आखर चौरासी - 9 Kamal द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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आखर चौरासी - 9

आखर चौरासी

नौ

हरनाम सिंह जब डॉक्टर जगीर सिंह के दवाखाने के सामने से गुजरे तो उनकी नज़रें स्वतः ही खिड़की की ओर मुड़ गईं। बल्ब की पीली रोशनी में जगीर सिंह अपने टेबल पर झुके कुछ पढ़ रहे थे। दवाखाने में कोई मरीज नहीं था। एक पल को हरनाम सिंह ने कुछ सोचा फिर सीढ़ियाँ चढ़ कर दवाखाने में दाखिल हो गए।

‘‘सतश्रीअकाल डॉक्टर सा’ब !’’

जगीर सिंह का ध्यान भंग हुआ, उन्होंने सर उठाया। हरनाम सिंह को देख कर एक मुस्कान उनके चेहरे पर खिल आई।

‘‘सतश्रीअकाल हरनाम भाई जी, आइए-आइए कैसे हैं। तबीयत तो ठीक है ?’’ जगीर सिंह ने उनका स्वागत किया।

‘‘जी हाँ डॉक्टर सा’ब, तबीयत तो बिल्कुल ठीक है। आपको खाली देखा तो चला आया ।’’ हरनाम सिंह कुर्सी पर बैठते हुए बोले, ‘‘इतने ध्यान से क्या पढ़ाई हो रही है ?’’

बैठते-बैठते हरनाम सिंह ने देखा, बड़े जतन से संभाल कर रखी हुई, वह काफी पुरानी उर्दू भाषा में हस्तलिखित किताब थी। जगीर सिंह ने टेबल पर पड़ी उस किताब को हौले से बन्द करते हुए मत्था टेका और उठा कर आँखों से लगाया। उनकी आँखों में श्रद्धा थी।

‘‘यही तो है मेरी जिन्दगी। मेरे हक़ीम सा’ब की लिखी हुई किताब। इसमें उन्होंने कई बीमारियों के बारे में बड़ी तफसील से लिखा है। नुस्खों के बारे में एक-एक बात लिखी है। जड़ी-बूटियों को पहचान कर उन्हें इकट्ठा करने से लेकर दवा बनाने तक की सारी विधियाँ इसमें हैं। हक़ीम सा’ब के हाथों में तो जैसे जादू था। वे बड़े महान थे। दूर-दूर तक उनकी बड़ी शोहरत थी। दूर-दूर से मरीज अपना इलाज कराने उनके पास आते थे। शायद ही कोई ऐसा मरीज हो जो उनके इलाज से चंगा न हुआ हो। यह किताब उन्होंने मेरे लिए लिखी थी। उनको कोई बेटा नहीं था। बस एक ही बेटी थी, राबिया। कहते थे उनके बाद मुझे ही तो उनका दवाखाना संभालना है। राबिया की माँ बचपन में ही गुज़र गई थी। हक़ीम सा’ब अपनी पत्नी से बेपनाह मुहब्बत करते थे इसीलिए पत्नी की मौत के बाद भी उन्होंने दूसरा निकाह नहीं किया....’’ बोलते-बोलते जगीर सिंह न जाने कहाँ खो गए।

हरनाम सिंह भी चुप-चाप बैठे रहे। उन्होंने टोकना उचित न समझा। कुछ पलों के मौन उपरान्त जगीर सिंह स्वतः ही वर्तमान में लौट आए।

‘‘अरे मैं भी क्या-क्या ले बैठा। आपने किताब के बारे में पूछा और मैं पूरी राम कहानी ही सुनाने लग गया।’’ उनके चेहरे पर क्षमायाचना के से भाव थे।

‘‘नहीं... नहीं आप चुप क्यों हो गये, बताइए न फिर क्या हुआ ? मुझे अच्छा लग रहा है।’’ हरनाम सिंह ने उनका संकोच दूर करते हुए कहा।

गुरुद्वारा जाने के रास्ते में हरीष बाबू और गोपाल चौधरी से हुई बातों के कारण उनका मन बड़ा उदास-सा हो गया था। अब डॉक्टर सा’ब की बातों से उन्हें अपने मन पर छाई उदासी कुछ कम होती-सी लग रही थी। इसलिए वे वह क्रम टूटने नहीं देना चाहते थे।

कुछ पलों की चुप्पी के बाद जगीर सिंह ने अपना मौन भंग किया, ‘‘तब कोई नहीं जानता था कि सन् सैंतालिस की आजादी अपने साथ बंटवारे का वैसा तूफान लेकर आएगी। एक ऐसा तूफान जो रिश्ते-नाते, प्यार-मुहब्बत सब कुछ खून में डुबो कर हर चीज को नेस्तनाबूद कर देगा। हकीम सा’ब तो देवता आदमी थे, बस एक ही धर्म जानते थे इंसानियत और एक ही रिश्ता मानते थे मुहब्बत। उन्होंने कभी मुझे गैर नहीं माना था। वे कभी मुझे खुद से अलग करने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे। परन्तु जब उन्हें मेरे घर वालों के कत्ल की ख़बर मिली तो वे सब्र ना कर सके और उन्होंने मुझे खुद से अलग करने का फैसला लेने पर मजबूर होना पड़ा। उस फैसले की तकलीफ ने उन्हें भीतर ही भीतर तोड़कर रख दिया। हकीम सा’ब बीमारियों का तो इलाज कर सकते थे, परन्तु बँटवारे से उपजी हैवानियत का उनके पास कोई इलाज नहीं था। अगर आज मैं जिन्दा हूँ तो बस उन्हीं की बदौलत।’’ कहते-कहते जगीर सिंह की पलकें भींग गईं। थोड़ा रुक कर वे बोले, ‘‘हैवानियत के उस दौर में मैं, हकीम सा’ब और राबिया, तीनों अपने-अपने जख्मों के साथ छटपटा रहे थे... मगर तब भी उन्हें मरीजों का ख्याल था। अलविदा कहते हुए यही किताब उन्होंने मुझे दी थी और बोले, बेटा मरीजों की सेवा ही खुदा की खिदमत है। मरीजों को जितना ही मन लगा कर ठीक करोगे, खुदा उतना ही तुमसे खुश होगा। आज भी जब मैं इस किताब को पढ़ता हूँ, लगता है हकीम सा’ब मेरे सामने बैठे हैं। उनकी बातें मेरे कानों में गूँजने लगती हैं....’’ बोलते-बोलते जगीर सिंह फिर कहीं खो गए।

‘‘... और राबिया ? राबिया का क्या हुआ ?’’ हरनाम सिंह अपनी तीव्र उत्सुकता नहीं दबा सके।

उन्होंने नोट किया, राबिया के जिक्र से एक पीड़ा-सी जगीर सिंह के चेहरे पर फैलती चली गई। थोड़ी देर वे उसी तरह खामोश बैठे रहे। फिर चेहरे से पीड़ा की लकीरें धुंधली होते हुए ओझल हो गईं। उनका स्थान एक दर्द भरी मुस्कान ने ले लिया था।

‘‘वो तो झल्ली (दीवानी) थी। विदा होते समय कह रही थी, तुमसे दूर रह कर तो जी लूँगी, लेकिन तुम्हारे बाद नहीं जी सकूंगी। खुदा जाने तुम कहाँ पहुँचो, लेकिन मुझे इतना ही सुकून काफी है कि तुम जिन्दा हो। हरनाम सिंह जी, हमारी मुहब्बत सच्ची थी। इतनी सच्ची कि मैं उसके लिए मुसलमान बन सकता था और वह मेरी खातिर अमृत छकने को तैयार थी। हम दोनों में बस यही एक कमी रह गई थी कि हमारी मुहब्बत सच्ची थी। सच्ची थी इसीलिए तो हम भी जुदा हो गए, इस दुनिया की हर सच्ची मुहब्बत की तरह। इस दुनिया में सच्ची मुहब्बत भी कभी परवान चढ़ी है भला ....?’’

जगीर सिंह बार-बार कहीं खो जाते। अतीत का तिलिस्मी जंगल होता ही बहुत घना है। हर मोड़ पर एक नया तिलिस्म, हर कदम पर एक नयी भूल-भूलैया अपनी बांहें फैलाए प्रतीक्षा करती मिलती है। किसी को भी नजर अंदाज कर आगे बढ़ जाना मुश्किल हो जाता है। अतीत के जंगल में एक बार प्रवेश कर जाने वाला शख्स उन भूल-भूलैयाओं, उन तिलिस्मों से बचे भी तो कैसे ?

मगर इस बार हरनाम सिंह को टोकने की जरुरत नहीं पड़ी। जगीर सिंह अपनी बात जारी रखते हुए बोले, ‘‘....तब से बस यही किताब मुझे सुकून देती है। जब भी मेरा कोई मरीज ठीक होता है, मुझे लगता है मानो हकीम सा’ब आशीर्वाद दे रहे हैं।’’ जगीर सिंह के चेहरे पर मुस्कान के साथ हकीम सा’ब के लिए श्रद्धा के भाव थे।

डाक्टर जगीर सिंह की बातों ने हरनाम सिंह के मन को गहराई तक भिंगो दिया था। वे मन ही मन उन भावनाओं को हौले–हौले सहलाते रहे, जिनसे उनका भावुक मन बार-बार जगीर सिंह की तकलीफों को अपना बना रहा था।

‘‘आज यहाँ मरीज नहीं थे, इसीलिए आपसे इतनी बातें करने का अवसर मिल गया। हमने तो बंटवारे के वे दिन दूर से ही देखे-सुने हैं। अमृतसर में ही पैदाइश और परवरिश हुई। फिर रोजी-रोजगार की तलाश यहाँ खींच लाई। अगर आज भी आपके दवाखाने में भीड़ होती तो मैं बाहर ही बाहर चला जाता और आपसे इतनी विस्तृत बातें नहीं हो पातीं। अच्छा अब इजाजत दीजिए।’’ हरनाम सिंह ने उठने का उपक्रम किया।

‘‘हाँ, आपने ठीक ही कहा, आज शाम से ही मरीज नहीं आये। पता नहीं क्या बात है। वेसे तो मैं दुआ करता हूँ, कोई बीमार ही ना पड़े।’’ जगीर सिंह हँसते हुए बोले, ‘‘आप लोग तो सोचते होंगे कि डॉक्टर मरीजों की संख्या बढ़ने की दुआ माँगते रहते हैं।’’

‘‘कुछ दवाखाने के बाहर की भी खबर रखा कीजिए।’’ हरनाम सिंह बोले, ‘‘इन्दिरा गांधी नहीं रहीं। सारे लोग टी.वी. के आगे बैठे होंगे। माहौल कुछ ठीक नहीं लग रहा। इस तरह की बातें फैलाई जा रही हैं कि सिक्खों ने इन्दिरा की हत्या कर दी।’’

‘‘ये आप क्या कह रहे हैं ?’’ जगीर सिंह ने चौंकते हुए कहा, ‘‘हत्या के लिए सिक्खों को दोष क्यों ? भई, अपने देश की राजनीति जितनी गन्दी हो चुकी है, उसमें तो कोई भी किसी को मार सकता है। आज की राजनीति में तो बस मार-काट ही बची है। असल नेता तो पहले हुआ करते थे, जो जनता पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने को सदा ही तत्पर रहते थे। लाला लाजपत राय, महात्मा जी, सरदार पटेल, बोस, भगत सिंह, आजाद कहाँ हैं अब वैसे नेता ? आज के नेताओं को तो बस गद्दी चाहिए, घूस चाहिए। इन लोगों ने राजनीति को सेवा नहीं, पैसे कमाने का धंधा बना लिया है। ऐसे नेताओं के कारण कभी-कभी तो लगता है, इससे अच्छा अंगरेजों का ही राज था।’’

‘‘आपका कहना बिल्कुल ठीक है।’’ हरनाम सिंह उनकी बातों से सहमत होते हुए बोले।

जब उन्होंने हरीष बाबू और गोपाल चौधरी से हुई अपनी बातचीत जगीर सिंह को बताई तो उनकी आँखों में विस्मय छा गया।

‘‘वे दोनों ऐसा बोल रहे थे ? ऐसा नहीं होना चाहिए, उन्हें ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए। ऐसी ही बातें आगे चल कर आग का रुप ले लेती हैं। ऐसी आग जो मानवता को जला डालती है, घरों को फूँक देती है।’’ उन्होंने चिन्तित स्वर में कहा।

‘‘अच्छा डॉक्टर सा’ब चलता हूँ। सतश्री अकाल !’’ कहकर हरनाम सिंह उठ कर खड़े हुए।

‘‘सतश्री अकाल।’’ जगीर सिंह ने बुझे मन से जवाब दिया और चुप हो गए। उनके ज़ेहन में शायद सन्‌ सैंतालिस के बँटवारे की खूनी यादें तांडव करने लगीं थीं।

***

कमल

Kamal8tata@gmail.com