटी बाहर हास्टल में थी और बेटे की छुटिट्याॅ चल रही थी। बस मौसम को लेकर पशोपेश में थी पता नहीं लोग गर्मियों में क्यों शादी रख लेते है। गर्मियों मे तो आपने घर की सूकून भरी ठंडक ही भाती है।
अमिता दी ने फोन पर कहा था जरूर आना है..... सभी आ रहे है...... सभी से उनका मतलब, मेरी दोनों मौसी, मम्मी, दोनो बहने, भाभी, मौसी की लडकियांॅ, बहु और ननिहाल पन के मामा मामी उनके बच्चे इन लोगों से था यूं भी मैं शादियों में शामिल होना जरूर चाहती थी और मेरी राय है कि सभी को व्यक्तिगत रूप से ये कोशिश जरूर करनी चाहिए कि वह अपने परिवार की, सगे सम्बन्धियों की शादियों में जाने का समय निकाल सके इससे हम बहुत से ऐसे लोगों से मिल मिला लेते है जो हमारे बहुत अजीज होते है। पर संजोगवष हम उनसे वर्षों से नहीं मिले होते।
अमिता दी थी सबसे बडी मौसी की मझली बेटी, कविता, अमिता, विनीता ....... बहने-भाई कोई नहीं। आज भी याद है। गर्मियों की छुट्टियों में बडी मौसी के गाँव जाना ....... मौसी जी की अच्छी खासी जमींदारी थी, गाँव में सबसे बड़ी हवेली उन्हीं की थी। आठवीं के बाद गँॅव में कोई स्कूल न होने की वजह से, विनीता दी हम लोगों के यहाँ रहकर पढ़ रही थी कविता और अमिता दी नानी के यहाँ से प्राइवेट इम्तहान दे देकर दसवी, बारहवीं, बी. ए. एम.ए. करती रही, विनिता दी भी ग्यारहवी के बाद वहीं चली गई थी पढ़ने क्योंकि पापा का स्थानान्तरण जहाँ हुआ था वह छोटा सा कस्बा था और लडकियों के लिए वहाँ सिर्फ हाईस्कूल ही थी।
विनीता दी तीन साल में ही हमारे परिवार का हिस्सा बन गई थी, मैं तो उनके साथ ही सोती साथ ही खाती-पीती। यहाँ तक कि छुट्टियों में जब मम्मी ननिहाल या ददिहाल जाती मै विनी दी के साथ उनके गाँव चल देती। कभी-कभी साथ मे सवा साल छोटा भाई भी होता।
यूँ भी बड़ी मौसी का गाँव उस जमाने में एक हाॅलीडे डेस्टिनेशन ही हुआ करता था। हमारे लिए ! मौसी जी की बड़ी सी हवेली, जिसके भीतर अस्सी के दशक में मौजूद सभी आधुनिक साजो सामान मौजूद था, ब्लैक एण्ड व्हाईट टी.वी. थी जो अक्सर बिजली न होने की वजह से बंद ही रहा करती थी। जनरेटर सिर्फ रात में चलता था या फिर इतवार को जब टी.वी. पर रामायण आता। मौसी जी के यहाॅ सिर्फ हमीं भाई बहन नहीं जाते थे बल्कि मामा और मौसी लोगों के बच्चे भी गर्मी की लम्बी छुटिट्याँ बिताना पसंद करते ...... मौसी के हाथ की बनी टेंगर मछली का स्वाद मेरे कहीं न जाने वाले पापा को भी वहां खींच लाता मौसी के गाॅव जाते तो वो भूल जाते कि उनकी पोस्ट उनको इतनी छुटिट्ी की इजाजत नहीं देती। मध्यप्रदेश वाले मौसा मौसी उनके दोनों बेटे ..... बंटी और बबलू भैया, तीनों मामा के बच्चे दोनो मझली मौसी जी के बच्चे सभी अपनी गर्मी की छुटिट्यों के कुछ दिन वहाँ जाते ही। गोरखपुर से बनारस जाने वाले रोड पर था मौसी का गाँव हवेली के सामने राप्ती नदी का सुन्दर नजारा अक्सर हम सब बच्चे मौसी जी के साथ सुबह-सुबह बांध पर सैर करने चले जाते ! मौसी के देवर बडे़ साहब थे..... उनके बच्चे भी आते...... बडे साहबी रूआब वाले बोर्डिंग स्कूलों के रहवासी उनका चलना, उठना बैठना, बोलना, एक खास एटीट्यूड से संचालित। हम गोरखपुर, देवरिया, बस्ती जैसे कस्बाई शहर में रहने वाले बच्चे बडे कौतुहल से उन लोगों को देखते खास तौर से अभय दादा से तो सारे बच्चे इस्पार्यड् थे। आई.आई.टी कानपुर में थे वो उन दिनों ....... हम बच्चों में एक ललक सी रहती उनके आस-पास बने रहने की। उनके आस-पास तो गुडड्ी दीदी भी बनी रहती थी। मझली मौसी की बड़ी बेटी गुडड्ी दी नाजुक सी, हरदम अपनी खूबसूरत आँखों को किसी किताब में गड़ाये। जब हम सब, डाक्टर इजीनियर, आई.ए.एस. बनने के ख्वाब देखते वो धीमी आवाज में कहती मुझे तो लेखक बनना है।
उन दिनों, दीदी लोग, गुडड्ी दीदी और अभय दादा को जोड़कर कुछ-कुछ हंसी मजाक भी कर लेती गुडड्ी दी बेचारी शर्म से लाल गाल और रूआंसी आॅखे लेकर मौसी जी से फरियाद करती ...... अभय दादा अजब तरीके से मुस्कुराते हुए उठकर हम बच्चों से जी. के. का कोई लउझाऊ सवाल पूछने लग पडते। ....
एक जमाना हो गया वो सब बीते हुए आज बीते हुए ...... आज सबकुछ यूं याद आ रहा है, मानों कल की घटी कोई घटना, एक एक कर बडी मौसा जी की लड़कियों की शादी हो गई सिर्फ छोटी कविता दी बची थी, मौसी जी स्वर्ग सिधार चुके थे, कविता दी की शादी को लेकर मौसी बहुत चिन्तित रहा करती थी, आखिर कार अमिता दी के पति समर जीजू ने उनका रिश्ता तय कराया सारा इंतजाम भी उन्होंने किया लखनऊ में। बीस वर्ष पूर्व इसी तरह हम सब लखनऊ में इक्कट्ठा हुए थे, हमारा परिवार, दोनो मौसियों का परिवार मामा मामी लोग ..... उनके बच्चे, गुडड्ी दी भी थी। सभी गोरखपुर से इन्टरसिटी से लखनऊ आये थे गुडड्ी दी ने झट खिड़की के साथ वाली शिट पकडी थी और आदतन किताब में आँखें धसा ली थी। मामी लोग उनकी खिंचाई में लगी थी उनकी शादी भी तय थी जो 6 महीने बाद जाड़ों में होनी थी.... मामी लोगों का कहना था, उन तो बच्ची इ किताब उताब का चक्कर छोड गृहस्ती वाली बातों में मन लगाये। पर गुडड्ी दीदी के लिए तो किताबे गानों उनके जीने की वजह थी। उनका लिखा बहुत तो नहीं पर ...... प्रकाशित होने लगा था शादी में अभय दादा की भी पूरी फेमली आयी हुई थी, उनकी पत्नी, चार साल का बेटा छोटा भाई उसकी पत्नी, मम्मी, दीदी सभी लोग।
जीजा जी ने बड़ी अच्छी व्यवस्था की थी बड़े भाई की तरह सारा कुछ संभाल रहे थे, सबने खब इजाॅय किया गुडिड्ी दीदी अक्सर किसी कोने में कुर्सी पर पैर मोड़ कर बैठी होती किताब में आँखें घुसाये। लगता सबके बीच भी है और सबसे अलग भी, कभी-कभी कोई उन्हें छेड़ भी देता ! लखनऊ में ही ब्याही उनकी एक बडी ही खूबसूरत सी सहेली भी उनसे मिलने आयी थी।
कविता दीदी के फेरों के समय हम सभी बैठे थे मंडप के आस-पास बिछे गदद्ो पर गुडड्ी दीदी भी थी अभय दादा की पत्नी की बगल में बैठी ... उनका बेटा वहीं सो रहा था। मैने देखा था उनका हाथ बच्चे के सिर को सहला रहा था .... बीच बीच में कभी वो भाभी से बात करती कभी शादी की रश्म को देखती जाने क्या सोचनें लग पडती अभय दादा दूसरी तरफ ठीक सामने बैठे थे.. कभी उठकर वो बाहर भी चले जाते ..... फिर आकर बैठ जाते, बीच-बीच में सभी उठ बैठ रहे थे। गर्मी थी ठण्डा पानी, कोल्ड्रिंक के दौर चल रहे थे। मैं उठकर बाॅथरूम गयी थी लौटने से पहले छत पर चली गई थी, कोल्डड्रिंक्स की बोतलें और डिस्पोजल ग्लास लेने ..... जो ऊपर ही रखे थे, छत पर अंधेरा सा था, ऊपर कुछ कमरे और एक बडा सा हाॅल था। हाॅल में ही हम सब लोगों का बिस्तर लगा था। हमारे अटैची, बैग भी वहीं थे दो बडे बडे कूलर भी लगे थे। कमरे में लाइट जल रही थी, लगा कोई है, गुडड्ी दीदी! पर वो तो नीचे थी..... आयी होगी कुछ लेने ... पर उनके साथ कोई है ... कौन .... 2 मैं खिडकी के पास सरक आयी थी ... आज भी विश्वास नहीं होता उस रात जो देखा सुना था ..... वो सच बनकर बीता था समय की किताब पर। बाद में उस सच का कोई भी निशान नहीं ढूंढ पाई थी मैं ...... आज भी वो सब यादों में कौंधता है तो अपने आपको डपटना पडता है शायद मेरी आँखे और मेरे कान दोनो एक झूठ के साक्षी बने थे
आज फिर बीस वर्ष बाद वही शहर-लखनऊ फिर वही परिचित चेहरे ... समय एक पूरा चक्र घूक चुका है, एक पीढ़ी सामने दीख रही है। कुछ चेहरे काल-कलवित हो कर यादों में पनाह पा चुके है। उम्र ने अपने होने के निशान हर चेहरे पर अलग अलग अंदाज में छोडा है, कुछ चेहरे खाये अघाये सुखी संतुष्ट और कुछ चेहरे हारे थके, परेशान हाल ....... इतने चेहरों में सिर्फ एक चेहरा ऐसा था जिस पर समय ने अपने निशान छोडने में मानों खूब संकोच से काम लिया था, जो निशान थे वो भी अच्छे से लगते हुए........
मौसम कोई सा भी हो शादी ब्याह में औरते टी.वी. सीरियल की नायिकायों जैसी सजने में एक दूसरे से होड़ करती दिखती है ..... पर गुड़डी दी तो बिल्कुल अलग थी, काॅटन या शिफाॅन की क्लासी साडियां और स्लीवलेस ब्लाउज बालों का गर्दन पर ढलका सा जूडा। श्रंृगार के नाम पर माथे पर अस्वाभाविक रूप से बड़ी गोल मरून बिन्दी। उनके डस्की काम्पलेक्सन पर गजब की सूट करती
मेरी मम्मी अक्सर कहती-इ गुडडी सौ रूपये की साड़ी भी पहन ले तो साडी हजार की लगने लगती हैं। गुडडी दी तो ऐसी शुरू की थी। साधारण सी वस्तुयें भी उनके पास पहुंच कर असाधारण रूतबा पा लेती थी। उनसे हमारी मुलाकात साल दो साल में होती ही रहती थी, जब भी वो मायके आती। उन्हें हमेशा सुखद आश्चर्य होता हर साल यों लगता मानों उनकी उम्र एक साल और कम हो गयी हो। मामियाॅ भाभियां दीदीयां जो अपने बेडौल काया, पेट पर चढती चर्बी और चेहरे पर बढती रेखाओं से हैरान थी उनसे उनकी शेप और कसी त्वाचा का राज पूछती स्लीम ट्रीम, आखिर करती क्या थी वो कुछ नहीं बस्स एक खून जलाने वाला साथी जुटा लो आप लोग .... वह हंसकर कहती......
हमने उन्हें सिर्फ मेडिटेशन करते ही देखा था..... कभी भी कहीं भी वह ध्यान मग्न हो जाती मौसी उनके इस मेडिटेशन से खूब चिढ़ती ...ये सब घर गृहस्थी वालों को नही सोहता ..... बेकार का नाटक ..... पर दीदी तो बहुत ऐसा करती जो घर गृहस्थी वाली औरते नही करती.... वो टी. वी. पर सास बहु वाले सीरियल नही देखती थी पुरानी ब्लैक एण्ड व्हाइट फिल्में देखती या आवर्ड विनिंग फिल्में ... जीजा जी चिढाते भाई ये तो कृर्षि दर्शन देखती हैै।
आज भी गुडड्ी दीदी वैसी ही थी। अपने आप में गुम, उनके दो कहानी संग्रह आ चुके थे। लखनऊ में भी दो-तीन रचनाकार उनसे मिलने के लिए फोन पर बात कर चुके थे उनका एक छोटी सी गोष्ठी आयोजित करने का विचार था कभी वह फोन पर किसी पत्रिका के संपादक से बात करती होती तो कभी किसी पाठक का फोन होता। कुल मिलाकर हमारी गुडड्ी दीदी एक उभरती संभावनाशील रचनाकार के रूप में अपनी पहचान बना रही थी।
उनकी वहीं लखनऊ में रहने वाली सहेली मधुरिमा दीदी भी आयी थी..... हम लोग तो उन्हें पहचान ही नहीं पाये थे बिल्कुल गोल हो गयी थी। दोनो को बाते करते देख अभय दादा की बीवी भी आश्चर्य से बोल उठी थी, अरे ये तो आपकी वही सहेली है........ न ..... कविता जी की शादी में मिले थे हम.....’’
‘‘हाँ..... मेरी ज्यादातर चीजें पुरानी ही है ..... गुडड्ी दी हंस पडी थी। शादी खूब अच्छे से हुई थी। जीजा जी ने इकलौती बेटी के विवाह में कोई कसर नहीं छोड़ी थी शादी एक खुले हरे भरे पंडाल में थी सब तरफ ठंडी हवा फेंकते पंखे चल रहे थे, भींगे-भींगे लाॅन में चहलकदमी करते लोग गुडडी दीदी, कविता दीदी मै। अभय दादा, उनकी पत्नी, मामी लोग सब साथ ही बैठे थे अभय दादा का परिवार सबसे स्पेशल था वह स्वयं किसी राजा से कम नहीं लग रहे थे।
हंसी मजाक, कोल्ड ड्रिंक, आइस क्रीम का दौर,सभी दुल्हा दुल्हन को सराह रहे थे फेरे और बिदाई भी वही से होनी थी जयमाल के बाद सभी कपड़े चेंज करने चले गये....... गुडडी ने हल्की शिकाॅन पहनी थी नीले रंग की ... पता नहीं चेहरा क्यों उतरा हुआ था .....
सबने पूछा क्या .... क्या बात है ‘ऐसे ही थोडी बेचैनी है.... ठीक हो जायेगा.... पर थोडी ही देर में वो पसीने पसीने हो गई .... अपने हाथों से अपने सीने को थामे वह कुर्सी पर निढाल सी पड गई थी। सभी भौंचक विवाह की रस्में शूरू थी, कन्यादान हो रहा था। अभय दादा के छोटे भाई और बहनोई दोनों डाक्टर थे स्थिति उन्होंने संभाली मौसी लगातार रो रही थी और अभय दादा बदहवास .... यू चीट मी.... तुमने कहा था न अपना ख्याल रखोगी। ..... हमेशा ... डैम यू ....... वो क्या कह रहे थे, क्या कर रहे थे .... उस आपा धापी में किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। ..... एकदम से मेरी आॅखों में बीस वर्ष पहले का दृष्य कौंध गया...... प्रोमिस करो अपना ध्यान रखोगी .... हमेशा ........ जबाव में गीली कांपती सी आवाज ‘हँॅ’ .......... रखूंगी।
वर्षों से जिस दृश्य और आवाज को मैं अपने कानों और नजरों का धोखा समझ झूठ माने बैठी थी आज उस झूठ का सारा सच उजागर था। ...
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सपना सिंह
द्वारा-प्रो. संजय सिंह परिहार, म. नं. 10/1456, आलाप के बगल में
अरूण नगर रीवा (म.प्र.)
मो. नं. 9425833407
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