आखर चौरासी
तीन
हरनाम सिंह दुकान की बगल में बैठे अखबार पढ़ रहे थे। उनका बड़ा लड़का सतनाम दुकान के अन्दर ग्राहकों को राशन दे रहा था। यह स्थिति उनकी दूसरा पल्ला वाली रात ड्यूटी में ही नहीं बन पाती थी, जब उन्हें शाम चार बजे से रात बारह बजे तक की शिफ्ट में काम पर जाना होता था। शेष दोनों पल्लों अर्थात् पहला पल्ला, सुबह आठ से शाम चार बजे और तीसरा पल्ला, रात बारह बजे से सुबह आठ बजे तक में वे बिना नागा शाम की चाय पी कर घर से टहलते हुए पाँच-सात मिनट में सतनाम की दुकान की राशन दुकान में जा बैठते। दुकान का नौकर उनकी कुर्सी निकाल कर अखबार दे जाता। शाम ढलने तक वे वहीं अखबार पढ़ते। फिर गुरुद्वारा जा कर मत्था टेकते, रहिरास का पाठ सुनते और रात होते-होते घर लौट आते। दुकान पर अखबार पढ़ने के दौरान कई लोगों के साथ उनकी दुआ-सलाम होती रहती। कुछ तो उन्हीं के कारण वहां नौकरी पर लगे थे। सादा जीवन जीने वाले, धार्मिक प्रवृत्ति वाले हरनाम सिंह ने कभी किसी से बदले में कुछ नहीं लिया था। उस दौर में जबकि रिश्वत लेना एक सामान्य बात और रिश्वत के पैसे ‘स्टेटस सिंबल’ बन चुके थे, उनके काम करने का तरीका दूसरों से अलग था। इसी कारण कई लोग, खासकर जिन्हें उनसे वास्ता पड़ा था, उनकी ईमानदारी के कायल थे। वे सब हृदय से उनकी इज्जत करते थे। ये वह जमाना था जब पूरे देश में बड़ी तेजी से भारत में मनोरंजन की नयी खोज दूरदर्शन का प्रचार-प्रसार शुरु हो रहा था। कुछ दूर स्थित बड़े शहर राँची में टी.वी. टावर बन कर तैयार हो चुका था और जल्द ही शुरु होने वाला था। उस कोलियरी का वह इलाका भी उस दूरदर्शन केन्द्र के प्रसारण क्षेत्र में आता था। इसलिए उस इलाके के लोग हफ्ता-दस दिनों में चालू होने वाले ‘राँची दूरदर्शन केन्द्र’ का बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। वहां के अधिसंख्य लोगों ने तब तक टी.वी. नहीं देखा था। जो लोग कलकत्ता-दिल्ली जैसे टी.वी. वाले शहरों की यात्रा कर चुके थे, केवल वे ही लोग दूरदर्शन के बारे में विस्तार से जानते थे। वैसे लोग चटखारे ले-लेकर दूसरों को टी.वी. के बारे में बताते थे। इस प्रकार सभी लोगों की उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी ...कि भला दिन की रौशनी में फिल्मे कैसे दिखाई दे सकती हैं ...सिनेमाघरों में भी तो रात जैसा अंधेरा करना पड़ता है ....फिर भला कैसे .....?
अखबार पढ़ते हरनाम सिंह को अचानक कुछ याद आया।
उन्होंने सतनाम से पूछा, ‘‘गुरनाम को इस महीने के पैसों का मनिआर्डर भेजा या नहीं?’’
सतनाम को जरा फुर्सत हुई थी, वह भी स्टूल ले कर अपने पिता के पास आ बैठा।
‘‘नहीं पापा जी, मनिआर्डर नहीं भेजा। मेरा दोस्त महादेव जा रहा था। उस का घर उसी शहर में है। पैसे उसके हाथ भेज दिए हैं। गुरनाम को तो कल ही मिल गये होंगे। मैंने महादेव से यह भी कह दिया है कि देख आये गुरनाम को कुछ और तो नहीं चाहिए।’’ सतनाम ने बताया।
‘‘अच्छा किया। पैसे समय से मिल जाएँ तो पढ़ाई में मन लगा रहता है। इस बात का ख्याल रखना’’ हरनाम सिंह बोले।
‘‘आप निश्चिंत रहें पापा जी, हमारे परिवार से एक ही तो पढ़ाई में आगे निकला है। उसका अच्छा रिजल्ट आने पर कलेजे को कैसी ठंढक मिलती है। उसकी पढ़ाई के लिए हम भले ही तंगी कर लें, उसे कोई तंगी नहीं होने देंगे। फिर हमारे पास तो वाहेगुरु जी का दिया हुआ सब कुछ है।’’ सतनाम ने जवाब दिया और उठ कर दुकान के अंदर चला गया।
शाम होने के कारण दुकान पर ग्राहकों की भीड़ बढ़ने लगी थी। वह तेजी के साथ नौकर को निर्देश देते हुए ग्राहक निपटाने लगा।
हरनाम सिंह ने घड़ी देखी गुरुद्वारा जाने में अभी समय है, वे अखबार पढ़ने में लीन हो गये।
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अभी उन्होंने अखबार में नजरें गड़ाई ही थीं कि कानों में आवाज पड़ी, ‘‘नमस्कार हरनाम सिंह जी, कैसे हैं ?’’
अभिवादन सुन कर उन्होंने सर उठाया तो सामने हरीष बाबू दिखे। गंजा सर, ठिगना कद, भारी बदन और साँवले से गाढ़ा हो कर काले को सरकते रंग वाले हरीष बाबू खादी का सफेद कुर्ता-पाजामा पहने उनके सामने खड़े थे। उनकी चमकती गंजी खोपड़ी और खुले मुँह से तम्बाखू खाये काले दाँत, दोनों चीजें साफ-साफ नजर आ रही थीं। वह व्यक्ति सदा ही किसी न किसी तिकड़म में लगा रहता था। कहते हैं ऐसे लोगों की न दोस्ती भली न दुश्मनी। हरनाम सिंह को वह आदमी कभी भी अच्छा नहीं लगा था।
‘‘नमस्कार हरीष बाबू, आइए...आइए। आज बड़े दिनों बाद दिखे, आप कैसे हैं ?’’ हरनाम सिंह ने अपने मनोभावों को नियंत्रित कर मुस्कुराते हुए जवाब दिया।
‘‘हम भी ठीक हैं। जरा नेता जी सुरेन्दर बाबू के यहाँ जा रहे थे। आपको अखबार पढ़ते देखा तो सोचा हाल-चाल पूछता चलूँ एही खातिर इधर मुड़ गए। आज का खास खबर का है ?’’ हरीष बाबू ने उनके हाथ में थमे अखबार की ओर इशारा करते हुए पूछा।
‘‘क्या खबर होगी हरीष बाबू, वही रोज-रोज की मार-पीट, चोरी-चमारी की खबरें भरी पड़ी हैं। वो तो उम्र भर की आदत से मजबूर हूँ, इसलिए अखबार ले बैठता हूँ। वर्ना सच मानिए, आज-कल अख़बार पढ़ने को मन नहीं करता।’’ हरनाम सिंह ने उनकी तरफ स्टूल खिसकाते हुए बैठने का इशारा किया।
‘‘ऊ बात तो आप ठीके कह रहे हैं।’’ हरीष बाबू स्टूल पर बैठ गये, ‘‘बकि हम तो पूछ रहे हैं कि पंजाब का का हाल है ? आज वहां कितने हिन्दुओं को मारा गया ? पंजाब का खबर तो आप पूरे ध्यान से पढ़ते होंगे न !’’
हरीष बाबू का प्रश्न हरनाम सिंह को बड़ा असुविधाजनक लगा। कुर्सी पर पहलू बदलते हुए वे बोले, ‘‘भई सिर्फ पंजाब ही क्यों, मैं तो सारी दुनियां की ही खबरें पढ़ता हूँ। मार-काट तो सारी दुनियां में ही मची हुई है। वहाँ की .....’’
‘‘मगर पंजाब का तो बतवे ही कुछ और है न।’’ हरीष बाबू ने उनकी बात काटते हुए कहा, ‘‘अभी कुछ दिन पहले ही खबर थी कि वहाँ एक बस से सब हिन्दू यात्रियों को उतार कर मार दिया गया, सिखों को छोड़ दिया गया। बताइये ई ठीक है क्या ? पंजाब में ऐसा तो नहीं न होना चाहिए।’’
हरनाम सिंह उस प्रकार के कुतर्कों से असहज महसूस कर रहे थे । वे इस अप्रिय बहस को जल्द से जल्द खत्म कर देना चाहते थे। परन्तु लग रहा था, हरीष बाबू उस दिन पूरी तैयारी से उन्हें घेरने आये हैं।
‘‘मगर असल बात तो आप बताना भूल ही गए हरीष बाबू ! उसी बस में एक सिख उन उग्रवादियों के सामने सीना तान कर खड़ा हो गया था कि गोली चलानी है तो पहले मुझ पर चलाओ। क्या उग्रवादियों ने उसे छोड़ दिया था ? नहीं न, उसे भी मार डाला। आप यह बात बताना क्यों भूल गये ?’’
हरनाम सिंह के जवाब से हरीष बाबू जरा झेंप गये। लेकिन उन्होंने पुनः कुतर्क किया, ‘‘ऊ तो एके ठो सिख न मरा। बाकि कितना हिंदू वहां रोज मर रहा है।’’
‘‘तो आप क्या चाहते हैं उतनी ही गिनती में सिखों को भी मार डाला जाए ? आप उन्हें हिंदू या सिख के रुप में क्यों देख रहे हैं ? उन्हें इंसानों के रुप में क्यों नहीं देखते ? वहाँ बेक़सूर इंसान मर रहे हैं हरीष बाबू !’’ हरनाम सिंह का जवाब इस बार भी उनके गले से नहीं उतरा था।
‘‘आपकी बात भी ठीके है। लेकिन इतना महीन बात तो सब कोई नहीं न समझेगा। सब को तो यही लगता है कि पंजाब में सिख उग्रवादी लोग हिंदुओं को मार रहे हैं, जो ठीक नहीं हो रहा है।’’ हरीष बाबू ने अपनी बात पर अड़ते हुए कहा।
‘‘देखिए हरीष बाबू, आप जैसे समझदार नेता भी इन बातों को सतही तौर पर लेंगे तो आम आदमी क्या करेगा ? आपको तो सारी चीज़ों को विस्तृत नजरिये से देखना चाहिए और सभी गलत बातों की मुखालफत करनी चाहिए। उग्रवादी हिंसा की जड़ें तलाश कर उसे काटने की बात करनी चाहिए। इसकी गलत व्याख्या से तो चीजें और बिगड़ती चली जाएंगी न !’’
पासा उलटा पड़ता देख कर हरीष बाबू उठ खड़े हुए।
‘‘ऊ बात तो ठीके है। बाकि हम अकेले क्या कर सकते हैं ? आजकल तो सभी जगह उग्रवादियों की ही बातें होती रहती हैं। नेताजी सुरेंदर सिंह के घर की बैठकी में भी यही चर्चा है। पंजाब में जो कुछ हम हिंदुओं पर हो रहा है, वह ठीक नहीं हो रहा। सिखों को सोचना चाहिए कि पंजाब के बाहर भी सिख रहते हैं। कहीं बदले में वैसा ही सब कुछ बाहर के सिखों के साथ होने लगा, तब क्या होगा ? अच्छा अब हम चलते हैं, नेताजी के यहां बैठकी जुटने लगी होगी।’’ कह कर हरीष बाबू अपना खादी का सफेद कुर्ता-पाजामा लहराते हुए एक ओर चल दिए। शाम के धुंधलके में ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों एक बड़ा-सा फुटबॉल गुड़कता हुआ चला जा रहा है।
हरनाम सिंह ने भी एक नजर अपनी कलाई घड़ी पर डाली और उठ खड़े हुए।
‘‘वे रब्बा मेहर कर...’’ एक ठंढी सांस के साथ उनके मुंह से निकला। फिर वे मन ही मन ‘सतनाम वाहेगुरु’ का जप करते गुरुद्वारे की ओर चल दिए।
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कमल
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