Aakhar Chaurasi - 34 books and stories free download online pdf in Hindi

आखर चौरासी - 34

आखर चौरासी

चौंतीस

पूरी बातें सुन कर विक्की काफी देर तक चुपचाप बैठा रहा। फिर धीरे से बोला, ‘‘चलो तैयार हो जाओ, बी’जी ने तुम्हें बुलाया है। हम लोग अभी घर जाएँगे। तुम वहाँ से दो-चार दिनों में लौट आना।’’

घर जाने की इच्छा तो उसके मन में भी थी। उसकी बात सुन कर गुरनाम तुरंत हरकत में आ गया। एयर बैग में कुछ कपड़े और नोट्स रख कर वह प्रीफेक्ट को देने के लिए छुट्टी का एप्लीकेशन लिखने लगा।

हॉस्टल से निकल कर वे दोनों ‘ट्रेक्कर स्टैंड’ की ओर चल दिये। गुरनाम ने लक्ष्य किया विक्की कुछ ज्यादा ही शान्त था। परन्तु उसने उसे नहीं टोका। स्टैन्ड पर उनके घर की ओर जाने को तैयार खड़े ट्रेक्कर में दो सवारियाँ घट रही थीं, वे दोनों उसमें बैठ गये।

ट्रेक्कर जब स्टार्ट हो कर स्टैन्ड से बाहर सड़क पर आ गया तब विक्की बोला, ‘‘देखो गुरु, मेरा आक्रोश तुम पर नहीं था। उन परिस्थितियों के विरुद्ध था, जिसमें तुम्हें केश कटवाने पड़े। अगर तुमने सामान्य परिस्थितियों में और अपनी इच्छा से केश कटवाए होते तो कोई परेशानी की बात नहीं थी। परन्तु इन परिस्थियों में तो तुम्हारे कटे केश अब हमेशा ‘चौरासी’ की याद दिलाते रहेंगे...। काश मैं एक दिन पहले आ गया होता...।’’

‘‘लेकिन विक्की तुम अपना मन क्यों दुःखी कर रहे हो ? इसके लिए तुम तो दोषी नहीं हो !’’ गुरनाम ने उसकी बात काटते हुए उसे सान्त्वना देनी चाही।

‘‘मानता हूँ, तुम्हारी बात ठीक है।’’ विक्की ने कहा, ‘‘परन्तु इस बात से कैसे इन्कार करोगे कि अपराध को मौन रह कर देखने वाला भी अपराध करने वाले जितना ही पापी होता है ?’’

‘‘लेकिन इस पाप के तो तुम मौन भागीदार भी नहीं हो। फिर इस पाप के अपराध बोध की चिन्ता कैसी ?’’

‘‘...यह मात्र किसी पाप अथवा अपराध बोध की बात नहीं है। वैसे भी मैं किसी पाप-वाप से नहीं डराता। प्रश्न तो यह है कि हमारी व्यक्तिगत चीजों और मान्यताओं को दूसरे लोग क्यों और कैसे निर्धारित करेंगे ? वह भी जबरन...? ये केश तुमने अपनी इच्छा से नहीं कटवाए हैं बल्कि तुमसे जबरन कटवाये गए हैं ...वो भी तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध !’’

बातों ही बातों में उनका सफर कट रहा था। लगभग आधे रास्ते पर आगे जा कर उनका ट्रेक्कर भी सड़क किनारे एक कतार से बने ‘लाईन होटलों’ में से एक के सामने रुक गया। सभी सवारियाँ वहाँ चाय-नाश्ते के लिए उतरने लगीं। वे दोनों भी उतर कर लाइन होटल की ओर बढ़ गये। रामगढ़ बस स्टैंड से उन्हें अपनी कोलियरी के लिए दूसरा ट्रेक्कर बदलना था, अभी दो घण्टों का सफर और बाकी था।

***

घर पहुँचने पर गुरनाम का सामना सबसे पहले माँ से हुआ। केश कटने के बाद से ही वह टोपी पहनने लगा था। उस समय भी टोपी उसके सर पर थी। माँ ने उसे गले से लगा लिया। उनका गला आँसुओं से रुँध गया था। उन्होंने अपना हाथ उसके केशों पर फेरा, गुरनाम की टोपी नीचे गिर गयी। उसके सर पर इधर-उधर फिरती माँ की अँगुलियाँ कुछ ढूंढती-सी प्रतीत हो रही थीं। हरनाम सिंह भी वहाँ आ पहुँचे। धीरे-धीरे पूरा परिवार वहाँ इकट्ठा हो गया। कितने दिनों बाद डिम्पल को उसी दिन बाहर जाकर खेलने की अनुमति मिल पायी थी। उसने गुरनाम को देखा तो दौड़ते हुए आ कर उसकी गोद में चढ़ गई। उसका बाल-मन सोच रहा था, शायद गुरनाम मामा के आने के कारण ही उसे बाहर खेलने की अनुमति मिली है और घर का माहौल वैसा खुशनुमा बन पाया है।

उसने मचलते हुए पूछा, ‘‘मामा, मामा अब तो आप हमारे साथ ही रहेंगे न ! कहीं नहीं जाएँगे न ! पता है, आप नहीं थे तो हम सबको बहुत डर लगा था। एक न भुभू आ गया था, हम सबको मारने !’’

उसके कथन का मर्म और उसकी मनःस्थिति की कल्पना कर गुरनाम तड़प उठा। कितना डर सहा होगा इस नन्हीं-सी जान ने, उसकी आँखों भर आईं। अपने आँसू छुपा कर उसने डिम्पल को गोद में उठा कर ज़ोर से भींच लिया।

‘‘नहीं डिम्पल, अब मैं कहीं नहीं जाऊँगा। यहीं रहूँगा तुम सबों के साथ।’’

थोड़ी देर उसकी गोद में ही लाड़-प्यार जताती, खेलती डिम्पल उतर कर फिर से अपने दोस्तों के साथ खेलने बाहर चली गई। विक्की और गुरनाम हाथ-मुँह धो कर डायनिंग टेबल पर आ गए। गुरनाम की भाभी उन दोनों का खाना लगाने लगी। लाला-लाला चूड़े से उसकी दोनों कलाइयाँ अभी भरी हुई थीं।

‘‘वीर जी, हमें तो लगा था कि बस अब अन्त आ गया। ...मगर वाहेगुरु जी की कृपा थी जो उन गुंडों का कलेजा हमारा सामान लूट कर ही ठण्डा पड़ गया।’’

मनजीत दीदी भी वहाँ आ कर बैठ गईं। गुरनाम और विक्की खाना खाते हुए उनकी बातें सुनते जा रहे थे। उन बेतरतीब और बिखरी टुकड़ा-टुकड़ा बातों में सारा विवरण था। भाभी और मनजीत दीदी द्वारा बताए जा रहे उन विवरणों से छन कर सारी घटनाएँ चलचित्र की भाँति उनके मानस पटल पर उभरती जा रही थीं। बीच-बीच में गुरनाम का रोटी तोड़ता हाथ रुक जाता। उसका ख़ून खौलने लग जाता।

‘‘...और तो और, एक दिन डिम्पल आफत लाने वाली थी।’’ बहन बोली।

‘‘डिम्पल ! क्या कहती हो ?’’ गुरनाम के साथ-साथ विक्की ने भी आश्चर्य से मनजीत कौर की ओर देखा।

‘‘हाँ सुनो तो, वो पड़ोस वाले जावेद अंकल की छोटी बेटी से बोली, हिन्दू पहले सिर्फ तुम लोगों को लूटते-मारते थे। अब हमें भी लूटने-मारने लगे हैं। चलो, हम दोनों मिल कर हिन्दुओं को मारेंगे। वो तो उन्हें बातें करते केवल आंटी ने सुना और समझा-बुझा कर घर वापस भेज दिया। अगर कोई और सुन लेता तो....?’’

सुरजीत कौर ने वहाँ आते हुए उन्हें टोका, ‘‘नीं कुड़ियो (अरी लड़कियों) बच्चों को खाना तो ठीक से खा लेने दो। अपनी राम कहानी बाद में बता लेना। बेचारे अभी-अभी आए हैं और तुम दोनों शुरु हो गईं।’’

उनकी बात सुन कर भाभी और दीदी दोनों चुप हो गईं और बातों का रुख विक्की के ईंजीनियरिंग कॉलेज की तरफ मुड़ गया।

खाना खा कर दोनों हरनाम सिंह के साथ बातें करने लगे, जहाँ बातों का सिलसिला फिर से विगत दिनों की ओर चला गया। जितना कुछ वे सुनते जाते उनकी बेचैनी उतनी ही अधिक बढ़ती जाती। इसी बीच सतनाम भी वहाँ आ पहुँचा। वह अपनी दुकान बढ़ा कर लौटा था। कुछ देर पहले हरनाम सिंह उसके बारे में ही बता रहे थे कि ‘ब्लॉक’ (प्रखण्ड विकास पदाधिकारी का कार्यालय) से सरकारी आदमी आकर उस क्षेत्र में हुए नुकसान का लेखा-जोखा नोट करने वाला है।

उन्होंने सतनाम से पूछा, ‘‘ब्लॉक से कोई आया था क्या ?’’

‘‘हाँ, आया था।’’ सतनाम का स्वर बेहद थका हुआ था, ‘‘सारा दिन तो बस उसकी प्रतीक्षा ही करनी पड़ी। अभी थोड़ी देर पहले ही वह आया। उसने पूरी दुकान देखी। नुकसान हुए सामान आदि की पूरी लिस्ट बना कर उसे देनी पड़ी। पता नहीं सारी चीजें लिस्ट में लिख भी पाया या नहीं....। वो तो ब्लॉक वाले की प्रतीक्षा करनी थी, वर्ना उस जली-लुटी दुकान में बैठने का भी मन नहीं करता।’’

गुरनाम उठ कर सतनाम से लिपट गया।

‘‘तुम कब आये ?’’

‘‘बस, अभी थोड़ी देर पहले।’’ सतनाम ने उत्तर दिया। वह और कुछ भी बोलना चाहता था। अपने बड़े भाई को सान्त्वना देना चाहता था। परन्तु असफल रहा, उसके पास शब्द ही नहीं जुट रहे थे। ...न जाने सारे के सारे शब्द ऐन मौके पर ही दगा क्यों दे जाते हैं ?

***

शाम घिरती देख विक्की ने उठते हुए कहा, ‘‘ मैं ज़रा घर हो लूँ। पापा सोच रहे होंगे, अभी तक तुम्हें ले कर नहीं लौटा।’’

गुरनाम ने उसे उठते हुए देखा तो वह भी उठ खड़ा हुआ, ‘‘चलो मैं भी चलता हूँ।’’

उसे उठता देख सुरजीत कौर अधीर हो गई। थोड़ी ही देर में रात का अँधेरा घिर आएगा, ऐसा सोच कर वह परेशान थी। ऐसे माहौल में वह नहीं चाहती थी कि गुरनाम जाए। लेकिन विक्की के कारण वह मना करने की भी नहीं सोच सकती थी।

‘‘बेटा, जल्दी लौट आना।’’

‘‘जी बी’जी, जल्द ही लौट आऊँगा।’’ कह कर गुरनाम विक्की के साथ बाहर निकल गया। विक्की का घर अधिक दूर न था। गुरनाम खामोशी से चला जा रहा था। उसका मन बहुत ही विचलित था।

विक्की ने उसकी चुप्पी तोड़ते हुए कहा, ‘‘देखो गुरु, ज्यादा परेशान मत होओ। जो हो गया, सो हो गया। उसे तुम तो क्या कोई भी नहीं लौटा सकता। ये तो सोचो, केवल दुकान और उससे लगा मकान ही लुटा है। पूरा परिवार सुरक्षित है।’’

गुरनाम ने एक नज़र विक्की के चेहरे पर डाली, उसके चेहरे पर अज़ीब से भाव थे। विक्की ने उससे पहले वैसे भाव कभी न देखे थे।

कुछ देर वह पूर्ववत् मौन चलता रहा फिर बोला, ‘‘मैं केवल अपने घर के बारे में नहीं सोच रहा। मैं उन तमाम लोगों के बारे में सोच रहा हूँ, जिन्हें अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा। उन बेबस स्त्रियों के बारे में सोच रहा हूँ, जिनकी अस्मत लूट ली गई। ...तुम ठीक कह रहे हो ...मेरे पास तो माँ-पापा, भैया-भाभी सभी हैं। मैं उनके बारे में सोच रहा हूँ, जिनके पास अब कोई नहीं बचा है। उस परिवार का क्या हुआ होगा, जिसका कमाने वाला मार डाला गया हो ? ...वैसे परिवार में अगर छोटे-छोटे बच्चे बचे हुए तो उनका क्या होगा ?

...उन बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, खाना-कपड़ा ....कौन करेगा उन मासूमों की परवरिश ?’’

उसकी बातें सुन कर विक्की ने उसे समझान की गरज से कहा, ‘‘तुम कुछ ज्यादा ही भावुक हो रहे हो! कई लोग महामारी और दुर्घटनाओं में मर जाते हैं। क्या तब बच्चे अनाथ नहीं होते ?’’

‘‘नहीं विक्की, मेरे विचारों को कोरी भावुकता का नाम मत दो। वैसे भी भावुकता उतनी बुरी शै नहीं होती जितना कि तुम बता रहे हो। अनाथ बच्चों के बारे में तुम्हारा तर्क सही है। परन्तु महामारी और दुर्घटनाओं से इस कत्ले-आम की तुलना नहीं की जा सकती! यह कत्ले-आम ‘मैन मेड’ था ! कृत्रिम था !! यह कोई दुर्घटना या दंगा नहीं था। यह एक ‘जीनोसाइड’ (genocide) था ...जाति संहार !!! कुछ वैसा ही जैसा हिटलर ने यहूदियों के साथ किया था।’’

विक्की हैरानी से उसे देखे जा रहा था। गुरनाम ने बोलना जारी रखा।

‘‘अच्छा, एक छोटे-से प्रश्न का उत्तर ढूंढो तो, सिक्खों के कत्ले-आम और लूट-पाट के पीछे उद्देश्य क्या था ? अगर ‘बदला’ लिया जाना था तो वह बदला उन ताकतों से लिया जाना चाहिए था, जिन्होंने इन्दिरा गाँधी की हत्या करवाई, न कि निर्दोष और निहत्थे सिक्खों से ! विक्की यह सारा कुछ ‘पोलिटिकली मोटिवेटेड’ था। इसे ‘दंगे’ और ‘लोगों का आक्रोश’ आदि नाम तो वास्तविकता छुपाने के लिए दिये जा रहे हैं...। इसलिए अब प्रश्न यह उठता है कि राजनीतिक स्वार्थों की सिद्धी के लिए आम आदमी आखिर कब तक मोहरा बनता रहेगा ?’’

लगातार बोलते रहने और भीतर उठ रहे आक्रोश के कारण गुरनाम का गोरा-गोरा चेहरा लाल हो गया था। उस दिन वह विक्की से पहचाना नहीं जा रहा था। कहाँ तो वह मस्त-मौला गुरु जो अपने-आप में ही मगन और हँसने-हँसाने में विश्वास रखता था, कहाँ आज वैसी बड़ी-बड़ी बातें करने वाला गम्भीर गुरु !

रास्ते में सतनाम की लुटी-जली दुकान भी पड़ी थी। गुरनाम ने रुक कर एक नजर धुँए से काली पड़ गई छत और दीवारों पर डाली। पिछले कमरे की दीवारों पर उसने अपनी पसंद के कुछ कलात्मक चित्र सजाए थे। वे खाली दीवारें अब उसे किसी औरत की नंगी देह-सी जान पड़ रही थीं। वह बाहर निकल गया।

तब तक चलते-चलते विक्की का घर आ गया था।

***

कमल

Kamal8tata@gmail.com

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