Aakhar Chaurasi - 4 books and stories free download online pdf in Hindi

आखर चौरासी - 4

आखर चौरासी

चार

‘‘दुख दारु सुख रोग भया,

जा सुख तामि न होई,

तूँ करता करणां मैं नाहिं

जा हऊ करीं न होई.... ’’

गुरुद्वारे में प्रवेश करते हुये उनके कानों में गुरुबाणी की आवाज़ आई, ग्रंथी ‘रहिरास’ का पाठ आरंभ कर चुका था। वहाँ बैठी संगत हाथ जोड़े बड़ी श्रद्धा से गुरबाणी श्रवण कर रही थी। गुरुद्वारा परिसर में सबसे पहले हरनाम सिंह ने अपने जूते उतार कर ‘जोड़े घर’ (जूते रखने की जगह) में रखे, फिर हाथ–पैर-धो कर गुरुद्वारे के मुख्य हॉल के अंदर आए। गुरु की गुल्लक में पैसे डाल कर उन्होंने गुरुग्रंथ साहिब के सामने मत्था टेका और संगत में बैठ गये। गुरुद्वारे में अलौकिक शांति का अहसास था।

रहिरास पाठ की समाप्ति और अरदास के बाद हरनाम सिंह ने श्रद्धापूर्वक कड़ाह प्रसाद ग्रहण किया और मत्था टेक कर लोगों से दुआ-सलाम करते बाहर निकल आये।

गुरुद्वारे से घर लौटने के रास्ते में जगीर सिंह का दवाखाना पड़ता है। उन्होंने देखा उस समय वहां दो-चार मरीज बैठे थे। जगीर सिंह की कुर्सी खिड़की के पास रहती थी, जहां से उनकी नजर अक्सर सड़क पर गुजरते लोगों से मिलती रहती। उनसे नजर मिलते ही हरनाम सिंह ने अभिवादन किया, ‘‘सतश्रीअकाल, डॉक्टर सा’ब !’’

‘‘सतश्रीअकाल हरनाम सिंह जी कहिए क्या हाल-चाल है। गुरुद्वारे से आ रहे हैं न !’’ जगीर सिंह ने उनके अभिवादन का मुस्करा कर जवाब देते हुए पूछा।

‘‘जी हां डॉक्टर सा’ब मत्था टेक कर आ रहा हूं।’’ हरनाम सिंह बोले।

उस दिन उन दोनों के बीच बस उतना ही वार्तालाप हुआ। जब कभी दवाखाने में मरीजों की भीड़ न होती, हरनाम सिंह वहाँ बैठ कर कुछ समय जगीर सिंह के साथ गप्पें लड़ाते। उन दोनों के बीच आमतौर पर दीन-दुनियाँ की, अतीत–वर्तमान की बातें होतीं। मगर आज मरीजों की भीड़ देख कर हरनाम सिंह ने बाहर से ही अभिवादन किया और अपने घर की ओर बढ़ गये।

***

डॉक्टर जगीर सिंह कोई अँग्रेजी दवाओं के डॉक्टर नहीं थे, वे देसी जड़ी-बूटियों से इलाज करते थे। लेकिन कोलियरी में उनका वह इकलौता दवाखाना बीमारों के लिए किसी वरदान की तरह था। अगर उनका इतिहास देखा जाए तो मूलतः वे लाहौर के रहने वाले हैं। लाहौर में उनके पिता ने काफी छोटी उम्र में ही उन्हें एक हकीम जी के पास भेजना शुरु कर दिया था। बालक जगीर का सेवा-भाव और काम करने में मन लगाने से हकीम सा’ब बड़े खुश रहते थे। उनकी शागिर्दी ने धीरे-धीरे जगीर सिंह को भी जड़ी-बूटियों का अच्छा ज्ञान करवा दिया था। उन दिनों जगीर का ज्यादा समय हकीम जी के दवाखाने या फिर हकीम साहब के घरेलू कामों के लिये राबिया के साथ उनके घर पर बीतता था। हकीम सा’ब उसे पुत्रवत् मानते थे। जागीर सिंह भावी लाहौर के बड़े हकीम बनाने की रह पर थे। मगर भविष्य ने तो कुछ और ही सोच रखा था।

सन् सैंतालिस में आजादी के साथ मिले बँटवारे की नाजायज़ सौगात ने सब कुछ तहस-नहस कर दिया। जगीर सिंह के माँ-बाप और भाई-बहन सब वहीं कत्ल कर दिये गए थे। हकीम साहब के प्रयासों का परिणाम था कि जगीर जिंदा बच गया, वर्ना वह भी वहीं कहीं मर-खप गया होता। उन्होंने स्वयं जगीर के सुरक्षित लाहौर से अटारी स्टेशन, अमृतसर तक पहुँचने का बंदोबस्त किया था। चलते-चलते अपनी हस्तलिखित नुस्खों वाली किताब उसे देते हुए बोले थे, ‘‘बेटा इसे संभाल कर रखना। जो इल्म मैंने तुम्हें दिया है, उसके इस्तेमाल से बीमारों की खूब खिदमत करना। घबराना बिल्कुल भी नहीं, ‘इंशा अल्लाह’ सब ठीक हो जाएगा। हालत सुधरते ही मैं तुम्हें वापस बुला लूँगा।’’

हकीम सा’ब बस इतना ही कह पाए थे। रबिया पत्थर का बुत बने एक ओर खड़ी थी। उन सबकी भरी हुई आंखों को इतनी मोहलत भी न मिल पाई, कि वे आँसू टपका पातीं। हकीम जी ने तो कहा था, सब ठीक हो जाएगा, मगर कुछ भी ठीक नहीं हुआ था। सरहद पर खींची वो लकीरें लोगों के दिलों को भले न बाँट सकी हों, मगर उनके घरों को बाँटने में पूरी तरह कामयाब हो गई थीं। इंसानियत एक तरफ पड़ी रो रही थी और दूसरी तरफ हैवानियत पूरी ताकत से अट्टाहास कर रही थी। उस दिन के बाद जगीर अपने हकीम सा’ब से कभी नहीं मिल सका था। अटारी स्टेशन से दिल्ली, यू.पी. होते हुए उसकी किस्मत जगीर सिंह को कब-कैसे बिहार के उस अंजान कोयला-क्षेत्र में ले आई थी, यह वे भी नहीं जान पाये थे।

फ़सादों का माहौल कुछ ठीक हुआ तो उसने हकीम सा’ब को ख़त लिखे। अपनी खैरियत के साथ यह भी लिखा कि वह उनके पास लौटना चाहता है। खतों के जवाब भी आए और यह जवाब भी आया कि हालात पूरी तरह ठीक होते ही वे उसे अपने पास बुला लेंगे। जगीर के बिना न तो हकीम सा’ब का दिल लगता है ना ही राबिया का। लेकिन हालात कभी ठीक न हो पाए थे, या यों कहें कि हालात बिगाड़ने वालों ने इस बात के लिए पूरा ज़ोर लगा रखा था कि हालात कभी भी ठीक ना होने पाएँ।

फिर एक दिन राबिया का ख़त आया, ‘‘अब्बू गुजर गए।’’

राबिया का वह छोटा-सा ख़त अपने साथ ढेर सारा दर्द लेकर आया था। ख़त पर हर्फां को फैलाए धब्बे बता रहे थे कि राबिया ने वह ख़त भीगी आँखों से लिखा था। अपनी हमउम्र राबिया के साथ बचपन के बिताए दिन सुनहरे-सतरंगी सपनों की तरह जगीर सिंह की आँखों के सामने लहराने लगे थे। साथ-साथ पले बढ़े बचपनों ने शैतानियाँ करने पर साथ-साथ ही मार भी खाई थी। कभी एक-दूसरे का सामान छीन कर खाया था तो कभी एक-दूसरे को खिलाए बिना अपनी चीज भी नहीं खाई थी।

राबिया का ख़त पा कर जगीर उस दिन बहुत रोया था। उसे लगा मानों उसका अपना बाप गुजर गया है। उसने राबिया को ख़त लिखा था। मगर फिर उसका कोई जवाब नहीं आया था। पता नहीं राबिया कैसी हो ? अब तो उसने निकाह भी कर लिया होगा.....

मगर जगीर सिंह ने विवाह नहीं किया था। सारी उम्र उन्होंने बीमारों की सेवा में लगा दी। लोग कहते हैं उसके हाथों में जादू है। कई असाध्य रोगियों को भी उसकी जड़ी-बूटियों ने कुशलता से चंगा किया था। सामने दवाखाना और पीछे दो कमरों वाला उनका घर, बस इतना ही था जगीर सिंह का संसार।

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घर पहुँच कर हरनाम सिंह ने कपड़े बदले और पलंग पर बैठ गए। तब तक उनकी पत्नी सुरजीत कौर भी पानी का गिलास लिए आ गई। उससे ले कर हरनाम सिंह ने पानी पिया और गिलास वापस पकड़ा दिया। अभी तक हरीष बाबू की बातें उनके जे़हन में घूम रही थीं।

‘‘क्या बात है जी, बड़े चुप-चुप हो ?’’ सुरजीत कौर ने उन्हें टोका।

हरनाम सिंह ने गहरी नजरों से उसे देखा और बोले, ‘‘क्या बताऊँ जीतो, जमाने की हवा ठीक नहीं लगती। ये सियासत करने वाले जो ना कराएँ वही कम है।’’

‘‘क्यों क्या हुआ ? कुछ बताओगे भी या यूँ ही पहेलियां बुझाते रहोगे। अब इस सियासत को क्या हो गया ?’’ पत्नी ने व्यग्रता से पूछा।

‘‘कुछ खास तो नहीं, वो हरीष बाबू दुकान पर आए थे। कहने लगे पंजाब में उग्रवादी हिंदुओं को मार रहे हैं। इसका बदला पंजाब से बाहर रह रहे सिखों को चुकाना पड़ेगा। अजकल तो रोज ही अखबार ऐसी मार-काट से भरे रहते हैं जिसका मन करता है वही अपनी मांगें लेकर निकल पड़ता है। पता नहीं किसकी क्या-क्या मांगें हैं ? मासूमों का खून बहाने से क्या उनकी मांगें पूरी हो जाती हैं ? इन सियासत वालों का भी कुछ पता नहीं चलता, पल में तोला पल में मासा। दरबार साहिब पर अटैक से पहले तक तो राजीव भी भिंडरांवाले को सन्त कहता था। इधर ‘ऑप्रेशन ब्लू स्टार’ हुआ और उधर उसी सन्त को राजीव देश-द्रोही कहने लगा। उस रात दरबार साहिब में मत्था टेकने गए न जाने कितने निर्दोष मारे गये थे। उन मरने वालों में तो सिख भी थे और हिन्दू भी ......।

हमारी ही फौज, हमारी ही गोलियां और हमारे ही लोग ! ऐसा तो अंग्रेज ही किया करते थे। इन नेताओं का तो कभी भी कुछ नहीं बिगड़ता। सनतालिस में क्या हुआ था ? पूरे देश की जनता तो बँटवारे के खिलाफ ही थी। अगर सियासत-दां दृढ़ता से चाहते तो बँटवारा टाल भी सकते थे, मगर किसी ने नहीं चाहा। नेहरु और जिन्ना की जिद में देश को क्या मिला ? उस दिन लगी आग ऐसी भड़की कि दोनों तरफ की रुहें आज तक उसका सेक (जलन) झेल रही हैं। ये लीडरान चाहें तो अपने एक बयान से लाखों घावों पर मरहम लगा दें और ना चाहें तो लाखों लोगों को जीते-जी जला डालें। पता नहीं अब क्या होने वाला है ? हिंदू और सिखों को बाँटने का जो काम अंगरेज भी अपने दो सौ साल के राज में नहीं कर सके, वह काम सन् सैंतालिस के बाद राज करने वाले सियासतदानों ने अपने मात्र छत्तीस-सैंतीस सालों के शासन में कर डाला। न जाने ये मार-काट, घृणा-द्वेष कब खत्म होगा...? वाहेगुरु मेहर करीं....। ’’ बोलते-बोलते हरनाम सिंह अचानक चुप हो गए।

न जाने सुरजीत कौर उनकी बातें ठीक से समझी थी या नहीं, लेकिन सन् सैंतालिस का जिक्र आने पर उसकी आँखों में डर के रक्तिम बादल तैरने लगे थे। थोड़ी देर की चुप्पी के बाद वह उठते हुए बोली, ‘‘मैं तुम्हारे लिए रोटी लेकर आती हूँ। खा कर जल्दी सो जाना, रात पल्ला ड्यूटी पर भी जाना है। ज्यादा फिक्र मत करो, वाहे गुरु सब ठीक करेंगे।’’

हरनाम सिंह को उसी तरह चुप छोड़कर सुरजीत कौर खाना लाने भीतर रसोई की ओर चली गई।

***

कमल

Kamal8tata@gmail.com

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