प्रेमिका Sapna Singh द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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प्रेमिका

प्रेमिका

ये एक सामान्य सी सुबह थी इतवार की । सर्दियों की गुनगुनी धूप बालकनी तक आ रही थी। आनंद वहीं बैठे चाय पी रहे थे। दोनों पैर सामने टेबल पर फैलाए, आंखों के सामने अखबार खोले। बच्चे अभी लिहाफ में घुसे मीठी नींद में सोए सपनों की दुनिया की सैर कर रहे थे। इतवार का दिन बहुत से पेंडिंग कामों को निपटाने का दिन भी होता है। आखिर हम दोनों वर्किंग थे। पर धूप मुझे ललचा रही थी। अभी मेड के आने में भी खासा वक्त था। इतवार को वह भी आराम से आती थी। मैंने अपनी चाय ली और बालकनी में आ गई। आनंद ने अखबार से नज़र उठाकर मुझे देखा और फिर से किसी ख़बर में डूब गए। धूप की भली सी सेंक को महसूसते मैंने शरीर को कुर्सी पर ढीला छोड़ा और इत्मीनान से चाय की चुस्कियों के सुख में डूब ही रही थी कि,डोरबेल बज उठी।

'उफ, इतवार को भी चैन नहीं '। बड़बडा़ते हुए मैं दरवाजे की ओर बढ़ी थी । दरवाजे पर जिसे देखा, उसे वहां देखने की कल्पना भी मेरे लिए कल्पनातीत थी । यह यहां कैसे? क्यों ?और कैसा अजब सा भेष । मैं तो पहचान भी नहीं पाती, पर उसकी चमकती आंखें वह बिल्कुल नहीं बदली थीं । लंबे लहराते बालों की जगह छोटे छोटे लड़कों जैसे बाल। जींस शर्ट और लंबा कोट पैरों में स्पोर्ट् शू ।

' क्यों भूल गईं ? मैं आपके पति की इकलौती प्रेमिका !' उसके चेहरे पर खिलंदरा सा भाव मेरे आश्चर्य को बढा़ रहा था ।

शलाका !

मेरा आश्चर्य अभी खत्म नहीं हुआ था।

'कौन है स्नेह ' ?आनंद की पीठ हमारी तरफ थी इसलिए वह देख नहीं पाए थे कि दरवाजे पर कौन है। उनकी आवाज सुनते ही उसके चेहरे पर एक अनोखी सी चमक कौंधी। वह तेजी से आगे बढ़ी,उनके गले में बाहें डाल, उनका चेहरा पीछे की ओर उठाकर उनके माथे पर एक चुंबन धर तुरंत उनके सामने की कुर्सी पर बैठ गई। कुछ सेकेंड के अंदर यह घटा । हम दोनों पति-पत्नी हतप्रभ, किंकर्तव्यविमूढ़।

उसके चेहरे पर शैतानी हंसी थी। ' क्यों जनाब दुनिया में एक ही तो आपको प्रेम करने वाली है, उसे भी भूल गये ?

उसके इस अप्रत्याशित आगमन से ही हम अभी उबर नहीं पाये थे,तिसपर उसकी ये हरकत !

"ओहो,आप लोग तो यूँ रियेक्ट कर रहे हैं,मानो भूत देख लिया हो ...क्या किसी ने मेरे मरने की झूठी खबर उडा़ दी थी ?रिलैक्स यार "उसने मेरा हाथ पकड़कर हौले से दबाया,"मै आप लोगों को परेशान करने नहीं आई,सिर्फ देखने का मन किया । "

हाँलाकि मै मन ही मन बेहद परेशान और उद्धिग्न महसूस रही थी पर प्रत्यक्ष मे सिर्फ मुस्कुरा कर इतना ही बोल पाई-अरे,परेशानी कैसी ?मुझे तो खुशी है । मै अक्सर तुम्हारे बारे मे सोचती थी ।

आनन्द अब भी बुत बने बैठे थे । उनका यूँ खामोश होना मुझे खिजा रहा था ।

"अरे भाई,सात समन्दर पार से आने वालों का यूं स्वागत करते हो आप लोग,कम से कम एक प्याली चाय..." कहते हुए वह अपने जूते उतारने लगी ।

ओह,हाँ हाँ कहते मै किचन मे आ गयी । मेरे दिल की धड़कन बेकाबू हो रही थी । ये क्यों आई है यहाँ ? कैसे ठसके से कह रही,मन किया देखने का । इतना समय बीत गया पर अब भी उसका भूत नहीं उतरा । लेकिन,मै क्यों डर रही । ना,डरुंगी क्यों ? ये मेरा घर है ...। इसी ऊहापोह मे मैने चाय बनाई । मुझे लगा था शायद वो मेरे पीछे किचन मे आ जायेगी । पर वो नहीं आई थी ।

मै जब चाय लेकर आई तो शलाका कुर्सी की पुश्त से पीठ टिकाये आँखें मूंदे निढाल सी पडी़ थी । आनन्द वहाँ नहीं थे । मैंने उसे धीरे से हिलाया। उसने चौंक कर आंखें खोल दीं। चाय का प्याला लेकर उसने इधर उधर देखा। उसकी आंखों में उदासी सी सिमट आई,' मैंने आप लोगों को परेशान कर दिया ना देखो उन्होंने मुझे एक हेलो भी नहीं की। '

'आनन्द फ्रेश होने गये होंगे । आज संडे है न,सुबह से यूँ ही बैठे थे ।

'खैर अब तो मैं आ ही गई हूं,वापसी का रिजर्वेशन कल का है। तब तक तो मुझे बर्दाश्त करना ही पड़ेगा।

' कैसी बात करती हो? हमें अच्छा लगेगा। ' मैंने हंस कर कहा, 'तुम थकी हुई हो, फ्रेश होकर नाश्ता करो और सो जाओ ।

'आप मेरे लिए परेशान मत होइए। मैं अभी थोड़ी देर यहीं बैठूंगी । ' वह कुर्सी पर कुशन को ठीक-ठाक करके थोड़ी और पसर गई ।

' ऐज यू विश 'कहकर मैं वहां से चली आई । इस बीच आनंद खामोशी से फ्रेश हुए, एक प्याली चाय ली और बिना नाश्ता किए ही गाड़ी निकाल कर कहीं चले गए। हम दोनों ही एक-दूसरे से नजरें चुरा रहे थे । शलाका पूर्वतः कुर्सी पर पसरी उंघती रही। मैंने उसे डिस्टर्ब करना ठीक नहीं समझा। बेचारी थकी हुई है फिर कैसे कमजोर और बीमार लग रही है।

घर का काम निपटाते हुए मैं शलाका के बारे में ही सोच रही थी । यह इस तरह कभी यहां भी आ सकती हैं इसकी तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी। पर जैसा उसका स्वभाव था, व्यक्तित्व था उसका कुछ भी कर गुजरना नामुमकिन नहीं लगता था।

मेरी और आनंद की शादी अरेंज थी । उन्हें पहली बार मैंने सगाई पर ही देखा । मेरी सहेलियां तो उन पर मर मिटी थीं । सच आनंद थे भी तो ऐसे। विद्वता से भरपूर चेहरा और सुदर्शन कद काठी। विवाह के बाद ही मैंने पहली बार शलाका का नाम सुना था। बाद में जब कभी आनंद से जानना चाहा उनकी असामान्य चुप्पी ने बात आगे बढ़ने ही नहीं दी । मैंने भी बहुत कुरेदा नहीं । कारण था आनंद का इतना अच्छा होना। आनंद बहुत ही अंडरस्टैंडिंग और ख्याल रखने वाले पति थे। साल भर बाद ही मैं मां बन गई । गोद में सनी आ गया । गृहस्थी बच्चा और रिसर्च इन सब में शलाका को कौन याद रखता । यूं भी बड़ी दीदी से और देवर से इस अधूरी प्रेम कहानी के सारे पन्नों की जानकारी मिल ही गई थी। शलाका मेरी चचिया सास की रिश्तेदार थी और मेरी चचेरी ननंद के साथ इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ती थी। दोनों इकट्ठे हॉस्टल में रहती थीं और एक आद दिन की छुट्टी या फिर इतवार को इलाहाबाद से बनारस आ जाती । आनंद की मुलाकात वहीं पर शलाका से हुई थी। आनंद उन दिनों आईआईटी कानपुर में इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में थे । देवर इलाहाबाद में ही मेडिकल की पढ़ाई कर रहे थे । कभी कभी आनंद कानपुर से इलाहाबाद आ जाते और फिर सब बनारस ।

आनन्द से उसकी पहली मुलाकात का दिलचस्प वर्णन भी मुझे दीदी और आकाश भैया ने सुनाया था हंसते हुए । शलाका को हमारी कोठी मे लगे अमरुद खूब पसंद थे । पेड़ पर चढ़कर अपनी पसंद के अधकच्चे अमरुद खाना उसका प्रिय शगल था । उस दिन भी वो पेड़ पर चढी़ थी । दीवार की दूसरी तरफ त्रिपाठी जी का बंगला था जिधर फालसे का पेड़ था जिसकी डाल इधर भी आई थी । शलाका अमरुद की शाखाओं पर पैर रख ऊपर की डाल पकड़ आराम से उस दस बारह फुट ऊँची और करीब आठ इंच चौडी़ दीवार पर पहुँच गयी । बस अब फालसे का वो गुच्छा हाथ मे आने ही वाला था,जिसने उससे ये मशक्कत करायी थी । ठीक उसी समय आनन्द गेट खोल कर अन्दर दाखिल हुआ और उसकी नजर दीवार पर चढी़ लड़की पर पडी़,जिसने एक हाथ से अमरुद की एक डाल पकडी़ थी और दीवार पर पैरों का बैलैंस बनाये दूसरा हाथ त्रिपाठी अंकल के फालसों की ओर बढा़या था । उसने चौंककर कुछ तेजी से बोला -एई कौन है ?

अचानक इस आवाज से शलाका हड़बडा़ गयी और बैलैंस बिगड़ गया । उसने कल्पना कर ली कि,अब तो उसे दीवार से सटी गुलाब की झाडि़यों मे ही गिरना है । जो दोनो तरफ थीं। लेकिन इससे पहले कि,वह कहीं और गिरे आनन्द ने उसे संभाल लिया । हाँ इस कोशिश मे उसके हाथ पाँव जरुर काँटों से बिंध गये । शलाका ने दहशत के मारे आँखें मूँद ली थीं । अबतक आकाश और कविता भी उधर आ गये । । आनन्द ने शलाका को अपनी बाहों से नीचे उतारा और झुंझलाई आवाज मे सारी बात बताई । शलाका भरी आँखों से उसे घूर रही थी । और जब सारी बाते सुनकर आकाश और कविता ठहाका मार हँसने लगे तो बौखलाहट मे उसकी रुलाई फूट पडी़ । उसका रोना देख उनकी हँसी मे ब्रेक लगा,देखो कहीं चोट वोट तो नहीं लगी कहते हुए आकाश और कविता उसकी मिजाजपुर्सी मे जुट गये । आनन्द ने एक नजर उस रोती हुई लड़की पे डाली और अपने हाथ पैरों के खंरोंचो को देखता अन्दर चला गया । बाद मे तो जब तब इस घटना की याद कर खूब हंसी मजाक होता,छेडा़ जाता ।

शलाका,आनन्द को अच्छी लगती थी,पर वह अपने को संयत किये हुए थे । जानते थे, परिवार की प्रतिष्ठा के प्रति हद से ज्यादा सचेत अभिभावक शलाका से उनके सम्बन्ध को बिल्कुल नहीं स्वीकार करेंगे । । उनकी इमेज भी ऐसी थी -खानदान का सबसे अच्छा लड़का । शलाका के पिता ने अंर्तजातीय विवाह किया था । उसकी माँ को कुछ लोग मुस्लिम कुछ पंजाबी तो कुछ क्रिशच्यन बताते । उसके पिता ने कभी उनकी जाति नहीं बताई । उन्हें परिवार समाज से लगभग बहिष्कृत कर दिया गया था । उन दिनो वो दिल्ली मे थे । बहुत बाद मे अमेरिका सेटिल हो गये ।

आनन्द के मन मे अगर शलाका के प्रति कोमल भाव थे भी तो उन्होंने उसे सख्ती से अपने भीतर दबा रखा था ...पर शलाका मुखर थी । इसी बीच उसे कोई स्कालरशिप मिली और वह अमेरिका चली गयी । इधर हमारी शादी हो गयी । शलाका अब बीती हुई बात हो गयी थी । उसके बारे मे कुछ अफवाहें जरूर सुनने को मिल जातीं । कभी सुनने मे आता उसने किसी एन आर आई से शादी कर ली है । फिर खबर मिलती,शादी वादी नहीं की है यूँ ही बिना शादी किये साथ रहते हैं दोनो ।

कविता की शादी मे बडे़ उत्साह से गये थे हम । उस दिन सब हाल मे बैठे थे,गाना बजाना चल रहा था कि,वह दाखिल हुई । कविता तो उससे लिपट ही गयी थी - तू तो पूरी मेम हो गयी है ...मामा मामी नही आये ?

" हम आ गये न । हमने सिर्फ अपना जिम्मा लिया है । " वह हँसी थी

यही थी शलाका । कविता ने मुझसे उसका परिचय कराया । आनन्द से भी हैलो की उसने और देर तक उनकी आँखों मे देखती रही । आनन्द ही कतरा कर बाहर निकल गये । शादी ब्याह का घर,जहाँ देखो लोगों का जमघट । सशाम को संगीत था । नाच गाना चल रहा था । शलाका भी शामिल थी । आकाश उसका साथ दे रहा था । उसने आनन्द को भी उठा लिया । फिर कविता भी उठ गयी । मेरा पांचवां महीना चल रहा था तो मै बैठी रही । आनन्द भी दो चार स्टेप कर आकर बैठ गये । आकाश और शलाका दोनो उत्साह मे थे । पर थोडी़ देर मे शलाका के चेहरे पर दर्द उभरा और वह सर पकड़ कर बैठ गयी । एकदम से सभी चिन्तित हो गये । कोई पानी ले आया । आकाश ने गीले कपडे़ से उसका मुँह पुछवाया । इत्ती से देर मे शलाका का चेहरा निस्तेज सा हो गया था । मैने आनन्द के माथे पर उभरी सिकुड़न से जान लिया,वो बेचैन हैं । पर प्रत्यक्षतः उन्होंने सामान्य तत्परता ही दिखाई । कुछ देर मे शलाका सामान्य हो गयी ।

मुझे आश्चर्य होता था शलाका का साहस देखकर । वह जब भी आनन्द को सामने पाती,बिना किसी की परवाह किये उन्हें एकटक देखने लगती । मेरी भी परवाह उसे नहीं थी । मै अक्सर उसे देखकर असहज हो जाती । आनन्द का व्यवहार भी विचित्र हो गया था । दिन मे दो सिगरेट पीने वाले आनन्द आजकल दो पैकेट पी रहे थे । रातभर मै उनकी बेचैन करवटें महसूस करती थी। उनकी शून्य मे खोई आँखें ...ऐसा लगता उनका कुछ खो गया है । आखिर मैने अपना आपा खो दिया और बरस पडी़ मै उसपर - क्यों तंग कर रही हो उन्हें ?

किसे ? उसने यूँ भोलेपन से पूछा जैसे सचमुच नहीं जानती हो,मै किसके बारे मे बात कर रही हूँ ।

' आनंद को! तुम्हें कोई दूसरा नहीं मिला? वह शादीशुदा हैं, उनका परिवार है । क्यों उनके पीछे पड़ी हो । ' ना चाहते हुए भी मेरा स्वर कठोर हो गया था, और मेरे स्वर से भी ज्यादा कठोर हो गया था शलाका का चेहरा ।

कविता की शादी के बाद वापस आने के बाद दिनों तक मै शलाका के ख्यालों में गुम रही । आनंद के हर व्यवहार, हर हरकत के पीछे मैं शलाका को ढूंढती । लेकिन आनंद ने भूले से भी कभी उसका जिक्र नहीं किया । दिन महीने और फिर साल,दिन एक पर एक आते गए, गुजरते गए । शलाका फिर बीती हुई कहानी सी यादों में जाकर बस गई । जिंदगी इतनी व्यस्त होती चली गई कि रुककर बीती बातों पर सोचने का वक्त नहीं मिलता । कभी कभी शलाका बिजली की तरह यादों में कहीं कौंध उठती और उस पल मै ध्यान से आनंद का चेहरा पढ़ने की कोशिश करती- क्या आनंद को वह याद नहीं आती !

और अब, लगभग 4 वर्ष के बाद उसका यह अप्रत्याशित आगमन । क्यों आई है कुछ स्पष्ट नहीं । दोपहर के खाने तक आनंद लौट आए थे । शलाका भी नहा धोकर फ्रेश हो गई थी । चेहरा वैसा ही क्लांत लग रहा था । वह बच्चों के साथ बातें कर रही थी आनंद सिर्फ हां हूं कर रहे थे, पर सुबह वाला तनाव उनके चेहरे पर नहीं था । इस समय वह काफी सहज लग रहे थे । शलाका ने सिर दर्द की शिकायत की थी । आनंद ने उसे खाने के बाद कोई दवा ले लेने की सलाह दी । मैंने भी कहा सफर का हैंगओवर होगा तुम्हें आराम चाहिए। लेकिन शाम तक दर्द बढ़ गया था। उसके मुंह से हल्की कराहटें निकलने लगी थी,चेहरा दर्द से काला पड़ने लगा था । मैं घबराकर आनंद को बुला लाई । शलाका ठीक से देख भी नहीं पा रही थी।

' इसे साइनस था, उसी वजह से होगा दर्द ...कौन सी दवा खाती हो शलाका?डिस्प्रीन दूँ ? ' आनंद पूछ रहे थे ।

' मैं दे चुकी हूं ' मैंने उन्हें बताया।

' इसी का डर था। डॉक्टर ने मना किया था सफर के लिए । ' शलाका बड़बड़ा रही थी । उसने उठने की कोशिश की।

' कहां जा रही हो ?' आनंद उसे सहारा देते हुए बोले

'मेरे बैग में दवाएं हैं '

' मुझे बताओ, मैं जाती हूं । 'मैंने कहा

' सामने वाली जिप मे ...'शलाका निढाल पड़ गई थी । मैं जल्दी से उसका सामान देखने लगी । बैग में ऊपर ही दवाओं का पैकेट पड़ा था ।

बाप रे इतनी सारी दवायें ? मैंने सोचा और पैकेट लेकर आनंद के पास आ गई । आनंद ने पैकेट खोला ।

' लो बताओ कौन कौन सी दवा है ' कहकर वह दवाएं देखने लगे । साथ में कुछ प्रिस्क्रिप्शन जैसे कागज भी थे । मैंने शलाका को पानी दिया । वह दवाई निगलने लगी । आनंद कागज पढ़ते हुए कमरे से बाहर निकल गए थे । मैं वहीं बैठी रही शलाका आंखें मूंदे पड़ी थी । नींद में भी उसके माथे पर पसीने की बूंदें उभर आई थीं । आधे घंटे बाद वो सो गई । मैं कमरे से बाहर आ गई । अंधेरा घिर आया था । हाल में बच्चे टीवी पर कार्टून देख रहे थे । आनंद कहां गये? सोचती हुई मैं बेडरूम की ओर बढ़ गयी।

कमरे में अंधेरा था । मैंने लाइट अॉन की । कोने के चेयर पर आनंद सिर झुकाए बैठे थे । मेरी आहट से उन्होंने सिर ऊपर उठाया । उनकी आंखों में भरी पीड़ा देखकर मैं डर गई ।

' क्या हुआ ?'

'यह पढ़ो ..यह रिपोर्ट ...उसे ब्रेन ट्यूमर है । '

' ब्रेन ट्यूमर !' मैं अचकचा गई थी ।

' हाँ, एक ऑपरेशन भी हो चुका है। '

दरवाजे पर आहट सुनकर हमने देखा, शलाका खड़ी थी। मैं घबरा कर उसकी ओर बढी़,- तुम ठीक तो हो, दर्द हो रहा है क्या ?

'मैं ठीक हूँ ...खामखा आप लोगों को परेशान कर दिया । ' वह बेड पर बैठते हुए बोली

' ऐसी हालत में तुम्हें इंडिया नहीं आना चाहिए था ' बोलते हुए आनंद की आवाज काँप गई थी ।

शलाका हल्के से हंसी - ऐसी हालत है तभी तो आई । क्या पता कब खेल खत्म हो जाए । आपको देखे बगैर मर जाती तो अतृप्त आत्मा बन आपको सताती । '

हम चुप थे । आनंद तो जैसे सन्निपात की हालत में बैठे हों ।

देर रात मेरी आंख खुल गई थी । आनंद नहीं थे बगल में । मन में शंका उठी । मैं दबे पांव गेस्ट रूम की ओर बढ़ी थी । दरवाजा अंदर से बंद नहीं था । झांक कर देखा, शलाका गहरी नींद में सो रही थी । क्लांत चेहरा लिहाफ से बाहर झांक रहा था । यहां नहीं है तो कहां गए ? बालकनी की तरफ से सिसकियों की दबी आवाज सुनकर मैं आश्चर्यचकित सी उधर बढी़ थी । आनंद थे, दोनों हाथों से सिर को थामे । हिचकियों से उनका पूरा शरीर कांप रहा था । मैं सन्न थी । मेरे सामने मेरा ही पति किसी और के लिए इस तरह रो रहा था और पता नहीं क्यों मुझे बिल्कुल बुरा नहीं लग रहा था।

मैंने ऊपरी मन से शलाका से एक-दो दिन और रुकने को कहा । लेकिन भीतर ही भीतर उसकी ऐसी गंभीर बीमारी से मुझे भी भय था । यहां कुछ हुआ तो कितनी परेशानी में पड़ जाएंगे हम । शलाका की ट्रेन रात को थी । मैं और आनंद दोनों गए थे उसे छोड़ने स्टेशन तक ।

' अपना ध्यान रखना, पहुंचकर फोन जरूर करना हमें चिंता रहेगी । 'मैंने उसका हाथ सहलाते हुए कहा था । आनंद चुपचाप प्लेटफार्म पर चहल-कदमी कर रहे थे । कुछ देर पहले उन्होंने कुछ मैग्जींस लाकर रख दी थी । ट्रेन जब छूटी तो जाने क्यों मेरी आंखों की कोरें गीली हो गई । आनंद यूंही बुदत बने खड़े थे । ट्रेन का आखिरी डिब्बा भी आंखों से ओझल हो गया । मैंने धीरे से उन्हें छुआ, वे चिहुँक से उठे और एक खूब गहरी सांस उनके होठों से फिसल गई ।

----- सपना सिहं

'अनहद',10/1467

अरुण नगर,रीवा (म.प्र.)

486001

मो - 9425833407

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