कंफर्ट जोन के बाहर Sapna Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • My Passionate Hubby - 5

    ॐ गं गणपतये सर्व कार्य सिद्धि कुरु कुरु स्वाहा॥अब आगे –लेकिन...

  • इंटरनेट वाला लव - 91

    हा हा अब जाओ और थोड़ा अच्छे से वक्त बिता लो क्यू की फिर तो त...

  • अपराध ही अपराध - भाग 6

    अध्याय 6   “ ब्रदर फिर भी 3 लाख रुपए ‘टू मच...

  • आखेट महल - 7

    छ:शंभूसिंह के साथ गौरांबर उस दिन उसके गाँव में क्या आया, उसक...

  • Nafrat e Ishq - Part 7

    तीन दिन बीत चुके थे, लेकिन मनोज और आदित्य की चोटों की कसक अब...

श्रेणी
शेयर करे

कंफर्ट जोन के बाहर

कंफर्ट जोन के बाहर

वह गुस्से में थी! बहुत-बहुत ज्यादा गुस्से में।

‘‘साले, हरामी, कुत्ते’’ उसके मुँॅह से धाराप्रवाह गालियाँॅ निकल रही थीं। हॉँलाकि उसे बहुत सारी गालियॉँ नहीं आती थीं। हर बार वह इन्हीं दो-चार गालियों के बहुवचन इस्तेमाल करती। आज भी उसकी जबान यही कर रही थी और मैं समझ गयी कि हमेशा की तरह आज भी उसका अनु भईया से झगड़ा हुआ है और शायद वह एकाध करारा हाथ भी पा गयी थी। इस तरह वह तभी बमकती थी जब झगड़ा वाकयुद्ध से आगे जाकर हाथयुद्ध में बदलता था। और अक्सर झगड़ा अपने अंतिम स्टेज में यही रूप ले लेता था प्रतिक्रिया स्वरूप वह सिर्फ फनफना कर रह जाती थी।

यॅूँ भी आजकल उसके जीवन में जो कुछ चल रहा था उसे लेकर मैं आशकिंत रहा करती थी। ‘‘कूल डाउन’’ मैंने उसे शांत करने का प्रयत्न किया ये पानी पी! चिल्ड है। सोच वो तेरा सो कॉल्ड मि. जेन्टल मैंन जो तेरी ये फुलझड़ियॉँ सुन ले तो बेचारा वही गश खाकर गिर जाये। ’’

‘‘साले... सब एक से होते हैं’’ बेपरवाही में कहा था उसने। जबकि यही बात कई तरह से घुमा फिराकर मैं उससे कह चुकी थी पर सीधे -सीधे कह पाने की हिम्मत नहीं होती थी । मैं हंस पड़ी थी, ‘‘सब! माने ? और भी हैं क्या...?’’

‘‘तुझे क्या लगता है किसी और की जरूरत है?’’ फिर वही स्निग्ध हंसी। उसके होठों पर तो तिरती ही है ये हंसी साथ ही नम होती ऑँखों, थरथराती पलकों, फड़क उठती नाक और गर्दन की खिंच जाती नसों तक उसकी हंसी में झिलमिल हो उठते। मेरी चिंता और बढ़ जाती!

वैसे भी आजकल उसे देखकर अच्छा - अच्छा सा लगता है। वो कहते हैं न कि फीलगुड टाइप का एहसास... और ये एहसास ही कमबख्त मेरी चिंता का कारण! पर एक चालीस पार औरत का यूॅँ कायान्तरण क्या चिंता का कारण नहीं होना चाहिए! उसका शांत और स्निग्ध चेहरा... सौम्य सादगी में लिपटा व्यक्तित्व! दिन ब दिन उसकी पंसद सोफियाना हो रही थी। उसके कपड़े उसकी डेलिगेट्स ज्यूलरी, उसके हैंडबैग्स... सब उसपर सूट करते थे। उसके मूड को रिफ्लेक्ट करते थे। पहले कैसे जेवरों से लदी-फदी रहती थी। जब जाओ ज्वेलरी और साड़ियों की प्रदर्शनी लगाकर बैठ जाती। ये देखों पिछले महीने ली...‘‘ये साड़ी.... अभी मैरिज एनवर्सरी में इन्होंने दिलाई’। पर अब, कैसे, पेस्टल कलर के सलवार सूट पहनती थी... ज्यादातर सफेद बेस वाले। उसे देख मुंह से निकल जाता गार्जियस!

हम बैठे बातें करते रहे । वह अभी कुछ दिन स्तुति के पास रहकर आई थी । उसी के बारे में बातें कर रही थी। हॉस्टल की स्थिति बड़ी खराब है ...खाना भी ठीक नहीं मिलता .... साथ की दोनों लड़कियॉँ ....... शायद पिछड़े वर्ग की हैं .... स्तुति का उनसे तालमेल नहीं बैठता। ’’

मैंने उसे समझाया - कुछ दिन में एडजस्ट हो जायेगी। अभी अभी घर की सुख सुविधा से बाहर निकली, समय तो लगेगा ना ’’

‘‘मौली से मेरी दोस्ती लगभग सत्रह वर्ष पुरानी है। तब से जब मैं विवाह करके इस अजनबी शहर में आयी थी। पति के सबसे करीबी दोस्त की पत्नी थी मौली! पहले मैं उसे पति के अन्य दोस्तों की पत्नियों की तरह भाभीजी ही कहती थी। पर, बाद में हम भाभीजी टाइप की औपचारिकताओं से बाहर निकल आये थे। हमारे घर भी पास-पास थे। अक्सर हमारी दोपहरें एक साथ बीततीं, ‘किटी पार्टी’ मूवी, शांपिंग और दोस्तों के घर या मुहल्ले के मुण्डन, कीर्तन इत्यादि समारोहों में हम साथ ही जाते। हॉँ, साड़ी ज्यूलरी खरीदने वह अनु भइया के साथ ही जाती जिनके बिल अक्सर मेरी कल्पना क बाहर होते थे। बाद में सास-ससुर के परलोक सिधारने के बाद जब उसने सलवार सूट पहनने शुरू किये तो जो जरूर मैं उसकी खरीदारी में साथ जाती थी। जब उसने सूट पहनने शुरू किये तो हमारे मोहल्ले में ये भी एक क्रांतिकारी कदम माना गया। हम जिस शहर में रहते थे यहॉँ बहुओं के सिर से पल्ला सरक जाना भी एक न्यूज बन जाती थी, सलवार कुर्ता पहनना तो एकदम ही कल्पनातीत था। मौली के सिर पर पल्ला पहले भी नहीं टिकता था, बाद में तो उसने धड़ल्ले से सलवार कुर्ता पहनना शुरू कर दिया। हमारे ग्रुप में वह पहली थी, जिसने साड़ी को सिर्फ खास ओकेजन के लिए रख छोड़ा था। अब तो मैं और बाकी सारी सहेलियॉँ भी इस सुविधाजनक पहनावे को ‘नेशनल ड्रेस’ की तरह धारण करने लगे हैं। हममें से ज्यादातर के सास-ससुर परलोकवासी हो चके हैं, या फिर ससुराल का घर छोटा होने या अन्य कारणों से कुछ ने अलग घर बना लिया है और टिपीकल पल्लूधारी बहूपने की भूमिका से बाहर आ चुकी हैं।

हम बहुत सी अतंरंग बातें भी साझा करने लगे थे। जैसे शादी के फौरन बाद जब मैं शुरू -शुरू में उससे मिलती थी...हमारे आपसी संबंधों की बाबत पूछते, उसने आपसे आप बताया था, ’उफ, ये तो तूफान थे... पता है एक बार मैं मायके गई थी,. पापा तब यहीं पोस्टेड थे, पहुॅँच गये फिल्म के दो टिकट लेकर। ’ मुझे अपने पतिदेव से ये भयंकर शिकायत थी - फिल्म-विल्म देखने दिखाने में उनकी कतई रूचि नहीं थी। बड़े गैर रोमांटिक किस्म के आदमी थे । और बॉक्स क्या होता है, कैसा होता है .? मैंने कभी देखा जाना नहीं ।

‘‘कौन सी फिल्म थी ?’’ मैंने उत्साह से पूछा था ।

‘‘अरे डफर फिल्म कौन देख रहा था ...?’’

‘‘फिर...?’’

‘‘नहीं समझी...’’ वह खिल्ल से हंस दी थी। पर समझ कर मुझे वितृष्णा ही हुई थी। ऐसी भी क्या बेताबी कि कहीं भी शुरू हो जाओ।

एक बार हम अपने मातृत्व के अनुभव शेयर कर रहे थे। मैं उसे बता रही थी कि पतिदेव ने उस दौरान मेरा और बेबी का कितना ध्यान रखा था। बेबी के गीले नैपी बदलने से लेकर रात में उसके जगने पर गोद में लेकर बहलाने तक सबकुछ।

वह उदास हो गयी थी। ‘‘ मेरी याद में सिर्फ एक दृश्य है’’ सात महीने की स्तुति, कफ और खॉसी से परेशान... रो-रोकर बेहाल शराब के नशे में बेसुध पति नींद में खलल बरदाश्त नहीं कर पाये थे - चिल्लाकर बोले थे, बाहर ले जाओं,. सिर पर क्यों चिलवा रही हो ’’ वह कड़ाके की ठंड में बच्ची को कंबल में लपेट बाहर बरामदे में टहलती रही थी।

कुछ भूलता नहीं प्रिया... भले ही सबकुछ भूला हुआ मान लिया जाय! बिटिया आठ महीने की थी ..... जब दोबारा प्रेगनेट हुई थी... फटट से अबार्शन करा दिया... केस बिगड़ गया... बीस दिन हास्पिटल में रही... बाद में जाने क्या प्रॉब्लम आयी कि कंसीव ही नहीं कर पायी। चार-पॉँच साल तो ध्यान ही नहीं दिया - फिर लगा एक बेटा तो होना ही चाहिए, उसे नहीं पति को ज्यादा चाव था बेटे का। मानों ये भी एक स्टेटस सिबंल हो उसके रीबॉक के टीशर्ट, शार्टस और जूतों की तरह। जिन्हें पहन वह बड़ी शान से बैडमिंटन खेलने क्लब जाता था। वह तो अपनी देह की दुर्गति से इतनी डरी हुई थी कि एक बेटी से ही संतुष्ट थी। पर अभी बस्स कहॉँ था। इलाज का दौर चला। वर्ष दर वर्ष सरकते गये। देवर की शादी हो गई। तीन वर्ष के भीतर देवरानी ने एक बेटा एक बेटी पैदा कर मानों दुनियां फतह कर ली। हर कोई उसे कोंचता । जैसे एक बेटा न पैदा कर वह अपराधी हो। उसकी कोख बजंर हो गई थी ... क्या ये सिर्फ उसका कसूर था? कितना मना किया था उसने अबार्शन के लिए...डॉक्टर ने भी कहा था ‘हो जाने दीजिए’ पर, उसने कहॉँ सुना था .... एक ही रट थी, बेटी छोटी है, अभी दूसरा बच्चा संभाल नहीं सकते... पर, क्या यही सच था? हफ्ते भर पहले ही तो गई थी वो क्लीनिक भ्रूण के सेक्स टेस्ट के लिए। गर्भ में लड़की थी।

लखनऊ में बड़े ननदोई स्वास्थ विभाग में डायरेक्टर थे। ननद ने बुलवाया। फिर ढेरों टेस्ट। टेस्ट ट्यूब बेबी की प्लानिंग। कितनी मुश्किल से सफलता मिली दो महीने बाद पता लगा ‘‘गर्लचाइल्ड’’ है । तुरंत अबॉट करा दिया गया। अगली दो बार भी यही हुआ। अंततः कनसर्निग डॉक्टर ने नाराज होकर हाथ खड़े कर दिये - अजीब जाहिल लोग हैं। लोग बच्चा पैदा करने में असमर्थ होने पर टेस्ट ट्यूब या आई.एफ.बी. तकनीक को अपनाने हैं । उन्हें किसी भी तरह एक बच्चा चाहिए होता है, यहॉँ तो सिर्फ लड़का चाहिए, मजाक बना रखा है इन लोगों ने मेडिकल सांइस का ... इतना श्रम, इतना पैसा और वक्त और उसपर शरीर की दुर्गति किसलिए?’’

वह थक चुकी थी इन सारी प्रक्रियाओं से । यूॅँ भी सिर्फ बच्चा पैदा करने के लिए शरीर का संबंध उसे भीतर तक अपने आपसे वितृष्णा से भर देता। उसे पता था वह बहुत पहले से अपनी शारीरिक आवश्यकताओं के लिए बाहर निर्भर रहता है। उन्हीं दिनों से जब वह उसकी वंश बेंल बढ़ाने की चाहतों पर अपने शरीर की बलि चढ़ा रही थी। कई तरह के आपरेशनों दवाइयों ने उसे शारीरिक रूप से ही नहीं मानसिक रूप से भी तोड़ कर रख दिया था। पति को उसकी तकलीफों से कोई लेना देना नहीं। बेहद गर्म दवाओं ने उसके गले से लेकर पेट तक छाले पैदा कर दिये। वह कुछ निगलने तक में असमर्थ। पेट के दर्द और जलन से पूरे समय छटपटाहट... पर उसे क्या ? वह तो बिला नागा क्लब में खेलने जाता, वापस आकर फिर बन ठन कर निकल जाता, बारह एक बजे रात तक लौटता तो नशे में धुत्त पूरी तरह तृप्त।

मैंने अपने पतिदेव के मुख से उनके दोस्त के कारनामें सुने थे। लगभग सभी जानते थे । खुलेआम कोई नहीं बोलता था।

‘‘अरे, उसे तो रोज नयी चाहिए। ’’ मैं आश्चर्य करती, ‘‘झूठ। ’’ मिलती कहॉँ होंगी...। ’’

‘‘मिलने की तो मत कहो, आजकल कौन सी लड़की या औरत इन सब में लिप्त है, कहा नहीं जा सकता। शहर में हर पैसे वाला आदमी अब ये सब करना... स्टेटस सिबंल मानने लगा है ’’ मेरे चौंकने पर आगे जोड़ा जाता,’’ अब हम जैसे कुछेक ही होते हैं जो एक के साथ ही चिपके हैं। ’’

प्रकट में भले मैं हसंकर उनकी चुटकी लेती भई अपने श्रीमान जी तो न ठहरे पैसे वाले न ऊॅँचे स्टेटस वाले बेचारे। पर, भीतर कहीं एक अव्यक्त सी चिंता सिर उठा ही लेनी।

मौली के ठाठ देखकर कोई भी उससे रश्क कर सकता था। उसकी लेटेस्ट साड़ियॉँ, ब्राडेड पर्स और फुटवेयर, महंगी और डिजायनर ज्यूलरी। क्या कुछ नहीं था ..... दूसरे बच्चे के लिए उसकी ख्वाहिश और कवायद से हम सखियॉँ परीचित थी। पर, ये तो हर दूसरे घर की कहानी है। पढ़े-लिखे, आधुनिक कहे जाने परिवारो के भीतर भी हमने लड़कों के लिए ऐसी कवायदें देखी थीं। हममें से कई इन स्थितियों से गुजर भी चुके थे। हमेशा परिवार या पति ही पूरी तरह दोषी नहीं होते, हम ये भी जानते थे। हम औरतों के भीतर भी पुत्रवती होने के लिए एक जबरदस्त ललक होती है।

पिछले कुछ समय से मौली ज्यादा खुलकर मुझसे अपनी बातें शेयर करने लगी थी। मुझे लगता था वह अपने शरीर के बांझपने से उतनी आहत नहीं जितना अनु भईया की चरित्रहीनता से। मैं एक अच्छी श्रोता थी, चुपचाप बिना उसे टोके ... बिना कोई सलाह दिये, उसके कहे को सुन लेती थी और भीतर जज्ब भी कर लेती थी। पर उस बार तो उसकी बाते अलग थीं, उसके कहने का ढ़ग अलग था। वह करीब तीन महिने बाद मिली थी। स्तुति के मेडिकल में चयन की खुशखबरी पर मैंने उसे फोन पर बधाई दी थी और ये सोचे बैठी थी कि, वह स्तुति के एडमिशन हॉस्टल बगैरह की तैयारियों में जुटी होगी इस लिए नहीं दिख रही ।

गमलों की कुड़ाई करती मैं मौली को सीढीयॉँ चढ़ती देख खुरपी रख उसकी ओर बढ़ गई थी, कहॉँ गायब हो गई थी तू? स्तुति का एडमिशन हो गया? हॉस्टल कैसा है? मैंने एकसाथ ढेरों प्रश्न उसकी तरफ ठोक दिये थे। वह वहीं बांलकनी में रक्खी केन की कुर्सी पर ढहती हुई, ऑँखे मूंद मुझे हाथ के इशारे से चुप रहने को, शांत होने को इशारा किया। मुझे लगा वह थकी हुई है। मैं भीतर आ गई थी, उसके लिए पानी और गुड़ लेने। उसे प्यास लगने पर पानी के साथ और किसी भी मिठाई की अपेक्षा गुड़ खाना ज्यादा अच्छा लगता था। मैं पानी लेकर बाहर आयी तो उसे उसी तरह बैठे पाया। मन से थका हुआ व्यक्ति, बाहरी थोड़े से भी श्रम से पूरी तरह थका हुआ नज़र आता है। पर उसके चेहरे पर नज़र पड़ते ही मेरे विचारों को झटका सा लगा था। ये तो कोई नई ही मौली थी बिल्कुल ऐसे ही तो ऑँखे बंद कर वह हमेशा इसी कुर्सी पर निढ़ाल, बुझी और थकी हुई सी ढह जाया करती थी, पर आज ये कुर्सी पर पड़ा हुआ शरीर, ये गुंदी पलकों वाला चेहरा, न ही थका लग रहा है... न ही बुझा हुआ। पता नहीं क्यों पर बड़ी शिद्यत से ये एहसास हो रहा है कि इन पलकों को इसलिए मूंदकर नहीं बैठा गया कि भीतर की पीड़ा ऑँखों से छलक न उठे। इतनी शांति और इतनी तृप्ति मैंने इसके चेहरे पर पहले कभी नहीं देखी थी। वह भीतर उतरी हुई थी.... अपने भीतर कहीं गहरे... किसी सुख में लबालब भरी हुई सी। ना... ये चेहरे पर छलक पड़ती सूकून भरी शांति... महज बेटी की सफलता से उपजी हुई नहीं हो सकती।

‘‘मौली। ’’ मैंने धीरे से उसके कंधे पर हाथ रक्खा, ‘‘क्या बात है... कुछ कहना है? ’’

उसने ऑँखें खोलीं खूब गहरी नजरों से देखा था मुझे ‘‘हॉँ, कहना है... तुमसे ही तो कहती रही हॅूँ... सबकुछ... पर आज कोई दुखड़ा नहीं... आज तो सुख कहूॅँगी। ’’ नीला, दुनिया की सभी औरतें अपने पति की इज्जत करना चाहती हैं, प्यार करना चाहती हैं। पति के रूप में परमेश्वर की कामना करती हैं, मैं भी उन्हीं औरतों जैसी ही तो थी। पति द्वारा बहुत बहुत तिरस्कृत होने के बावजूद कभी कभी उसपर दया, प्यार जैसा कुछ उमड़ता बेड के किनारे से खिसक कर मैं उसकी तरफ... उसके लिहाफ में घुस आती... उसके सीने से लगकर सोने... को जी चाहता.... उसके बाहों में सर रख कर उसके सीने में अपनी नाक घुसाकर माथे पर उसकी ठुडडी और बालों पर उसके हाथों की सहलाहट... इन सबके लिए मन तड़प सा उठता। उसके लिए बहुत-बहुत नफरत महसूसने के बावजूद उसी से इन कोमल भावनओं की आशा भी करती थी। जाती थी इस आशा से कि वह हर तरह से तृप्त आदमी, मुझे अपनी बाहों में ले,सांतवना का हाथ मेरे सिर पर फेर मेरी थकी ऑँखों को थोड़ी सी सूकून भरी नींद दे देगा। पर, होता यूॅँ था कि मेरे सानिध्य से उसकी तृप्त देह में फिर से कामनाओं की आंधियॉँ उठने लगतीं। मुझे थपकाते, सहलाते, पुचकारते, वह मुझे अनुग्रहित सा करता, स्वयं तृप्त होता और फिर मुंह फेरकर खर्राटे लेने लगता। अगले पूरे समय मैं अपने आपकों लताड़ती... फिर भी कही गहरे इस संतोष को भी जीती कि मैं अपने शरीर से उसे तृप्त कर पायी। सुबह जब वह मुझे इस अदांज से देखता .... मानों रात को मैं अपनी शारीरिक तृप्ति के लिए उसके पास आई थी तो जाने कैसी घिन सी छूटती अपने ही शरीर से। उस वक्त भीतर से यही इच्छा होती, उसे एक थप्पड़ रसीद कंरू और चिल्लाकर बोलूं

‘‘ बड़े पति बने फिरते हो... मर्द होने का बड़ा घंमड है तुम्हें...जाने कितनी को अपने नीचे से निकाल चुके हो.... कभी जानने की कोशिश की कि तुम्हारी खुद की बीबी पिछले चौबीस वर्षो में कभी एक बार भी तुमसे तृप्त हुई? वो क्या कहते हैं... आर्गेज्म किस चिड़िया का नाम है? पता है तुम्हें?’’

वह धाराप्रवाह बोल रही थी और मैं टेशंन में थी कि कहीं कोई धमक न पड़े। एकाएक वह अपना मुंह मेरे कान के पास लाकर बोली, ‘‘सुन जो मैं उससे कह दॅूँ, हॉँ, मैंने आर्गेज्म नाम की चिड़िया का पूरा नाम - पता जान लिया है... और सॉरी, पति महोदय... ये जानकारी, आपके द्वारा नहीं किसी और के द्वारा मुझे उपलब्ध हुई है, तो साले, उस पति का क्या हाल होगा? ’’

हे भगवान तू पगला गई है क्या ...कैसी बकवास कर रही है... पी तो नहीं ली?’’

वह खिलखिला उठी थी - बच्चों जैसी निर्दोष हंसी, ‘‘ बेवकूफ! नशा तो अब टूटा है... अब तक तो जैसे नशे में जीती चली आई थी। सच, हम अपने इर्द गिर्द कितने सारे भ्रम बुन लेते हैं न...और उन भ्रमों के नशे में जीते चले जाते हैं । ’’

‘‘ये देख। ’’ उसने अपने हाथ मेरे सामने लहराये, ‘‘देख इन हाथों पर नसें उभरने लगी हैं गर्दन, ऑँखों, होठों के किनारों की गहरी पड़ती लकीरें । तेजी से सफेद होते बाल। ढीले पड़ते बदन के कसाव। उठते बैठते दर्द के साथ आवाज करती हड्डियॉँ। उम्र के निशान अपने होने का एहसास तेजी से बिखेर रहे हैं’’ उसने झटके से अपना कुर्ता ऊपर उठा दिया, ‘‘ये देख, ये कटा-फटा पेट... उसने यहॉँ अपने होंठ रक्खे थे - वो मेरा नीलकंठी शिव.... मेरी आत्मा में भरी सारी टीसों को सोख लिया उसने। सच, जीवन में कुछ अच्छा होना होता है न तो आहटें पहले सुनाई देने लगती हैं। बेटी का मेडिकल में चयन और अचानक उसी शहर में उसका मिलना। लगा बीच का वक्त बस्स बीत गया... बिना उस एहसास का छुये, बदले या विकृत किये... हमने जो जीया वो सबकुछ शारीरिक लटर-पटर से कुछ आगे था... ज्यादा था.... कुछ बड़ा... सर्मिथंग नेमलेस। हमें तो ये भी नहीं पता कि हम फिर कभी मिलेंगे या नहीं बस्स लगता है, कोई चाहत कोई तृष्णा अब बची ही नहीं... गले तक भरा हुआ मन’’

‘‘मौली, चुप हो जाओं’’ मेरी आवाज सख्त होने के चक्कर में फट सी गई थी, ‘‘मैं नहीं सुनना चाहती कुछ भी...जब्त कर ले अपने भीतर अपने इन निजी सुखों को । बाहर दुनियॉँ में इनका कोई मोल नहीं ऐसे सुख अनैतिक है । ’’

उसकी ऑँखों में बूंदे चमचमा उठी थी ‘‘सारी जिंदगी संत्रास दुःख अपमान सहना, सहते चले जाना... बिना अपनी गलती जाने एक सजा की तरह जिंदगी काटते जाना नैतिक है? क्यों ...? और अपनी खुशियों की तरफ थोड़ा सा हाथ बढ़ा लेना या उन्हें एक छोटे से क्षण में जी लेना अनैतिक! सुख हमेशा वर्जित और अनैतिक क्यों होता है? वो एक दाण मैंने अपनी आत्मा की पूरी सजगता, रोम रोम की पूरी चेतना के साथ जीया है। ना ऽ कोई पूजा, प्रार्थना, इबादत, सज़दा... ऐसे शब्द भी उस क्षण की पूर्णता को परिभाषित नहीं कर सकते... बस्स जी लेना जैसे हीक भर जाये। ’’ ‘‘पर, ’’ मैं हकला गई थी। मौली का ये रूप मेरी कल्पना के किसी भी ओर छोर से परे था। जेवरें गढ़वाती मौली शॉपिंग करती मौली। बार-बार अस्पताल में भर्ती होती मौली, तीज, करवाचौथ और वट सावित्री के ब्रत रहती मौली किटी पार्टीज अटेंड करती मौली। आम पत्नियों की तरह पतियों की बुराई करती मौली इन सारे सारे रूपों में मौली मेरे लिए बिल्कुल स्वभाविक थी पर ये मौली ? ये शांत निर्मल रूप जाने क्यों मुझे अटपटा सा लग रहा था। उसके चेहरे से झलकती निर्दोष खुशी देख कर उसके लिए खुश होने का मन हो रहा था... अपने कंफर्ट जोन से निकलती हुई इस औरत के लिए न तो मैं ठीक से खुश हो पा रही थी न ही उसे लताड़ने के लिए जबान साथ दे रही थी। एक चिंता सी उग रही थी भीतर... बस्स।

------------