आखर चौरासी - 10 Kamal द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आखर चौरासी - 10

आखर चौरासी

दस

घर पर हरनाम सिंह की पत्नी काफी चिन्तित थी। जैसे ही वे घर में घुसे, वह रसोई से निकल कर उनके पास आ गई।

‘‘आज तो आपको जल्दी घर आ जाना चाहिए था। हम सबको बड़ी चिन्ता हो रही थी। मैं तो सतनाम से कह रही थी कि आपको देख आए।’’ सुरजीत कौर चिन्तित स्वर में बोली।

‘‘अरे भलिये लोके, फिकर की कोई बात नहीं थी। मैं ज़रा अपने जगीर सिंह के पास बैठ गया था। आज उनसे बहुत सारी बातें हुईं। बस इसी में ज़रा देर हो गई।’’ हरनाम सिंह ने अपनी पगड़ी उतार कर खूँटी पर टाँगते हुए कहा।

‘‘चिन्ता की बात कैसे नहीं है जी ? बाहर लोग कैसी-कैसी बातें कर रहे हैं । सतनाम भी इसीलिए दुकान जल्दी बन्द कर घर आ गया।’’ सुरजीत कौर की चिन्ता अभी तक कम नहीं हुई थी।

सर पर पटका लपेटते हुए तब तक सतनाम भी वहाँ आ गया। वह उन्हें देखने बाहर जाने वाला था। उन्हें घर लौट आया देखकर वह बोला, ‘‘मैं तो बी’जी से कह रहा था, फिकर मत करो पापा जी आ जाएँगे। मगर ये मानती ही न थीं, इसीलिए मैं आपको देखने निकलने वाला था।’’

‘‘अरे इसकी तो आदत ही है चिन्ता करने की। तुम बताओ दुकान जल्दी क्यों बन्द कर दी ?’’ हरनाम सिंह ने पूछा।

‘‘बाज़ार की कुछ दुकानें बन्द हो गई थीं, उनकी देखा-देखी मैंने भी अपनी दुकान बन्द कर दी। लोग कह रहे थे, कल भी बाज़ार बन्द रहेगा।’’ सतनाम ने बताया।

‘‘पीछे वाले कमरों में ताला लगा दिया था न ?’’ हरनाम सिंह ने पूछा ।

‘‘जी।’’

घर पर मेहमानों और शादी की रौनक का माहौल बना हुआ था। जिससे घर पर जगह की कमी होने के कारण सतनाम की शादी में मिला दहेज और उपहारों का सारा सामान वहीं दुकान के पीछे वाले कमरों में रखा गया था। शादी की गहमा-गहमी खत्म होने के बाद वह सामान घर पर लाया जाना निश्चित हुआ था, तब तक के लिए सामान उन कमरों में रखवा दिया गया था जो दुकान के साथ ही रहने के लिए बनाए गए थे।

भीतर से आकर हरनाम सिंह के साले साहब और उनकी पत्नी भी वहाँ बैठ गए।

‘‘जीजा जी, हम लोग आज रात को ही धनबाद वापस लौट जाना चाहते हैं।’’

‘‘ऐसी भी क्या जल्दी है, अवतार सिंह जी। अभी और दो-चार दिन रुक जाइये।’’ हरनाम सिंह ने अपने साले सा’ब की बात सुन कर कहा।

‘‘रुकने को तो हमारा भी मन है। लेकिन इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद बिगड़ रहे माहौल से कुछ ठीक नहीं लग रहा। वहाँ घर पर बड़ा बेटा फिक्र कर रहा करेगा।’’ अवतार सिंह ने कहा।

उनकी बात सुन कर हरनाम सिंह भी सोच में पड़ गये। अवतार सिंह खाते-पीते घर के थे। वहाँ धनबाद में उनका मोटर गैरेज का काम अच्छा चलता था। वे अपनी पत्नी, छोटे बेटे-बहु और पाँच साल के पोते के साथ सतनाम की शादी में शरीक होने आये थे। वहाँ अपने काम की व्यस्तताओं के कारण वे काफी अर्सा बाद हरनाम सिंह के घर आये थे। उस पर शादी वाला घर और अपने जीजा जी का आग्रह, उन्हें वहाँ कुछ अधिक दिन ही रुक जाना पड़ा था। हरनाम सिंह को भी लगा कि अवतार सिंह के लौटने की बात ठीक है।

‘‘ठीक है चले जाना। मगर रात को ही जाने की दिक्कत क्यों उठाते हो ? कल भोर में चले जाना।’’

‘‘नहीं जीजा जी, अब हमें आज ही निकलने दीजिए। फिर दिक्कत कैसी, अपनी कार से जाना है। छः-सात घण्टों का सफर है, भोर होने तक तो हमलोग अपने घर पहुँच जाएँगे।’’ अवतार सिंह ने उन्हें अपना प्रोग्राम बताते हुए कहा।

‘‘ठीक है जैसी आपकी इच्छा।’’ फिर हरनाम सिंह अपनी पत्नी से बोले, ‘‘जीतो, जल्दी से रोटी-वोटी बना लो। अच्छी तरह खाना खिला कर भेजना। अपने बेटे की शादी की है, विदाई का शगुन जरा हाथ खोल कर देना।’’

‘‘रोटी अभी तैयार हो जाती है, जी।’’ कहती हुई सुरजीत कौर तेजी से रसोई की तरफ चल दी।

रसोई में मनजीत कौर और अवतार सिंह की बहू पहले से ही खाना बनाने में व्यस्त थीं। अवतार सिंह की पत्नी भीतर जा कर अपना सामान ठीक करने लगीं।

बाहर शाम से लगातार ढलने वाली रात कुछ और गहरी हो चुकी थी। ....बाहर जाड़े की ठण्ढी हवाओं का नश्तर रफ्ता-रफ्ता तेज होता जा रहा था।

***

रात का खाना खत्म होने तक दस बज चुके थे। लगभग ग्यारह बजे हरनाम सिंह ने उन्हें कार पर विदा किया।

‘‘बहन जी आप कोई फिक्र ना करें, हम लोग सुबह चार-पाँच बजे तक अपने घर पहुँच जाएंगे।’’ अवतार सिंह की पत्नी ने सुरजीत कौर से गले लगते हुए कहा था।

हरनाम सिंह ने खिड़की से अपना हाथ अन्दर डाल कर अवतार सिंह का कंधा थपथपाया था, ‘‘गाड़ी आराम से ड्राइव करना। हड़बड़ाने की कोई जरुरत नहीं है।’’

...और इस तरह अवतार सिंह का परिवार अपनी कार में बैठ कर अपने घर कि ओर चल दिया था। उन्हें अपने घर पहुँच जाने की जल्दी थी, भोर होने से पहले-पहले उनका अपने घर पहुँच जाना नितान्त आवश्यक था।

एक अजीब-सा बोझिलपन लिए हरनाम सिंह का परिवार घर के भीतर आ गया। बाहर की रात बहुत काली थी। हर बीतते हुए पल के साथ पूरे देश में आशंकाएं बढ़ती जा रही थीं। न जाने कल क्या होगा......?

***

अपना रोज का काम निपटा कर डॉक्टर जागीर सिंह बिस्तर पर जा लेटे, लेकिन उन्हें उस रात रोज की तरह सहजता से नींद नहीं आ रही थी। उस रात उनके अतीत की यादें उन्हें घेरे साथ-साथ बिस्तर पर चली आई थीं। कभी लाहौर, कभी उनके माता-पिता, कभी हकीम साब, तो कभी रबिया और इन सबसे जुदा बाँटवारे के समय हुये उन फ़सादों की विभीषिका .....। फिर उन्हीं विचारों मे डूबते-उतराते न जाने कितनी रात गए उन्हें नींद आई थी।

पिता के आदेशानुसार घर से वह बालक सच्चा सौदा करने निकला था। पिता ने व्यापार हेतु बीस रुपये देते हुए उसे समझाया था कि सच्चा सौदा करना, जिसमें ढेर सारा मुनाफा हो। इसलिए जब उस बालक ने व्यापार के लिये मिले उन रुपयों से भूखे साधुओं को मुफ्त भोजन कराना प्रारंभ किया तो जगीर सिंह के होश उड़ गये। वे घबराये, अगर बालक ने सारे पैसे साधुओं को मुफ्त खिलाने में खर्च दिये तो घर लौट कर अपने पिता को क्या कहेगा ? ....उन्होंने आगे बढ़ कर बालक को रोकना चाहा, लेकिन न तो उनके मुँह से आवाज निकाली न ही उनके पांव हिले। उन्होंने बोलने के लिये फिर कोशिश करनी चाही, परन्तु वे कुछ कह पाते उसके पूर्व ही उन्हें आभास हुआ कि वह तो पन्द्रहवीं शताब्दी के अंतिम वर्ष की घटना है। वे अपने समय से लगभग पाँच सौ वर्ष अतीत में पहुँच गये थे I फिर यह सोच कर कि घर लौटने पर बालक अपने पिता के क्रोध का सामना करेगा, उन्होंने एक बार फिर से चीख कर उस बालक को रोकना चाहा था। परन्तु उनके गले से कोई आवाज़ ही नहीं निकली, जगीर सिंह हैरान कि उनकी आवाज़ को क्या हो गया ? लेकिन तुरन्त ही वे समझ गये कि वह तो उनका समय नहीं है, अतीत के समय में वे कैसे बोल सकते हैं ?

एक तरफ वे कुछ भी नहीं कर पा रहे थे और दूसरी तरफ उनके सामने मुस्कराता हुआ बालक भूखे साधुओं को भोजन करा रहा था। बालक की उस मुस्कान में अलौकिक चमक थी। भोजन कर तृप्त हुए हाथ बालक को आशीर्वाद देते अपनी राह चले गये। ...और वह बालक पुलकित मन से अपने घर की ओर लौट पड़ा ।

जगीर सिंह की नींद खुल गई, उनका सपना टूट गया था। वह तो गुरु नानक देव जी के बचपन के कौतुक का स्वप्न देख रहे थे।

‘वाहे गुरु .... वाहे गुरु करते’ जागीर सिंह उठ बैठे। उन्होने दीवार पर टंगी गुरुओं की फोटो को शीश नवाया, बिस्तर से उतार कर पनि पिया और वापस बिस्तर पर आ लेटे ।

कुछ देर करवटें बदलने के बाद फिर नींद ने उन्हें पुन: आ घेरा ।

***

कमल

Kamal8tata@gmail.com